भारतीय उपमहाद्वीप के संदर्भ में पाक-अमेरिका के रिश्ते पर निबन्ध | Essay on Pak-US Relationship in Context of Indian Subcontinent in Hindi!

विश्व राजनीति में अमेरिका कभी अपने परिवेश को सीमाबद्ध नहीं मानता । वह संपूर्ण विश्व को ही अपने कार्यक्षेत्र और अधिकार क्षेत्र में बाँधता रहा है । यह बात और है कि उसे सामरिक दृष्टि से यह सफलता कभी नहीं मिल पाई, किंतु उसने आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से निश्चित ही विश्व को अपना ऋणी बना रखा है ।

उसकी रणनीति कभी एक लक्ष्यवेधन को लेकर नहीं चलती, वह बहु लक्ष्यवेधन को महत्त्व देता है । अत: भारत की आजादी के साथ ही उसने यह परीक्षण करना शुरू कर दिया था कि तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू कम्युनिस्ट तो नहीं हैं ।

तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रुमैन ने भारत में अपने राजदूत को निर्देश दिया था कि वह सबसे पहले यह पता लगाए कि कहीं नेहरू कम्युनिस्ट तो नहीं हैं । राजदूत थे-चेस्टर बाउल, जिनकी जीवनी में यह स्पष्ट उल्लेख है ।

अत: अमेरिका का पाकिस्तान के प्रति सहानुभूति का रुख उसी समय शुरू हो गया था । इसलिए पाकिस्तान अमेरिकी दक्षिण एशियाई रणनीति की धुरी बन गया था, क्योंकि अमेरिकी योजना के तहत साम्यवाद के विस्तार को रोकने में भारतीय सहयोग संभव ही नहीं था ।

कम्युनिस्ट चीन को भारत की मान्यता ने अमेरिका की धारणा को और अधिक बल प्रदान किया । इस प्रकार अमेरिका की विश्व-रणनीति में पाकिस्तान का महत्त्वपूर्ण स्थान बन गया और शीतयुद्ध की समाप्ति तक वह हमेशा अमेरिकी रणनीति के अग्रिम पंक्ति के देशों में बना हुआ था ।

इराक द्वारा कुवैत पर हमले के बाद हुए खाड़ी युद्ध में पाकिस्तान ने तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की अवहेलना न की होती तो उसको एफ- १६ विमान मिलने में देरी न होती और अमेरिकी क्रोध का शिकार भी नहीं होना पड़ता, क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति निरंतर अपना यह प्रमाण-पत्र देते आ रहे थे कि पाकिस्तान के पास अणु बम नहीं है और न वह इस तरह की प्रौद्योगिकी प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है, जबकि वास्तविकता यह थी कि सी.आई.ए. को सन् १९८७ में ही ज्ञात हो गया था कि पाकिस्तान अणु बम बनाने में सक्षम है । उसने तो इस अग्रिम पंक्ति के देश को चोरी-छिपे अणु प्रौद्योगिकी प्राप्त करने में मदद भी की थी ।

पाकउमेरिकी संबंधों के मूल आधार:

जैसा कि सदैव उल्लेख किया जाता रहा है कि भारत का निर्गुट आदोलन में शामिल हो जाना और साम्यवादी देशों के प्रति सहानुभूति रखना अमेरिकी रणनीतिकारों को सर्वदा खटकता रहा । अत: भारत को भी नियंत्रित रखना अमेरिका की रणनीति का एक अंग रहा । इसका लाभ पाकिस्तान को मिला ।

इस तरह पाक और अमेरिका के संबंधों के चार मूल आधार बने, जो इस प्रकार हैं:

ADVERTISEMENTS:

१. पाकिस्तान की अवस्थिति,

२. साम्यवाद के प्रति पाकिस्तानी अनास्था,

३. पाकिस्तानी विवशताएँ,

४. भारत का कट्‌टर विरोध ।

पाकिस्तान की अवस्थिति- ”कथित पूर्वी पाकिस्तान अब बँगलादेश बन गया है, किंतु जिस समय आजादी मिली थी तब वह पूर्वी पाकिस्तान था, जो चीन के साम्यवादी विस्तार को रोकने के लिए एक प्रमुख केंद्र-स्थल बन सकता था ।

बंगाल की खाड़ी के महत्त्वपूर्ण बंदरगाह चिटगाँव को अपने में समेटे यह भू-भाग संपूर्ण दक्षिण एशिया का निगरानी केंद्र हो सकता था । अत: यहाँ से अमेरिका साम्यवाद के विस्तार को रोक सकता था । इतना ही नहीं, भारत की पूर्वोत्तर सीमा, जो कि चीन से जुड़ती है, पर भी नजर रखी जा सकती थी ।

अत: अमेरिका ने पूर्वी पाकिस्तान की स्थिति का आकलन कर लिया था । वैसे भी, ब्रिटिश भारत को बाँट देने के पीछे ब्रिटिश रणनीति भी अमेरिकी इशारे पर संचालित हुई थी, क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन एक पंगु देश बन गया था, जो कि अमेरिकी इशारे पर नाचता रहा था ।

पश्चिमी पाकिस्तान की अवस्थिति तो और भी महत्वपूर्ण है । संपूर्ण पश्चिमी समुद्र तट खाड़ी (फारस की खाड़ी) से जुड़ता है । उसके पास कराची जैसा सक्षम बंदरगाह है । मकरान तट पर अरमरा और ग्वाडर जैसे बंदरगाह हैं ।

अत: पूर्व सोवियत संघ को अफगानिस्तान के माध्यम से समुद्र तक पहुँचने से पाकिस्तान ही रोक सकता था । अमेरिका की यह आशंका उस समय और भी सत्य सिद्ध हुई, जब अफगानिस्तान में पूर्व सोवियत संघ की सेना ने हस्तक्षेप किया । रूसी सेनाएँ पाकिस्तानी सीमा पर पहुँच गईं ।

ADVERTISEMENTS:

अमेरिका इसके प्रति पहले से ही सतर्क था, इसीलिए पाकिस्तान की मदद निरंतर जारी रही । पाकिस्तान की अवस्थिति का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग है-उसके पास गुलाम कश्मीर का होना । इस क्षेत्र में गिलगित जैसा साधन-संपन्न वायुसैनिक अड्‌डा है, जो संपूर्ण एशिया के दिग्दर्शन का कार्य करता है ।

ग्रेट ब्रिटेन ने अपने साम्राज्य के सबसे बड़े शत्रु (भारतीय दृष्टि से) रूस की गतिविधियों का निरीक्षण करने के उद्‌देश्य से ही इस हवाई अड्‌डे का विकास किया था । शीतयुद्ध काल और आज भी अफगानिस्तान-चीन और पूर्व सोवियत संघ की सीमा पर स्थित यह स्थान सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है ।

इसी क्षेत्र से होकर ब्रिटिश और अमेरिकी पर्वतारोही सियाचिन हिमनद तक पहुँचने लगे थे, जिसे अब भारत ने अपने नियंत्रण में ले रखा है । जहाँ तक कश्मीर से कच्छ तक की सीमा का सवाल है, वहाँ से भारत में प्रवेश के अनेक गुप्त मार्ग हैं, जिनका आई.एस.आई. दुरुपयोग भी कर रहा है ।

अत: इस दृष्टि से भी भारत के विरुद्ध जासूसी करने में अमेरिका को सुविधा थी, क्योंकि भारत और पाकिस्तान के नागरिकों में काफी हद तक समानता है और इसका लाभ न केवल पाकिस्तान, बल्कि अमेरिका भी उठाता रहा है । इस तरह हम देखते हैं कि पाकिस्तान की अवस्थिति ने अमेरिकी रणनीति के लिए विस्तृत कार्यक्षेत्र बना रखा था ।

ADVERTISEMENTS:

इन अनुकूल परिस्थितियों के कारण ही अमेरिका ने पाकिस्तान को अपनी रणनीति के अग्रिम पंक्ति के देशों में स्थान दे रखा था और उसी रणनीति के अनुसार आज भी पाकिस्तान को अमेरिकी मदद निरंतर जारी है ।

साम्यवाद के प्रति पाकिस्तानी अनास्था:

साम्यवाद के प्रति पाकिस्तान में अनास्था होना भी अमेरिकी रणनीति के अनुरूप रहा । कहने के लिए तोश्पूर्वी पाकिस्तान में कम्युनिस्ट पार्टी का अस्तित्व रहा और आज बँगलादेश में भी इस तरह की पार्टियाँ हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि उनकी स्थिति कभी मजबूत नहीं रही । पाकिस्तान का इतिहास सैनिक तानाशाही के शिकंजे से बाहर नहीं हो सका । वहाँ जब भी लोकतंत्र आया तो चंद महीनों और वर्षों के लिए वह भी सेना की मेहरबानी पर ही अवलंबित रहा ।

अत: सैनिक तानाशाही ही प्रमुख रही और इसका परिणाम यह रहा कि देश का शासन लगभग अमेरिकी कृपा पर ही बना रहा । यह भी अमेरिकी हित में रहा । अत: पाकिस्तान पर अमेरिकी कृपा-दृष्टि हमेशा ही बनी रही ।

पाकिस्तानी विवशता:

अमेरिका और पाकिस्तान के संबंधों में मजबूती का एक और बड़ा कारण पाकिस्तान की अपनी विवशताएँ हैं । ये विवशताएँ जहाँ सामरिक और अस्त्र संबंधी हैं, वहीं आर्थिक भी ।पाकिस्तान का कुल क्षेत्रफल ८,०३,९४३ वर्ग किलोमीटर है, जिसमें पहाड़, रेगिस्तान का एक बड़ा भू-भाग है ।

ADVERTISEMENTS:

अत: खेती के लिए उपयुक्त भूमि केवल पश्चिमी पंजाब और सिंध के कुछ हिस्सों में ही है । बलूचिस्तान और सीमाप्रांत कृषि की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नहीं माने जा सकते । हाँ, फल और लकड़ी की दृष्टि से इनका महत्त्व अवश्य है ।

वस्तुत: पाकिस्तान आर्थिक दृष्टि से कभी समृद्ध नहीं रहा । जमींदारी प्रथा पूरी तरह समाप्त न होने के कारण वहाँ बड़े-बड़े किसानों के हाथों में ही लगभग सारी पैदावार सिमटकर रह जाती है । ऐसी स्थिति में आम पाकिस्तानी जनता या तो विदेशों से आयातित अनाज पर जीती है या खाड़ी देशों में जाकर अपनी रोजी-रोटी कमाती है । इसके अलावा तेल के धनी राष्ट्रों की भी पाकिस्तान के प्रति पूरी-पूरी सहानुभूति रही है ।

पाकिस्तान को इस दृष्टि से अमेरिका से पर्याप्त मदद मिलती रही है, जिसके बदले अमेरिका ने पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर सामरिक सुविधाएँ ले रखी हैं । पाकिस्तान की इसी विवशता का लाभ उठाकर अमेरिका ने अफगानिस्तान से पूर्व सोवियत सेनाओं को हटाने के लिए अपने धन-बल और आयुध-बल का पूरा-पूरा उपयोग किया, जिसका लाभ पाकिस्तान को भी मिला ।

जब भी अफगान मुजाहिदीनों के लिए मदद आई, उसका माध्यम पाकिस्तान ही रहा और पाकिस्तान ने इसका अधिकतम उपयोग अपने देश की जनता की समृद्धि के लिए कम और अपने सैन्य विस्तार के लिए अधिक किया ।

ADVERTISEMENTS:

एफ-१६ लड़ाकू विमानों की सहायता भी इसी का एक अंग है, जिसे पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने पाकिस्तान को अपनी कृपास्वरूप दिया था । जनरल जिया उल हक यदि जीवित रहते तो शायद यह सहायता बंद भी नहीं हुई होती ।

लेकिन उनकी मृत्यु के बाद पाकिस्तान ने जब अपनी स्वतंत्र स्थिति बनाने की कोशिश की और खाड़ी देशों की मदद से एक क्षेत्रीय शक्ति बनने की जुर्रत की तो अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने पाकिस्तान को सबक सिखाया । अत: अमेरिकी कृपा की वर्षा किसी-न-किसी रूप में होनी ही है, यह भी पाकिस्तानी विवशता का ही एक उदाहरण है ।

भारत का कटटर विरोध:

पाकिस्तान का भारत-विरोध दोनों ही देशों को एक सशक्त कड़ी से जोड़ता है, क्योंकि अमेरिका यह चाहता है कि भारत को यदि अपना स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करने दिया गया तो इस क्षेत्र में अमेरिकी हितों के प्रति अरुचि हो जाएगी और यही कारण है कि अमेरिका भारत के स्वतंत्र अस्तित्व को चुनौर्त देने के लिए पाकिस्तान का पूरा-पूरा उपयोग करता रहा है ।

यह सभी जानते हैं वि पाकिस्तान की सीमाएँ हैं और वह भारत का किसी स्तर पर विरोध करने में समर्थ नर्ह हो सकता, लेकिन अमेरिका हमेशा उसे इस स्थिति में बनाए रखता है, ताकि लगे कि वा उसका (भारत) सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी है ।

पाकिस्तान का आणविक कार्यक्रम सन् १९७४ के बाद इसलिए शुरू कराया गया, ताकि भारत पर यह दबाव डाला जा सके कि र्या उसने अणुशक्ति-संपन्न राष्ट्र बनने की कोशिश की तो पाकिस्तान भी अणुशक्ति-संपन् राष्ट्र बन जाएगा और क्षेत्र में आणविक युद्ध की स्थिति बन जाएगी ।

इसलिए भारत अणु अस्त्र बनाने से बाज आना चाहिए । प्रक्षेपास्त्रों का निर्माण नहीं करना चाहिए । बड़े राष्ट्रों की तरह अपनी प्रौद्योगिकी का विस्तार नहीं करना चाहिए । उसे अगर इसकी जरूरत है तो मदद के लिए अमेरिका और मित्र देश तैयार हैं ।

यह आज अमेरिकी रणनीति का मुख्य अंग है । कश्मीर के संबंध में अमेरिकी विदेश विभाग के दोहरे बयानों का उद्‌देश्य इस क्षेत्र को विवादास्पद घोषित करके राष्ट्र संघ या अमेरिका के हस्तक्षेप के लिए पृष्ठभूमि तैयार करना है ।

यह ठीक वही स्थिति है, जैसी कि लॉर्ड बेलेजली के समय में अंग्रेजों ने अपनाई थी । इसमें भारत के साथ-साथ पाकिस्तान का भी नुकसान होगा, लेकिन पाकिस्तान यह नहीं देख रहा है । वह केवल यह देखता है कि यदि अमेरिका ने कश्मीर में हस्तक्षेप की स्थिति बना ली तो सारा-का-सारा कश्मीर उसका हो जाएगा । अत: वह अमेरिका के सारे तर्कों को सही ठहराता है ।

आश्चर्य तो यह है कि भारत में कश्मीर का विलय उन्हीं नियमों के तहत हुआ है, जिसके तहत भारत की ६०० से अधिक रियासतों ने अपने अधिकार भारतीय संघ को सौंपे थे, लेकिन अमेरिकी विदेश विभाग की दक्षिण-एशिया की प्रभारी राबिन राफेल उसे विवादास्पद मानकर भारत के अस्तित्व को ही नकार रही हैं, जबकि उन्हें मालूम है कि पाकिस्तान ने जिस भू-भाग पर कब्जा कर रखा है, वह अवैध है, क्योंकि कश्मीर के राजा हरि सिंह ने अक्तूबर ११४७ में अपनी रियासत का विलय भारत में कर दिया था और तभी भारतीय सेनाओं ने कश्मीर में पाकिस्तान को शिकस्त दी थी ।

कभी अमेरिका भारत में मानवाधिकारों के हनन को मुद्‌दा बनाता है, लेकिन पाकिस्तान में जो कुछ हो रहा है, उसके प्रति वह चुप है । वहाँ अल्पसंख्यकों के साथ किस तरह दोयम दर्जे के नागरिक का सा व्यवहार हो रहा है, वह अमेरिका नहीं देखता ।

अत: स्पष्ट है कि अमेरिका ने पाकिस्तान को एक ऐसा मोहरा बना रखा है, जिसका उपयोग वह भारत के विरुद्ध अपनी शतरंजी चालों के लिए करता है । जहाँ तक परमाणु अप्रसार संधि की बात है, अमेरिका ने ही यह पुष्टि की है कि पाकिस्तान के पास अणु बम है या पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल बेग के अनुसार, पाकिस्तान ने अणु बम सन् १९८७ में बना लिया था ।

इतना ही नहीं, पाक विदेश मंत्री और सेनाध्यक्ष तक युद्ध की स्थिति में अणु बम के प्रयोग की धमकी देते रहे हैं । यह सब शायद इसलिए है कि भारत ने यदि अपने आणविक कार्यक्रम बंद नहीं किए तो अणुयुद्ध हो जाएगा और भयंकर विनाश होगा, जिसके लिए भारत उत्तरदायी माना जाएगा ।

भारत ने कम-से-कम सन् १९७४ में पोखरण (राजस्थान) में विस्फोट करके यह सिद्ध कर दिया है कि वह अणु बम बना सकता है । ११ मई और १३ मई, १९९८ को भारत ने ५ विस्फोट करके अपने को स्वतंत्र रूप से परमाणु-संपन्न देश घोषित कर दिया । दूसरी ओर पाकिस्तान ने भी परमाणु परीक्षण कर दिखाए । अब सवाल यह उठता है कि भारत और पाकिस्तान की आवश्यकताएँ क्या हैं ?

क्या चीन के समान एक महाशक्ति पाकिस्तान की समस्त पश्चिमोत्तर, उत्तर और पूर्वोत्तर सीमा पर है ? क्या प्रमाण है कि चीन भारत पर अणु बम का प्रयोग नहीं करेगा, जबकि तिब्बत के पठार पर उसके अंतर्महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र तैनात हैं ।

अमेरिका का कहना है कि वह उस तरह की स्थिति में मदद के लिए तैयार है, अर्थात् आप आत्मनिर्भर न हों । हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहें । हम आपकी मदद करेंगे । इस दृष्टि से पहले वह भारत, पाकिस्तान, अमेरिका, रूस और चीन का सम्मेलन करना चाहता था ।

अब उसने ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, जापान और जर्मनी को भी उसमें जोड़ लिया है और इस मामले पर उसने १९ देशों का सम्मेलन आयोजित किया था । पाकिस्तान को पहले ही यह सम्मेलन मंजूर था । भारत नहीं मान रहा था, जो अब मान गया है । यह भारत को सभी ओर से घेरने का प्रयास है, क्योंकि भारत की उदार आर्थिक नीति के कारण सर्वाधिक पूँजी विनिवेश ग्रेट ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, जापान और जर्मनी ही कर रहे हैं, अत: भारत को दबाव में लेने का यह अमेरिका का नायाब तरीका है ।

इसके पहले उसने रूस को क्रॉयोजनिक इंजन देने से रोककर भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को असफल कर दिया था । यह बात अलग है कि भारत ने यह पात्रता हासिल कर ली है । अब वह आणविक कार्यक्रम भी स्थगित कराने की योजना बना रहा है । इसमें पाकिस्तान का पूरा-पूरा सहयोग है । यह दोनों देशों की साँठ-गाँठ का स्पष्ट प्रमाण है ।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य:

अमेरिका और पाकिस्तान के मूलभूत आधार संबंधों पर विचार करने के बाद उसके ऐतिहासिक स्वरूप पर भी एक दृष्टि डाल लेना आवश्यक है । सन् १९४९ में तत्कालीन सोवियत संघ ने अणु बम का परीक्षण किया और १९५३ में उसने हाइड्रोजन बम का परीक्षण किया ।

यद्यपि अमेरिका ने १९५२ में ही हाइड़ोजन बम बना लिया था और १९४९ में ही ‘नाटो’ का गठन भी हो गया था । अमेरिका के राजनीतिज्ञों को साम्यवाद के विस्तार का खतरा बराबर सालता रहा । इस बीच सन् १९५४ में वियतनामियों ने फ्रांसीसियों को अपने यहाँ से भगा दिया । यह कम्युनिस्ट काररवाई का परिणाम था, अत: अमेरिकी प्रशासन के कान खड़े हो गए ।

उधर, सन् १९५३ में जोसेफ स्टालिन की मृत्यु के बाद नए नेताओं ने ज्यादा जोश दिखाया और वे विभिन्न देशों की यात्रा करके अपने साम्यवादी प्रयास को विस्तार देने लगे । इस समय अमेरिका के राष्ट्रपति आइजन हॉवर थे, जो सैनिक कमांडर भी रह चुके थे, अत: उन्होंने अपने विदेश मंत्री जॉन फॉस्टर के माध्यम से साम्यवाद के विस्तार को रोकने के लिए संधि संगठनों की झड़ी लगा दी ।

इसी संदर्भ में सितंबर १९५४ में (दक्षिण-पूर्व एशिया संधि संगठन) (एस.ई.ए.टी.ओ.) की स्थापना हुई । इसके प्रेरक जॉन फॉस्टर ही थे । इस संगठन में केवल पाकिस्तान शामिल था । उसके अलावा अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, फिलिपींस, न्यूजीलैंड और थाईलैंड थे ।

यह संगठन किसी भी तरह के कम्युनिस्ट आक्रमण के समय सभी (सैनिक-आर्थिक) तरह की सहायता के लिए बनाया गया था । अकेले पाकिस्तान का भारतीय उपमहाद्वीप से इस संगठन में होना यह साबित करता है कि पाकिस्तान पर अमेरिका का कितना विश्वास था ।

दक्षिण-पूर्व एशिया संधि संगठन में पाकिस्तान को शामिल करने के बाद उसे पश्चिमी एशिया और खाड़ी क्षेत्र के सैन्य संधि संगठन से भी जोड़ा गया । ग्रेट ब्रिटेन ने सन् १९५५ में इसी तरह का एक संधि संगठन ‘बगदाद पैक्ट’ बनाया था, जिसमें ईरान, इराक, तुर्की, पाकिस्तान और ग्रेट ब्रिटेन शामिल थे ।

इस संगठन में अमेरिका बाद में आर्थिक सहयोग करने आया, लेकिन सन् १९५८ में उसने सैनिक दृष्टि से भी संगठन की सदस्यता ग्रहण कर ली । इस संगठन का उद्‌देश्य भी साम्यवाद के विस्तार को रोकना था । तुर्की, इराक और ईरान तीनों की सीमाएँ पूर्व सोवियत संघ से मिलती थीं । पाकिस्तान तो पहले ही से सीमा से जुड़ा था । सन् १९५९ में इराक इस संधि से हट गया, फिर अमेरिका का प्रभाव और बढ़ गया । इसके पश्चात् संधि का नाम ‘सेंटो’ रखा ।

पाकिस्तान की भूमिका यहाँ भी महत्त्वपूर्ण रही । इन दो संगठनों से जुड़े रहने के कारण उसकी स्थिति केंद्र की हो गई, जहाँ बडे पैमाने पर आयुध जमा होने लगे । इतना ही नहीं, सन् १९५९ में अमेरिका ने एक द्विपक्षीय मैत्री संधि कर ली, जिसमें उसने पाकिस्तान को सभी सैन्य साजो-सामान उपलब्ध कराने का वचन दिया था ।

इस संधि के तहत पाकिस्तान को जो बड़े पैमाने पर सैन्य-सामग्री मिली, उसका ही उपयोग पाकिस्तान ने सन् १९६५ के युद्ध में भारत के विरुद्ध किया, जबकि सैन्य-सामग्री देते समय भारत की आपत्ति पर अमेरिका ने कहा था कि उपर्युक्त सैन्य-सामग्री का उपयोग भारत के विरुद्ध नहीं हो, यह वचन पाकिस्तान से लिया गया है ।

भारतउरमेरिका के संबंधों में तनाव:

अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी के कार्यकाल में भारत और अमेरिका के संबंधों में कई स्तरों पर सुधार के आसार दिखे । सन् १९६२ के भारत-चीन युद्ध में अमेरिका का रुख भारत के पक्ष में था, किंतु उनकी मृत्यु के बाद नए राष्ट्रपति (जो पहले उपराष्ट्रपति थे) लिंडन जॉनसन का रुख भारत के प्रति कड़ा हो गया और १९६५ में जब भारत-पाकिस्तान युद्धरत थे, तो उन्होंने पाकिस्तान के पक्ष को मजबूत करने और भारत को नीचा दिखाने के लिए अमेरिका से मिलनेवाली खाद्यान्न सहायता, जो पी.ल. ४८० के तहत भारत को दी जा रही थी, बंद करा दी; फलस्वरूप तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया और सारा भारत जाग उठा ।

लोगों ने अपनी-अपनी छतों तक पर गेहूँ उगाए थे । ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर के बाद लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु ने भारत को नई विदेश नीति की ओर अग्रसर कर दिया और तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अमेरिकी रणनीति के जवाब में सन् १९७१ की भारत-सोवियत शांति मैत्री संधि के साथ पूर्वी पाकिस्तान को बँगलादेश बना देने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई ।

यद्यपि इसका जैसा लाभ भारत को मिलना चाहिए था, नहीं मिला; तथापि अमेरिकी रणनीति को इससे धक्का अवश्य लगा । आज यद्यपि बँगलादेश भी भारत-विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देने का कार्य कर रहा है; तथापि स्वतंत्र राष्ट्र होने के कारण अमेरिकी और पाकिस्तानी साजिश को ज्यादा सफलता नहीं मिल रही थी । भारत और अमेरिका के बीच यह तनाव लगभग दो दशकों तक चला । भारत ने अमेरिकी इच्छा के विरुद्ध कंबोडिया में वियतनाम के हस्तक्षेप से बनी सरकार को मान्यता दी ।

उसने अफगानिस्तान में भी पूर्व सोवियत संघ के हस्तक्षेप से बनी सरकार को भी मान्यता दी, विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मैचों, विशेषकर निर्गुट आदोलन के मंचों पर भारत ने अघोषित रूप से अमेरिकी विरोध जारी रखा, जो कि क्रमश: नौवें दशक में कम हुआ था और इधर शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद भारत की उदार नीति के कारण विरोध काफी कम हो गया है । दोनों देशों में कई स्तरों पर निकटता आई है, जिसे बुश प्रशासन पुन: समाप्त करने की दिशा में कार्य कर रहा है ।

उमेरिका के लिए पाकिस्तान का योनादान:

अमेरिका के लिए पाकिस्तान का सबसे बड़ा योगदान चीन और अमेरिकी संबंधों को नई दिशा देने में रहा । पाकिस्तानी सहयोग (मध्यस्थता) से सबसे पहले सन् १९६५ में अमेरिकी नागरिकों को चीन की यात्रा के लिए पासपोर्ट जारी होना शुरू हुआ, जो क्रमश: हटता गया और १९७१ में तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री डॉ. हेनरी किसिंजर ने अपनी गुप्त पेकिंग (बीजिंग) यात्रा में पाकिस्तान की भरपूर मदद ली ।

अमेरिकी नागरिकों को चीन की यात्रा की पूरी तरह छूट मिल गई । तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने चीन की यात्रा की और चीन तथा अमेरिका ने पेकिंग और वाशिंगटन में संपर्क कार्यालय खोलने की संधि (१९७२) की ।

यह काल, जहाँ भारत और अमेरिका के बीच संबंधों के तनाव का बना, वहीं पाकिस्तान ने अमेरिका की अति विश्वसनीयता प्राप्त कर ली; किंतु जैसा कि सभी को ज्ञात है, अमेरिका गहराई से यह अध्ययन करता रहता है कि किसी देश की जनता कब किस शासक के प्रति रुष्ट होती है, वही हुआ ।

इस काल के ‘हीरो’ जुल्फिकार अली भुट्‌टो को जब सन् १९७७ में जनरल जिया उल हक ने सत्ताचूत कर दिया, जेल में डाल दिया और मुकदमा चलाकर फाँसी पर लटका ५५ दिया, तब अमेरिका ने इसे पाकिस्तान का आतरिक मामला बताया और अफगानिस्तान के शरणार्थियों की मदद के नाम पर उसने जनरल हक के शासन में अकूत सामरिक और आर्थिक मदद दी । चीन और पाकिस्तान के साथ अमेरिकी नीति यहीं से स्पष्टतया जुड़ती है, जो भारतीय हितों के विरुद्ध रही थी ।

अमेरिका और भारतीय उपमहाद्वीप:

अमेरिका की गुप्तचर संस्था सी.आई.ए. की सक्रियता के कारण भारत को उसके पड़ोसी देशों का विश्वास नहीं मिल पाता है । भारत द्वारा अमेरिकी युद्धपोतों के लिए विश्रामस्थल न देने के कारण अमेरिका ने श्रीलंका के त्रिंकोमाली बंदरगाह को किराए पर लिया है, जो कई दृष्टियों से अमेरिकी गतिविधियों के लिए उपयुक्त है ।

श्रीलंका ने वॉयस ऑफ अमेरिका को अपने यहाँ ट्रांसमीटर लगाने की इजाजत दी है जिसका उद्‌देश्य दक्षिणी भारत पर नजर रखना है, क्योंकि भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम दक्षिण में ही हैं, सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि ५०० किलोवॉट के जो ट्रांसमीटर श्रीलंका में वॉयस ऑफ अमेरिका ने लगाए हैं, उनपर श्रीलंका सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है । इस तरह श्रीलंका भी अमेरिकी दृष्टि में है ।

बँगलादेश के कतिपय द्वीपों को अमेरिका ने अपनी गतिविधि का केंद्र बना रखा है । अमेरिकी युद्धपोत चिटगाँव का भी दौरा करते रहते हैं । जहाँ तक नेपाल का सवाल है, वहाँ तो सन् १९९० से पूर्व ऐसी गतिविधियाँ रही थीं कि यह आशंका हो गई थी वह भी भारत-विरोधी साजिश का केंद्र बन जाएगा ।

नेपाल ने स्विट्‌जरलैंड का दर्जा प्राप्त करने की कोशिश की थी । उसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह बात उठाई भी थी । वैसे भी नेपाल की राजधानी काठमांडू विश्व भर के नागरिकों से भरी है, जिनमें जासूस और तस्कर भी पर्याप्त संख्या में हैं ।

फूँक भारत-नेपाल की सीमा लगभग खुली है, दोनों देशों के बीच खुला आवागमन सा है; अत: नेपाल से भारत में प्रवेश करना कठिन कार्य नहीं है । अब तो इस बात के भी पुख्ता संकेत मिल गए हैं कि आई.एस.आई. अपने एजेंटों को नेपाल के रास्ते यहाँ भेजती है ।

अमेरिकी साजिश का ही परिणाम है कि भारत के प्रति उसके पड़ोसी देशों में अविश्वास है । उन्हें ऐसा लगता है कि भारत उन्हें कभी भी हड़प सकता है । अत: उन्होंने पश्चिमी देशों से सुरक्षा-संधियाँ कर ली हैं या पाकिस्तान से गठजोड़ कर लिया है ।

आज यदि भारत के किसी पड़ोसी देश से पूछा जाए कि भारत को अपने आणविक कार्यक्रम जारी रखने चाहिए शायद ही कोई ‘हाँ’ में उत्तर दे, क्योंकि अमेरिकी प्रचार माध्यमों और पाकिस्तान ने भारत का स्वरूप एक साम्राज्यवादी देश का बना दिया है, जबकि भारत की ओर से कभी यह नहीं स्पष्ट होने दिया गया कि वह क्षेत्र का सबसे शक्तिशाली देश है ।

‘सार्क’ में भी भारत ने अपना स्वरूप अत्यंत शालीन, सभी का सम्मान करनेवाले और समानता के आधार पर व्यवहार करनेवाले देश का ही बना रखा है, लेकिन अमेरिकी कूटनीति के कारण ये देश अमेरिका और ग्रेट ब्रिटेन पर तो विश्वास कर सकते हैं, किंतु भारत पर नहीं ।

यहाँ तक कि कभी-कभी ऐसा लगता है कि भूटान भी भारत पर विश्वास नहीं कर रहा है । इससे यदि भारतीय शासकों की नीतिगत विफलता का संकेत मिलता है तो अमेरिका और पाकिस्तान की संयुक्त रणनीति की सफलता का भी यह द्योतक है ।

इस तरह भारत अपनी उन्नति के लिए अपना समर्थक स्वयं है, भारतीय उपमहाद्वीप नहीं चाहता कि वह अंतरिक्ष के क्षेत्र में उन्नति करे या प्रक्षेपास्त्र-निर्माण में सफलता हासिल करे । अग्नि प्रक्षेपास्त्र की मारक क्षमता २,५०० किलोमीटर तक है, इससे सभी भयभीत हैं; जबकि चीन के पास अंतर्महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र हैं, किंतु उसका विरोध कोई नहीं करता । भारतीय उपमहाद्वीप की इन्हीं कमियों का भरपूर लाभ अमेरिका उठा रहा है ।

वर्तमान संदर्भ:

अमेरिका और पाकिस्तान के संबंधों में पिछले १० वर्षों से कुछ शिथिलता आ गई थी, उसे बुश प्रशासन ने नई हवा दी है ।

इसके पीछे तीन कारण हैं:

१. संपूर्ण विश्व पर अमेरिकी प्रभाव कायम करने की महत्त्वाकांक्षा ।

२. रूस में बढ़ रहे राष्ट्रवाद से पुन: वहाँ अमेरिकी प्रभाव खत्म होने तथा छद्‌म रूप में साम्यवाद के प्रभावी होने की आशंका ।

३. भारत के महाशक्ति बन जाने की संभावना के प्रति अमेरिकी चिंता ।

पाकिस्तान इन तीनों स्थितियों में अमेरिका का हित-साधक हो सकता है । एक ऐसी आर्थिक संधि ईरान-पाकिस्तान तथा मध्य एशिया के देशों-उजबेकिस्तान, तजाकिस्तान, कजाकिस्तान, किर्जिगिस्तान और तुर्कमेनिस्तान के बीच हुई है ।

अत: पाकिस्तान इन देशों के सीधे संपर्क में है । उसके माध्यम से ईरान की गतिविधियों की जानकारी प्राप्त होती रहेगी । इधर भारत, ईरान और चीन के बीच जो वार्ताएं शुरू हुई हैं, जिससे एक क्षेत्रीय बाजार बनने की संभावना बड़ी है, उसपर भी अमेरिका की नजरें हैं ।

१० वर्ष पूर्व भारत ने ईरान को अणु तकनीकी देने की पेशकश की थी, जिसका अमेरिका ने तीव्र विरोध किया था । उसे अब भी आशंका है कि भारत और ईरान में बढ़ रहा संपर्क इसी तरह की संभावना से जुड़ा है, भले ही यह उसका भ्रम हो, लेकिन ईरान से भारत का घनिष्ठ संबंध वह पसंद नहीं करता, क्योंकि उसे ज्ञात है कि ईरान की जासूसी पाकिस्तान के माध्यम से तो कराई जा सकती है, परंतु भारत के माध्यम से नहीं । ईरान को समर्थन देने के पीछे भारत की गैस पाइप लाइन भी एक कारण है ।

आर्थिक दृष्टि से भी भारत अमेरिका की दृष्टि में उसका प्रतिद्वंद्वी बनकर उभर रहा है । अमेरिका ऐसी किसी संभावना को खत्म करने के लिए भारत की प्रौद्योगिकी को पूरी तरह नष्ट करना चाहता है, क्योंकि यदि भारत ने अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी विकसित कर ली तो दक्षिणी- पूर्वी एशिया में ही उसका प्रभाव नहीं पड़ेगा, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देश भी उससे प्रौद्योगिकी खरीद सकते हैं ।

इससे अमेरिका और उसके मित्र देशों का बाजार ठप पड़ जाएगा । भारत और दक्षिण कोरिया के बीच भारी पानी समझौता अमेरिका को अच्छा नहीं लगा है, अत: वह इसके लिए पाकिस्तान को माध्यम बना रहा है; साथ ही वह परमाणु युद्ध के खतरे की धमकी देकर एक ऐसा वातावरण बनाने की कोशिश कर रहा है, ताकि भारत परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर कर दे ।

भारत पर दबाव बनाने के उद्‌देश्य से वह पाकिस्तान को एक शक्तिशाली देश के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है ।

ADVERTISEMENTS:

इसके लिए उसने तीन मार्ग अपनाए हैं:

१. संयुक्त सैनिक युद्धाभ्यास

२. पाकिस्तान को एफ-१६ समेत अनेक सैन्य साज-सामानों की आपूर्ति,

३. कश्मीर मुद्‌दे पर परोक्ष रूप से पाकिस्तानी पक्ष का समर्थन ।

पहली योजना के तहत मई १९९५ में पंजाब में अमेरिकी और पाकिस्तानी स्थल सेना का संयुक्त युद्धाभ्यास हुआ, जिसमें विभिन्न आयुधों का प्रयोग किया गया । यह अब तक का अपने ढंग का महत्त्वपूर्ण युद्धाभ्यास था ।

इस बीच अमेरिकी सेंट्रल कमान के कमांडर-इन-चीफ (सेनाध्यक्ष) जनरल जोसेफ पी. होर की पाकिस्तान बाला भी महत्त्वपूर्ण है । उन्होंने पाकिस्तान के साथ अधिक-से-अधिक सैनिक सहयोग की इच्छा व्यक्त की है । उल्लेखनीय है कि जनवरी १९९४ में अमेरिका और पाकिस्तान के कमांडों (गुरिल्ला) ने संयुक्त अभ्यास किया था, उसके बाद उत्तरी अरब सागर में पाकिस्तान तथा अमेरिका की नौसेनाओं ने युद्धाभ्यास किया था ।

इन सारे तथ्यों का अर्थ भारत पर यह दबाव बनाना है कि भविष्य में युद्ध होने की स्थिति में पाकिस्तान को अमेरिका की पूरी मदद मिलेगी । वैसे यह पहला अवसर नहीं है । शीतयुद्ध काल में भी इस तरह के युद्धाभ्यास होते रहे थे, अत: अमेरिका चाहे जो भी कहे, भारत और पाकिस्तान में उसको यदि प्राथमिकता देनी होगी तो वह पाकिस्तान को ही देगा ।

पाकिस्तान को प्राथमिकता देने के पीछे सबसे बड़ा कारण वहाँ की सेना का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होना है, जबकि भारत में ऐसी स्थिति नहीं है । भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जहाँ संसद् की इच्छा ही सर्वोपरि है और यह इच्छा संसद् में किस दल का बहुमत है और राष्ट्रीय हितों के प्रति वह कितना चिंतित है अथवा उसका दृष्टिकोण क्या है, इसपर निर्भर करती है ।

अत: अमेरिका भारत को उस तरह अपने इशारे पर नहीं चला सकता जैसा कि वह पाकिस्तान को चला सकता है । यही कारण है कि सारे समर्थनों का दावा करने के बावजूद अमेरिका कभी भारत को लाभदायक स्थिति में नहीं रहने देना चाहता । उसकी यह कूटनीति भारत के लिए भारी पड़ सकती है ।

ADVERTISEMENTS:

जहाँ तक कश्मीर का प्रश्न है, अमेरिका कभी नहीं चाहता कि वहाँ भारत का शासन हो जाए क्योंकि सामरिक दृष्टि से कश्मीर का अलग ही महत्त्व है और पाकिस्तानी शासन रहने पर वहाँ अमेरिकी सेना का अबाध आवागमन हो सकता है ।

अत: वह कश्मीर मसले पर मध्यस्थता के लिए उतावला है । वह चाहता है कि यदि और कुछ नहीं होता तो कश्मीर का वर्तमान विभाजन ही अंतरराष्ट्रीय सीमा मान लिया जाए और निगरानी का कार्य उसे सौंप दिया जाए ।

अमेरिका की विवशता:

पाकिस्तान के प्रति सहानुभूति के बावजूद यदि अमेरिकी प्रशासन भारत की ओर किंचित् मात्र झुकता है तो वह केवल भारत के विशाल बाजार के कारण, जहाँ सैकड़ों अमेरिकी कंपनियों ने अपना धन लगा रखा है, जिससे उसके विदेशी मुद्रा का भंडार भरा जा रहा है ।

ये अमेरिकी निवेशक अपनी सरकार को इस बात के लिए विवश कर देते हैं कि वह भारत को अपना स्वाभाविक मित्र कहे-जैसे कि पिछले दिनों उसके विदेश उपमंत्री स्टॉब टालबोट ने नई दिल्ली में कहा था और भारत-अमेरिका संबंधों को नई दिशा देने की कोशिश की थी ।

जो भी हो, भारत और अमेरिका के संबंधों में पाकिस्तान की स्थिति कबाब में हड्‌डी जैसी सिद्ध हो रही है । भारत यह अच्छी तरह जानता है कि पाकिस्तान के प्रति अमेरिकी सहानुभूति का तात्पर्य केवल उसके लिए तनाव पैदा करने के उद्‌देश्य से है, जबकि भारत की अपनी परिस्थितियाँ यह कभी अनुमति नहीं देतीं कि वह व्हाइट हाउस की गोद में बैठ जाए । यही कारण है कि पाकिस्तान हमेशा ही अमेरिकी प्रशासन का लाड़ला तथा भारत का छद्‌म रूप से प्रतिद्वंद्वी रहा है ।

Home››Pakistan››