एमिल दुर्खीम पर निबंध | Essay on Emile Durkheim in Hindi

1. प्रस्तावना:

प्रख्यात समाजशास्त्री व दार्शनिक इमाइल दुरर्वीम का फ्रांस के सामाजिक विचारकों में महत्त्वपूर्ण स्थान है । समाजशास्त्र के जन्मदाता के रूप में वह अत्यन्त प्रतिष्ठित हैं । उन्हें आगस्ट काम्दे का उत्तराधिकारी कहा जाता है; क्योंकि काम्टे की तरह ही उन्होंने सामाजिक घटनाओं का वैज्ञानिक पद्धति से अध्ययन किया।

2. जीवन चित्रण:

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श्री इमाइल दुसर्वीम का जन्म 15 अप्रैल 1858 को उत्तरी पूर्वी फ्रांस के लॉरेन क्षेत्र में स्थित एपीनल नामक स्थान में हुआ था । अपनी स्नातक तक की शिक्षा उन्होंने एपीनल में पूर्ण की । उच्च शिक्षा के लिए वे फ्रांस की राजधानी पेरिस चले आये । वहां की ”इकोल नार्मेल एकादमी” में वे प्रवेश पाना चाहते थे; क्योंकि विश्व के प्रतिभाशाली विद्यार्थी यहीं पढ़ा करते थे ।

यह संस्था फ्रांसीसी, लेटिन, ग्रीक, दर्शन आदि के साथ-साथ विविध पाठ्‌यक्रमों का अध्ययन कराती थी । 2 असफल प्रयासों के बाद उन्हें 1879 में इस संस्था में प्रवेश मिला । उनकी रुचि वैज्ञानिक मनोवृति वाले विषयों में थी । किन्तु वहां जिस पाठ्‌यक्रम में प्रवेश मिला था, वह इसके विपरीत था । अध्यापकों से तर्क-वितर्क करने वाले दुरर्वीम ने पी०एच०डी० तक की उपाधि प्राप्त की ।

1882 में वे दर्शन शारत्र के अध्यापक हो गये । फ्रांस में अध्यापकीय कार्य छोड़कर वे जर्मनी चले आये और वहां उन्होंने लोक-मनोविज्ञान, सांस्कृतिक मानव शास्त्र का अध्ययन करके ”समाजशास्त्रीय प्रत्यक्षवाद” को जन्म दिया । 1887 में पेरिस लौटकर ”सामाजिक विज्ञान” नामक पृथक् विभाग खोला, जहां वे प्रोफेसर नियुक्त हुए । यहीं से डॉक्टरेट की उपाधि ”डिवीजन ऑफ लेबर इन सोसाइटी” पर पी०एच०डी० की ।

दुरर्वीम ने 1898 में समाजशास्त्र सम्बन्धी पत्रिका का प्रकाशन भी किया । उन्होंने अपने जीवनकाल में अनेक महान् ग्रन्थों की रचना की, जिनमें द रूल्स ऑफ सोशियोलॉजिकल मेथर्ड, सोसाइट, इलीमिन्ट्री फॉमस ऑफ रिलीजन लाइफ, एजुकेशन एण्ड सोशियोलॉजी, सोशियोलॉजी एण्ड फिलासफी, मॉरल एजुकेशन इत्यादि हैं ।

दुरर्वीम की पत्नी लुइस ड्रेफ्रू उनकी पुस्तकों की प्रूफ रीडिंग, सम्पादन आदि में उनकी काफी सहायता करती थीं । उनकी 2 सन्तानों में पुत्र आन्ध्रे और पुत्री मेरी थी । वे अपने परिवारजनों से अपार स्नेह करते थे । दुरवर्मि के विचारों पर रूसो तथा आगस्ट, कांम्टे का प्रभाव अधिक है ।

दुरर्वीम ने समाजशास्त्र को वैज्ञानिक रूप देते हुए यह कहा था- ”सामाजिक घटनाओं तथा समाज का विश्लेषण निरूपण वैज्ञानिक आधार पर होना चाहिए ।” उन्होंने समाज के विभिन्न अंगों में एकीकरण स्थापित करने का प्रयास किया ।

समाजशास्त्रीय दृष्टि से उनके योगदान के आधार पर जो सिद्धान्त प्रसिद्ध हैं, उनमें पद्धति शास्त्र का सिद्धान्त-जिसमें समाज तथा सामाजिक घटनाओं का अध्ययन वैज्ञानिक पद्धति से होना चाहिए, इस पर बल दिया गया । श्रम विभाजन के सिद्धान्त में उन्होंने श्रम विभाजन के तत्व, कारण तथा परिणाम एवं प्रभावों की विवेचना की है । उन्होंने श्रम विभाजन की धारणा को गतिशील व सामाजिक घटना बताया है । यह घटना लोगों के जीवन को सुख और शान्तिमय बनाती है । समाज की प्रगति के साथ-साथ वर्ग-संघर्ष कम हो जाता है ।

दुरर्वीम के आत्महत्या के सिद्धान्त के अन्तर्गत उन्होंने आत्महत्या को वैयक्तिक प्रघटना न कहकर सामाजिक प्रघटना कहा है, जिसमें जब व्यक्ति समाज से पृथक् अनुभव कर आत्महत्या करता है, तो यह अहंवादी आत्महत्या है । जब समाज के हित में वह आत्महत्या करता है, तो यह परार्थवादी आत्महत्या है । जब वह नवीन परिस्थितियों से अनुकूलन नहीं कर पाता है, तब यह विसंगत आत्महत्या है ।

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धर्म के सिद्धान्त में दुरर्वीम का मानना है कि धर्म का सम्बन्ध किसी व्यक्ति से न होकर सामूहिक जीवन से होता है । ज्ञान की धारणा को सामूहिकता पर आधारित माना है । मूल्यों के सिद्धान्त में उन्होंने यह बताया कि मूल्यों की उत्पत्ति का स्त्रोत समाज है । परिवर्तन का कारण भी समाज है । उनके नैतिकता का नियम का सिद्धान्त यह बताता है कि नैतिक नियमों की उत्पत्ति एक गतिशील तथा अनिवार्य व्यवस्था है, जिसे समाज में ही खोजा जाना चाहिए ।

सामूहिक प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त पर उन्होंने यह बताया कि व्यक्ति के मानवीय व्यवहार व क्रियाओं का समाज पर तथा समाज का व्यक्ति पर कितना नियन्त्रण है । उनकी प्रकार्यवादी अवधारणा यह कहती है कि समाज एक अखण्ड व्यवस्था न होकर अनेक इकाईयों में विभक्त है । प्रत्येक इकाई में कोई-न-कोई भूमिका आवश्य होती है । इन्हीं इकाईयों के माध्यम से समाज अपने सदस्यों की इच्छाओं की पूर्ति करता है।

दुरर्वीम ने केवल समाज को एक नया दर्शन दिया, बल्कि 1914 के प्रथम विश्व युद्ध में अपने लेखों, विचारों और भाषणों से जनता के मनोबल को बनाये रखा । युद्ध से त्रस्त फ्रांसीसी जनता को ”धैर्य, प्रयत्न और विश्वास” का नारा दिया ।

उन्होंने अपने एकमात्र पुत्र आन्ध्रे को भी समाज सेवा हेतु विश्व युद्ध में झोंक दिया । युद्ध में बुरी तरह से घायल आन्ध्रे की मृत्यु ने उन्हें हिलाकर रख दिया था; क्योंकि वह उनका प्रिय शिष्य भी रहा था । 15 नवम्बर 1917 को बीमारी के बाद यह प्रतिभासम्पन्न समाजशास्त्री 59 वर्ष की अवस्था पूर्ण कर चिरनिद्रा में सो गया ।

3. उपसंहार:

दुरर्वीम एक ऐसे समाज वैज्ञानिक थे, जिन्होंने समाजशास्त्र को वैज्ञानिक तथा सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से सुदृढ़ किया, जो आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने कि पहले थे । समाजशास्त्रीय उनके इस कार्य के लिए युगों-युगों तक उनका कृतज्ञ रहेगा ।

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