विश्व मानवाधिकार दिवस पर निबंध | Essay on World Human Rights Day in Hindi!

विश्व में सदियों तक मानवाधिकारों के बारे में कभी मोचा ही नहीं गया । भारतीय मनीषियों ने धार्मिक चर्चाएँ कीं, आंध्यात्म के बारे में चिंतन किया, दर्शन पर टीकाएँ कीं मगर इन सबके बीच मानव के मूलभूत अधिकारों तथा अन्य अधिकारों की बातें पूरी तरह छूट गईं ।

मनुष्यों के दु:खों का कारण व परिणाम चूँकि पूर्व जन्म से जोड़ा जाता रहा, अत: मानवाधिकारों की बात ही बेमानी थी । अन्य प्राचीन सभ्यताएँ मानवाधिकारों से कोसों दूर थीं, यूरोप में भी पुनर्जागरण के काल तक इसके बारे में कोई चिंता न थी ।

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गनीमत इतनी ही थी कि लोग अपने धर्मभीरुपन के कारण कई बार ऐसे कार्यों से बचते थे जिनसे मानवाधिकारों को चोट पहुँच सकती थी । जीवों पर दया, करुणा, परोपकार, धर्म-कर्म, पाप-पुण्य, कर्मफल आदि भावनाओं का प्राबल्य था जससे समाज के सदस्य कुछ हद तक मानवाधिकारों के हनन से बचे रहते थे ।

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स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में लोकमान्य तिलक का यह उद्‌घोष कि ”स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्‌ध अधिकार है” प्रत्यक्षतया नवीन यूरोपीय विचारों की प्रतिध्वनि कही जा सकती है । विश्व में परस्पर अनेक युद्‌ध हुए, इतिहास युद्‌ध की घटनाओं का बड़ा भारी पुलिंदा बन गया, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद आदि सिद्‌धांत दम तोड़ने लगे, दो विश्व-युद्‌धों के दौरान जो कुछ घटा, इन सभी बातों ने मिलकर मानवाधिकारों को एक बड़ा मुद्‌दा बना दिया ।

पिछले दो-तीन सौ वर्षों में दुनिया में बड़ी संख्या में बुद्‌धिजीवियों, चिंतकों, समाजसुधारकों तथा नास्तिक विचारधारा के लोगों ने जन्म लिया । शिक्षा का दायरा बढ़ा और इसकी परिधि में आम लोग बड़ी संख्या में आने लगे जिसने सामाजिक जाति फैलाने का काम किया । पौराणिक बातों को बुद्‌धि के पलड़े पर तोला गया तब कहीं जाकर मानवाधिकारों के प्रति संकल्प की भावना से काम हुआ ।

समानता पर आधारित सामाजिक व्यवस्था लाने तथा शोषितों को उनका वाजिब हक दिलाने की कम्यूनिस्ट अवधारणा ने भी मानवाधिकारों के प्रति सम्मान करने का मार्ग प्रशस्त किया । विश्व के अनेक देशों में लोकतांत्रिक सरकारों के गठन से इस मार्ग के अवरोध दूर होने लगे क्योंकि सबों को न्याय मिल सके, लोगों को उन्नति के समान अवसर झप्त हों, यह लोकतंत्र का मूलमंत्र है ।

इस तरह जब दुनिया में शांति, स्थिरता, आत्मसम्मान आदि भावनाएँ प्रबल हुईं तो मानव के जायज अधिकारों के बारे में गंभीर चिंतन आरंभ हुआ । संयुक्त राष्ट्र संघ के गठन के तात्कालिक एवं दीर्घकालिक उद्‌देश्यों को गंभीरता से देखें तो मानवाधिकारों को तय करना, उसकी रक्षा करना जैसी बातें उसी में से निकल कर आती हैं ।

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संयुक्त राष्ट्र संघ का एक अंग मानवाधिकारों के प्रति समर्पित होकर काम कर रहा है, विभिन्न देशों की सरकारों ने अपने यहाँ मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाएँ गठित की हैं । पूरी दुनिया के लोग मानवाधिकारों के बारे में जागरूक हो सकें, लोग अपने व दूसरों के अधिकारों को जानें आदि उद्‌देश्यों की पूर्ति के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य देश हर वर्ष 10 दिसंबर को मानवाधिकार दिवस के रूप में मनाते हैं ।

दुनिया में विभिन्न देशों की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं मौद्रिक दशाएँ अलग- अलग हैं । लोग भौतिकता की दृष्टि से जितने आधुनिक हुए हैं उतने विचारों की दृष्टि से नहीं । यह विचार-संकीर्णता हमें लोगों के अधिकारों का सम्मान करने से रोकती है । स्त्रियों के प्रति सामूहिक भेद-भाव विभिन्न समाजों एवं राष्ट्रों में आज भी हो रहा है । तानाशाही कानूनों का प्रचलन समाप्त नहीं किया जा सका है, वर्ग संघर्ष और अनावश्यक रक्तपात का दौर जारी है ।

ऐसे में जहाँ लोगों के जीने का अधिकार भी खतरे में पड़ जाता है तो वहाँ अन्य मानवाधिकारों, जैसे- समानता, विचार अभिव्यक्ति, धार्मिक स्वतंत्रता आदि के बारे में बातें करना भी व्यर्थ है । बाल मजदूरी, महिलाओं का यौन शोषण, धार्मिक अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न, जातिगत भेद-भाव, लूट-पाट, बलात्कार आदि सभी बातें मानवाधिकारों के खिलाफ जाती हैं ।

दंगे-फसाद, आतंक व दहशत पर आधारित सामाजिक व्यवस्था में हमारे मूलभूत अधिकारों का हनन सर्वाधिक होता है । सबल सरकारी तंत्र अपने निहत्थे नागरिकों का उत्पीड़न करता है, तो मानवाधिकारवादी फिर किससे गुहार करें । जब निर्धन और असहाय व्यक्ति को मामूली अपराध में वर्षों जेल में सड़ना पड़ता है तब मानवाधिकारों की बात बेमानी हो जाती है ।

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युद्‌धबंदियों को जब अमानवीय यातनाएँ दी जाती हैं तो मानवधिकारों पर कुठारघात होता है । कानूनी दाँवपेचों में फँसकर रह जाने वाला हमारा न्यायतंत्र उचित समय पर न्याय नहीं कर पाता है तो इसका कुफल भी आम नागरिकों को ही भुगतना पड़ता है।

समस्या का एक और पहलू यह है कि लोग मानवाधिकारों की व्याख्या अपने-अपने ढंग से करते हैं । कई देशों में इसे लोगों के धार्मिक अधिकारों से जोड़कर अधिक देखा जाता है । कहीं-कहीं व्यक्तियों के अधिकार धार्मिक कानूनों की आड़ में कुचल दिए जाते हैं । जनसंख्या बहुल देशों में पुलिस तंत्र समाज के दबे-कुचलों पर अधिक कहर बरसाता है । बच्चों के अधिकार, अभिभवाकों द्‌वारा कम कर दिए जाते हैं ।

आधुनिक समाज से नैतिक भावनाओं का शनै: – शनै: लोप होना भी मानवाधिकारों के हनन के लिए जिम्मेदार तत्व बन गया है । धार्मिक कट्‌टरता, आतंकवाद जैसे कारक भी इसके लिए जिम्मेदार हैं । विश्व मानवाधिकार दिवस हमें इन बातों पर चिंतन करने का एक अवसर प्रदान करता है ।

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मानवाधिकारों के प्रति सम्मान केवल संयुक्त राष्ट्र संघ की चिंता का विषय नहीं है, विभिन्न सरकारों एवं वहाँ की आम जनता को भी इस संबंध में अपनी सक्रियता दिखानी होगी । एमनेस्टी इंटरनेशनल नामक संस्था मानवाधिकारों के मामले में प्रतिवर्ष अपनी रिपोर्ट प्रकाशित करती है ।

इसकी आलोचनाओं का कुछ तो असर होता ही है । लेकिन जब हमारी आलोचना हो, तभी हम मानवाधिकारों के प्रति सजग हों, यह धारणा उचित नहीं है । विभिन्न राष्ट्रों को स्वयं अपने यहाँ की मानवाधिकारों की स्थिति की निरंतर समीक्षा करनी चाहिए तथा सुधारों के लिए तत्परता दिखानी चाहिए । हमें व्यक्तिगत स्तर पर अपनी जवाबदेही स्वीकार करनी ही होगी ।

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