भारत में न्यायपालिका की भूमिका | The Role of the Judiciary in India in Hindi ।

प्रस्तावना:

देश की जनता को किसी प्रकार की तकलीफ न हो, शासन सुचारू रूप से चले, सबके मौलिक अधिकार सुरक्षित रहें, धर्म-जाति के नाम पर विवाद न हों । इन सभी बातों का ध्यान हमारे संविधान निर्माताओं ने रखा, परन्तु इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि स्वार्थ के लिए हमारे राजनेताओं ने संविधान को मनमर्जी से तोड़ा-मरोड़ा ।

कई मामलों में संविधान की भावना का उल्लंधन भी किया गया । यह न्यायपालिका ही थी जिसने देश की लाज रख ली, अन्यथा विदेशों में देश की थू-थू हो रही थी ।

चिन्तनात्मक विकास:

संविधान निर्माताओं ने विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का गठन इसलिए किया था कि जन प्रतिनिधियों द्वारा बनाए गए कानूनों का फायदा जनता बखूबी उठा सके l उसमें किसी प्रकार की अड़चन न आयें । संविधान में व्यवस्था की गई है कि विधानपालिका विधि निर्माण करे, कार्यपालिका विधियों का कार्यान्वयन और प्रशासन की देख-रेख करे तथा न्यायपालिका विवादों का फैसला और विधियों की व्याख्या करे, किन्तु ऐसा आज तक नहीं हुआ ।

तीनों अंगों के समन्वयकारी मिलन से ही आधुनिव ? राज्य व्यवस्था का प्राधिकरण बनता है । विधायिका पथभ्रष्ट हो रही है और कार्यपालिका अपने कार्य क्यों नहीं ठीक प्रकार से कर पा रही ?  कहा जाए तो सिर्फ नीतियों की विसंगतियाँ, भ्रष्टाचार, घोटालों का होना और उसका खुलकर उभर आना भर ही तथ्य नहीं है तथ्य यह भी है कि इस पूरी प्रक्रिया में उसी व्यवस्था को जिलाये रखने के प्रयास भी हो रहे हैं जिसकी वजह से न्यायपालिका को इतर जिम्मेदारियाँ उठानी पड़ रही हैं ।

उपसंहार:

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न्यायिक सक्रियता के सम्बंध में केवल इतना कहना पर्याप्त होगा कि यह सम्पूर्ण सक्रियता नहीं है, न ही यह स्थायी है । भारत की सम्पूर्ण न्यायिक सक्रियता की सार्थकता उस समय जानी-मानी जाएगी जब भारतीय समाज में भारतीय संविधान रूपी तिरंगा (विधायिका, न्यायपालिका एवं कार्यपालिका) लहराएगा ।

इसका प्रत्येक रंग एक समान होगा, एक रंग दूसरे रंग के प्रति निष्ठावान होगा और अपने अधिकार क्षेत्र में सीमित रहते हुये, दूसरे के कर्तव्य निर्वाह में सहायक सिद्ध होगा और तभी संविधान निर्माताओं का सपना भी साकार होगा । गणतन्त्र दिवस अर्थात् 26 जनवरी हमारा राष्ट्रीय पर्व है । स्वाधीनता से पूर्व हम इस दिन पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करने का अपना प्रण दोहराया करते थे ।

देश की स्वाधीनता के पश्चात् इस दिन के राष्ट्रीय एवं ऐतिहासिक महत्व को चिरस्थायी बनाने के लिये इसी दिन 26 जनवरी, 1950 को हम भारत के लोगों ने अपनी संविधान-सभा द्वारा रचित स्वाधीन भारत का संविधान लागू किया और इस प्रकार भारत एक सम्पूर्ण प्रमुसत्ता सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बना ।

संविधान ने देश की राजनीतिक व्यवस्था और शासन का बुनियादी सांचा-ढांचा निर्धारित किया, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे प्रमुख अंगों की स्थापना की, उनकी शक्तियों की व्याख्या की और उनके पारस्परिक तथा जनता के साथ संबंधों और अधिकार-क्षेत्रों का विनियमन किया ।

26 जनवरी, 1997 को हमारा संविधान और गणतन्त्र दोनों ही अपने जीवन के 47 वर्ष पूरे कर वे वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं । कहते हैं- राष्ट्र के जीवन में 48 वर्ष कोई बहुत लम्बा समय नही होता । फिर भी उचित होगा कि हम अपनी आज तक की उपलब्धियो और असफलताओं पर दृष्टि डालें, एक लेखा-जोखा तैयार करे और देखे कि प्रौढता को पहुँचते-पहुँचते इन वर्षो मे हमने क्या खोया, क्या पाया ।

हमारे स्वाधीनता सेनानियो और राष्ट्र निर्माताओ के कितने सपने साकार हो सके और कितने राख हो गए । क्या कारण है कि अब गणतन्त्र दिवस पर न तो कहीं कोई उल्लास, आस्लाद और उमग है और न कोई त्याग, समर्पण और देश के लिए कुछ करने के सकल्प की भावना ।

आज हर जगह व्यापक गरीबी, भुखमरी, बेकारी, अशिक्षा और बेतहाशा बढती हुई आबादी, राजनीति में भयकर भ्रष्टाचार और अपराधीकरण आदि समस्याओं की ही चर्चा हो रही है । देशवासियों को लगता है कि उन्हें धोखा दिया गया, छला गया ।

नेतृत्च ने उनके साथ विश्वासघात किया । म्ग्ष्ट अधिकारियों, तस्करी नेताओं और अपराधियों ने अपने-अपने उन्न सीधे करने के लिए, हमारे लोकतन्त्र का अपहरण कर लिया । संविधान की प्रस्तावना में ‘न्याय’ को सबसे ऊंचा स्थान दिया गया । गणतत्र का सबसे पहला उद्देश्य था नागरिको को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय दिलाना ।

किंतु, हुआ यह कि शीघ्र ही विभिन्न निहित स्वार्थ और हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि और प्रशासक, हम नागरिकों के हितों और गरिमा की रक्षा करने और हमे न्याय दिलाने के बजाय, अपने निजी स्वार्थों के पोषक, सत्ता के सौदागर, जनता के शोषक और जनहित के शत्रु बन बैठे । घोटालों पर घोटाले होते रहे तथा कार्यपालिका और विधायिका चुप्पी साधे रहे और नेताओं, मंत्रियों और अफसरों के कुकृत्यों और भ्रष्ट आचरणो पर पर्दा डाले रहे ।

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अब जनता की सहनशीलता का बांध टूटता नजर आया, लोकतंत्र की अंत्येष्टि और आने वाले विनाश के तांडव की चाप सुनाई देने लगी और साफ दिखाई देने लगा कि यदि व्यवस्था के भीतर से कोई समाधान नहीं निकला तो व्यवस्था ही टूट जाएगी, तब न्यायपालिका ने जनहित में, विधि और न्याय का शासन सुरक्षित करने के लिए अपने क्षेत्राधिकार से अधिक सक्रिय और प्रभावी भूमिका निभाने का बीडा उठाया ।

वर्तमान समय में न्यायपालिका की सक्रियता. का तात्पर्य यह नहीं है कि पहले न्यायपालिका सोई हुई थी । न्यायपालिका द्वारा पहले भी अनेक महत्वपूर्ण फैसले लिये गये थे जिन्होंने राजनीतिज्ञों को हिला दिया । वस्तुत: भारत में प्रारम्भ से ही संसद एवं न्यायपालिका तथा कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच अधिकारों के लिए एक प्रकार का संघर्ष दिखायी देता है ।

न्यायपालिका ने अपनी ‘न्यायिक पुनरावलोकन’ की शक्ति के तहत कई बार संसदीय निर्णयों को प्रभावित किया तो दूसरी ओर संसद ने सुविधान संशोधन कर न्यायालय के निर्णयों को शून्य कर दिया । गोलकनाथ बनाम पंजाब विवाद, केशवानन्द भारती बनाम केरल, बाद में मेनमा बनाम भारत संघ व मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ आदि मामलों में यह स्थिति दिखती है, किन्तु यथार्थ में कार्यपालिका न्यायपालिका के नियन्त्रण में नहीं आ सकी ।

संविधान संशोधन पारित कर न्यायपालिका के निर्णयों का प्रणाव विलुप्त करने का प्रयत्न किया गया । 1975-77 में राष्ट्रीय आपातकाल घोषित कर कार्यपालिका द्वारा खुलकर सत्ता का दुरुपयोग तथा लोकतन्त्र की अवमानना की गई परन्तु न्यायपालिका कुछ न कर सकी ।

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1986 में ‘मुस्लिम महिला संरक्षण कानून’ पारित कर न्यायालय के ‘शाहबानो विवाद’ के प्रगतिशील निर्णय को शून्य कर दिया गया । अत: इस स्थिति को ‘न्यायिक शिथिलता’ के रूप में परिभाषित कर दिया गया किन्तु विगत कुछ वर्षों में स्थिति में परिवर्तन आया है । जन-जन में आशा की हल्की-सी किरण दिखाई दी कि शायद हमारा गणतन्त्र उस विभीषिका से बच जाए जिसका सामना हमारे पडोसी देशों को बार-बार करना पड़ता रहा है ।

संविधान एक जड दस्ताधेज मात्र नहीं है । संविधान केवल वह नहीं है जो उसके मूल पाठ में लिखा है । संविधान तो सक्रिय संस्थाओं का एक सजीव सघटक है । संविधान अपेक्षा करता है कि राज्य के सभी अंग-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सक्रिय रहेंगे ।

उनकी सक्रिय भूमिका के बीच ही सविधान पनपता-पल्लवित होता है । प्रत्येक संविधान इसी से अर्थ ग्रहण करता है कि उसे किस प्रकार अमल में लाया जा रहा है । बहुत कुछ इस पर निर्भर होता है कि न्यायालय किस प्रकार उसका निर्वचन करते हैं तथा विभिन्न अंगों के बीच आपस मे तथा जनता के साथ सम्बंधों में कैसा और कितना सार्थक तालमेल बैठता है ।

पहला प्रश्न यह उठता है कि क्या आज विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बिल्कुल अलग-अलग परिभाषित और परिसीमित अधिकार क्षेत्र है भी ? विधायिका विधि निर्माण करें, कार्यपालिका विधियों का कार्यान्वयन और प्रशासन की देखरेख करे तथा न्यायपालिका विवादो का फैसला और विधियों की व्याख्या करे, ऐसा आज नहीं है । हो भी नहीं सकता ।

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तीनो अंगों के समन्वयकारी मिलन से ही आधुनिक शासन व्यवस्था का प्राधिकरण बनता है । विधि निर्माण में तीनो अंग लगभग बराबर के भागीदार हैं । कार्यकारी क्षेत्र में विधानमण्डल के ही कुछ सदस्य मत्रिमण्डल के रूप में शासन करते हैं किन्तु विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी तथा अपने कृत्यो की सवैधानिकता के लिए न्यायपालिका के निर्णयों पर आश्रित रहते हैं ।

दुर्भाग्य से इन तीनों स्तंभों मे से सर्वाधिक ज्यादा गिरावट विधायिका मे आई है । रोज कोई न कोई नेता भ्रष्टाचार के कारनामो मे लिप्त पाया जा रहा है । इसका भी कारण है कि चुनावों मे अकूत धन खर्च होता है । लोग चुनावो मे 50-60 लाख रुपए तक खर्च देते है ।

आखिर इतना धन नेता वेतन से तो नहीं जोड़ सकता । सहारा वही काला धन बनता है । चुनाव आयोग ने खर्च पर प्रतिबंध लगाया तो नेताओं के मित्र खर्च उठाने लगे । संसद सत्ता के भूखे होते जा रहे हैं । हर पार्टी का एक ही उद्देश्य रह गया हैं-सत्ता मिले, चाहे किसी भी तरह ।

संसद का काम है कि कार्यपालिका पर निगरानी रखे । उसने जो आदेश दिया वह कार्यान्वित हो भी रहा है कि नहीं अथवा आपने किया नहीं । कायदे से निगरानी न रखने का हश्र आप देख रहे हैं । 17 हजार करोड का हर्षद ने घपला किया । संयुक्त संसदीय समिति ने जांच की । कोई भी गुनाहगार हुआ ? किसी को सजा मिली ? एक पैसा भी वापस मिला ? इससे बडी विफलता और क्या होगी संसद की ।

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पशुपालन घोटाला करके केंद्र द्वारा प्रदत्त धन लोग खा लेते हैं । संसद या केंद्र कुछ नहीं कर पाता । राजनीतिज्ञों में से कोई भी अछूता नहीं है काले धन के कलंक से । चुनावों का खर्च कहां से आता है ? गुमनाम मित्र चुनाव खर्च क्यों उठाते हैं ?

हम सब संसद मे झूठी शपथ लेते हैं । कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं । नेतृत्व की साख इतनी गिरती जा रही है कि किसी भी पार्टी के किसी भी नेता पर कैसा भी संगीन आरोप लगा दीजिए, जनता विश्वास कर लेगी कि उसने ऐसा-वैसा किया होगा ।

जनता की जन प्रतिनिधियों में आस्था खत्म होती जा रही है । किसी नेता पर आरोप लगा दीजिए, धडाधड उसके खिलाफ खुद पार्टी के लोगो के बयान आने लगेगे । हो सकता है न्यायपालिका छोड़ भी दे, लेकिन पार्टी वाले पहले दोषी बता देते हैं । कानून बनाने वाले ही कानून के उलट चल रहे हैं ।

जब विधायिका ने अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं किया तो कोई और क्यों करेगा । कार्यपालिका यानी प्रशासनिक व्यवस्था की बढती शिथिलता और उसकी कार्यपद्धति को प्रभावित करती राजनीतिक ताकते, इन्हीं सब कारणों से न्यायपालिका में अभूतपूर्व सक्रियता देखने में आयी ।

न्यायपालिका की कार्यप्रणाली में आए इस सकारात्मक बदलाव ने ही उन प्रशासनिक रियों को जेल की हवा दिला दी जो अक्षमता के कहीं न कहीं दोषी थे या उन्होंने विवेकपूर्ण अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं किया । बड़े-बड़े पदों पर आसीन राजनेताओं को, जिन्हें आज इसी ने छूने तक की हिमाकत न दिखाई थी आम आदमी की भांति कानून के कटघरे में खडा कर दिया गया । और तो और कार्यपालिका के अनेक दोषों को न सिर्फ रेखांकित ल्कि उसे चुस्त-दुरुस्त बनाने का बीड़ा भी कानून ने अनेक अवसरो पर उठाया ।

भ्रष्टाचार न करने का साहस अब तक कम से कम कार्यपालिका में तो कतई नहीं था । कारण कि लेका में उच्च पदो पर आसीन अफसर ही उसमें आकंठ डूबे हुए हैं । आज भ्रष्टाचार के । दलील देते हैं- लगभग प्रत्येक व्यक्ति बेईमानी करता है, कोई छोटी और कोई बड़ी । कि जो जहां आसीन है अपने हिस्से की बेईमानी उसका अधिकार है । अपने मनमाफिक ग्रष्टाचार की दुहाई देने वालो ने इसे अपने पक्ष में गढा है ।

आम आदमी की बेबसी का न केवल स्वयं कार्यपालिका और उससे संबंधित एजेसियाँ खुलकर देख रही हैं बल्कि में खुद भी शरीक हो रही हैं । ऐसे में लोकतन्त्र के खुले ढंग से उड़ाए जा रहे इस हा मंजर कितना भयावह होगा । इस स्थिति में यदि न्यायपालिका की भी सक्रियता न उस गरीब बेबस का तो भगवान ही मालिक है जो अपनी कमाई का बढा हिस्सा लोकतंत्र पुटेरों, भ्रष्टाचारियों, को न चाहते हुए भी लुटा देता है ।

जिस कमाई से उसकी और रिवार की दो जून की रोटी ही चल सकती है, को भी भ्रष्टाचारी लूटकर अपने ऐशो । साधन जुटाते रहते हैं । रिश्वत लेने के अनेक मामलों में संबधित भ्रष्टाचारियों के दोषी पर उन्हें सजा देने के निर्देश में विशेष न्यायाधीश विद्या भूषण गुप्ता लिखते हैं ‘रिश्वत घज पर लगा एक कलंक है ।

यह वह कोढ़ है जिससे यथाशीघ्र समाज को मुक्ति दिलाने शे शुरू न की गयीं तो खासकर पहले ही से शोषित और गरीब तबका बर्बाद होकर रह जाएगा । देश को आजादी मिलने के समय कार्यपालिका मे भ्रष्टाचार के बीज अंकुरित नहीं हुए थे । कि जिस पीढी के हाथों में कार्यपालिका की डोर थी, यह वह पीढ़ी थी जिसने आजादी नडाई में कुछ न कुछ होम जरूर किया था । वे अपनी-अपनी आजादी की और कार्यपालिका की कीमत को भली भांति जानते थे ।

उस समय कार्यपालिका से जुडे लोगों का परसेवा श्वास भी था । अंग्रेजी शासन की लंबी गुलामी में शोषण उन्हें बेशक मिला था पर उन्हें ही खासी समझ भी थी कि उस शासन ने उन्हें अनुशासन का महत्व समझाया । अंग्रेज तौर पर बेईमान भी कदापि नहीं थे ।

अपने देश ब्रिटेन के लिए उन्होंने भारत जैसी चेडिया का जमकर शोषण किया पर इस बात की मिसालें हैं कि अपने निजी हित के ने भ्रष्टाचार नहीं किया । इस बात का अर्थ यह कदापि नहीं कि यह अंग्रेजी शासन की अपने दुश्मन में भी अच्छाइयां खोजकर उनका परिगमन करने की हिम्मत तो हम में चाहिए ।

कार्यपालिका की अक्षमता का गुबार लोगों के मन में पनप ही रहा था, ऐसे में सवाल था ट्ट जिस क्रम में अनियंत्रित सा हो रहा है उसे नियंत्रित कौन करे लोकतंत्र के महत्वपूर्ण । एक संसदीय व्यवस्था में आसीन लोग भी अधिकांशत: भ्रष्टाचार और छोटे रास्ते से के रंग में रंग चुके थे ।

अफसरशाही हावी होती जा रही थी और शोषण की प्रवृत्ति राजनीतिक निकल बढ रही थी, तो आस एकमात्र न्यायपालिका से ही तो बची थी । दरअसल आम आदमी की न्याय के प्रति उम्मीदें तब ज्यादा बढीं जब न्यायपालिका ने इमरजेसी के बाद एक क्रांतिकारी कदम उठाया । उच्चतम न्यायालय ने एक फैसला किया जिसके अन्तर्गत न्यायालयों में जनहित याचिकाएं दायर करने का प्रावधान शुरू हो गया ।

जागरूकता और जुझारू सगठनों की तादाद बढते चले जाने के साथ ही जनहित याचिकाओं के जरिए शीर्ष पर व्याप्त भ्रष्टाचार को निशाने बनाने की हिम्मत भी लोगों में जागने लगी । बस एक जनहित याचिका दायर की, न्यायालय ने एजेसी से जांच करायी, जांच में शिथिलता पाए जाने पर एजेंसी को लताड लगायी और बाद में सब कुछ खुलासा होकर सामने आ गया । बाद में उच्चतम न्यायालय ने कुछ ऐसी ही जनहित याचिकाएं, जो पिछले दिनों दायर हुई थी, बड़ी तत्परता से सुनी, समझीं और उससे पीड़ितों को न्याय मिला ।

पर संगठनों ने जनहित याचिकाओं की मार्फत ब्लैकमेलिंग और भ्रष्टाचार को मजबूत हथियार भी बना लिया । उच्च न्यायालय के अधिवक्ता आर.के.सैनी कहते हैं, न्यायाधीश हमेशा से राजनीति मे व्याप्त जैसे सवेदनशील विषय पर जागरुक रहे हैं ।

नेताओं व अफसरों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपी को उन्होंने ध्यान से सुना है और फिलहाल ऐसे ही मामले निपटारे के लिए न्यायालयों मे ज्यादा आ रहे हैं । जहाँ तक न्यायपालिका का सम्बंध है, न्यायालयों के गठन, संगठन, अधिकार- क्षेत्र एवं शक्तियों का विनियमन करने वाले विधान बनाने की शक्ति संसद को प्राप्त है । संसद विधि द्वारा उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि कर सकती है ।

वस्तुत: इसी शक्ति के अतर्गत संसद ने न्यायाधीशों की संख्या 8 से बढ़ाकर 26 कर दी है । उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयो के सभी न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा किसी भी न्यायाधीश को उसके पद से हटाए जाने की प्रक्रिया में भी राष्ट्रपति और संसद की प्रमुख भूमिका होती है ।

इस प्रकार किसी न किसी रूप में तीनों अंग एक-दूसरे पर आश्रित हैं । आवश्यकता इस बात की है कि तीनो मिल-जुलकर समन्वयकारी दृष्टिकोण से जनहित को सर्वोमरि रख आचरण करें और अपनी-अपनी भूमिका निभाएं ।

मूलत: यह सरकार का काम है कि वह नागरिकों की और उनके अधिकारों की रक्षा करे तथा देश को एक कुशल और न्यायोचित प्रशासन प्रदान करे । किंतु अगर ऐसा नहीं होता और विवश नागरिक न्यायालय का द्वार खटखटाने पर बाध्य हो जाता है तो न्यायालय का निश्चय ही कर्तव्य बनता है कि संविधान और कानूनों के अनुसार निर्णय दे ।

यदि पिछले दो-तीन वर्षो के उच्चतम न्यायालय के उन सभी निर्णयों का तटस्थ दृष्टि से कनक जिनकी ओर अंगुली उठाई जाती है तो देखेगे कि वे अधिकांशत: न केवल न्यायसंगत, अपितु स्थिति विशेष मे अनिवार्य और आवश्यक भी थे ।

भ्रष्टाचार की विशेषता ही यही है या तो आप उसे मिटाने की कोशिश करते हैं या आपको कुछ और ज्यादा भ्रष्ट होना पड़ता है । सरकार और न्यायपालिका के बीच यह जो विभिन्न स्तरों पर टकराव की स्थितियां बनती दिखायी पड रही हैं, उसका कारण यह तनाव ही है ।

राजनेताओं का एक वर्ग है जो भ्रष्टाचार के अपराधी दूसरे वर्ग को उसके किये की सजा दिलाना नहीं चाहता । लेकिन मामला चूकि न्यायालय में आ गया है, अत: न्यायालय अपने कर्तव्य से कैसे आँख मूद सकता है ? वह समय-समय पर कोडे फटकारता है ।

इससे यह भ्रम पैदा होता है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच द्वन्ह का खतरा उपस्थित हो गया है । वस्तुत: यह द्वन्द्व नहीं है, कार्यपालिका का दागदार चेहरा है, जिसे छिपाये रखने में न्यायपालिका मदद नहीं करना चाहती, जो उचित ही है ।

न्यायिक सक्रियता का सवाल तब उठता, जब न्यायालयों ने अपनी ओर से कोई पहल की होती या किसी मामले में उन्होंने जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी ली होती । सेंट किट्‌स की जालसाजी हो या झारखंड मुक्ति मोर्चा के सासदों को रिश्वत देने का मामला या चारा घोटाला-कोई भी मुकदमा न्यायपालिका की पहल पर शुरू नहीं हुआ था ।

स्वय सरकार ही ये मामले लेकर न्यायालय में गयी है या किसी नागरिक ने शिकायत की है । इस पर न्यायालय क्या करता ? क्या वह कह देता कि हमारे राजनेता तो दूध के धुले हुए हैं, अत: उन पर अगुली नहीं उठायी जा सकती ?

कानून और न्याय की प्रक्रिया के तहत जो न्यूनतम अपेक्षित था, वही न्यायालयों ने किया । उन्होंने सरकार को आदेश दिया कि वह इन शिकायतों की उचित जांच करे और अगर अपराध हुआ है, तो अपराधी को अदालत मे प्रस्तुत किया जाये । यह बहुत ही सामान्य-सी बात है । अब अगर सरकार इतना भी करने मे असमर्थ है, तो हम केसे कह सकते हैं कि इस देश में कोई जायज सरकार है ?

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न्यायपालिका का काम अपराध या अपराधी का पता लगाना नहीं है । सामान्यत: यह काम पुलिस ही करती है (केन्द्रीय जांच ब्यूरो भी पुलिस का काम करता है) । पुलिस इसलिए यह काम करती है, क्योंकि कार्यपालिका की यह संवैधानिक जिम्मेदारी हे कि वह विधायिका द्वारा पारित किये गये कानूनी का उल्लंघन न होने दे और जो उल्लंघन करते हैं, उन्हें अदालत मे हाजिर कर सजा दिलवाये ।

लेकिन राजनेताओं से जुडे हुए इन तमाम मामलों में हम पाते हैं कि पुलिस या सीबीआई. ने जांच कार्य में अपेक्षित चुस्ती नहीं दिखायी । न्यायालय बार-बार ताकीद करता रहा है कि अपराधी को पकड़ कर हमारे सामने पेश करो और केन्द्रीय जांच ब्यूरो बार-बार मोहलत लेता रहा, बार-बार अपनी असमर्थता सिद्ध करता रहा । क्या यह कानून के शासन का अपमान नहीं है ?

क्या यह न्यायिक प्रक्रिया की अवहेलना नहीं है ? ऐसे में अगर न्यायपालिका बादबार उत्तेजित हो उठती है और सरकार के निकम्मेपन पर कठोर टिप्पणियां करने को बाध्य होती है,तो इसके लिए क्या वे लोग ही जिम्मेदार नहीं हैं जो राजनीतिक अपराधों को उजागर नहीं करना चाहते ? कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो रही है, तो स्पष्ट है कि यह टकराव कहां से आ रहा है ।

कूडे की सफाई, प्रदूषण पर नियन्त्रण, फैक्टरियो के स्थानातरण, सरकारी अधिकारियों की पदोन्नति अथवा नियुक्ति, राजनीति के अपराधीकरण आदि मुद्दो से संबंधित जांच की प्रगति की रिपोर्ट, अपराधियों को अदालत की आज्ञा के बिना हथकडी न पहनाना, समान नागरिक संहिता के लिए कानून बनाना, मुख्य चुनाव आयुक्त के अवकाश काल में पद का प्रभार सौंपने के लिए आयुक्त का चयन, सरकार के आदेश लागू करने में हुई न्यायालय की आज्ञा की अवहेलना के लिए एक अफसर को जेल की सजा, न्यायाधीशों की नियुक्ति में सरकार की भूमिका आदि विषयो में न्यायालय के निर्णयों और आदेशों को लेकर विभिन्न क्षेत्रों में तीव्र प्रतिक्रिया हुई है तथा न्यायालयो की सीमातीत क्रियाशीलता की तथा अपने कार्यक्षेत्र के अतिक्रमण अथवा अन्य क्षेत्रों में अनुचित हस्तक्षेप की आलोचना हुई है ।

किन्तु उनके पक्ष में भी बहुत कुछ कहा जा सकता है । कितने ही मामले ऐसे सामने आये है जिनमें न्यायालयों के हस्तक्षेप से ही स्थिति कुछ संभल सकी है । यह सोचकर भी भय लगता है कि यदि न्यायालय ने न बचाया होता तो जो विषम स्थितियां हमारे शासको और राजनेताओ ने पैदा कीं और जिस विनाश के कगार पर देश को लाकर बार-बार खड़ा किया, उसमे आज हम कहां होते ।

उच्चतम न्यायालय के निर्णयों से ही यह तय ध्या कि अवैध आदेशो को मानना सरकारी अधिकारियो, प्रशासकों, पुलिसकर्मियों आदि किसी के लिए भी जरूरी नहीं, जीने के अधिकार में ढंग से जीने का, जीविका का, शिक्षा का अधिकार भी शामिल है और शासन का कर्तव्य है कि उन सबकी व्यवस्था करे, इलाज में लापरवाही करने वाले डॉक्टर के खिलाफ मरीज उपभोक्ता संरक्षण कानून के अन्तर्गत मुआवजे का दावा कर सकता है, अवकाश प्राप्त सरकारी कर्मचारी की ग्रेच्युटी के भुगतान को कोई रोक नहीं सकता, चुनाव आयोग किसी दल की मान्यता समाप्त कर सकता है, न्यायाधीश सरकार के अधीन नहीं होते, विधवा और पुत्री को सयुक्त परिवार के कर्ता की मृत्यु पर जायदाद मे हिस्सा मिलना चाहिए, वोहरा समिति की पूरी रिपोर्ट न्यायालय के सामने रखी जाए, हवाला काण्ड के सिलसिले में ठीक से समयबद्ध जांच हो ताकि राजनीतिइघे और अपराधियों की सांठगांठ में हुये अपराधों के दोषियों कम्ए सजा मिले, न केवल विवाह के समय अपितु बाद मे भी दहेज मांगने वालों को दोषी माना जाए ।

केन्द्र एक स्वतन्त्र स्वायत्त लोक अधिकरण की स्थापना कर इलेक्ट्रॉनिक समाचार साधनों पर सरकार के एकाधिकार और नौकरशाही के आधिपत्य को समाप्त करे । यह सभी आवश्यक, वांछनीय और स्वागत योग्य कदम कहे जाएंगे ।

यदि जनता का विश्वास अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों से उठ जाए, यदि राजनीतिक संवैधानिक व्यवस्था की सार्थकता पर ही प्रश्नचिन्ह लग जायें, यदि प्रशासक और राजनेता बेईमान तथा सरकार कमजोर, अकर्मण्य और निष्ठाहीन दिखाई देने लगें तो लोकतन्त्र अधिक नहीं चला करता ।

व्यापक भ्रष्टाचार, येनकेन प्रकारेण सत्ता में आने और आ गए तो बने रहने की लालसा, विधायकों का खुलेआम खरीद-फरोख्त, विधानमंडलों में शर्मनाक अनुशासनहीनता, संविधान की बार-बार अवहेलना, नेताओं की आपस की आपाधापी और बंदरबांट के झगडे तथा आम नागरिक के लिए सुरक्षा का अभाव, ऐसी दुखद स्थितियां हैं जिनमें नवोदित विकासशील देशों में शक्ति प्राय: सैन्य बली के हाथों में चली जाती हे और सैनिक शासन अरत अधिनायकवाद का प्रादुर्भाव होता है ।

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यह हमारे देश का सौभाग्य है कि ऐसा नहीं हुआ । न्यायपालिका ने सक्रिय होकर, सैन्य बलों को राजनीति में सक्रिय होने से दूर रखा । किन्तु, यह भी समझना जरूरी है कि तथाकथित न्यायिक सक्रियता आज की विभिन्न समस्याओं का स्थायी समाधान नही दे सकती । वह तो केवल घोर आपातकालीन दवाई का ही काम कर सकती है ।

अंतत: विधायिका और कार्यपालिका को अपना-अपना काम ईमानदारी के साथ करना सीखना होगा । राज्य के तीनो अंगों को मिलकर ही जनहित सुरक्षित करना होगा, विधि और न्याय का शासन स्थापित करना होगा, जन-जन में आस्था जगानी होगी और देश को आगे बढ़ाना होगा ।

न्यायालय न तो विधानमंडल का स्थान ले सकते हैं और न ही कार्यपालिका का । साथ ही, आज की विशेष परिस्थितियों में न्यायिक अधिनायकवाद का भय दिखाना भी बेमायने है क्योंकि अंतत: न्यायपालिका भी तभी तक सक्रिय रह सकती है और प्रभावी हो सकती है जब तक दूसरी दो संस्थाएं उसका आदर करें और उसके आदेश का पालन करें ।

न्यायपालिका को भी सावधान रहना होगा और न्यायिक संयम और अनुशासन का कठोरता से पालन करना होगा ताकि ऐसे आदेश न निकलें और ऐसी स्थिति न आए जब उसके आदेशो की खुली अवहेलना होने लगे अथवा उनका पालन ही नु हो सके ।

यह भी सचेत रहना होगा कि कहीं जाने-अनजाने में निहित स्वार्थो या दलगत राजनीतिक हितों के द्वारा सत्ता संघर्ष में उसका दुरुपयोग न किया जाए । यदि ऐसा हुआ और जनमानस से न्यायपालिका के प्रति आस्था का भी हास होने लगा तोसंचमुच हमारा लोकतत्र इतिहास के पन्ने बनकर रह जाएगा ।

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