भारत में सशक्त केन्द्र की आवश्यकता है पर निबन्ध | Essay on India Needs a Strong Centre in Hindi!

यह कहावत प्रसिद्ध है कि इतिहास की पुनरावृति होती है, क्योंकि मनुष्य उससे शिक्षा ग्रहण नहीं करता । इतिहास से भारत को यह सीख मिलती है कि जब कभी भी यहाँ केन्द्र की शक्ति क्षीण हुई, राष्ट्र टुकड़ों में बंट गया ।

यह माना जाता है कि भारत की अनेकता में एकता का भाव छिपा है, लेकिन यह धारणा सदैव सही प्रतीत नहीं होती है । राजनैतिक क्षेत्र में हमेशा भिन्नता का ही आधिपत्य रहा है । एकता के कारण सशक्त केन्द्र की प्राप्ति होती है, और ऐसे अवसर भारत को बहुत कम प्राप्त हुए है ।

भारत का इतिहास इसका गवाह है । कई शताब्दियों से भारतीय इतिहास इस कहानी को दोहराता आया है । भारत को अशोक और समुद्रगुप्त जैसे शासक नसीब नहीं हुए हैं, जिन्होंने सम्पूर्ण राष्ट्र में एकछत्र शासन किया था । योग्य शासक के अंत के साथ ही देश छोटे-छोटे भागों में विभाजित हो गया जो सदैव एक दूसरे के साथ तुच्छ स्वार्थो के लिए लड़ाई में जुटे रहते थे ।

देश में सशक्त केन्द्र के निरन्तर अभाव ने ही आर्यो से लेकर अंग्रेजों तक, सभी को आकर्षित किया । अंग्रेजों के शासन के दौरान ही भारत में सशक्त केन्द्र की स्थापना हुई । यातायात और संचार के साधनों के तीव्र विकास से एकता को बढ़ावा मिला । अंग्रेजों के शासन के दौरान ही भारत पहली बार इतनी लंबी अवधि के लिए राजनैतिक एकता के सूत्र में बँधा ।

इसी अवधि के दौरान भारत एक राष्ट्र के रूप में उदित हुआ । परन्तु 1947 में अंग्रेजों द्वारा भारत छोड़ने से पहले उन्होंने इसकी राजनैतिक एकता पर प्रहार किया जिसके फलस्वरूप भारत दो भागों में विभक्त हो गया । विभाजन के कारण भारत की स्थिति, उनके आने से पूर्व की स्थिति से भी बदतर हो गई ।

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हमारे संविधान निर्माताओं ने इतिहास से शिक्षा लेते हुए एक सुदृढ़ केन्द्र के निर्माण का प्रयास किया । हमारे संविधान के राज्य के जिस रूप की चर्चा की गई है वह स्वरूपत: संघीय है, लेकिन आतरिक रूप से एकात्मक है । इसमें केन्द्र की अपेक्षाकृत अधिक शक्ति प्रदान की गई है जो कई अवशिष्ट शक्तियों से सम्पन्न है ।

यह भी वर्णन किया गया है कि आपात स्थिति के दौरान, जबकि राष्ट्रीय हित प्रधान होते हैं, ये सभी अधिकार केन्द्र को प्राप्त हो जाते है । राज्य और केन्द्र के वित्तीय प्रशासन, चुनाव प्रक्रिया पर नियंत्रण लेखा आयोग द्वारा होता है । विपरीत परिस्थिति में केन्द्र राज्य स्तर पर प्रशासन को नियंत्रित कर सकता है, इसका वर्णन भी भारत के संविधान में किया गया है ।

स्वतंत्र भारत में सशक्त केन्द्र के मत का समर्थन सभी विचारकों ने किया है । वे सच्चे देशभक्त और देश की उन्नति के प्रति एकनिष्ठ थे । वे इस बात को जानते थे कि देश में प्रभुत्व और एकता की स्थापना के लिए पर्याप्त विधायी, प्रशासनिक और वित्तीय शक्ति से युक्त केन्द्र आवश्यक है । देश की एकता और बंधुत्व की प्रवृत्ति को प्रेरित करने के प्रति भी इन विचारकों का योगदान सराहनीय है ।

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फिर भी, संविधान निर्माताओं की आलोचना की जाती है, क्योंकि उन्होंने संविधान द्वारा केन्द्र को अधिक शक्ति प्रदान की है । आलोचकों का मुख्य प्रश्न यह है कि इससे राज्य की स्वायत्तता को हानि पहुँचती है । उनके अनुसार संघात्मक होने के कारण इसकी एकात्मका निरर्थक है । इसके कारण राज्यों के भौतिक स्रोत और सांस्कृतिक परम्परा का स्वतंत्र विकास नही हो पाता है ।

राज्य की स्थिति महापालिका के समान हो जाती है । 1969 में तमिलनाडु सरकार द्वारा लागू राजमनार कमेटी में राज्यों को अधिक शक्ति प्रदान करने के लिए संविधान में संशोधन की माँग पेश की गई थी । राज्य को अधिक शक्ति और स्रोतों की उपलब्धि के लिए जो सुझाव दिए गए थे उनमें से कुछ इस प्रकार हैं – योजनाओं का विकेन्द्रीकरण, राज्य और केन्द्र के विवाद में उच्च न्यायालय के निर्णय की सर्वोच्चता, केन्द्रीय मंत्रिमंडल में विशेष राज्य के मंत्रियों की संख्या में नियंत्रण आदि ।

भारतीय संविधान के लचीलेपन, जिसके कारण केन्द्र और राज्य में राजनैतिक शक्ति का बंटवारा संभव हुआ है, के बारे में विचारकों में मतभेद हैं । लेकिन सुझाव एवं परिवर्तन लाने से पूर्व इस बात की ठीक प्रकार से जाँच हो जानी चाहिए कि कहीं यह राष्ट्रीय कल्याण की अपेक्षा निजी स्वार्थ से तो प्रेरित नहीं है । केन्द्र की शक्ति को क्षीण करने वाली संभावनाओं का समाधान पहले से कर लेना ही उचित रहता है ।

स्थानीय निष्ठा कभी भी राष्ट्रीय हित से बढ़कर नहीं हो सकती है । देश में विघटनकारी शक्तियों जैसे, क्षेत्रीयतावाद, भाषावाद और साम्प्रदायिकतावाद से केन्द्र की शक्ति क्षीण हो जाती है जिसके कारण भारत का एकीकृत राजनैतिक अस्तित्व खतरें में पड़ सकता है ।

सन् 1956 में भारत की भाषिक दृष्टि से विभाजित करने के जो प्रयास हुए थे, वे राजनैतिक भूल साबित हुए हैं, क्योंकि इससे धीरे-धीरे देश में पृथकतावाद का जन्म हुआ और राष्ट्रीय अखंडता की भावना को धक्का लगा । इससे भारत में विरोधी प्रवृतियों ने पुन: सिर उठाना शुरू कर दिया है ।

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स्वार्थी राजनीतिज्ञ अपने निजी स्वार्थ के लिए धर्म, भाजा, क्षेत्र आदि के नाम पर पृथकता उत्पन्न कर केन्द्र की शक्ति को कमजोर कर रहे हैं । इससे देश का वातावरण तनावपूर्ण हो जाता है, क्षेत्रीय विवाद उत्पन्न होते हैं । इन प्रवृतियों का भारत की अन्तरराष्ट्रीय स्थिति पर भी बुरा प्रभाव पड़ा है ।

इस स्थिति में थोड़ा-सा और विकास देश को आंतरिक रूप से निर्बल बना देगा । इससे भी बुरा परिणाम राजनैतिक अलगाववाद की ओर उन्मुखता होगी । राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए बलिदान और त्याग करने वालों का श्रेय व्यर्थ चला जाएगा । राष्ट्रीय स्तर पर इस प्रकार की आत्महंता प्रवृतियां को प्रभावकारी ढंग से रोकने के लिए सशक्त केन्द्र सशक्त भूमिका निभा सकता हैं ।

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राजनैतिक अनिवार्यताओं के साथ-साथ राष्ट्रीय हित तथा राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता की भावना को बनाए रखने के लिए सशक्त केन्द्र की आवश्यकता होती है । इसके बिना राष्ट्र का आर्थिक विकास संभव नहीं । हमारे देश के सभी राज्य आर्थिक तथा अन्य दृष्टियों से एक-दूसरे पर निर्भर हैं । केन्द्र के मजबूत न होने की दशा में राष्ट्रीय स्तर के विकास कार्यो को उचित दिशा नहीं मिल पाएगी ।

भारत की विकास योजनाएँ केन्द्र और राज्य के मध्य विस्तृत बातचीत के द्वारा निर्धारित होती है । जबकि केन्द्र पर यह आरोप लगाया जाता है कि इन योजनाओं के क्रियान्वयन के अधिकार केन्द्र के पास ही सुरक्षित रहते हैं । राज्यों द्वारा केन्द्र के परामर्श और सहयोग के बिना ही विकास योजनाएँ निर्धारित कर लेने से राष्ट्रीय एकता की भावना को गहरा आघात लगेगा । मजबूत केन्द्र की स्थिति में इस बात की संभावना ही उत्पन्न नहीं हो सकती ।

विश्व के मानचित्र पर भारत को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । इसकी राजनैतिक स्थिरता पर हमें ही नहीं अन्य देशों को भी गर्व है । अंतरराष्ट्रीय रूप से प्रख्यात होने के कारण पड़ोसी देशों की जलन और ईर्ष्या का शिकार होने की संभावनाएँ बहुत अधिक है, इसलिए सीमा पर कड़ी सुरक्षा का प्रबंध होना चाहिए । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के लोगों को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए यह अपनी अर्थव्यवस्था के नवीनीकरण की ओर प्रयासरत है । ये सभी लक्ष्य तभी पूर्ण हो सकते हैं, जबकि इसका केन्द्र सशक्त हो ।

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