न्यायिक सक्रियता के निहितार्थ पर निबंध | Essay on The Implications of Judicial Activism in Hindi!

बिजली चोरी के लिए गैरजमानती वारंट जारी किया जा सकता है? दिल्ली की एक निचली अदालत के न्यायाधीश के पास इस संबंध में आपराधिक दण्ड संहिता (क्रिमिनल प्रोसिजर कोड) की बुनियादी जानकारी न होने के चलते की गयी ऐसी कार्रवाई राष्ट्रीय स्तर की सुर्खियां बनी ।

यह अकारण ही नहीं था कि दिल्ली हाईकोर्ट को इस मामले में दखल देकर निचली अदालत के उपरोक्त न्यायाधीश को कानून संबंध में एक माह के रिफ्रेशर कोर्स पाठ्यक्रम को लेने का निर्देश देना पड़ा । गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन, न्यायमूर्ति आर. वी. रवींद्रन और जस्टिस दलवीर भंडारी की तीन सदस्यीय पीठ ने भी पिछले दिनों अभियुक्तों के नाम वारंट जारी करते वक्त की जा रही मनमानी पर चिंता प्रकट करते हुए न्यायपालिका को आगाह किया ।

अपने फैसले में उन्होंने संवैधानिक अधिकार तथा व्यक्तिगत आजादी के बीच संतुलन बनाने की सलाह देते हुए समाज के व्यापक हितों की हिफाजत करने की जरूरत को रेखांकित किया और यह कहा कि सभी उपलब्ध तथ्यों के मद्देनजर और कानून की उचित प्रणालियों के आधार पर ही फैसले किये जाने चाहिए ।

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लेकिन क्या न्यायपालिका के अंतर्गत आम नागरिकों को न्यायिक क्षतिपूर्ति में आने वाली दिक्कतों को सिर्फ वारंट जारी करने में होती ‘मनमानी’ तक ही सीमित रखा जा सकता है? शायद यह कहना नाकाफी होगा । टुकड़ों-टुकड़ों में हम अब इससे वाकिफ होते रहते हैं, जिसकी सबसे बड़ी सूचना हमें यह मिलती रही है कि हिंदुस्तान की विभिन्न अदालतों में ढाई करोड़ से अधिक मुकदमें लंबित हैं ।

चूंकि हमारा अधिकतर सामना निचली अदालतों से करना पड़ता है, तो उसकी दिक्कतें अधिक दुरूह मालूम पड़ती हैं । पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम के द्वारा प्रायोजित अध्ययन ने आम जनमानस में निचली अदालतों के बारे में व्याप्त इसी छवि पर अपनी मुहर लगा दी ।

निचली अदालतों में न्याय पाने की प्रक्रिया में उजागर होते अज्ञान, बेरुखी और अकार्यक्षमता की दारुण स्थिति को इसने उजागर किया । इस मामले में झारखंड पहला राज्य रहा है, जहां अवर न्यायपालिका की स्थिति को रेखांकित करते हुए रिपोर्ट प्रकाशित भी हो चुकी है ।

यह बात मानी जा सकती है कि कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में उपरोक्त अध्ययन के पूरे होने के बाद अवर न्यायतत्र न्यायाधिकारियों को लेकर जो तस्वीर सामने आएगी, वह झारखंड के निष्कर्षो से गुणात्मक तौर पर भिन्न नहीं होगी ।

अध्ययन में यह चिंताजनक तथ्य उजागर हुआ कि जिला अदालत का एक अवर न्यायाधीश अदालत में लगभग पांच घंटे बिताता है और अपने पास रोजाना आने वाले औसतन 29 मामलों में से महज दो मामलों को ही निपटाता है ।

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एक तीखी टिप्पणी में रिपोर्ट में कहा गया कि न्यायाधीशगण ऐसे ही ‘घूमते’ रहते हैं, शारीरिक तौर पर और दिमागी तौर पर भी । न्यायाधीशगणों में प्रोफेशनल रुख एवं कुशलता की कमी को रेखांकित करते हुए रिपोर्ट यह भी बताती है कि किस तरह वे यांत्रिक व्यवहार करते हैं और वकीलों एवं मुवक्किलों दोनों से अलगाव झेलते हैं ।

अवर न्यायतंत्र की कार्यप्रणाली के बारे में प्रस्तुत निष्कर्षो की चर्चा करते वक्त अक्सर लोगों के मन में उच्च न्यायतंत्र के बारे में अधिक उजली छवि मौजूद रहती है । ये वही मान कर चलते हैं कि अवर न्यायतंत्र भले ही तमाम खामियों से लिप्त हो, लेकिन उच्च न्यायतत्र इन तमाम बीमारियों से मुक्त रहता है ।

कुछ साल पहले सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख न्यायाधीश पद पर आसीन न्यायमूर्ति भरूचा ने अपनी तहरीर में साफ कहा था कि उच्च श्रेणी की न्यायपालिका के बीस फीसदी अधिकारी भ्रष्ट हैं । लोग शायद इससे वाकिफ नहीं और बहुत कम लोग ही इस बात के जानकार दिखते हैं कि न्यायिक दुराचरण का दोषी पाये जाने वाले किसी उच्च स्तरीय न्यायाधीश को अगर दंडित करना हो तो उस पर महाभियोग ही चलाया जा सकता है, जिसकी शुराआत करने के लिए कम-से-कम लोकसभा के सौ सदस्यों या राज्यसभा के 50 सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित ज्ञापन की आवश्यकता है ।

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यह अकारण नहीं कि आजादी के बाद के साठ वर्षो में सर्वोच्च न्यायालय के महज एक सदस्य (रामास्वामी) के खिलाफ महाभियोग चलाने की स्थितियां बनी हैं । यह मामला भी बीच में ही लटक गया था । उच्च न्यायतंत्र की कार्यप्रणाली में जवाबदेही की कमी एवं उसके सदस्यों के आचरण में पारदर्शिता के अभाव का मसला हाल ही में नये सिरे से विचारणीय हो उठा है । पूर्व मुख्य न्यायाधीश सबरवाल के कार्यकाल में दिये गये सीलिंग संबंधी निर्णय से उठा विवाद इस सबके केंद्र में है ।

गौरतलब है कि सीलिंग के निर्णयों में पारदर्शिता की कमी का मसला, कई प्रतिबद्ध वकीलों एवं पूर्व न्यायाधीशों ने मिलकर उठाया, तो इसकी खबर छापने के ‘जुर्म’ में ‘मिड डे’ के चार पत्रकारों को अदालती अवमानना का दोषी करार देते हुए उच्च अदालत ने चार महीने की सजा सुना दी । हाल ही में आयोजित राष्ट्रीय सेमिनार में इन्हीं बिन्दुओं पर चर्चा की गयी । सेमिनार में ‘राष्ट्रीय जुडिशियल कमीशन’ के गठन के लिए भी आवाज बुलंद की गयी ।

कुछ समय पहले जब अवमानना का मसला काफी गरमाया था उन दिनों बड़ौदा एवं आसपास कार्यरत ट्रेड यूनियन कर्मियों ने इस अदालत की अवमानना के मसले पर रोशनी डाली थी । पश्चिमी गुजरात में लंबे समय से श्रमिक तथा अन्य मानवाधिकारों पर काम करने वाले इन लोगों का अपना अनुभव यही था कि श्रमिकों से जुड़े लगभग सभी मामलों में अदालतें उद्योगपतियों या सरकारों को दंडित नहीं कर पायी है । इसी के चलते उनके मुताबिक श्रमिकों और औद्योगिक अदालतों के 80 फीसदी फैसलों पर उद्योगपतियों ने अमल करना भी जरूरी नहीं समझा है ।

अंत में न्यायपालिका की सक्रियता की सीमाओं के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ए. एम. अहमदी की टिप्पणी काबिलेगौर है, जो उन्होंने एक भाषण में पेश की थी । उनका कहना था कि सांप्रदायिक दंगों के संदर्भ में जहां राज्य की सहभागिता स्पष्ट होती है, ऐसी स्थितियों में न्यायपालिका इन लोगों के खिलाफ अपने स्तर पर तत्काल कार्रवाई क्यों नहीं करती, जिनके पूणा भरे वक्तव्य स्थिति को बिगाड़ सकते हैं । उनका यह भी कहना था कि छोटे-छोटे मामलों में क्यों नहीं बोलती, ऐसे तमाम सवाल उन्हें सुन्न कर देते हैं ।

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मासूम नागरिकों पर होने वाले योजनाबद्ध हमले- जो भले ही दंगाइयों की तरफ से हों या आतंकवादी समूहों की ओर से हों, उनकी हर सूरत में भर्त्सना की जानी चाहिए । जब तक ऐसे तत्वों के साथ सख्ती नहीं बरती जाती, यह बीमारी बढती जायेगी, जो लोकतंत्र के ताने-बाने को ही खोखला कर सकती है ।

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