प्राकृतिक आपदा पर निबंध | Praakrtik Aapada Par Nibandh | Read this excellent Essay on Natural Disaster in Hindi for school and college students.

Essay on Natural Disaster


Essay Contents:

  1. ज्वालामुखी उद्गार (Volcanism)
  2. भूकम्प (Earthquakes)
  3. बाढ़ (Flood)
  4. सूखा एवं अकाल (Drought and Famines)
  5. तूफान, टारनेडो एवं उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात (Thunder Storms, Tornadoes and Tropical Cyclones)
  6. सुनामी (Tsunami)
  7. भूस्खलन (Landslide)


1. ज्वालामुखी उद्गार (Volcanism):

ज्वालामुखी उद्‌गार एक ऐसी प्राकृतिक घटना है जो अनेक स्थलों को तबाह कर देती है तथा पर्यावरण पर भी प्रभाव डालती है । जब ज्वालामुखी का उद्‌गार होता है तो गर्म गैस का गुबार वायुमण्डल में फैल जाता है तथा इससे निकलने वाला गर्म पिघला हुआ लावा सर्वत्र तबाही का कारण बन जाता है ।

ज्वालामुखी गैसों में अनेक जहरीले तत्त्व मिले होते हैं तथा विस्फोट के समय भयंकर आवाज इसके सम्पर्क में आने वाली वनस्पति, मानव, जीव-जन्तु आदि जल कर राख हो जाते हैं तथा गैस का बादल आकाश को ढक लेता है । यह विस्फोट अत्यधिक आकस्मिक होता है तथा कभी यह निरन्तर होता रहता है तो कभी कुछ महीनों, दिनों में समाप्त हो जाता है ।

ज्वालामुखी उद्‌गार विश्व में सभी स्थानों पर नहीं होते अपितु इसके विशेष क्षेत्र हैं, जिन्हें ज्वालामुखी प्रभावित क्षेत्र कहा जाता है । इस प्रकार के क्षेत्र प्रशान्त महासागरीय तटीय पट्टी, जिसका विस्तार दक्षिणी अमेरिका के एण्डीज से उत्तरी अमेरिका के पश्चिमी तट से जापान, दक्षिणी-पूर्वी एशिया से प्रशान्त तटीय क्षेत्र (इण्डोनेशिया, फिलीपीन्स आदि) से न्यूजीलैण्ड तक है इसके अतिरिक्त भूमध्य सागरीय पेटी जिसमें इटली के ज्वालामुखी प्रमुख हैं ।

इसके अतिरिक्त अल्पाइन-हिमालय पेटी, अफ्रीकन रिफ्टवेली, मध्य एटलान्टिक रिज, हिन्द महासागर के द्वीप आदि हैं । विश्व में लगभग 500 ज्वालामुखी चिन्हित हैं जिनमें जाग्रत ज्वालामुखी लगभग 300 हैं, इनमें स्ट्राम्बोली सबसे परिचित है ।

ज्वालामुखी उद्‌गार पर्यावरण के लिए खतत होता है । औसतन एक ज्वालामुखी उद्‌गार से 150 क्यूबिक किलोमीटर पदार्थ बाहर निकलता है । यह पदार्थ तीन प्रकार का होता ऐठोस पदार्थ जिसमें चट्टानों के छोटे एवं बड़े टुकड़े, राख, चट्टानों के गोले होते हैं जो आकाश में दूर तक जाते हैं ।

ADVERTISEMENTS:

पिघले पदार्थ में ‘मेगमा’ बाहर की ओर प्रवाहित होता है जिसे ‘लावा’ कहते हैं उद्‌गार के समय जो गैस निकलती है उसमें कार्बन-डाई-ऑक्साइड और सल्फर की प्रधानता होती है जो अत्यधिक विषैली होती है, इसके अतिरिक्त अन्य गैसें जैसे क्लोरीन, फ्लोरीन आदि भी विशाल मात्रा में निःसृत होती हैं । ये गैसें वाष्प के साथ मिलकर जल वर्षा करती हैं तो सम्पूर्ण वातावरण प्रदूषित हो जाता है ।

ज्वालामुखी उद्‌गार और लावा-प्रवाह वनस्पति एवं मानव तथा अन्य जीव-जन्तुओं को समाप्त कर देता है । 1902 में जब माउंट पेले में उद्‌गार हुआ तो इसके ज्वलन पदार्थों से सेन्ट प्रिरी कस्बे के 30,000 लोगों में से मात्र 2 लोग बचे थे । इटली के एटना और विसुवियस ज्वालामुखी द्वारा अनेक शहरों में तबाही हो चुकी है ।

1943 में मैक्सिको से 320 कि.मी. पश्चिम में पसकुटिन ज्वालामुखी उद्‌गार से लगभग 167 मीटर ऊंची पहाड़ी बन गई । 1991 में जापान और फिलीपीन्स के ज्वालामुखी विस्फोयें से पर्याप्त जन-धन की हानि हो चुकी है वास्तव में ज्वालामुखी विस्फोट एक ऐसी प्राकृतिक आपदा है जो प्रभावित क्षेत्रों में न केवल नुकसान करती है अपितु पर्यावरण को भी प्रदूषित करती है और पारिस्थितिक तन्त्र में बाधा उत्पन्न करती है । सामान्यतया ज्वालामुखी उद्‌गार इनसे सम्बन्धित संवेदनशील प्रदेशों में होते हैं अत: उन क्षेत्रों को चिन्हित कर वहाँ मानवीय बसाव नहीं किया जाए तो मानवीय हानि को रोका जा सकता है ।


2. भूकम्प (Earthquakes):

भूकम्प एक ऐसी प्राकृतिक आपदा है जो अत्यधिक विनाशकारी है । विश्व के अनेक क्षेत्रों में भूकम्पों से अपार जन-धन की हानि होती है तथा पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । भूकम्प के अन्तर्गत भूपटल में हलचल उत्पन्न होने लगती है और धरती हिलने लगती है । पृथ्वी के आन्तरिक भागों में रेडियो सक्रियता, तापीय दशाओं में परिवर्तन, टेक्टोनिक प्लेटों में टकराहट तथा अन्य अनेक आन्तरिक कारणों से भूकम्प की उत्पत्ति का एक केन्द्र होता है ।

वहाँ से उत्पन्न भूकम्प तरंगें या लहरें जहाँ-जहाँ तक विस्तृत होती हैं वह क्षेत्र भूकम्प से प्रभावित होता है । भूकम्प की तीव्रता को रिक्टर पैमाने पर मापा जाता है जो इससे मुक्त होने वाली ऊर्जा को प्रकट करता है, जैसे रिक्टर स्केल पर 5 से तात्पर्य 199 टन मुक्त ऊर्जा है । इसी तीव्रता पर भूकम्प द्वारा किए गए विनाश की मात्रा और विस्तार निर्भर करता है ।

विश्व में भूकम्प की पेटियों का विस्तार निर्धारित क्षेत्रों में है, वे हैं:

(i) प्रशान्त अर्द्धचन्द्राकर पेटी:

जो चिली, पेरु, मध्य अमेरिका से केरीबियन द्वीप, मैक्सिको, केलिफोर्निया, कनाडा तट, कमचटका, जापान, फिलीपीन्स, इण्डोनेशिया से न्यूजीलैण्ड तक विस्तृत है । यह क्षेत्र सर्वाधिक प्रभावित है ।

ADVERTISEMENTS:

(ii) आल्प्स-भूमध्य सागर एशिया पेटी:

इसमें उत्तरी अफ्रीका, स्पेन, इटली, ग्रीस, टर्की, इसन, उत्तरी भारत, म्यांमार सम्मिलित हैं ।

(iii) अन्य में अटलगिन्टक एवं हिन्द महासागर, पूर्वी अफ्रीका, मध्य साइबेरिया, मध्य कनाडा, ब्राजील, स्केंडेनेविया, दक्षिणी भारत, चीन, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया आदि सम्मिलित हैं । भारत में (a) हिमालय क्षेत्र (b) उत्तर का मैदान और (c) प्रायद्वीपीय भारत, भूकम्प संवेदनशील माना जाता है ।

ADVERTISEMENTS:

भूकम्पों से अपार मानवीय एवं सम्पत्तियों की हानि होती है । भूकम्प से हजारों लाखों लोग मृत्यु का शिकार हो जाते हैं, इमारतें ढह कर मलबे में बदल जाती है, जमीन में दरारें पड़ जाती हैं, बाँध छ जाते हैं, परिवहन के तथा संचार के साधन अस्त-व्यस्त हो जाते हैं, तथा उस क्षेत्र के पशु-पक्षियों का विनाश हो जाता है और सम्पूर्ण पारिस्थितिक तन्त्र असन्तुलित हो जाता है । 11 मई, 2008 को चीन में आए भूकम्प में 55,000 से भी अधिक लोग मारे गए थे ।

अनेकों भूकम्प किसी न किसी भाग में तबाही मचा चुके हैं । प्राकृतिक आपदाओं में भूकम्प सर्वाधिक विनाशकारी माने जाते हैं । भूकम्प से सवाधिक प्रभावित देश जापान में भूकम्पों से होने वाली हानियों से बचाव के लिए भूकम्परोधी इमारतों का निर्माण किया जाता है साथ ही जन साधारण को भी इनसे बचाव के लिए उचित जानकारी दी जाती है ।

यद्यपि भूकम्प का पूर्वानुमान आज भी सम्भव नहीं है । किन्तु भूगर्भिक हलचलों के वैज्ञानिक विश्लेषण से भूकम्प संवेदन क्षेत्रों का निर्धारण और उस क्षेत्र में आपदा प्रबन्धन के उचित उपायों द्वारा इससे होने वाली हानि को कम किया जा सकता है ।


3. बाढ़ (Flood):

ADVERTISEMENTS:

बाढ़ एक ऐसी आपदा है जो अतिवृष्टि द्वार उत्पन्न होती है, जिसमें विस्तृत भूभाग जलमग्न हो जाता है । इसका प्रमुख कारण अतिवृष्टि है तो दूसरा काण मानवीय है जिसमें प्राकृतिक प्रवाह में अवरोध निर्मित करना, नदियों के जल में गाद का जमाव, बाँधों एवं तटबन्धों के टूटने, बाँधों द्वारा अचानक अधिक मात्रा में जल के छोड़ने, तटीय क्षेत्रों में वनीम्बूलन आदि से सामान्य जल स्तर में वृद्धि हो जाने से विस्तृत क्षेत्र जलमग्न हो जाता है और जन-धन की व्यापक हानि होती है एवं पर्यावरण पर भी प्रतिकूल प्रभाव होता है ।

बाढ़ एक जलीय प्रक्रम है जो नदियों के बेसिन अथवा मैदानी भाग को प्रभावित करता है । इसकी समयावधि एवं सघनता वर्षा की मात्रा और नदी के पृष्ठ प्रदेश की संरचना पर निर्भर करती है । कभी इनमें कम तो कभी अत्यधिक हानि होती है ।

बाढ़ के प्रमुख कारण हैं:

(i) अतिवृष्टि

ADVERTISEMENTS:

(ii) पर्यावरण विनाश, विशेषकर वनोन्मूलन

(iii) भूस्खलन

(iv) प्राकृतिक जल प्रवाह में अवरोध

(v) बाँध, तटबन्ध तथा बैराज का टूटना

(vi) अल्प समय में मूसलाधार वर्षा

(vii) अतिरिक्त जल का तीव्र प्रवाह

बाढ़ के द्वारा अनेक गाँव तथा तटीय बस्तियाँ जलमग्न हो जाती हैं । खेतों में पानी भर जाने से कृषि बर्बाद हो जाती है । पशुधन की अत्यधिक हानि होती है । मिट्टी का कटाव अधिक हो जाता है तथा सम्पूर्ण क्षेत्र कुछ समय के लिए दलदली हो जाता है । बाढ़ के पश्चात् अनेक प्रकार की बीमारियों का प्रकोप होता है । विश्व के अनेक देशों में बाढ़ की समस्या है । भारत में यह समस्या अनेक क्षेत्रों में गम्भीर है ।

भारत के निम्न क्षेत्र बाढ़ से अधिक ग्रसित हैं:

(a) हिमालय की नदियों के ऊपरी जल क्षेत्र तथा पीडमान्ट क्षेत्र

(b) गंगा के ऊपरी, मध्य और निचले डेल्सई प्रदेश

(c) बह्मपुत्र एवं इसकी नदियों की घाटियाँ

(d) महानदी, गोदावरी, कावेरी तथा कृष्णा नदियों के डेल्सई प्रदेश

(e) नर्मदा और ताप्ति बेसिन

अनेक राज्य जैसे बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, लगभग प्रतिवर्ष ही बाढ़ की चपेट में होते हैं । कभी-कभी आकस्मिक घटनाएँ जैसे बादल फटना भी बाढ़ का कारण हो जाता है जैसा कि 2007 में सजस्थान के मरुस्थली क्षेत्रों में हुआ । बाढ़ से प्रभावित देशों में भारत का पड़ोसी बांग्लादेश प्रतिवर्ष बाढ़ की चपेट में आ जाता है । बाढ़ की समस्या के नियन्त्रण हेतु निम्न सुझाव उपयोगी हो सकते हैं ।

(i) सहायक नदियों पर छोटे बाँधों का निर्माण ।

(ii) नदियों के ऊपरी क्षेत्र में छोटे-छोटे जल संग्रहण क्षेत्र बनाए जा सकते हैं ।

(iii) नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र में सघन वृक्षारोपण ।

(iv) तटबन्धों को टूटने से बचाना ।

(v) तटीय क्षेत्रों में बाढ़ चेतावनी प्रणाली विकसित करना आवश्यक है जिससे समय पर चेतावनी देकर जन-धन को हानि से बचाया जा सके ।

(vi) नदियों के किनारे अतिक्रमण कर बस्तियों के बसाव पर रोक ।

(vii) नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र में वन-विनाश पर रोक ।

(viii) नदियों में गाद जमा न हो इसके विशेष प्रबन्ध करना आवश्यक है ।

(ix) बाढ़ के जल निस्तारण हेतु ऐसी प्रवाहिका (चैनल) बनाई जाएँ जिससे अतिरिक्त जल उनमें प्रवाहित हो जाए ।

(x) उचित जल प्रबन्धन एवं बाढ़ नियन्त्रण हेतु प्रत्येक क्षेत्र के लिए योजना तैयार करना आवश्यक है ।


4. सूखा एवं अकाल (Drought and Famines):

सूखा भी एक प्राकृतिक आपदा है जिसका प्रभाव प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र पर पड़ता है जो जन-धन की हानि का कारण होता है । सूखे का प्रकोप ऐसे क्षेत्रों में होता है जहां वर्षा कम होती है । मरुस्थली एवं अर्द्ध मरुस्थली क्षेत्र सूखे की चपेट में अधिक आते हैं । कभी-कभी मध्यम वर्षा के क्षेत्रों में लगातार दो-तीन वर्षों तक कम वर्षा होने से वे क्षेत्र सूखे की चपेट में आ जाते हैं ।

सूखे के प्रमुख कारण हैं:

(i) वर्षा का कम होना या कई वर्षों तक वर्षा न होना ।

(ii) वनों का विनाश ।

(iii) भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन ।

(iv) कृत्रिम बाँध तथा नदी के मार्ग परिवर्तन के कारण ।

(v) जल चक्र का नष्ट होना ।

(vi) मिट्टी के जैविक संगठनों में कमी होना ।

(vii) खनन कार्यों से जल स्रोतों का नष्ट होना ।

जब सूखा अधिक तीव्र या सघन होता है तो अकाल की स्थिति आ जाती है । भारत में 1899 में सबसे भयंकर सूखा पड़ा था जिसे ‘छप्पन का अकाल’ के नाम से जाना जाता है, इसमें लाखों लोगों की जान गई थी तथा पशुधन बर्बाद हो गया था ।

1977 में भी भारत में सूखा पड़ा जिसमें भी पर्याप्त जन-धन की हानि हुई । 1992-93 में इथोपिया में इतना भयंकर सूखा और अकाल हुआ कि वहाँ लगभग 30 लाख लोग मृत्यु का शिकार हुए । भारत के अनेक राज्य सूखा और अकाल प्रभावित हैं जिसमें राजस्थान सर्वाधिक प्रभावित सज्य है जो अकसर सूखे की चपेट में रहता है और अकाल पड़ना यहाँ सामान्य है । अन्य राज्यों में गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, मध्य प्रदेश प्रमुख हैं ।

सूखा आपदा के प्रभाव को कम करने के लिए संकट की समस्या के स्थाई हल के लिए निम्न सुझाव उपयोगी हैं:

(i) वर्षा के जल का अधिकतम संरक्षण हो ।

(ii) भूमिगत जल भण्डारों की निकासी दर रिचार्ज से ज्यादा न हो ।

(iii) जल के किफायती उपयोग की जीवन शैली हो ।

(iv) जल संग्रहण व्यवस्था को सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर लोकप्रिय किया जाए ।

(v) परम्परागत जल संग्रहण विधियों को स्थानीय स्तर पर पुन: जीवित किया जाए ।

(vi) जिन क्षेत्रों में पर्यावरण का विनाश हो चुका है वहाँ इको टोप थैरेपी द्वारा पुन: जल चक्र स्थापित किया जाए ।

(vii) सूखा पड़ने की स्थित में आन्तरिक और बाह्य सहायता से उसका निराकरण किया जाए ।

(viii) सूखा एवं अकाल प्रबन्धन की व्यापक योजना पहले से तैयार करना आवश्यक है, विशेषकर उन क्षेत्रों के लिए जहाँ यह समस्या नियमित रूप से होती है ।

(ix) उपलब्ध जल संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग तथा दीर्घकालीन जल प्रबन्धन अति आवश्यक है ।

(x) दूर संवेदन (रिमोट सेंसिंग) तकनीक से नवीन जल स्रोतों का पता लगाना इस दिशा में उचित कदम होगा ।


5. तूफान, टारनेडो एवं उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात (Thunder Storms, Tornadoes and Tropical Cyclones):

वायुमण्डलीय दशाओं में अचानक परिवर्तन के फलस्वरूप श्री-तूफान, बिजली गिरना, हिम तूफान, यरनेडी तथा चक्रवातीय तूफान आते हैं जो पर्यावरण आपदा के कारण हैं । अंधी-तूफान एवं गर्जना स्थानीय वायु दाब की दशाओं में अचानक बदलाव एवं संवाहिक प्रक्रिया से होते हैं, जिसमें तेज हवाओं का चलना, गर्जन, बिजली चमकना और तेज वर्षा होती है । तेज हवाओं के कारण पेड़-पौधों के साथ इमारतों, संचार साधनों, रेल पटरियों आदि का नुकसान होता है ।

इससे मानव जीवन के साथ-साथ पक्षियों एवं अन्य जीवों की भी हानि होती है । इसमें चलने वाली हवाओं की कभी-कभी 150 से 200 कि.मी. प्रति घण्टे की गति होती है । इसी प्रकार बिजली गिरने से मनुष्यों एवं जानवरों की मृत्यु हो जाती है और इससे वन क्षेत्रों में कभी आग भी लग जाती है ।

हिम तूफान और भी अधिक विनाशकारी होता है क्योंकि इसमें तीव्र हवाओं के साथ बर्फ के टुकड़े होते हैं जिनका व्यास 0.5 से 5 सेमी, तक होता है । इनसे तबाही अधिक होती है । अमेरिका, यूरोप, रूस के अनेक भागों में इस प्रकार के हिम तूफान अधिक आते हैं ।

यरनेडो एक छोटा, किन्तु सघन चक्रवात होता है । इसमें वायु घुमावदार रूप में अति तीव्र गति से चलती है । मध्य अक्षांशों में वायु सीमान्त के टकराने से दरनेडो अति विनाशक रूप ले लेता है । संयुक्त राज्य अमेरिका में टारनेडो की आवृत्ति सर्वाधिक है, इसके अतिरिक्त ऑस्ट्रेलिया और मध्य अक्षांशीय क्षेत्रों में यह आते रहते हैं । इनमें वायु की गति 400 किमी. प्रति घण्टा तक पहुँच जाती है तथा आकृति कीपनुमा होती है । इस कीप का अंतिम छोर धरातल पर होता है जो तबाही मचा देता है ।

उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात अत्यधिक शाक्तिशाली और विनाशक होते हैं जिन्हें हरिकेन या टाइफून कहते हैं । ये 80 से 150 उत्तर एवं दक्षिण अक्षांशों में आते हैं, यद्यपि भूमध्यरेखा के निकट नहीं आते । इन चक्रवातों का उद्‌भव निम्न दाब की सघनता से होता है तथा ये चक्राकार रूप से तीव्र गति से आगे चलते हैं, इसी के साथ तेज वर्षा होती है ।

इनसे जीवन, वनस्पति, सम्पत्ति को तो हानि पहुँचती ही है ये पारिस्थितिक तन्त्र पर भी विपरीत प्रभाव डालते हैं । अनेक द्वीपों और समुद्रतटीय क्षेत्र इनसे तबाह हो जाते हैं । बाँग्लादेश में इस प्रकार के तूफानों का प्रकोप अक्सर देखा जाता है ।

यहाँ 1822 में 40,000, 1876 और 1897 में एक लाख एवं 1.75 लाख तथा 1970 में 3 लाख और 1991 में 5 लाख लोगों की मृत्यु इसी प्रकार के तूफानों से हुई । ये तूफान विश्व के अनेक भागों में तबाही मचाते हैं, तटीय भाग, द्वीप इनसे अधिक प्रभावित होते हैं, मछुआरों के लिए ये मौत का कारण बनते हैं । इन चक्रवातीय तूफानों का एक सीमा तक पूर्वानुमान आधुनिक तकनीकों द्वार सम्भव है अत: पूर्वानुमान तन्त्र को प्रभावी बनाकर तथा समय पर सूचना देकर जन-धन की हानि को कम किया जा सकता है ।


6. सुनामी (Tsunami):

सुनामी समुद्री लहरों की शृंखलाओं को कहा जाता है । सुनामी जापानी भाषा का शब्द है जो दो शब्दों अर्थात् ‘TSU’ जिसका अर्थ है बन्दरगाह और का अर्थ है लहरें । तात्पर्य है कि बन्दरगाह क्षेत्र में आने वाली लहरों को सुनामी कहा जाता हैं ।

यह ज्वारीय लहरों के समान ही होती हैं किन्तु यह वृहत् आकारीय और तीव्र होती हैं । अत: विनाश का कारण बनती हैं इनका उद्‌भव महासागरों के तल में हुई हलचलों जैसे- भूकम्प, ज्वालामुखी विस्फोट अथवा आन्तरिक प्लेयें के खिसकने से होता है ।

समुद्र की सतह हिलने के कारण तल के ऊपर भरा पूरा पानी ऊपर नीचे होने लगता है जिससे ये विशालकाय लहरें उत्पन्न होती हैं । इनका एक कारण समुद्र के तल की भू-संरचना में होने वाले परिवर्तन, पानी के नीचे फाल के खिसकने अथवा टूटने से एक हिस्सा गहरी संरचनाओं में घुस जाता है । इस स्थान पर चारों ओर से समुद्र का जल तीव्र गति से आने लगता है । जिसके कारण जल समुद्री लहरों का रूप ले लेता है, ये लहरें ही सुनामी कहलाती हैं ।

सुनामी लहरों की गति अत्यधिक तेज होती है, कभी-कभी यह गति 500 से 800 किमी प्रति घण्टा तक हो जाती है । ये लहरें जो 300 कि.मी. से अधिक लम्बाई वाली होती हैं जब समुद्रतटीय क्षेत्रों पर पहुंचती हैं तो तबाही मचा देती हैं । गहरे सागरीय क्षेत्रों में इन लहद्यें की कलाई दो-तीन फुट होती है किन्तु तटीय क्षेत्रों में पहुँचते-पहुँचते ये 30 से 100 फीट (30 मीटर) तक ऊँची हो जाती है ।

इन लहर, से तटीय क्षेत्रों में तबाही मच जाती है । ये लहरें एक स्थान से प्रारम्भ होकर हजाद्यें किलोमीटर दूर तक पहुँचती हैं और जहाँ-जहाँ जाती हैं जन-धन की अपार हानि करती हैं । भारत में 26 दिसम्बर, 2004 को सुनामी लहरों का प्रचण्ड रूप देखने को मिला । ये सुनामी इण्डोनेशिया, थाईलैण्ड, मलेशिया, श्रीलंका, मालद्वीप सहित भारत के अण्डमान निकोबार, उड़ीसा, आन्ध प्रदेश, तमिलनाडु, केरल और पाण्डीचेरी आदि सज्यों के तटीय क्षेत्रों में आई ।

इन लहर, से भयंकर तबाही हुई, लाखों लोगों की जानें गई तथा करोड़ों की सम्पत्ति का विनाश हुआ । यह पर्यावरण के लिए भयंकर आपदा का कारण बना तथा पारिस्थितिक तन्त्र में इसके द्वार अत्यधिक बदलाव आया । इस प्रकार की त्रासदि से पूर्वानुमान द्वार हानि को कम किया जा सकता है यदि वहाँ चेतावनी दे दी जाए, लोग सुरक्षित निकल सकते हैं ।

सुनामी लहरें के प्रमुख प्रभाव निम्न होते हैं:

(i) जल स्तर में वृद्धि,

(ii) स्थलाकृति में बदलाव,

(iii) ज्वालामुखी का सक्रिय होना,

(iv) पारिस्थितिकी असन्तुलन,

(v) दुर्लभ प्रजातियों पर संकट,

(vi) पीने के पानी के स्रोतों का समाप्त होना,

(vii) भवनों को क्षति,

(viii) जीव-जन्तुओं की क्षति,

(ix) भारी जन-धन की हानि,

(x) बन्दरगाहों की क्षति,

(xi) सुनामी के पश्चात् अनेक बीमारियों का प्रकोप, आदि ।


7. भूस्खलन (Landslide):

भूस्सलन से भी सामान्य पारिस्थितिक तंत्र में व्यवधान आ जाता है । भूस्खलन एक प्राकृतिक आपदा है जिसमें भूभाग का एक बृहत् भाग, जिसमें मिट्टी एवं प्रस्तर खण्ड सम्मिलित होते हैं एकाएक खिसक कर नीचे आ जाता है । यह चट्टानों के तीव्र गति से खिसकाव के रूप में ही होता है ।

गुरुत्वबल के कारण भूमिगत हलचल से, खनन आदि के विस्फोट तथा वनों के कयव से भी भूस्सलन की स्थिति बनती है । ऊपरी भाग में अधिक भार होने तथा तथा नीचे के कटाव के फलस्वरूप भी भूस्सलन होता है । इन चट्टानों के खिसकने से इनके नीचे बसे लोग दब जाते हैं, सड़कें, रेलमार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं ।

स्वीट्‌जरलैण्ड, नार्वे, कनाडा के रॉकी क्षेत्र में ढालों पर बसी अनेक बस्तियाँ इनके द्वार उजड़ चुकी हैं । भारत में जम्मू-कश्मीर, उत्तरांचल, हिमाचल प्रदेश तथा उत्तरी-पूर्वी सव्यों में भूस्सलन प्राय: होता रहता है । इनसे होने वाली जन-धन की हानि उस क्षेत्र की बसावट तथा भूस्सलन की प्रकृति, अर्थात् कितना अधिक और कितना तीव्र गति से हुआ है, इस पर निर्भर करती है ।

सामान्यतया भूस्सलन के प्रदेश चिन्हित होते हैं अत: इन क्षेत्रों में सुरक्षात्सक उपाय अपना कर इनसे होने वाली हानि को कम किया जा सकता है । भूस्सलन के समान ही हिममंडित पर्वतीय क्षेत्रों में हिमखण्डों के गिरने से भी हानि होती है ।

हिमखण्डों के गिरने को कहते हैं, ये हिमानी युक्त पर्वतीय ढालों पर हिमखण्डों के खिसकने से होते हैं । वनों की आगदावानल पर्यावरणीय आपदाओं में वनों में लगने वाली आग अत्यधिक विनाशकारी होती है, विशेषकर वनस्पति, वन्य जीवों, पक्षियों के लिए तथा इससे जैव विविधता भी समाप्त हो जाती है । वनों की आग अधिक विस्तृत होने पर सम्पूर्ण क्षेत्र की वनस्पति राख में बदल जाती है और वन सम्पदा की अत्यधिक क्षति होती है ।

वनों की आग यदि सीमित होती है तो इससे कम नुकसान होता है किन्तु यदि इसका विस्तार अधिक होता है तो यह विनाशकारी स्वरूप धारण कर लेता है । सामान्यतया वनों में एक स्थल में लगी आग फैलती जाती है क्योंकि लकड़ी और अन्य ज्वलनशील पदार्थ इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि करते जाते हैं ।

यह आग कभी प्राकृतिक कारणों से जैसे वृक्षों की आपसी रगड़ से, खासकर बाँस के पेड़ों की रगड़ से भी लग जाती है । आकाशीय बिजली गिरने से भी आग लगती है । अत्यधिक गर्मी से भी आग लगती है । इसके अतिरिक्त मानवीय भूल से, वन क्षेत्र के निकट विस्फोट से भी आग का आरम्भ होता है जो वृहत् रूप धारण कर लेती है । वनों की आग के चार स्वरूप-सतही आग, धरातलीय आग, शीर्ष आग और आग का बवण्डर हैं ।

इस प्रकार की आग से होने वाली हानियाँ हैं:

ADVERTISEMENTS:

(i) इमारती लकड़ी का नष्ट होना ।

(ii) वनों का समाप्त होना ।

(iii) वन्य जीवों की मृत्यु ।

(iv) जैव विविधता की हानि ।

(v) पर्यावरण का प्रदूषित होना ।

(vi) वन क्षेत्रों के आदिवासियों की बस्तियों का नष्ट होना ।

(vii) जलवायु परिवर्तन ।

(viii) मिट्टी के कटाव में वृद्धि ।

(viii) पारिस्थितिक तन्त्र में व्यतिक्रम आना ।

ADVERTISEMENTS:

वनों की आग पर नियन्त्रण हेतु उचित प्रबन्धन आवश्यक है जो:

(a) तेकथाम,

(b) निगरनी,

(c) शमन द्वारा सम्भव है ।

इसके लिए अग्नितेधक पट्टी बनाना तथा सूखी लकड़ियों और पत्तों आदि को हठना आवश्यक है । वनों की निरन्तर निगरनी होनी चाहिए जिससे यदि कहीं आग लगती है तो उसे तुरन्त बुझाया जा सके । इसी प्रकार अग्निशमन का पर्याप्त प्रबन्ध आवश्यक है, इसमें स्थलीय के साथ हवाई छिड़काव भी आवश्यक है । पानी के साथ अग्निशमन हेतु रसायनों का प्रयोग भी आवश्यकता पड़ने पर किया जा सकता है ।


Home››Essays››Natural Disaster››