साम्राज्यवादी शक्तियाँ और गुट-निरपेक्ष आंदोलन पर निबन्ध | Essay on The Imperialist Powers and the Non-Aligned Movement in Hindi!

वास्तव में, गुट-निरपेक्ष देश शांति की रक्षा करने तथा उसे सुदृढ़ बनाने के लिए विश्वव्यापी प्रयासों में अधिकाधिक योगदान कर रहे हैं । वे अनेक अंतरराष्ट्रीय मैचों के निर्णयों और प्रस्तावों को उजागर करने के लिए समय-समय पर अपने विचार और प्रस्ताव प्रस्तुत करते आ रहे हैं ।

यदि गंभीरता से गुट-निरपेक्ष देशों की समन्वित भूमिका को समझने का प्रयास किया जाए तो स्पष्ट होगा कि नव-स्वतंत्र देशों के पिछड़ेपन को समाप्त करना तथा उनका विकास, विकासशील देशों में व्याप्त संकट को समाप्त करना ही उनका उद्‌देश्य है ।

निस्संदेह ये सब अत्यंत महत्त्वपूर्ण मुद्‌दे हैं और विश्व की सामान्य स्थिति विशेषकर इस बात पर निर्भर करते हैं कि मानव-सभ्यता युद्ध को टालने तथा शस्त्रास्त्रों के व्यय- भार से मुक्ति पाने में समर्थ हो सकेगी अथवा नहीं । इसके फलस्वरूप, गुट-निरपेक्ष देशों ने संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में तथा अन्यान्य मंचों पर इन महत्त्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय समस्याओं पर अधिक गंभीरता के साथ विचार-विनिमय किया है ।

उन्होंने अन्य शांतिप्रिय देशों के साथ मिल-बैठकर अंतरिक्ष-युद्ध की तैयारियों की तीव्र भर्त्सना की है तथा पारमाणविक हथियारों को समाप्त करने, उनके परीक्षण को बंद करने बाह्य अंतरिक्ष में सैन्यीकरण को रोकने और न्द्वॉन, रासायनिक, जीवाणु तथा संहार के अन्यान्य शस्त्रास्त्रों के विकास एवं उत्पादन पर नियंत्रण लगाने पर बल दिया है ।

गुट-निरपेक्ष देशों ने हिंद महासागर को शांत-क्षेत्र बनाने तथा विश्व-सागरों में सैनिक गतिविधियों में कटौती करने के मुद्‌दे उठाए हैं । वे अभी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, साथ ही उपनिवेशवाद को समाप्त करने की प्रक्रिया को पूरा करने तथा इन क्षेत्रों में उठनेवाले सभी विवादों को शांतिपूर्ण तरीके से निबटाने के विषय भी महत्त्वपूर्ण हैं ।

नई दिल्ली सम्मेलन (७-११ मार्च, १९८३) भी संतोषप्रद पहल के रूप में मुखर हुआ है । हवाना, कोलंबो, अल्जीयर्स, लुसाका, काहिरा और बेलग्रेड में आयोजित निर्गुट शिखर सम्मेलनों में भी पश्चिमी विश्व ने गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों के संयुक्त मोरचे को खंडित करने तथा आंदोलन को मुख्य मार्ग से हटाने और उसकी साम्राज्यवाद विरोधी उन्मुखता को दुर्बल बनाने के प्रयत्न किए किंतु वे सारे प्रयत्न व्यर्थ हुए ।

इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि नई दिल्ली और हरारे के गुट-निरपेक्ष शिखर सम्मेलन अपेक्षाकृत अधिक सफल रहे । दोनों सम्मेलनों ने सिद्ध कर दिया कि उनके आदोलन ने ‘भूमंडलीय चरित्र’ ग्रहण कर लिया है । शांति, निरस्त्रीकरण और विकास की समस्याओं के बीच अंतर्संबंध की समझ गुट-निरपेक्ष तथा समाजवादी देशों को वस्तुनिष्ठ रूप में एकताबद्ध करती है ।

वे इस बिंदु पर एकमत हैं कि आज धरती को नाभिकीय विनाश से बचाने से अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य कोई अन्य नहीं है । हरारे सम्मेलन में जो भी निर्णय लिये गए निष्कर्ष आए उन सबका समर्थन रूस, चीन तथा अन्य समाजवादी देशों ने किया है ।

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इतना ही नहीं, इन देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अन्य प्रमुख अंतरराष्ट्रीय मंचों पर शांति, निरस्त्रीकरण और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संबंधों के पक्ष में गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों के लगभग सभी प्रयासों और परिणामों का अनुमोदन किया है ।

विकासशील देशों के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मुद्‌दों में एक है- वास्तविक उपनिवेशीकरण तथा आर्थिक स्वाधीनता के लिए संघर्ष । उपनिवेशी व्यवस्था के पतनोपरांत ३२ वर्षो में औद्योगिकीकृत पूँजीवादी देशों ने नव-स्वतंत्र देशों से ‘साझेदार’ के रूप में इतनी अधिक वास्तविक संपदा का दोहन किया है, जितना तीन शताब्दियों में भी पूर्व की उपनिवेशी शक्तियों ने भी नहीं किया था ।

पूँजीवादी शक्तियों से लिये गए ऋण का बोझ विकासशील देशों पर भयावह दर से बढ़ता जा रहा है और खरबों डॉलर कृा हो गया है । लुसाका में गुट-निरपेक्ष आंदोलन ने नूतन अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की स्थापना की माँग की थी, जिस पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक संगत संकल्प तथा इस विषय पर एक ‘काररवाई-कार्यक्रम’ स्वीकृत किया था, किंतु पश्चिमी विश्व को न्यायोचित आर्थिक व्यवस्था की स्थापना के संबंध में गंभीरतापूर्वक वार्त्तालाप करने की तनिक भी जल्दी नहीं है ।

वैसे इतना तो स्पष्ट हो ही गया है कि हरारे सम्मेलन के पश्चात् व्यतीत हुई अवधि ने दो प्रमुख राजनीतिक धाराओं-समाजवाद और साम्राज्यवाद-की सीमा-रेखा को और अधिक स्पष्ट रूप में दरशाया है । तनाव में वृद्धि स्वत: प्रवर्तित प्रक्रिया नहीं है । इसका स्रोत साम्राज्यवाद की नीति में विद्यमान बड़ी हुई ‘आक्रामकता’ है ।

विश्व-समाजवाद के विरुद्ध साम्राज्यवादी नीतियों के पोषक अमेरिका के नेतृत्व में कथित साम्राज्यवाद द्वारा घोषित ‘धर्मयुद्ध’ संसार की समस्त प्रगतिशील शक्तियों के विरुद्ध लक्षित है । यह बात गुट-निरपेक्ष ग्रेनाडा और लेबनान पर अवाज हमले से, मध्य अमेरिका में इसके द्वारा हस्तक्षेप से ‘यूनेस्को’ और अंकटाड को ‘ब्लैकमेल’ करने के उसके कार्यो से स्पष्ट हो जाती है ।

गुट-निरपेक्ष आदोलन की पृष्ठभूमि को जानने-समझने के लिए बांडुंग सम्मेलन की रूपरेखा की जानकारी अत्यावश्यक हो जाती है । वैसे सही मायने में बांडुंग सम्मेलन गुट-निरपेक्षता के सिद्धांतों पर आधारित नहीं था, लेकिन उसे इस दोलन का ‘पूर्ववर्ती’ माना जा सकता है ।

पहला गुट-निरपेक्ष सम्मेलन (१-६ सितंबर, १९६१) बेलग्रेड में हुआ था । बांडुंग सम्मेलन में निश्चित शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के १० सिद्धांतों ने गुट-निरपेक्ष दोलन की नीतियों को आधार प्रदान किया था । आज इस सच्चाई से कोई इनकार नहीं कर सकता कि सांप्रदायिक अंतरराष्ट्रीय स्थिति में गुट-निरपेक्ष दोलन एक प्रभावशाली कारक है ।

गुट-निरपेक्ष आदोलन प्रारंभ से ही युद्ध के खतरे और बल पर आधारित साम्राज्यवादी नीति के विरुद्ध और टिकाऊ अंतरराष्ट्रीय शांति का अभियान रहा है । उसकी गतिविधियों का एक कारण यह भी है कि गुट-निरपेक्ष आदोलन निष्क्रिय शांति पर कभी नहीं चला है । उसने शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के रचनात्मक सिद्धांतों पर अमल के लिए सदैव प्रयास किया है ।

गुट-निरपेक्ष देशों के शासनाध्यक्षों और राष्ट्राध्यक्षों ने ५-१० अक्तूबर, १९६४ तक काहिरा में ही अपने द्वितीय सम्मेलन में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के बुनियादी सिद्धांतों की घोषणा की थी । बाद के गुट-निरपेक्ष सम्मेलनों में इन्हीं सिद्धांतों के अनुरूप हथियारों की होड़ रोकने और अंतरराष्ट्रीय तनाव-शैथिल्य के ठोस और रचनात्मक प्रस्ताव पारित किए गए थे ।

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गुट-निरपेक्ष आदोलन की सफलताओं का एक कारण यह भी है कि एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के मुक्ति संघर्ष से उसके घनिष्ठ संबंध रहे हैं । इस आदोलन की गतिविधियाँ इस मत पर आधारित हैं कि साम्राज्यवाद स्वतंत्र देशों का प्रमुख शत्रु है ।

चौथे गुट-निरपेक्ष सम्मेलन (अल्जीयर्स ५-९ सितंबर, १९७३) की आर्थिक घोषणा का प्रथम अनुभाग साम्राज्यवाद के विरुद्ध युग को समर्पित है । इसमें कहा गया है कि विकासशील देशों की मुक्ति और प्रगति में सबसे बड़ी बाधा ‘साम्राज्यवाद’ है ।

गुट-निरपेक्ष आदोलन स्वभावत: एक आम लोकतांत्रिक आदोलन है । इसमें प्रारंभ से ही समाजवादी देशों ने भी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रगति के प्रयासों में गुट-निरपेक्ष देशों की सक्रिय सहायता की है । गुट-निरपेक्ष आंदोलन का प्रादुर्भाव यह सिद्ध करता है कि विकासशील देशों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने व्यक्तित्व को महसूस किया है और वह अपने विकास में नई अवस्थाओं से गुजरा है ।

इस तरह सातवें दशक में शांति की रक्षा तथा उसे सुदृढ़ करने के प्रति गुट-निरपेक्ष आदोलन के दृष्टिकोण पर राष्ट्रीय मुक्ति के पहलुओं का प्रभाव रहा है । उन वर्षो में शीतयुद्ध और उपनिवेशवाद की राजनीतिक प्रणाली के पराभव तथा नए देशों के प्रादुर्भाव को देखा गया है ।

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उस समय गुट-निरपेक्ष देशों ने शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धांतों पर अमल को अपने अस्तित्व, राष्ट्रीय पुनरुज्जीवन और स्वतंत्र विकास की ‘गारंटी’ के रूप में देखा है । नौवें दशक में गुट-निरपेक्ष आदोलन ने आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के सामूहिक प्रयासों और नवीन अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना के लिए कार्यक्रम के निर्धारण पर ध्यान दिया । उस अवधि में इन देशों ने नई विजय प्राप्त की थी ।

उन्होंने ऐसी मगि रखी थीं, जो हथियारों की होड़ को समाप्त करने और आर्थिक पुनरुत्थान के कार्यो के अनुरूप थीं । गुट-निरपेक्ष देशों ने निरस्त्रीकरण के फलस्वरूप उपलब्ध होनेवाले साधनों और संसाधनों के पुनर्वितरण पर जोर दिया था तथा माँगे रखी थीं कि एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के आर्थिक विकास के लिए उनका इस्तेमाल हो, लेकिन कतिपय गुट-निरपेक्ष देशों में शांति-अभियान के प्रति नकारात्मक प्रवृत्तियाँ उभरीं ।

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समान दूरी का विचार प्रस्तुत कर कुछ देशों ने अंतरराष्ट्रीय समस्याओं को टालने का प्रयास किया था । हथियारों की होड़ के विरोध से हटकर यह कहा जाने लगा था-  ‘पहले विकास, निरस्त्रीकरण बाद में ।’ निरस्त्रीकरण से विकासशील देशों को खास लाभ नहीं होने वाला है । वास्तव में यह महाशक्तियों की समस्या है ।

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वास्तविकता यह है कि निरस्त्रीकरण और विकास में घनिष्ठ संबंध है । निरस्त्रीकरण के अभाव में विकास का ‘ऐतिहासिक भाव’ समाप्त हो जाता है । निरस्त्रीकरण और हथियार की होड़ पर रोक के बिना विकास की संभावनाएँ ही नहीं रहतीं, क्योंकि विश्वव्यापी नाभिकीय युद्ध की स्थिति में विकास् किसका होगा ।

मार्च १९८३ में नई दिल्ली में सातवें गुट-निरपेक्ष सम्मेलन के प्रस्तावों ने शांति-प्रयासों को प्रोत्साहन देने में बड़ी भूमिका अदा की थी । इस बात पर विशेष रूप से बल दिया गया था कि शांति-रक्षा तथा अस्त्रों की होड़ पर रोक विकासशील देशों की विदेश नीति के प्रमुख कार्य हैं ।

पहली बार, इसके राजनीतिक घोषणा-पत्र में ‘निरस्त्रीकरण, जीवन और नाभिकीय अस्त्रों के युग में सह-अस्तित्व’ शीर्षक से एक प्रस्ताव शामिल किया गया था । सम्मेलन ने नाभिकीय अस्त्रों के प्रयोग या प्रयोग की धमकी पर तत्काल प्रतिबंध, सभी नाभिकीय परीक्षणों और नाभिकीय अस्त्रों के निर्माण तथा तैनाती पर प्रतिबंध की बात कही ।

इन प्रस्तावों का भी समर्थन किया गया कि अस्त्रागारों पर नियंत्रण रखा जाए तथा शस्त्रास्त्रों की दूषित प्रतिस्पर्धा को समाप्त करने एवं निरस्त्रीकरण के लिए प्रभावकारी संधि की जाए । विकासशील देशों में समय-समय पर उत्पन्न होनेवाले संकटों को दूर करने में गुट-निरपेक्ष दोलन अपना योगदान बढ़ाने में लगा हुआ है । एशिया में गुट-निरपेक्ष देशों के प्रयासों का विश्वव्यापी महत्त्व है ।

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अमेरिका एशिया को सामरिक अस्वीकरण के दायरे में घसीटना चाहता है और वहाँ अपने विध्वंसक नाभिकीय प्रक्षेपास्त्र तैयार करना चाहता है । यह बात अब छिपी नहीं है कि अमेरिका, एशियाई देशों को अपनी आक्रमणकारी योजनाओं का लक्ष्य बनाना चाहता है । यही कारण है कि वह एशिया में वर्तमान तनावों से लाभ उठाकर नए तनाव पैदा करना चाहता है ।

ऐसी स्थिति में शांति, तटस्थता और नाभिकीय अस्त्र मुक्त क्षेत्रों की स्थापना के लिए विकासशील देशों का विशेष महत्त्व हो जाता है । गुट-निरपेक्ष देशों के प्रयासों तथा समाजवादी देशों के समर्थन से महासभा ने अपने इकतालीसवें वार्षिक अधिवेशन में हिंद महासागर को शांत-क्षेत्र घोषित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय समझौते की दिशा में जो पहल करने की कोशिश की थी, उसमें फिलहाल अभी तक आशाजनक सफलता नहीं मिल पाई है ।

इससे गुट-निरपेक्ष दोलन को निराशा अवश्य हुई है । इस कारण से भी गुट-निरपेक्ष आदोलन, विषयपरक और आत्मपरक कठिनाइयों का सामना कर रहा है । साम्राज्यवाद इस आदोलन को नजरअंदाज करने की कोशिश कर रहा है । इस कारण साम्राज्यवाद तथा सैन्यवाद का मुकाबला करने में कुछ कठिनाइयाँ आती हैं ।

इसका प्रमुख कारण यह है कि इस दोलन में भिन्न-भिन्न सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाओंवाले ‘समाजवादी गणतंत्रों से पूर्ण राजशाही तक’ देश शामिल हैं; लेकिन सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाओं में भिन्नता और कतिपय विवादों के बावजूद एशियाई देशों के समक्ष बड़े सामयिक मसलों पर एक राय पर पहुँचने का आधार है ।

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जहाँ तक भारत की भूमिका का सवाल है, वह साम्राज्यवाद के इन सारे प्रयत्नों से अप्रभावित रहते हुए अपना कर्तव्य पूर्ण कर रहा है । इसका प्रमाण ६ राष्ट्रों की   ‘दिल्ली-घोषणा’ है, जो गुट-निरपेक्ष आदोलन के तत्कालीन अध्यक्ष भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व में स्वीकृत की गई थी ।

उसमें आंदोलन के आदर्शों के प्रति भारत की निष्ठा और दिल्ली सम्मेलन द्वारा तय की गई नीति पर आगे बढ़ने तथा पं. जवाहरलाल नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा शुरू की गई नीति को जारी रखने के दृढ़ निश्चय की पुष्टि की गई थी ।

विश्व की कुल आबादी के दो-तिहाई लोग आज भी गरीबी में जीवन-यापन करते हैं, जबकि शस्त्रों की होड़ प्रति मिनट १५ लाख डॉलर चट कर रही है । दृष्टांतस्वरूप यह हिसाब लगाया गया है कि एक नाभिकीय बमवर्षक की कीमत ५३ विकासशील देशों की संयुक्त वार्षिक राष्ट्रीय आय से भी अधिक है ।

तब तो अंतरिक्ष में हथियारों की स्पर्धा, जिसके पक्ष में अमेरिका ने यथा-सामर्थ्य अभियान छेड़ रखा है, के लिए और भी अधिक धन की आवश्यकता पड़ेगी । इससे भी ज्यादा दुःखद बात यह है कि यह अस्थिरता उत्पन्न करनेवाले परिणामों से युक्त है, जो अनेक शस्त्रास्त्र नियंत्रण और निरस्त्रीकरण समझौतों को पंगु बनाएगी । लोगों को अमेरिका द्वारा प्रचारित-प्रसारित ‘अंतरिक्ष युद्ध’ की योजना के प्रति रक्षात्मक चरित्र में विश्वास नहीं है ।

ऐसे में, गुट-निरपेक्ष आदोलन का यह दायित्व बन जाता है कि वह एकजुटता का परिचय देते हुए तथाकथित साम्राज्यवादी शक्तियों के निरंकुश आचरण को वैश्विक मैचों पर लाकर उनकी कुत्सित प्रकृति-प्रवृत्ति का अनावरण करे, ताकि निकट भविष्य में वे तीसरी दुनिया को आँखें न दिखा सकें ।

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