स्वावलम्बन की एक झलक पर, न्योछावर कुबेर का कोष पर निबंध! Here is an essay on ‘Glimpse of Self Reliance, Sacrifice Kuber’s Fund’ in Hindi language.

नाभिषेको न संस्कारो सिंहस्य क्रियते मृगै ।

विक्रमार्जित राजस्व स्वमेव मृगेन्द्रता ।।

अर्थात् वन के जीवों द्वारा सिंह का न तो अभिषेक किया जाता है और न ही सिंह का कोई संस्कार सम्पन्न होता है, बल्कि बह अपने पराक्रम से अर्जित राज्य का स्वयं राजा बनता है । यह सच है कि स्वाधीनता की भावना, स्वावलम्बन का गुण मनुष्य की मनुष्यता का ही एक अंग है ।

इसके अभाव में व्यक्ति को न केवल समाज हेय दृष्टि से देखता है, बल्कि व्यक्ति भी स्वयं को अत्यन्त गिरा हुआ महसूस करता है । परावलम्बी के अन्दर हमेशा एक आत्मग्लानि की भावना मौजूद रहती है, जिससे उसका समग्र व्यक्तित्व निरन्तर क्षीण होता जाता है ।

स्वावलम्बन से मनुष्य की उन्नति होती है और वह निरन्तर सफलता की नई ऊँचाइयों को छूता जाता है । शास्त्रों में भी कहा गया हे कि स्वयं अर्जित किए गए धन का उपभोग करने में एक अकथनीय सुख की प्राप्ति होती है-

“यल्लमसे निज कर्मोपातम्, वित्त विनोदय चित्तम् ।”

स्वावलम्बन से मनुष्य को उज्ज्वल यश मिलता है । जिस व्यक्ति ने जीवन के काँटों को न गिनते हुए अपने कठोर परिश्रम द्वारा अपने लक्ष्य को हासिल करने में सफलता प्राप्त की है, उस व्यक्ति की समाज हमेशा प्रशंसा करता है, उसे सम्मान एवं श्रद्धा की दृष्टि से देखता है ।

स्वावलम्बी मनुष्य अपनी मृत्यु के पश्चात् भी अपने यशरूपी शरीर से अपने परिवार एवं समाज के लिए जीवित रहकर भावी पीढ़ियों का मार्ग-दर्शन करता है । स्वावलम्बन का गुण व्यक्ति को कर्मवीर बनाता है ।

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आत्मनिर्भरता व्यक्ति में अद्भुत आत्मविश्वास उत्पन्न करती है तथा आत्मविश्वासी एवं कर्मठ व्यक्ति दुनिया का ऐसा कौन-सा कार्य है, जिसे सफलतापूर्वक नहीं कर सकता है ?

कहा जाता है कि पराधीन होकर स्वर्ग में सुख भोगने से अच्छा है स्वाधीन होकर नरक में कष्ट सहना, क्योंकि स्वाधीनता का जो सुख है, वह सबसे विशिष्ट एवं अतुलनीय है । यह स्वाधीनता वस्तुतः स्वावलम्बन से ही उत्पन्न होता है । स्वावलम्बी व्यक्ति ही स्वाधीन जीवन के आनन्द का उपभोग कर सकता है । स्वावलम्बन ही जीवन है ।

यह अमृत का अक्षय स्रोत है । परावलम्बी व्यक्ति को ईश्वर सब कुछ प्रदान करता है, इसके बावजूद वह अपाहिज एवं नीच मानसिकता बाले व्यक्ति से भी पतित होता है, क्योंकि वह पशु सदृश है । पशु ही नहीं, बल्कि बह मृत पशु है ।

जिस समाज एवं देश में ऐसे मृतक समान मनुष्य रहते हैं, उस देश एवं समाज की सम्भावित क्षमता क्या होगी ? ऐसा समाज तो उस कब्रिस्तान के समान है, जहाँ मृत व्यक्ति कब्रों में दफनाएँ नहीं गए हैं, बल्कि चलते-फिरते नजर आते हैं । राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने उचित ही लिखा है कि-

‘यह पापपूर्ण परावलम्बन चूर्ण होकर दूर हो,

फिर स्वावलम्बन का हमें प्रिय पुण्य पाठ पढ़ाइए ।’

स्वावलम्बन वह गुण है, जो जीवन की कठिन राह को आसान बना देता है । दुनिया का सबसे बड़ा खजाना भी इसके सामने तुच्छ है । खजाना खाली हो सकता है, लेकिन स्वावलम्बी व्यक्ति तो कई खजानों का निर्माण कर सकता है ।

वास्तव में, स्वावलम्बी व्यक्ति ही कर्मठ एवं दृढ़ निश्चयी होता है । कर्मठता एवं दृढ़ संकल्प के मौजूद रहने पर पूरी दुनिया की सम्पत्ति व्यक्ति के राह में बिछी रहती है ।

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उसके लिए कुबेर के खजाने का भी अधिक महत्व नहीं है । वह यदि हृदय से कोई भी खजाना निर्मित करना चाहे, तो अपने पौरुष के दम पर ऐसा कर सकता है, क्योंकि स्वावलम्बी व्यक्ति में ही पुरुषार्थ भी छिपा होता है ।

जो लोग बिना अपनी योग्यता एवं सामर्थ्य के किसी दूसरे की सहायता से ऊँचाई पर पहुँच जाते हैं, वे एक हल्के से आघात से ही नीचे आ जाते हैं । दूसरों का अधिक सहयोग हमारी स्वाभाविक क्षमता के विकास में बाधक बनता है ।

जब हम दूसरों का सहारा लेते हैं, तो अपने पैरों को मजबूत बनाने का प्रयास ढीला पड़ जाता है । इसके अतिरिक्त, दूसरों के सहारे में एक अलग ढंग की अनिश्चितता होती है ।

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जिस देश के नागरिक स्वावलम्बी होते हैं, उस देश में भुखमरी, बेरोजगारी, निर्धनता जैसी सामाजिक समस्याएँ नही के बराबर होती हैं, वह उत्तरोत्तर उन्नति करता जाता है ।

जापान का उदाहरण दुनिया के सामने है, चाहे वह परमाणु बम का ध्वंस हो या सुनामी का कहर । जापान की स्वावलम्बी जनता ने यह सिद्ध कर दिया कि सफलता एवं समृद्धि वस्तुतः परिश्रमी एवं स्वावलम्बी व्यक्तियों के ही चरण चूमा करती है ।

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