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इंसाफ की तलाश पर निबंध |Essay on Seeking Justice in Hindi!

इंसाफ कहाँ मिलता है? इस प्रश्न का वजूद ही बताता है कि इंसाफ आसानी से नहीं मिलता है । आमतौर पर और आज के दौर में इंसाफ का स्त्रोत केवल अदालतों को माना जाता है ।

विधान की व्यवस्था में अदालतों को ही यह अधिकार प्राप्त है कि वे न्याय-अन्याय के बीच विभाजन रेखा खींचकर यह तय करें कि इंसाफ क्या कहता है । अदालतों में दाखिल किए जाने वाले तथा लंबित मामलों की बडी संख्या को देखते हुए यह कहना संभव है कि इंसाफ चाहने की आवश्यकता, तेजी से बढ़ती जा रही है। अभाव ही माँग को बढ़ाता है ।

चूँकि इंसाफ का वैधानिक शीर्ष स्त्रोत अदालतें है, अत: सभी स्तरों पर उभरने वाली इंसाफ की चाह यहाँ आकर इकट्‌ठी हो जाती है । तात्पर्य यह है कि न्यायपालिका में आने वाले और विचाराधीन मामलों की संख्या, इंसाफ की चाह का अनुमान लगाने के लिए एक विश्वसनीय आधार है । अब सवाल यह है कि इंसाफ क्या केवल अदालतों तक सीमित है? समाज के अन्य स्तरों पर इंसाफ देने की व्यवस्था या आवश्यकता नहीं हैं, आवश्यकता भी है और व्यवस्था भी ।

पहले व्यवस्था को समझ लें दिनोंदिन व्यवस्था में सरकार की अलग-अलग एजेंसियों अलग-अलग विषयों और परिस्थितियों में इंसाफ करने के लिए कायम की गई है । मसलन, पुलिस, स्थानीय शासन, प्रशासन, पंचायत आदि । यह एजेंसियां अपने निर्धारित वैधानिक अधिकारों के दायरे में संबंधित विषय पर इंसाफ करती हैं । दायरे से बाहर होने पर ये एजेंसियाँ प्रकरण विशेष को अदालत के समक्ष प्रस्तुत करती हैं ।

यदि कानून और निष्पक्षता का उपयोग किया जाए तो बड़ी संख्या में ऐसे मामलों में इंसाफ स्थानीय स्तर पर सरकार की एजेंसियाँ ही दे सकती हैं जिन्हें अदालत को भेज दिया जाता है । यह दरअसल, जिम्मेदारी के निर्वाह में आत्मविश्वास के अंश के प्रश्न पर टिकी स्थिति है ।

अदालतों में प्रकरणों की तेजी से बढ़ती सख्या की एक बड़ी वजह यह भी है । पचास सालों के घटनाक्रम के अध्ययन से यह तथ्य स्पष्ट हो सकता है । यह सोचना भ्रम होगा कि कानून और अपने अधिकारों के प्रति चेतना बढ़ने की वजह से अदालतों में मामलों की संख्या बढ़ रही है ।

स्थानीय स्तर पर इंसाफ क्यों नहीं किया जा रहा है? क्या कारण है कि संवैधानिक और वैधानिक अधिकारों से लैस सरकार की एजेंसियाँ इंसाफ करने के अपने अधिकारों के निर्वहन में खुद को असमर्थ पा रही है? लाचार महसूस कर रही है? कमजोरी का अनुभव कर रही है? कुछ कारण स्पष्ट तौर पर सामने आते है । सबसे पहला कारण है बढ़ती आबादी के अनुरूप व्यवस्था खुद का विस्तार नहीं कर रही है ।

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विस्तार का अर्थ केवल कर्मियों की संख्या बढ़ाना नहीं है, केवल कार्यालयीन भवनों की श्रुंखला खड़ा करना नहीं है । अधिक अधिकारी यानी बेहतर व्यवस्था का तो सोच ही भ्रमपूर्ण है । विस्तार का सही अर्थ है कार्य संस्कृति का विस्तार उसी गति से हो जिस गति से कर्मियों की सज्जा बढ़ाना आवश्यक है । इसके लिए भर्ती के नियमों में कठोर पारदर्शिता और समभाव चाहिए ।

इंसाफ नहीं मिलने का एक प्रमुख कारण प्रभावशाली वर्ग का कानून में हस्तक्षेप है । अपनों को बचाने और विरोधियों को फँसाने के लिए कानून की व्याख्या में तोड़ -मरोड के लिए किया जाने वाला हस्तक्षेप अन्याय की स्थिति निर्मित करता है । इससे असंतोष पैदा होता है । इंसाफ नहीं मिलने की स्थिति में धैर्य और आवश्यकता अपनी सीमा का इंतजार नहीं करते । विस्थापन हो, अपराधों का बढ़ना हो, राशन का अभाव हो, सफाई व्यवस्था का भंग हो जाना हो ।

दिनोंदिन जीवन के किसी भी मुद्‌दे पर सुनवाई न होने और इंसाफ नहीं होने के जो परिणाम होते हैं वे सामने आने लगे हैं । चोरी करने वालों को भीड़ सजा दे रही है । बुनियादी अधिकारों का निर्णय राजनीतिक द्वंद्व कर रहे हैं । सत्तारूढ दल तय कर रहे हैं कि आस्था क्या होनी चाहिए । बाजार में अनाप-शनाप कीमतों की मनमानी वसूली को रोका नहीं जा रहा है । चिकित्सा, शिक्षा, रोजी-रोटी जैसे जीवन से जुड़े मामले आर्थिक स्तर पर आम आदमी की पहुँच से बाहर होते जा रहे हैं ।

शिकायतों का निराकरण या तो होता नहीं है या वह अन्याय के तौर पर सामने आता है । इसलिए बिहार में फिर एक अपराधी को भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मार डालने की घटना पर राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल की यह प्रतिक्रिया ठीक है कि इंसाफ में देरी इसकी एक वजह है ।

लेकिन इंसाफ समय पर पर्याप्त रूप से मिले, इसकी व्यवस्था कब होगी? कौन इस जिम्मेदारी का निर्वहन करेगा? कब तक इतजार करना होगा कि प्रत्येक स्तर पर विधान और उसके लिए जिम्मेदार लोग अपने दायित्वों का पालन जवाबदेही के साथ करने लगेंगे? कहीं से शुरू होगी यह प्रक्रिया? इसे कौन शुरू करेगा? तब तक होने वाली अराजकता, नुकसान की जिम्मेदारी किसकी होगी? इन प्रश्नों का समाधान कौन करेगा? सवालों का बना रहना व्यवस्था के सामर्थ्य को सीधी चुनौती होती है । क्या इस चुनौती का जवाब देना भी व्यवस्था के सामर्थ्य में नहीं रहा है-यदि यह सच है तो क्या व्यवस्था पर ही नए सिरे से विचार की आवश्यकता है?

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