भारतीय दर्शन में माया की अवधारणा पर निबन्ध | Essay on ‘Maya’ in Indian Philosophy in Hindi!

भारतीय जीवन में दार्शनिक से लेकर सामान्य जन तक ‘माया’ शब्द का प्रयोग बड़े परिचित अदाज में करता है । भारतीय जनमानस में माया के अनेक अर्थ प्रचिलत हैं- अज्ञान, आभास, धोखा, जादूगरी, धूर्तता, जादू-टोना, इन्द्रजाल इत्यादि ।

वास्तव में ‘माया’ संस्कृत भाषा का एक सारगर्भित शब्द है । पूरे विश्व में किसी दूसरी भाषा में इस शब्द का पर्याय नहीं है । यह ‘माया’ शब्द मा’ धातु से बना है । मीयते या सा माया, जो नापा जाता है वह माया है । इस प्रकार माया एक मानदण्ड है ।

माया की उत्पत्ति ‘मा’ और ‘या’ इन दो शब्दों के योग से की जाती है । ‘मा’ का अर्थ नहीं’ या ‘न’ है । ‘या’ का अर्थ है ‘जो कुछ’ । अर्थात जो माया सत नहीं है या और जो सत् नहीं है वह माया है । ब्रह्मवैवर्त पुराण के 27वें अध्याय में माया को इस तरह कहा गया है ।

माश्च मोहार्थ वचन: याश्च प्रापण वाचक: । तां प्रापयति या नित्य सा माया प्रकीर्तिता । ।

‘मा’ का अर्थ मोह है और ‘या’ का अर्थ प्रापण है जो मोह को प्राप्त कराता है, वह माया है । किन्तु ये शब्द वास्तव में माया का अर्थ बताते हैं और माया का सम्बन्ध मोह से जोड़ते हैं । जिससे लोग मुग्ध होते हैं, वह मोह या माया है ।

मोह के साथ जुड़ जाने से माया का अर्थ अज्ञान हो जाता है । अज्ञान के दो प्रकार होते हैं- विद्या और अविद्या । कभी-कभी विद्या को भक्ति और अविद्या को कर्म कहा जाता है, किन्तु वास्तव में ये दोनों ही अज्ञान हैं और माया के अन्तर्गत है, वस्तुत: अर्थ दृष्टि से ही माया को अज्ञान कहा जाता है ।

माया का मुत्पत्ति करते हुए शैव दर्शन में कहा गया है कि ‘मा’ धातु और ‘आड’ उपसर्ग तथा ‘या’ धातु और ‘धज’ प्रत्यय के योग से माया शब्द बनता है । इस प्रकार माया= मा+आ+या+धञ जो ‘मा’ है और ‘आया’ है वह ‘माया’ है इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया- “मात्यस्या शक्कात्मना प्रलये सर्व जगन्सष्टो व्यक्तिमायातीति माया” अर्थात् प्रलय दशा में जिसमें समस्त जगल शक्ति रूप में नापा जाता है और सृष्टि दशा में जो अभिव्यक्ति होती है वह माया है । इस प्रकार माया का अर्थ जगल की मूल प्रकृति है ।

माध्ववेदान्त में माया की उत्पत्ति ‘माया’ शब्द से की गई है । भय; शब्द में स्वार्थ में ‘अण’ प्रत्यय लगने से माय बनता है । माय का अर्थ ‘भय’ ही है फिर ‘भय’ शब्द में टाप प्रत्यय लगने से माया बनता है । अर्थात माय शब्द का ही रूप स्त्रीलिंग में माया है । इस प्रकार मय शब्द के अर्थ में ही माया का प्रयोग होता है ।

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इन सभी मुत्पक्यिाएं को समझने के लिए हमें मायावाद को समझना है, क्योंकि प्रवृत्ति-निमित्त, मुत्पति से अधिक शक्तिशाली और सार्थक होता है और मुत्पति को प्रभावित करता है । अत: प्रश्न यह उठता है कि माया का प्रवृत्ति-निमित्त क्या है ? मायावाद का दर्शन क्या है ?

शंकर के अनुसार ‘माया’

”ब्रह्म सत्य जगत्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर: ।” ब्रह्म ही सत्य है । जगत् मिथ्या है और जीव ब्रह्म ही है । उससे भिन्न नहीं । ब्रह्म और आत्मा एक हैं दोनों परमतत्व के पर्याप्त है । जगत् प्रपंच माया की प्रतीति है । जीव और जगत् दोनों मायाकृत हैं । माया, अविद्या या अधयास शब्दों का प्रयोग अधिक होता है ।

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जब हम विषम पक्ष के दृष्टिकोण से समस्या का निरीक्षण करते हैं तो हम ‘माया’ शब्द का प्रयोग करते हैं, किन्तु विषयी पक्ष की दृष्टि से निरीक्षण करने पर उसी वस्तु के लिए हम अविद्या शब्द का व्यवहार करते हैं । ठीक जिस प्रकार ब्रह्म और आत्मा एक है इसी प्रकार माया और अविद्या एक ही है । जो वस्तुत: एक है । उसे अनेक रूप मानकर देखने की जो मानवी मस्तिष्क की प्रवृति है, यही अविद्या है और यह सब मनुष्यों में समान रूप में पाई जाती है ।

शंकर के अनुसार-मायावाद का वास्तविक अर्थ समझने के लिए विवर्तमाद को जानना आवश्यक है जो कारण-कार्य सिद्धान्त का दूसरा रूप है । शंकर कहते हैं कि कारण-कार्य के सम्बन्ध का प्रयोग ब्रह्म तथा जगत् से सम्बन्धित विषय में नहीं किया जा सकता, क्योंकि कारण का कुछ अर्थ तभी बन सकता है जबकि सत के सीमित प्रकार ऐसे हों कि उनके मध्य एक भूखला वर्तमान हो ।

हम ऐसा नहीं कह सकते कि ब्रह्म कारण है और जगत कार्य क्योंकि इसका तात्पर्य होगा कि हम ब्रह्म और जगत में भेद करते हैं और एक ऐसी वस्तु का निर्माण करते हैं, जिसका सम्बन्ध अन्य वस्तुओं के साथ है, इसके अतिरिक्त, जगत् सीमित है और सोपाधिक है तो फिर एक अनन्त जो निरूपाधिक है इसका कारण कैसे हो सकता है ? शंकर गौडपाद के ‘अजाति’ अथवा अविकास’ सम्बन्ध सिद्धान्त का समर्थन करते हैं ।

यह जगत् न तो विकसित हुआ है और न ही उत्पन्न ही हुआ है, किन्तु ऐसा केवल प्रतीत होता है क्योंकि हमारी अन्तदृष्टि पिरमित है । कार्य अभिव्यक जगत् है जो आकाश से प्रारम्भ होता है । कारण सर्वोच्च ब्रह्म हैं । इस कारण से सर्वोच्च यथार्थता के अर्थो में कार्य का तादाल्म सम्बन्ध है, किन्तु इसके परे उसकी कोई सत्ता नहीं है ।

माया और बैष्णब दर्शन:

सारी वैष्णव दर्शनों ने जगत को सत माना है और मायावाद का निराकरण किया है । रामानुज ने मायावाद पर जो आपत्तियाँ उठाई है । वे हैं- आश्रयानुपपत्ति, तिरोधानुपत्ति, स्वरूपानुपपति, अनिमंचनीयानुपपत्ति, प्रमाणानुपपत्ति. निवर्तनानुपपत्ति तथा निवृत्यानुपपत्ति ।

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रामानुज कहते हैं, कि माया का आश्रय स्थान न ब्रह्म हो सकता है न जीव स्वयं प्रकाश ब्रह्म माया द्वारा ढका जा सकता है, यह कहना भी जँचता नहीं, माया का स्वरूप ही तर्कदृष्टि से आत्मविसंगति है । क्योंकि उसे सत्य भी कहा जा सकता है ।

और असत्य भी फिर माया का अस्तित्व न प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा सिद्ध हो सकता है न आत्मा द्वारा और न ही आप्त वचन द्वारा क्योंकि श्रुति में ईश्वर की विस्मयकारी शक्ति के रूप में माया का उल्लेख मिलता है । माया को अनिर्वचनीय कहना, समस्या को सुलझाना नहीं, बल्कि टालना है । अगर ब्रह्म भी माया के जाल में फँस सकता है तो जीव का भविष्य असुरक्षित हो जाएगा ।

जिस कट्टरता से रामानुज ने मायावाद का निराकरण किया था । वह वैष्णव दर्शन के चरमविकास की अवस्था में चैतन्य मत में समाप्त हो गई और मायावाद को भक्ति दशर्न से जोड़ लिया गया । इस गठबन्धन में अद्वैतवेदात्तियों ने भी अपनी भूमिका निभाई. क्योंकि उन्होंने भी भक्ति को मायवाद में आत्मसात् किया । जो भक्ति माया की प्रतिद्वंदिनी थी वह माया के साथ-साथ ब्रह्म की सपत्नी मान ली गई ।

इस मिथक ने माया और भक्ति के विरोध को दूर कर दिया । कुछ भी हो, वैष्णव दर्शनों ने मायावाद का जो खण्डन किया है उसके फलस्वरूप श्रीधर. मधुसूदन, सरस्वती आदि परवर्तीकाल के अद्वैतवेदान्तियों ने काफी लाभ उठाया है और उन्होंने माया के समान दर्जा दिया है । गोस्वामी तुलसीदास ने इसी विचार से माया और भक्ति को ईश्वर की दो पत्नियाँ कहा है ।

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शंकर एवं सांख्य दर्शन में माया सांख्य दर्शन में विश्व की अवस्था के लिए प्रकृति को माना गया है । प्रकृति से ही नानारूपात्मक जगत् की व्याख्या होती है । सम्पूर्ण विश्व प्रकृति का रूपान्तरित रूप है । शकर के दर्शन में माया के आधार पर विश्व की विविधता की व्याख्या की जाती है । माया ही नानारूपात्मक जगत् को उपस्थित करती है ।

माया और प्रकृति दोनों का निर्माण सत्व, रजस एवं तमस् के संयोजन से हुआ है । शंकर की माया सांख्य की प्रकृति की तरह त्रिगुणात्मक है । शंकर की माया एवं सांख्य की प्रकृति दोनों मोक्ष की प्राप्ति में बाधक है । पुरुष प्रकृति से भिन्न है । परन्तु अज्ञान के कारण प्रकृति से अपनापन का सम्बन्ध उपस्थित कर लेता है । यही बन्धन है । मोक्ष की प्राप्ति तभी हो सकती है जब प्रकृति अपने को पुरुष से भिन्न होने का ज्ञान पा जाए ।

शंकर के अनुसार भी मोक्ष की प्राप्ति तभी हो सकती है, जb अविज्ञा का जो माया का ही दूसरा रूप है अन्त हो जाए । आत्मा मुक्त है, परन्तु अविज्ञा के कारण वह बन्धन ग्रस्त हो जाती है । माया और प्रकृति की उपर्युक्त साम्यता के होते हुए भी निम्नलिखित अन्तर है:

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माया को परतन्त्र माना गया है, जबकि प्रकृति स्वतंत्र है । माया का आश्रय ब्रह्म या जीव होता है, परन्तु प्रकृति को अपने अस्तित्व के लिए किसी दूसरी सत्ता की अपेक्षा नहीं करनी पड़ती । प्रकृति यथार्थ है, जबकि माया अयथार्थ है । सांख्य पुरुष एवं प्रकृति को यथार्थ मानने के कारण डैतवादी कहा जाता है परन्तु शंकर के दर्शन में ब्रह्म को छोड्‌कर सभी विषयों को असत्य माना गया है ।

निष्कर्षत: यह न तो ब्रह्म के समान यथार्थ ही है और न ही आकाश-कुसुम के समान अभावात्मक ही । हम इसे चाहे जो कहें भ्रांति-मात्र अथवा यथार्थ, किन्तु जीवन की समस्या के समाधान के लिए इसकी सत्ता को मानना आवश्यक है ।

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