सुखी जीवन के बारे में मेरे विचार पर अनुच्छेद | Paragraph on My Idea of a Happy Life in Hindi

प्रस्तावना:

विद्यार्थी स्कूल के बाद एक्सट्रा क्लासेज में जाते हैं या कोचिंग स्कूल में प्रवेश लेते हैं । स्कूल का क्लर्क समय से पहले आता है और देर से घर जाता है ।

प्रिंसिपल अपने स्कूल के परीक्षाफल के लिए उत्कंठित रहता है । अध्यापक अपने खाली पीरियडों में विद्यार्थियों की कॉपियां जांचते हैं । स्कूल, जिसे शिक्षा का मंदिर कहा जाता है, उसमें यह संघर्ष क्यों हैं ? इस संघर्ष का उद्देश्य जीवन का सुखी और समृद्ध बनाना है ।

सुख का अभिप्राय:

प्रश्न उठता है कि सुख क्या है ? क्या धन-दौलत पाना सुख है ? क्या गरीबी से सुख मिल सकता है ? क्या आमोद-प्रमोद को आप सुख की संज्ञा दे सकते हैं ? जीवन का अनुभव हमें यह भली-भाँति सिखाता है कि उपर्युक्त बातों में सुख निहित नहीं है ।

वे धनी व्यक्ति जो वैभव और ऐशो-आराम में खेलते है, अपने आप को सुखी नहीं मानते क्योंकि उन्हें अनेक प्रकार की चिन्तायें और परेशानियाँ घेरे रहती है । रात को उन्हें नींद लाने के लिए किसी नशे की अथवा सोने की गे लियों की आवश्यकता पड़ती है ।

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गरीब के जीवन में सुख का नामोनिशान नहीं होता, क्योंकि उसे अपनी रोटी-रोजी कमाने की ही चिन्ता सताती है । जो लोग मजा या ऐथ्याशी को सुख समझते हैं, वे बड़ी गलती पर हैं । अब प्रश्न उठता है कि आखिर सुख है क्या सुख है क्या ? सुख को शब्दों की सीमाओं में बांधना संभव नहीं है । यह एक सापेक्ष शब्द है इसका अभिप्राय मन की अनुभूति से है । जो वस्तु मुझे सुख पहुंचाती है, किसी अन्य के लिए कष्टदायक हो सकती है ।

मजा या ऐय्याशी और सुख में अन्तर:

सारा ससार मजा, ऐथ्याशी या आमोद-प्रमोद के पीछे भाग रहा है । अत: हम देखें कि क्या मजा या ऐथ्याशी से सुख पाया जा सकता है ? मजा और सुख के बीच कोई आपसी संबंध नहीं है । मजा तो क्षणिक होता है, जबकि सुख शाश्वत अथवा स्थायी होता है । मुझे मिठाई खाकर मजा आता है, लेकिन इससे मुझे कोई सुख नहीं होता ।

सुख जीवन का अन्तिम लक्ष्य है, जबकि ऐथ्याशी और आमोद-प्रमोद सुख के मार्ग कटक हैं । इन्द्रियों से मजा या ऐश की अनुभूति होती है, लेकिन उससे मन को सुख नहीं मिलता । मजा या ऐश बाह्य होता है, जबकि सुख का सम्बन्ध आन्तरिक मन से है ।

सुख कैसे मिलता है ?

मेरे विचार से कुछ ऐसी चीजें हैं, जिनसे हमारा जीवन सुखी हो सकता है । सुख की पहली शर्त नीरोगी काया है । जब तक शरीर स्वस्थ नहीं होता, हम किसी भी काम को भली-भाँति नहीं कर सकते । स्वास्थ्य खराब हो जाने पर अथवा रोगी होने पर हम बहुत दुःखी हो जाते हैं । धनी व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ के लिए अपना सब कुछ लुटा देते हैं ।

सुख की दूसरी शर्त भोजन, वस्त्र और रहने की सामान्य सुविधाओं की उपलब्धि है । इनके अभाव में महान् कष्ट होता है और जीवन दुःखमय बन जाता है । गोस्वामी तुलसीदास ने इस सम्बन्ध में ठीक ही कहा है कि “नाहिं दरिद्र सम दुःख जग माही” ।

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सुख की तीसरी शर्त मन की शांति और संतोष है । हमें अपने श्रम का जो भी फल मिले, हमें संतोष करना चाहिए । यद्यपि अर्थशास्त्र के सिद्धान्त बताते है कि हमारे जीवन की प्रगति और उन्नति असंतोष में निहित है, लेकिन यह प्रगतिमय जीवन सच्चा सुख नहीं दे पाता ।

आत्म-संतोषी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के धन या वैभव से ईर्ष्या नहीं करता । यह चिन्ता और व्यग्रता से मुक्त होकर सुखी रहता है । एक संन्यासी जो दूसरों की गिक्षा पर जीवित रहता है, धन वैभव में खेलने वाले व्यक्ति की तुलना में अधिक सुखी होता है ।

यही कारण है कि अनेक राजाओं और महापुराषो ने अपने समूचे वैभव का त्याग कर सुख की तलाश में संयास ले लिया । संतोष ही जीवन और असंतोष मृत्यु है । लेकिन सतोष ही जीवन और असतोष मृत्यु है । लेकिन संतोष का अर्थ अकर्मण्यता नहीं है । संतोष का अर्थ है पूरे उत्साह से अपना कर्म करना, लेकिन उससे जो भी फल मिले, उससे संतुष्ट हो जाना ।

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समाज-सेवा अथवा अन्य व्यक्तियों की मदद करना सुख का एक अन्य साधन है । सुखी होने के लिए आवश्यक है कि हममें त्याग और दूसरों की सहायता करने की भावना हो । शक्तिशाली व्यक्ति को कमजोरो की रक्षा करनी चाहिए तथा धनवान व्यक्ति को निर्धनों की सहायता करनी चाहिए । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । अत: अपने आसपास सुखी और संतुष्ट लोगों को पाकर वह और भी सुखी होता है ।

सबके सुख में हमारा सुख निहित हो जाना चाहिए । सुखी जीवन की एक और शर्त यह भी है कि हम शुद्ध, सात्विक और धार्मिक जीवन बिताये । धर्म का सम्बन्ध हृदय से है न कि इन्द्रियों से । इससे मन को बड़ी शान्ति मिलती है फलत: सुख का संचार होता है ।

कर्म के बाद फल को ईश्वर पर सौंप कर ही सजा सुखी हो सकता है । समय का सदुपयोग भी सुख को बढ़ावा देता है । हमें अपना खाली समय अच्छा साहित्य बढ़ाने में लगाना चाहिए । संगीत, चित्रकला, नृत्य जैसे कलात्मक कामों में हमें रुचि बढ़ानी चाहिए । इनसे भी आत्मिक आनन्द मिलता है ।

उपसंहार:

वही आदमी सुखी हो सकता है, जो ईमानदार और निष्ठावान हो । जो व्यक्ति ईश्वर को कभी नहीं भूलता और सदैव अपने कर्त्तव्य निष्ठापूर्वक निभाता है और बदले में जो मिल जाये, उसी में संतुष्ट हो जाता है, वही सच्चा सुखी है ।

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धन-दौलत और ऐशो-आराम से सच्चा-सुख नहीं मिलता, क्योंकि इनसे लालच, स्वार्थ और घमण्ड आता है जो मनुष्य को अतंत: दु:खी बनाते हैं ।

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