जहांगीर पर निबन्ध | Essay on Jahangir in Hindi

1. प्रस्तावना:

जहांगीर मुगल शासन-काल एक ऐसा शासक था, जिसमें उदारता, न्यायप्रियता के साथ-साथ क्रूरता, निर्दयता, विलासप्रियता, इन्द्रिय लोलुपता के दो विरोधाभासी चरित्रों का सम्मिश्रण देखने को मिलता है ।

यदि उसने नूरजहां के प्रभाव से स्वयं को मुक्त रखा होता, तो वह अपने पिता की तरह एक श्रेष्ठ प्रशासक होता । यदि अकबर महान और ऐश्वर्यशाली शाहजहां से उसके चरित्र की तुलना की जाये, तो उसका यश-गौरव उनकी तुलना में फीका और मलिन होगा । वह परिवार प्रेमी, प्रकृति प्रेमी, सुसंस्कृत, सुशिक्षित, विद्वान, साहित्यनुरागी, कलाप्रेमी था ।

2. जीवन वृत्त एवं कार्य:

सम्राट जहांगीर का जन्म 30 अगस्त 1569 को दोपहर में फतेहपुर सीकरी के सन्त शेख सलीम चिश्ती की दरगाह में हुआ था । उसकी माता मरियज उज्जमानी आमेर के राजपूत नरेश भारमल की राजकन्या थी । उसका नाम हरखाबाई था । जहांगीर को ”सहस्त्रों दुआओं वाल शिशु” भी कहा जाता है ।

शेख सलीम चिश्ती के आशीर्वाद से उसका जन्म होने के कारण अकबर उसे शेखू बाबा भी कहता था । अकबर ने पुत्ररत्न की प्राप्ति पर ईश्वर को धन्यवाद देते हुए एक सप्ताह तक लोगों को दान, दावतें, पुरस्कार खुशी के कारण बांटे । कई कैदी जेल से रिहा भी किये गये । 28 नवम्बर 1573 को 5 वर्ष की अवस्था में सलीम के मकतब जाने का संस्कार हुआ ।

अब्दुल रहीम खानखाना, जो कि विद्वान्, कवि और लेखक था, उसे सलीम की शिक्षा का प्रमुख संरक्षण भार सौंपा गया । इस्लाम और कुरान की शिक्षा देने के लिए मौलाना मीर कला हरबी को तथा कुतुबुद्दीन मोहम्मद अतका को अध्यापक नियुक्त किया गया । जहांगीर को अरबी, फारसी, गणित, हिन्दी, इतिहास, दर्शन, भूगोल आदि की शिक्षा दी गयी ।

सैनिक शिक्षा प्रदान करने के लिए उसे युद्धों में तथा शिकार खेलने भेजकर उस योग्य बनाया गया । सलीम को ललित कलाओं से बचपन से ही लगाव रहा था । अधिक सुविधाएं पाकर वह विलासी हो गया था । सलीम का विवाह 15 वर्ष की अवस्था में आमेर के राजा एवं सूबेदार भगवंतदास की पुत्री मानबाई के साथ 13 फरवरी 1585 को भव्य समारोह के साथ सम्पन्न हुआ ।

1604 में मानबाई ने आत्महत्या कर ली, जिससे उसे एक पुत्री सुलतानउन्निसा तथा पुत्र खुसरो की प्राप्ति हुई थी । सलीम ने दूसरा विवाह जोधपुर के महाराजा उदयसिंह की पुत्री जगतगुसाई {जोधाबाई} से किया । इस विवाह के बाद उसने बीस के लगभग विवाह किये । उसके रनिवास में रखैलें थीं । उसके चार पुत्र थे, जिसमें खुसरो, परवेज, खुर्रम और शहरयार थे । खुर्रम, अर्थात् शाहजहां का जन्म जगतगुसाई से हुआ था ।

कहा जाता है कि उसके हरम में और 800 स्त्रियां थीं । सलीम को 1581 को काबुल पर आक्रमण करने के लिए दल का सेनापति बनाकर पहले सैनिक अभियान में भेजा गया । 1577 में वह 10 हजार का मनसबदार बन गया था । 1585 में 12 हजार का । 1582 में उसे फौजदारी न्याय विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया । राणा प्रताप के विरुद्ध सैनिक अभियान में भी उसे भेजा गया ।

वह राजसिंहासन पाने के लिए बड़ा उत्सुक था । 1591 में 22 वर्ष अवस्था में सलीम ने सिंहासन प्राप्ति हेतु अनुचित जल्दबाजी की, जिससे अकबर और उसके बीच मतभेद हो गया था । अकबर की उदार धार्मिक नीति और सलीम की कट्टर इस्लाम नीति भी दोनों के बीच टकराव का कारण बनी थी । जब अकबर ने मेवाड़ के शासक राणा अमरसिंह से लड़ने भेजा, तो उसने सलीम से विद्रोह कर दिया ।

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उत्तराधिकार के लिए तो वह इतना उतावला था कि इतिहासकार बदायूंनी के अनुसार ”सलीम ने उसे जहर तक दे दिया था ।” सलीम ने मुराद पर भी अपनी अविश्वास भरी दृष्टि रखी थी । 1599 में जब मुराद मर गया, तब मौका देखकर विद्रोह कर दिया ।

इलाहाबाद में दरबार लगाकर उसने बिहार राज्य को अपने राज्य में न केवल मिलाया, अपितु 30 लाख रुपये हड़प लिये और 30 हजार विशाल सेना को भी अपने कब्जे में ले लिया । बंगाल, उड़ीसा का सूबेदार बनने के बाद उसने गोवा के पुर्तगालियों से सहयोग प्राप्त करने की कोशिश की ।

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19 अगस्त 1692 को उसने अपने मित्र वीरसिंह बुंदेला को अकबर के मित्र अबुलफजल का सिर काटकर लाने के लिए कहा । अबुलफजल का कटा हुआ सिर देखकर अकबर और सलीम के बीच की खाई और बढ़ गयी । उसके इस कुकृत्य से अकबर इतना अधिक दुखी हुआ कि यदि उसमें पितृवल्सल भाव नहीं होता, तो वह उसे प्राणदण्ड दे देता ।

अकबर ने खुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाने का संकल्प किया । अकबर की एक पत्नी सुलताना सलीमा बेगम इलाहाबाद से सलीम को समझा-बुझाकर आगरा ले आयी और बुआ गुलबदन बेगम ने दोनों के बीच समझौता करवा दिया । अकबर ने उसे माफ कर दिया । उसने अकबर के विरुद्ध पुन: विद्रोह किया । अकबर ने उसे पकड़कर 10 दिन तक गुसलखाने में कैद करवा दिया । बाद में उनमें समझौता हुआ ।

20 अप्रैल 1604 को दानियल के बीमार पड़ने पर उत्तराधिकारी सलीम ही रह गया था । अकबर 1605 में बीमार पड़ गया । उसके दरबार में राजा मानसिंह व मिर्जा कोका के दो दल बने, जिसमें मानसिंह खुसरो को उत्तराधिकारी बनाना चाहता था, मिर्जा कोका खुर्रम को ।

अकबर की मृत्यु के पश्चात विरोधों के बीच 24 अक्तूबर 1605 को 36 वर्ष की अवस्था में आगरे के किले में उसकी ताजपोशी हुई और उसे नूरूद्दीन मुहम्मद जहांगीर पादशाह गाजी की उपाधि दी गयी । इस पर उसने जागीर और उपाधियां आदि बांटकर अपने विद्रोही अमीरों को क्षमादान दे दिया था ।

उसने सोने की जंजीर लगवायी, जो आगरा के किले शाहबुर्ज से लेकर यमुना के किनारे पत्थर के स्तम्भ के बीच लटकी 30 गज लम्बी थी । उसमें 60 घण्टियां लगी थी । जंजीर का भार 4 मन सोने का था । इसके माध्यम से उत्पीड़ित स्वयं न्याय की गुहार करते हुए बादशाह तक सीधे अपनी फरियाद पहुंचा सकता था।

अपने शासन को सुव्यवस्थित करने के लिए सलीम ने 12 फरमान लागू किये, जिसमें जकात कर का निषेध, सराय, मस्जिद, कुए का निर्माण, राजपथ पर चोरी और डाके पर रोक, मृतक व्यक्तियों की सम्पत्तियों का करमुक्त उत्तराधिकार, मादक द्रव्यों का निषेध, दूसरों के घरों पर अधिकार करने, अपराधियों के नाक-कान काटने का निषेध, कृषि योग्य भूमि को जबरन हड़प करने पर निषेध, चिकित्सालयों में हकीमों की व्यवस्था, पशु-वध का निश्चित दिनों के लिए विरोध, रविवार के दिन आदर- सम्मान करते हुए पशु-वध निषेध, मनसबदारों और जागीरदारों के पदों की समुष्टि, धार्मिक संस्थाओं को दी जाने वाली जागीरों की समुष्टि, बन्दियों की मुक्ति ।

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जहांगीर को अकबर का विशाल सुसंगठित राज्य विरासत में प्राप्त हुआ था । उसने अपने पिता की तरह साम्राज्य की विस्तारवादी नीति के तहत मेवाड़ पर आक्रमण करके अपने तीन अभियानों में विजय प्राप्त की । कंधार, कांगड़ा, दक्षिण विजय, किश्तवार विजय उसके सैनिक अभियान थे ।

जहांगीर के शासनकाल में कुछ यूरोपीय यात्री, जैसे-कैप्टन हॉकिन्स, सर टॉमस रो, पेट्रो डेलावेला, फ्रांसिस पेलसर्ट, एडवर्ड टैरी आदि ने अपने ऐतिहासिक विवरण में जहांगीर के चरित्र के बारे में यह लिखा है कि जहांगीर एक विलासी, शानो-शौकत वाला बादशाह था । वह कभी क्रूर, तो कभी उदार होता था ।

गुस्से में किसी की खाल उतरवाकर भूसा भरवा देता, तो किसी को आग में जिन्दा जलाने, हाथी के पैरों तले रौंदवाने तक का क्रूर आदेश देता था । यहां तक कि उसने नूरजहां के पति शेर अफगन की तथा सिक्खों के गुरु अर्जुनदेव की भी हत्या करवा दी थी ।

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प्रजावत्सल न्यायप्रिय सम्राट होने के साथ-साथ वह ललित कलाओं का पोषक था । उसने आगरा के समीप सिकन्दरा में अकबर का मकबरा, एतमादउद्दौला का मकबरा, लाहौर तथा कांगड़े दुर्ग की मस्जिद बनवायी । प्रकृति प्रेमी होने के कारण उसने अनेक बाग और उद्यान लगवाये । लाहौर में दिलखुश बाग, कश्मीर का निशात और शालीमार बाग, उदयपुर का शाही बाग उसी के काल के हैं । संगीतकला को भी उसने प्रोत्साहन दिया ।

चित्रकला का इतना पारखी था कि वह आखें मूंदकर भी उसके चित्रकार को पहचान लेता था । साहित्य में उसकी रुचि थी । अत: वह प्रत्येक शुक्रवार साहित्यिक गोष्ठी करवाकर लेखकों का सम्मान किया करता था । उसने तुजुके ए जहांगीरी नामक श्रेष्ठ आत्मकथात्मक ग्रंथ की रचना की थी ।

जहांगीर अपने पिता अकबर की तरह धर्मनिरपेक्ष नहीं रह सका । 7 नवम्बर 1627 को राजौरी में उसकी मृत्यु हो गयी । उसके शव को नूरजहां द्वारा लाहौर में दफना दिया गया और उसी पर उसने मकबरे का निर्माण करवाया ।

3. उपसंहार:

इतिहासकारों के अनुसार जहांगीर का चरित्र कोमलता, अत्याचार, न्यायप्रियता, बुद्धिमानी, अविवेकी, विलासी गुणों का समन्वित रूप था । उसकी सबसे बड़ी दुर्बलता भोग-विलास और मदिरापान में डूबे रहना थी । उसने इसी प्रवृति के कारण अपनी बेगम नूरजहा के हाथों शासन की बागडोर सौंप रखी थी, जिसके कारण उसका शासन उत्तराधिकारियों में संघर्ष, विद्रोह, षड्‌यन्त्र का केन्द्र बना हुआ था ।

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उसका राज्य इतना वैभवशाली और सम्पनशाली होने के बाद भी उसकी चारित्रिक कमजोरियों के कारण अकबर की तरह व्यवस्थित नहीं था । कुल मिलाकर उसका शासनकाल राजनीतिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से उल्लेखनीय रहा ।

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