लंकेश रावण का वध और विभीषण का राजतिलक | The Slaughter of Ravan and Crowning Ceremony of Bivishan!

राम-रावण युद्ध में रावण के प्राय: सभी योद्धा मारे गए । श्री रघुनाथ जी के सम्मुख रावण की एक न चली । रावण के नाभि कुण्ड में श्री रघुनाथ भगवान राम का बाण लगते ही रावण यमलोक सिधार गया । रावण के मरते ही वानर सेना ‘जय श्रीराम’ का तुमुल जयघोष करने लगी ।

आकाश से देवगण पुष्पवर्षा करने लगे । भगवान श्रीराम ने विभीषण, हनुमान, सुग्रीव, अगद, जाम्बवान, नल और नील आदि को संबोधित करते हुए कहा, ”आप लोगों के सहयोग की वजह से ही आज मैं रावण को मार सका हूं । जब तक सूर्य और चंद्रमा आकाश में रहेंगे, तब तक आपकी यशकीर्ति इस संसार में स्थित रहेगी ।”

सभी ने मिलकर एक बार फिर श्रीराम की जयघोष की ध्वनि उच्च स्वर में निकाली, जिससे पूरी लंका दहल उठी । तभी रावण के महल में रावण के मारे जाने का समाचार पहुंचा तो रावण की धर्मपत्नी मंदोदरी तथा अन्य पत्नियां दहाड़ मार-मारकर रोने लगीं ।

स्वयं विभीषण भी अपने अग्रज रावण के शव को देखकर विलाप करने लगे । यह देखकर श्रीराम ने विभीषण को सांत्वना देकर जीवन की नश्वरता के विषय में उपदेश दिया और उन्हें समझाया कि इस संसार में जिसने भी जन्म लिया है, उसे एक दिन मृत्यु के मुख में जाना ही होता है ।

इसलिए शोक न करके, उन्हें बंधु-बांधवों सहित रावण का विधि-विधान के साथ अंतिम संस्कार करना चाहिए । विभीषण ने तब रावण का राज्योचित अंत्येष्टि-संस्कार किया । उसके बाद सभी रानियों को समझा-बुझाकर राजभवन भेज दिया । उस कार्य से निपटकर विभीषण ने प्रभु श्रीराम के सम्मुख आकर पूछा, ”प्रभु ! अब मेरे लिए क्या आज्ञा है ?”

प्रभु श्रीराम ने लक्ष्मण और हनुमान की ओर देखा और कहा, ”हे लक्ष्मण ! तुम अब हनुमान जी के साथ लंका प्रवेश करो और विभीषण जी का विधिवत राजतिलक करो ।” प्रभु की आज्ञा पाकर लक्ष्मण जी ने हनुमान, सुग्रीव, अंगद, जाम्बवान आदि के साथ लंका में प्रवेश किया और ब्राह्मणों द्वारा मंत्रपाठ कराया तथा समुद्र के जल से भरे घड़ों से विभीषण का अभिषेक कराया ।

विभीषण के लंकेश बनते ही पवनपुत्र हनुमान ने विभीषण के लिए जयघोष किया । उनके हर्ष का पारावार नहीं था । आज विभीषण को यह जो सुख-सौभाग्य प्राप्त हुआ था, वह हनुमान और विभीषण की प्रथम भेंट के कारण ही मिला था ।

विभीषण लंका के संभ्रान्त नागरिकों के साथ बहुमूल्य उपहार लेकर श्रीराम की सेवा में उपस्थित हुए । प्रभु श्रीराम ने वे सभी उपहार सेना में वितरित करा दिए । वानर सेना एक बार फिर ‘जय श्रीराम’ का जयघोष कर उठी ।

सीता को रावण वध का संदेश देना:

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उसके बाद प्रभु श्रीराम ने हनुमान जी से कहा, ”हे पवनसुत हनुमानजी ! अब आप लक्ष्मण जी के साथ लंका में प्रवेश करें और प्रिय सीता को रावण वध का समाचार सुनाओ और उन्हें हमारा कुशल समाचार दो ।” पवनपुत्र जय श्रीराम का उच्चघोष करते हुए लंका के प्रवेश द्वार की ओर चल पडे ।

उनके साथ लक्ष्मण, सुग्रीव, अंगद, जाम्यवान, विभीषण आदि भी चल पड़े । सर्वत्र हनुमान जी का स्वागत-सत्कार हो रहा था । हनुमान जी सभी से प्रेमपूर्वक भेंट करते हुए अशोक वाटिका पहुंचे । अशोक वाटिका में सीता जी अभी भी राक्षसियों से घिरी बैठी थीं ।

हनुमान जी ने ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाकर दौड़ लगाई और सीता जी के चरणों में जाकर लेट गए । हनुमान जी और उनके पीछे लक्ष्मण जी को आते देखकर सीता हर्ष से भरकर खड़ी हुई । अत्यधिक हर्ष के कारण कुछ पल तो वे बोल ही नहीं सकीं । उन्होंने स्नेह से हनुमान के सिर पर हाथ फेरा तो हनुमान जी निहाल हो उठे ।

वे उठकर खड़े हो गए और बोले, ”माते ! रावण मारा गया है । अब विभीषण जी लंका के राजा हैं । सभी वानर सेना प्रभु श्रीराम के प्रताप से सकुशल हैं ।” तभी आगे बढ़कर लक्ष्मण जी और विभीषण ने सीता जी के चरण स्पर्श किए और लक्ष्मण ने विभीषण का परिचय सीता जी से कराया ।

सीता ने सभी को आशीर्वाद दिया और हनुमान से बोलीं ”पुत्र ! तुमने मेरा बड़ा उपकार किया है । इस अवसर पर मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं तुम्हें क्या उपहार दूं ?” हनुमान जी पुन: माता सीता के चरणों में गिर पड़े और बोले, ”माते शत्रु के नष्ट होने पर मैं नित्य ही प्रभु चरणों के दर्शन करता हूं । यही मेरे लिए सबसे उत्तम उपहार है ।

एक पुत्र माता के ऋण से क्या कभी उऋण हो सकता है । मैं सदैव आपके साथ प्रभु के चरणों में पड़ा रहूं और सदैव मुझे आपकी सेवा का अवसर प्राप्त होता रहे, बस यही मेरी इच्छा है ।”  पवनपुत्र हनुमान की श्रद्धा और भक्ति देखकर जनकनन्दिनी सीता ने प्रसन्न होकर कहा, ”हे महावीर ! तुम्हारी वाणी उत्तम है ।

तुम वायुदेव के धर्मात्मा पुत्र हो । तुम्हारा शारीरिक बल, शौर्यवीरता, शास्त्रज्ञान, धैर्य, पराक्रम, तेज, विनय और मानसिक बल उत्तम है । मैं तुम्हें आशीष देती हूं कि तुम सदैव हमारे हृदय में निवास करो और तुम्हारे सद्‌गुण इसी तरह सदा बने रहें । प्रभु श्रीराम सदैव तुम पर प्रसन्न रहें । पुत्र ! अब मेरी व्यवस्था करो कि मैं शीघ्र ही प्रभु के दर्शन कर सकूं ।”

विभीषण ने तत्काल आज्ञा प्रसारित की कि सीता जी के स्नान और प्रसाधन का प्रबंध किया जाए । परंतु सीता जी ने उनसे कहा, ”हे लंकेश ! मेरे पति तापस वेश में हैं, फिर मैं कैसे अंगराग या आभूषण ग्रहण कर सकती हूं । मैं स्नान करके इसी वेश में प्रभु के दर्शन करूंगी ।” सीता जी की वाणी सुनकर लक्ष्मण जी ने कहा, ”माते अपने इस लक्ष्मण को क्षमा करें । मैं आपकी रक्षा नहीं कर सका ।”

सीता ने मुस्कराकर लक्ष्मण से कहा, ”देवरजी ! अपराध तो मेरा बड़ा है कि मैंने आपका आदेश नहीं माना और आपकी खींची गई सुरक्षा रेखा को पार किया । तभी वह दुष्ट रावण मेरा अपहरण कर सका । अन्यथा ऐसा कभी नहीं होता । क्षमा तो मुझे मांगनी चाहिए ।”

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”नहीं माते लक्ष्मण जी बोले, ”ऐसा कहकर आप मुझे दुख न पहुंचाएं । प्रारब्ध के सामने किसका बस चलता है । होनि को कौन टाल सकता है ? रावण वध के लिए यही मार्ग संभवत: निश्चित था । अब आप विलंब न करें । प्रभु भी आपके दर्शनों के लिए व्यग्रता से प्रतीक्षा कर रहे हैं ।”

उसके बाद सीता जी ने स्नान किया और एक सादी सफेद धोती धारण की और वे पैदल ही प्रभु के दर्शनों के लिए चल पड़ी । राजा विभीषण ने उनके लिए शिविका मंगाई थी । परंतु उन्होंने उस पर चढ़ने से साफ मना कर दिया । मार्ग में दिव्य ज्योति की भांति चलती हुई वे प्रभु के सामने पहुंचीं । लंका नगरी के राक्षस और सभी वानर कौतूहल से उस दिव्य वसना सीता को देखने लगे ।

सीता की उग्नि परीक्षा:

श्रीराम के सम्मुख पहूंचकर देवी सीता ने धरती पर सिर रखकर प्रणाम किया । तब श्रीराम ने विनयपूर्वक अपने सामने खड़ी सीता से कहा, ”हे सीते ! समरागण में रावण जैसे दुर्दांत शत्रु को पराजित कर मैंने तुम्हें छुड़ा लिया ।

पुरुषार्थ द्वारा जो भी किया जा सकता था, मैंने किया । मेरे क्रोध का अंत हो गया । मुझ पर जो कलंक लगा था कि रावण ने मेरी स्त्री का हरण किया और शत्रु द्वारा मेरा अनादर किया गया, वह अब धुल चुका है ।

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मैंने एक साथ दोनों पर विजय प्राप्त कर ली है । हे सीते प्रिय हनुमान का समुद्र लांघना और लंका का दहन करना, एक अत्यंत प्रशंसनीय कार्य था, जो आज सफल हुआ । ससैन्य सुग्रीव का उद्योग भी आज सफल हो गया ।

मैंने रावण का वध किया, वह तुम्हारे लिए नहीं, अपितु सदाचार की रक्षा और चारों ओर फैले अपवाद के निवारण हेतु ही किया । अब मैं देख रहा हूं कि लंका में रहने के कारण तुम्हारे चरित्र पर संदेह का अवसर उपस्थित हो सकता है ।

यद्यपि मैं जानता हू कि तुम्हारा कोई दोष नहीं है । तुम्हारे अंदर दोष की कल्पना भी नहीं की जा सकती । फिर भी यदि तुम कहीं जाना चाहो तो अपनी इच्छा से वहाँ चली जाओ । मैं तुम्हें अनुमति देता हूँ । दसों दिशाएं तुम्हारे लिए खुली हैं । अब मेरा तुमसे कोई प्रयोजन नहीं है ।”

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श्रीराम जी के मुख से ऐसे कटु वचन सुनकर सीता जी रोने लगीं । हनुमान और सारा वानर समूह उन्हें रोते हुए देखता रहा । उनकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि भगवान श्रीराम ऐसे कुवचन सीता जी से क्यों कह रहे हैं ।

तभी सीता जी बोलीं, ”हे महाबाहो ! आप मुझे जैसा समझ रहे हैं, मैं वैसि नहीं हूँ । मैं सदाचार की सौगंध खाकर कहती हूं कि मैं संदेह के योग्य नहीं हूँ । आप मेरा विश्वास कीजिए । हे रघुनंदन ! मेरा हरण करते समय रावण के शरीर से मेरे शरीर का जो स्पर्श हो गया है, उसमें तो मेरी विवशता थी । मैंने स्वेच्छा से ऐसा कदापि नहीं किया । इसमें तो मेरे दुर्भाग्य का ही दोष है ।

मैं शपथपूर्वक कह सकती हूं मैं मन, वचन, कर्म और तन से सदैव आपकी हूं । मेरा चित्त और मेरी बुद्धि हर पल आपका ही ध्यान करती रही है । हे राघव ! जब आपने हनुमान जी को लंका भेजा था, आपने तभी मुझे क्यों न त्याग दिया ? उनके मुख से त्याग का समाचार पाते ही मैं भी अपने प्राणों का त्याग कर देती ।

हे स्वामी ! तब आपको और आपके मित्रों को इस तरह युद्ध न करना पड़ता । हे रघुनंदन ! आपने मुझे एक सामान्य स्त्री की भांति मेरे शील, भक्ति, त्याग और पतित्रता को त्याग दिया ।” इतना कहते-कहते सीता जी का कठ अवरुद्ध हो गया और अश्रुपात करते हुए वे रोने लगीं । उसी समय उनकी दृष्टि लक्ष्मण पर पड़ी । सीता ने उससे कहा, ”हे

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लक्ष्मण ! यद्यपि मुझसे बड़ा भारी अपराध हो गया है, परतु तुम्हारा मातृभाव अभी नष्ट नहीं हुआ है और न तुम्हारी भक्ति में कोई कमी आई है । प्रभु श्रीराम के वचनों को सुनकर तुम्हारे चेहरे पर जो ऊहापोह दिखाई पड़ रहा है और जो विषाद की छाया तैर रही है, उससे तो यही ज्ञात होता है कि तुम अभी भी मुझे मातृभाव से ही देख रहे हो ।

हे सुमित्रानंदन ! मैं मिथ्यापवाद से लांछित होकर एक पल के लिए भी जीवन धारण नहीं कर सकती । अत: मेरे लिए अब यही उचित है कि मैं अग्नि प्रवेश करके अपने इस तन को जला डालूं । मेरे लिए अब एकमात्र यही उपाय है ।”

सीता जी के वचनों को सुनकर लक्ष्मण जी की औखें भर आईं । तभी श्रीराम ने लक्ष्मण को चिता तैयार करने के लिए कहा । लक्ष्मण और हनुमान ने दुखी मन से चिता तैयार कर दी । उसके बाद सीता जी ने श्रीराम की परिक्रमा की और फिर चिता के पास जाकर अग्निदेव से कहा, ”हे अग्निदेव ! यदि मेरा हृदय अपने प्रियतम रघुनाथ से एक पल के लिए भी कभी विलग न हुआ हो, तो हे समस्त लोकों के साक्षीभूत अग्निदेव ! आप मेरी रक्षा करें ।

यदि मैंने मन, वचन और कर्म से सर्वधर्मों के स्वामी श्री राघवेन्द्र का कभी अतिक्रमण न किया हो, तो आप मेरी रक्षा करें । हे अग्निदेव । अपने प्राण प्रियतम के मुख से ऐसे कठोर वचनों को सुनने के उपरांत भी, उनके अत्यंत अप्रिय व्यवहार करने के बाद भी, यदि श्रीराम के प्रति मेरी भावना किंचित भी दूषित न हुई हो तो आप मेरी रक्षा करें ।”

इतना कहकर सीता जी बिना किसी झिझक के अग्नि में प्रवेश कर गईं । सीता जी को अग्नि में प्रवेश होते देख सारी वानर सेना और वहां उपस्थित स्त्रियां करुण क्रंदन करने लगीं । सभी वानर और राक्षसगण हा-हाकार करने लगे । हनुमान जी की आखों से अश्रुधार प्रवाहित होने लगी । उन सभी का आर्तनाद चारों ओर गूंजने लगा । उन्हें श्रीराम से ऐसी आशा कदापि नहीं थी ।

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उनकी बातें सुनकर श्रीराम का हृदय व्याकुल हो उठा । वे मन ही मन सोचने लगे,  ”हाय हंत मैंने साधारण मनुष्य की भांति देवी सीता के साथ ऐसा व्यवहार किया । हाय ! यह मैंने क्यों कर दिया ।”  उसी समय साक्षात अग्निदेव सीताजी को अपनी दाईं गोद में बैठाकर चिता से बाहर आए और उन्हें श्रीराम को समर्पित करते हुए कहा, ”हे श्रीराम ! पुत्री सीता में कोई पाप या दोष नहीं है ।

आप इसे स्वीकार करें । हे रघुनंदन ! सदाचार परायणा, शुभ लक्षणा श्री सीता वाणी, मन, कर्म आदि से पूरी तरह पवित्र है । इसने सदैव आपका ही मनन और चिंतन किया है और अपने नेत्रों से कभी किसी परपुरुष को नहीं देखा है । आप पुत्री सीता को स्वीकार करें ।”

अग्निदेव की बात सुनकर सभी ने सीता माता की जय-जयकार की । तब श्रीराम ने आनंदाश्रु छलकाते हुए कहा, ”हे अग्निदेव ! मैं सीता की पवित्रता भली-भांति जानता हूँ । संसार में इनकी महिमा को प्रकट करने के लिए ही मैंने इनकी अग्नि-परीक्षा कराई है ।”

श्रीराम ने सीता जी को अपने वाम अंग में स्वीकार किया । उस दृश्य को देखकर हनुमान जी आत्म विभोर होकर उनके चरणों में गिर पड़े और बोले, ”प्रभु ! आप दोनों की यह छवि सदा मेरे हृदय में बसी रहे, कृपया मुझे ऐसा आशीर्वाद दीजिए ।”

श्रीराम ने स्नेहपूर्वक हनुमान को उठाते हुए कहा, ”हे पवनपुत्र ! तुमने हमारे ऊपर इतने उपकार किए हैं कि हम कभी उनसे उऋण नहीं हो सकते ।” ऐसा कहकर उन्होंने हनुमान जी को अपने हृदय से लगा लिया । सारी वानर सेना श्रीराम और सीता जी की जय-जयकार करने लगी ।

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