संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता पर निबन्ध | The Relevance of the United Nations in Hindi!

संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात भावी पीढ़ियों को युद्ध की विभीषिका से बचाने के लिए की गई थी । इस संस्था का मूल उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय शाति बनाए रखने के लिए देशों के क्रिया-कलापों में समरसता लाना और सभी समस्याओं व विवादों को शांतिपूर्ण उपायों से सुलझाने, संकट को टालने, शक्ति के प्रयोग को रोकने तथा हस्तक्षेप पर अंकुश लगाने के लिए सार्वभौमिक राष्ट्रों की समानता के आधार पर दायित्व निभाना था, किन्तु इराक पर अमरीकी हमले ने इसके सिद्धांतों को धता बताते हुए इसकी प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है ।

इराक, अमरीकी ओर ब्रिटिश सेनाओं की बर्बर कार्यवाही का शिकार बना, किन्तु संयुक्त राष्ट्र संघ ने न इस कार्यवाही की कोई भर्त्सना की और न ही युद्ध को रोकने का निर्देश देने का साहस ही जुटा पाया । इस घटना ने एक गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है कि संयुक्त राष्ट्र को जिस विश्व शांति को बनाए रखने के लिए अस्तित्व में लाया गया था, उसमें ही असफल रहा तो ऐसी सस्था को बनाए रखने का औचित्य क्या है ?

इस घटना से ऐसा प्रतीत होता है कि संयुक्त राष्ट्र के संदर्भ में अमरीकी सोच यह है कि वह उसे कठपुतली की तरह अपने इशारे पर जब जैसे चाहे वैसे घुमा सकता है । संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख हथियार निरीक्षक हँस ब्लिक्स ने इराक के संदर्भ में कहा कि-त्तीन महीने की जाँच के पश्चात् भी वहाँ पर व्यापक नरसंहार के जैविक व रासायनिक हथियार उनके दल को नहीं मिले हैं, किन्तु अमरीका ने इस रिपोर्ट की परवाह न करते हुए इराक पर हमला किया ।

संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के प्रथम अनुच्छेद में उसके उद्देश्य का वर्णन इस प्रकार किया गया है:  अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा स्थापित करना, राष्ट्रों के बीच जन-समुदाय के लिए समान अधिकारों तथा आत्म निर्णय के सिद्धान्त पर आधारित मित्रतापूर्ण सम्बन्धों का विकास करना आर्थिक, सामाजिक अथवा मानवजाति के लिए प्रेम आदि अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को सुलझाने में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करना तथा इन सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राष्ट्रों के कार्यो को समन्वित करने के उद्देश्य से एक केन्द्र का कार्य करना ।

संयुक्त राष्ट्र संघ को विश्व शान्ति एवं सुरक्षा की रक्षा हेतु तथा विश्व में युद्धों की समाप्ति के लिए आवश्यक निर्देश दिए गए । इन्हें प्राप्त करने का उत्तरदायित्व तथा कार्य भी सौंपे गए, जो प्रमुख रूप से इस प्रकार हैं: दुनिया के सभी देशों में मित्रता, सहयोग तथा भ्रातृभाव पैदा करने के लिए उचित गतावरण के विकास हेतु कार्य करने का उत्तरदायित्व ।

विश्व में व्याप्त विवादों तथा समस्याओं का समाधान करने के लिए शान्तिपूर्ण साधनों एवं प्रक्रियाओं को लोकप्रिय बनाने का उत्तरदायित्व । निःशस्त्रीकरण विशेषकर परमाणु निःशस्त्रीकरण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास करने, ताकि युद्ध के उपकरणों-शास्त्रों को समाप्त करके शस्त्र उत्पादन को नियंत्रित करके तथा शास्त्र दौड़ को सीमित रखकर युद्ध की सम्भावनाओं को कम-से-कम करना ।

किन्हीं कारणों से यदि युद्ध शुरू हो जाता है तो उस स्थिति में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सामूहिक प्रयासों के द्वारा शान्ति की पुनर्स्थापना करना तथा इस सम्बन्ध में शान्ति व्यवस्था बहाल करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र की शन्ति सेना संगठित कर शान्ति की सुरक्षा कार्यवाही करना ।

विश्व समुदाय के सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक प्रगति हेतु कार्य करना ताकि संसार में समानता, स्वतंत्रता, सहयोग, न्याय. भ्रातृभाव, मित्रता व सुरक्षा का परिवेश पल्लवित हो और देश में युद्ध करने की आवश्यकता ही अनुभव न की जा सके ।

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संयुक्त राष्ट्र ने अपने इन सभी उद्देश्यों एवं उत्तरदायित्वों को निभाने का भरसक प्रयास अपने अस्तित्व के विगत लगभग 6 दशकों में किया है । इसके बावजूद पूर्ण रूप से युद्धों को रोका नहीं जा सका है ओर अनेक विवादों का हल उचित समय पर नहीं कर सका ।

आजकल संयुक्त राज्य अमरीका संयुक्त राष्ट्र संघ पर प्रभावी ही नहीं रहा, बल्कि पूरी तरह इस युद्ध के बाद हावी हो गया है । इराक पर अमरीकी हमले ने संयुक्त राष्ट्र के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगा दिया है । यद्यपि सुरक्षा परिषद् के प्रत्येक सदस्य ने कभी-न-कभी संयुक्त राष्ट्र संघ की अवहेलना अवश्य की है, किन्तु दुनिया के इतने प्रबल विरोध के बावजूद ऐसा कभी नहीं हुआ, जैसा कि इराक पर अमरीकी हमला, यह युद्ध राज्यों की सम्प्रभुता की अवधारणा का क्षरण व हरण एक घातक संकेत है ।

संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव कोफी अन्नान ने भी युद्ध शुरू होने से पहले चेतावनी दी थी कि संयुक्त राष्ट्र संघ की स्वीकृति के बिना इस तरह का युद्ध अन्तर्राष्ट्रीय कानूनो पर धब्बा साबित होगा । उधर ब्रिटिश विदेशमंत्री जैक स्ट्री का कहना है कि इराक पर किया गया हमला संयुक्त राष्ट्र संघ के विधेयक 1441 के अनुरूप है ।

जिसमें इराक को सामूहिक विनाश के हथियारों को नष्ट करने के लिए अन्तिम चेतावनी दी गई थी । ब्रिटेन और अमरीका का तर्क है कि अनुच्छेद 1441 को 1990 में पारित किए गए अनुच्छेद 678 से भी बल मिलता है, जिसमें अमरीका और उसके सहयोगी देशों को यह अधिकार दिया गया था कि वे कुवैत से हमलावर इराकी सेनाओं को बाहर निकालें और उस क्षेत्र में शान्ति और सुरक्षा की स्थापना करें ।

ब्रिटिश एटॉर्नी जनरल लॉर्ड गोल्डस्मिथ ने संसद में दिए अपने बयान में कहा था कि चूँकि इराक ने रासायनिक, जैविक और परमाणु हथियारों को नष्ट न करके युद्ध विराम समझौते की शर्तो का उल्लंघन किया है । इसलिए अनुच्छेद 678 आज भी प्रासंगिक है ।

आलोचकों का एक तर्क यह भी है कि अमरीका और ब्रिटेन की कार्यवाही सयुक्त राष्ट्र संघ चार्टर के अनुच्छेद 51 का उल्लंघन करती है, जिसमे संयुक्त राष्ट्र संघ के किसी भी देश को व्यक्तिगत या सामूहिक सुरक्षा के लिए खतरा बने सशस्त्र आक्रमण के विरुद्ध आत्मरक्षा का अधिकार है ।

कानून, नैतिकता एवं सत्ता समीकरण का एक उलझा हुआ खेल है, इराक पर अमरीकी हमला, इसमें अन्तर्राष्ट्रीय कायदे-कानूनों को नए सिरे से सोचने व समझने के लिए सबके सामने रख दिया है, क्योकि संयुक्त राष्ट्र संघ एक हाशिए में आ गया है ।

अमरीकी इतिहास में पहला मौका है, जब उसने स्वयं ही ”युद्ध की पहल” की और पहली बार किसी देश के निशस्त्रीकरण के नाम पर युद्ध किया गया और किसी देश में सत्ता परिवर्तन के उद्देश्य से भी पहली बार हमला हुआ है ।

सच्चाई यह है कि ताकत के बल पर टिकी इस दुनिया की सुरक्षा परिषद से अमरीका को निकाल दिया जाए, तो भी संयुक्त राष्ट्र का अस्तित्व संकट में हो जाएगा, चूँकि संयुक्त राष्ट्र की शक्ति का आधार अमरीका है ।

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अत: वह अपनी इच्छा से इसे चलाने का प्रयास करता है । व्यवस्था बनाने वाला उससे पार जाने का भी हल रखता है, यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता को लेकर अनेक अनुत्तरित प्रश्न पैदा हो गए हैं, दुनिया की विडम्बना यही है, जो दोषी है, उसी पर कानून की रक्षा का भार है ।

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संयुक्त राष्ट्र महासचिव कोफी अन्नान ने इराक पर अमरीकी हमले के सन्दर्भ में कहा कि विश्व भर में अनेक लोग इस बात पर गम्भीर प्रश्न उठा रहे हैं कि किसी सदस्य देश के लिए इस तरह की कार्यवाही करना उचित है, अथवा नहीं ?

ऐसी कार्यवाही जिसके दूरगामी दुष्परिणाम होंगे और यह कार्यवाही सुरक्षा परिषद् में सामूहिक निर्णय पर पहुँचे बगैर अंजाम दी गई । उन्होंने परिषद के पाँचों स्थायी सदस्यों से कहा कि वे अपनी नेतत्व क्षमता का परिचय दें और अपने मतभेदों को दूर करने के लिए रचनात्मक उपाय अपनाएं ।

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चूँकि इराक के विरुद्ध किए गए अमरीकी हमले का संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के अनेक सदस्य कड़ा विरोध कर रहे हैं और इसे बर्बरतापूर्ण कार्यवाही कह रहे द्दें और इसकी वैधता पर सवाल उठा रहे हैं । उन्होंने सुरक्षा परिषद के लिए कड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा कि संयुक्त राष्ट्र युद्ध के निपटने के उपाय करने की बजाए मानवीय सहायता के मुद्दे पर चर्चा कर रहा है ।

इराक के विरुद्ध हुए अमरीकी नेतत्व में युद्ध को रोकने में नाकामयाब रहने के बाद संयुक्त राष्ट्र हमले में तहस नहस हो चुके इस देश में अपनी भूमिका पर विचार कर रहा है । संयुक्त राष्ट्र को इराक में अपनी भूमिका कहीं तक सीमित रखनी है, इसके सम्बन्ध में एक सूची भी बनाई है ।

यह इराक में प्रशासन व्यवस्था का भागीदार नहीं बनना चाहता इसके साथ ही अमरीका समर्थित सरकार को मान्यता भी नहीं देना चाहता । अलबत्ता संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों और राजनयिकों का मानना है कि महासचिव कोफी अन्नान जरूर इराक में एक अन्तरिम सरकार के गठन में मदद देने के इच्छुक हैं, ताकि उसे अफगानिस्तान की तर्ज पर विकास की नई राह पर आगे बढ़ाया जा सके ।

ज्यादातर अमरीकी अधिकारी मानते हैं कि इराक में मानवीय सहायता कार्यक्रमो में संयुक्त राष्ट्र की एक अहम भूमिका होनी चाहिए । लेकिन अमरीकी सरकार इस संस्था को अन्तरिम सरकार के गठन के लिए होने वाली बैठकों जैसे कामों में राजनीतिक भूमिका देने के पक्ष में नहीं है ।

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इसमें कोई आशंका नहीं कि इराक पर अमरीकी हमले के साथ अमरीका और यूरोप के सम्बन्धों में एक ऐतिहासिक मोड़ आ गया है । इस सदी के इस एकतरफा भीषण युद्ध ने यूरोपीय संघ, संयुक्त राष्ट्र और नाटो के अस्तित्व पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं । इस मामले में सुधार शायद तभी हो सकेगा, जब युद्ध की समाप्ति के बाद पुनर्निर्माण की प्रक्रिया में संयुक्त राष्ट्र अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाए ।

संयुक्त राष्ट्र के औचित्य को लेकर जो प्रश्न उठे हैं, उसके मूल में यह तत्व दिखाई देते हैं, जैसे-राष्ट्रों की गुटबन्दी, एकध्रुवीय व्यवस्था, राष्ट्रीय प्रभुता का सिद्धान्त, अन्तर्राष्ट्रीय भावना का अभाव, सैनिक शक्ति का अभाव, वीटो का दुरुपयोग, अमरीकी साम्राज्यवादी विचारधारा एवं विश्व हितों की अमरीकी हितों को चुनौती ।

वस्तुत: इसकी प्रासंगिकता को लेकर उठे प्रश्न का मूल कारण विद्यमान अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का परिवेश है । चूँकि शक्तिशाली अमरीका ने सुरक्षा परिषद को अपने इशारों पर नचा कर इसे अपनी कठपुतली प्रमाणित कर दिया है ।

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संयुक्त राष्ट्र के अस्तित्व की सुरक्षा हेतु व्यावहारिकता व नैतिकता दोनों का ही तकाजा है कि अमरीका इराक के पुनर्निमाण का उत्तरदायित्व यथाशीघ्र संयुक्त राष्ट्र को सौंप दे । इसके साथ ही इराक हमले को लेकर एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया जाए । जिसमें भावी योजनाओं का निर्धारण बहुमत के आधार पर किया जाए ।

इस व्यवस्था को लागू करने में एक तकनीकी समस्या यह आड़े आ सकती है कि सुरक्षा परषिद की स्वीकृति के बिना किए गए हमले और इसके फलस्वरूप हुए सत्ता में परिवर्तन के पश्चात संयुक्त राष्ट्र का इस प्रकार से आगे आना एक प्रकार से अमरीकी हमले की कार्यवाही को परोक्ष रूप से उचित ठहरा सकता है ।

यह दुविधा संयुक्त राष्ट्र में भी है, किन्तु व्यावहारिक बात एवं समयानुसार यही उचित होगा कि वह आगे आए । इराक के पुनर्निर्माण के लिए संयुक्त राष्ट्र ही सबसे उचित एवं व्यावहारिक संस्था सिद्ध हो सकती है । इसका कोई और विकल्प नहीं हो सकता इसे ही अपनी अहम् भूमिका निभानी होगी ।

भले ही इसे शक्तिहीन संस्था कहा जाए, किन्तु संसार में सहयोग व सामना का सराहनीय कार्य संयुक्त राष्ट्र के समान कोई और नहीं कर सकता । इराक के पुनर्निर्माण के सन्दर्भ में उठाया गया कदम ही इसकी प्रासंगिकता का प्रमाण प्रस्तुत करेगा ।

उधर इराक के खिलाफ युद्ध का विरोध करने वाले फ्रांस, जर्मनी और रूस युद्ध के बार इराक के पुनर्निर्माण में विश्व संस्था की एक मुख्य भूमिका चाहते हैं । संयुक्त राष्ट्र की भूमिका पर सबसे ज्यादा कठिनाई कानूनी मुद्‌दों को लेकर है, इस समय इराक की तेल निर्यात से होने वाली आय के कोष पर संयुक्त राष्ट्र का नियंत्रण है, जिससे वहाँ नागरिक आपूर्ति के सामान खरीदे जाते हैं, राजनयिकों के अनुसार संयुक्त राष्ट्र सचिवालय ने इराक में युद्ध समाप्त होने की स्थिति के लिए कई अन्तरिम योजनाएँ भी बनाई हैं ।

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