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डॉलर की बढ़ती आवक से उत्पन्न समस्याएं पर निबंध | Essay on Problems Caused by Rising Dollar Inflows in Hindi!

भारत सरकार एवं भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) डॉलर की बढ़ती आवक से त्रस्त है, क्योंकि इस आवक से देश की बैंकिग प्रणाली में रूपए का फैलाव (प्रवाह) बढ़ रहा है । अच्छे मानसून के बाद भी देश में उपभोक्ता माँग व औद्योगिक निवेश में आई कमी की वजह से रूपए की बढती विनिमय (एक्सचेंज) दर ऊँची है जो कि डॉलर की बाढ़ एवं मुद्रास्फीति का कारक है ।

स्थिति से निपटने के लिये सरकार व रिजर्व बैंक को नई नीतियों व आर्थिक उदार कार्यक्रमों का सहारा लेना चाहिए, किन्तु वैसा कुछ करने के बजाय उसने पुराने व अधूरे कदम उठाए हैं जिनसे देश के व्यावसायिक बैंकों का मुनाफा तो बढ़ा, किन्तु इन्फ्रास्ट्रक्चर (बुनियादी संरचना) रियल एस्टेट एवं निर्यात, आईटी, फार्मा, आदि क्षेत्र छोटे-बड़े उद्यमो की लागत बढेगी व उनकी बैलेंस शीट प्रभावित होगी ।

उन्हें विदेशी पूँजी बाजार के सस्ते कर्ज के बजाय देश की बैंको से महँगे ब्याज के कर्जो पर निर्भर रहना होगा । इससे बैंकों के निवल ब्याज मार्जिन (एन आई एम) एवं लाभप्रदता में सुधार आएगा, किंतु उद्योगों का क्या?

देश में डॉलर की आवक बढ़ने के चार प्रमुख कारणों में पहला है, एफ आई आई । देश के शेयर बाजार से अच्छी कमाई के लालच में विदेशी निवेशक संस्थाएं देश में डॉलर लाते हैं । इसके बाद डॉलर की आवक होती है अनिवासी भारतीयों से । देश में बैंक जमा दर ऊँची (विश्व की तुलना में) होने से वह अपनी विदेश में हुई कमाई की बचत भारतीय बैंकों में जमा कराते हैं ।

विदेशी कंपनियाँ भारत के औद्योगिक क्षेत्र से होने वाली अच्छी कमाई से आकर्षित होकर देश के उद्योगों में जोरदार निवेश करने हेतु भारी पैमाने पर डॉलर लाती है । इसके साथ ही ईसीबी (देश की कंपनियों द्वारा विदेशी पूँजी बाजार से भारत की तुलना में सस्ती ब्याज दर पर उधार जुटाना) एवं एफसीसीबी (भारतीय कंपनियों द्वारा विदेशी निवेशकों को बाण्ड जारी कर कोष जुटाना । कुछ समय बाद वह बाण्ड कंपनी के शेयरों में बदले जाते हैं) भी विदेशी मुद्रा के प्रमुख स्त्रोत हैं ।

सरकार व रिजर्व बैंक अनिवासी भारतीयों (एनआरआई) एवं एफडीआई से होने वाली डॉलर की आवक पर रोक लगाने के पक्ष में नही है, क्योंकि ये दोनों भारत के प्राण है एवं उन पर रोक लगाने का मतलब है कि अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना । एफआईआई से होने वाले डॉलर की आवक पर थाईलैंड एवं नीदरलैंड ने कुछ रोक लगाई है ।

उसी तरह चीन ने एफआईआई के बेचने पर ‘लॉक इन पीरियड’ का प्रतिबंध लगाया है किन्तु, भारत वैसा कुछ नही करना चाहता, इसलिये अन्तत: उसने ईसीबी से होने वाली डॉलर की आवक को कम करने का प्रयास किया है, कुछ रोक लगाकर ।

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ऐसा करके दो निशाने साधे गए हैं । देश के व्यवसायिक बैंकों ने जमा रकमें खूब एकत्र कर ली एवं उनका प्रवाह भी खूब बढ़ा हुआ है । किन्तु देश में ऊँची ब्याज दर की वजह से बैंकों के कर्जो की माँग औद्योगिक क्षेत्रों में कम है । इसलिये उसने देश से सभी छोटे व बड़े उद्योगों के लिये विदेशी पूँजी बाजार से सस्ती कर्ज जुटाने का मार्ग सँकरा कर लिया है । इससे देश से उद्योग, देश के बैंकों से अधिक कर्ज लेने के लिये बाध्य होंगे एवं देश में डॉलर की आवक घटेगी । इसके अलावा अगर डॉलर की आवक घटती है तो रूपए की विनिमय दर कुछ कमजोर पड़ेगी ।

ऐसा होने पर बैंकों का प्रवाह व मुद्रास्फीति की दर भी घटी हुई रहेगी, जोकि औद्योगिक विकास के लिये जरूरी है । ऐसा करके सरकार ने यह नहीं सोचा कि देश के उद्योगों की लागत बढ़ेगी एवं उनके लिये विदेशी प्रतिस्पर्धा में टिके रहना कुछ मुश्किल हो जायेगा और अंतत: जीडीपी की दर घटेगी, क्योंकि उद्योगों की बैलेंस शीट में पारदर्शिता घटेगी ।

वर्ष 2006-07 में देश के उद्योगों ने विदेशी पूँजी बाजार से 3200 करोड़ डॉलर के विदेशी कर्ज जुटाए थे एवं इन कर्जो की वृद्धि दर जीडीपी की दर से भी 2.1 प्रतिशत अधिक रही थी, किंतु अब इस दर में गिरावट आएगी और उसका विपरीत असर औद्योगिक निवेश पर भी पड़ेगा । एफसीसीबी से वर्ष 2006-2007 में उसके पिछले वर्ष की तुलना में 69 प्रतिशत अधिक कोष भारतीय कंपनियों ने जुटाया था, अब इसकी वृद्धि दर भी घटकर 30-35 प्रतिशत, रह जाने की आशंका है ।

भारतीय रिजर्व बैंक व सरकार ने ईसीबी पर दो तरह की रोक लगाई है । अभी तक देश की कंपनियों लंदन इटर बैंक उधार द (लाईबर) की ब्याज दर से 25 प्रतिशत अधिक ब्याज देकर जुटा रही थी. किंतु अब यह प्रतिबंध लगा दिया गया है कि वह लाईबर को दो प्रतिशत से अधिक ब्याज न दें । यह रोक 3 से 5 वर्ष हेतु लिए उधार पर है । 5 वर्ष या अधिक उधार पर लाईबर से 2.50 प्रतिशत अधिक ब्याज न दें जबकि अभी तक 3 प्रतिशत अधिक ब्याज दर उधार लिया जा सकता था ।

इसके साथ ही अगर कोई कंपनी दो करोड़ डॉलर से अधिक के कर्ज विदेश से लेती है तो उसे वह रकम विदेश में रखनी एवं खर्च करनी पड़ेगी अर्थात् विदेशी कर्ज लेने वाली कंपनियों को विदेशी बाजार से ही मशीनें व उपकरण खरीदनें होंगे । इससे देश में बनने वाली मशीनों व उपकरणों का विक्रय घटेगा । सरकार यही चाहती है कि अगर उपकरण भारत से खरीदना है तो भारत में ही बैकों से ऊँची ब्याज के कर्ज लो । यही निर्णय देश की अर्थव्यवस्था को ठेस पहुँचाने वाला है ।

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