टीपू सुलताल पर निबन्ध | Essay on Tipu Sultan in Hindi

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1. प्रस्तावना:

मैसूर का सिंह टीपू सुल्तान अपने पिता की तरह प्रजापालक, परिश्रमी, विचरवान, नवीन सोच और क्रियाशील मस्तिष्क वाला शासक था । उसका चरित्र दुर्गुणों से मुक्त था । वह आत्मस्वाभिमानी, ईश्वर-भक्त, स्वाधीनता-प्रेमी, कुशल राजनीतिज्ञ था । वह धार्मिक दृष्टि से उदार और सहिष्णु था ।

2. जीवन वृत्त एवं उपलब्धियां:

1782 में अपने पिता हैदरअली की मृत्यु के बाद टीपू मैसूर का शासक बना । वह अपने पिता की तरह महत्त्वाकांक्षी और कुशल सेनानायक तो था, किन्तु उसकी तरह कूटनीतिज्ञ नहीं था । वह अंग्रेजों का कट्टर शत्रु था । उनकी शक्ति को नष्ट करने का साहस रखता था । वह स्वतन्त्रता का ऐसा पुजारी था, जो भारतमाता को अंग्रजों को बेचने के लिए तैयार नहीं था । उसने कभी भी लालच में आकार देशी राज्यों के विरुद्ध अंग्रेजों का साथ नहीं दिया ।

दूसरे अंग्रेज-मैसूर युद्ध के दौरान 1782 में पिता हैदर की मृत्यु के बाद वह गद्दी पर बैठा था । समय के साथ अपने को बदलने की इच्छा उसमें इतनी अधिक बलवती थी कि उसने नये कैलेण्डर को लागू करवाया । विदेशी व्यापार को प्रोत्साहन दिया । नौ आयुक्तों की व्यापार परिषद् स्थापित की, जो सामुद्रिक तथा स्थल व्यापार को बढ़ावा देती थी ।

उसने नाप-तौल की विधि में आर किया । सिक्के ढलाई नयी प्रणाली कायम की । घूसखोर अधिकारियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई की । उसने सेना को पुनर्गठित करते हुए विभिन्न स्तरों पर उनके कर्तव्य निश्चित किये । वह पढ़ने-लिखने का इतना शौकीन था कि उसके निजी पुस्तकालयों में धर्म, इतिहास, सैन्य, गणित, ओषधि, विज्ञान तथा विविध विषयों की पुस्तकें थीं ।

उसने श्रीरंगपट्टम में स्वतन्त्रता वृक्ष लगाया था । भारतीय अनुशासनहीन सैनिकों को वफादार बनाये रखने के लिए उसने जागीर देने की प्रथा खत्म कर राजकीय आय को बढ़ाया । पैदावार का एक तिहाई हिस्सा यद्यपि वह भू-राजस्व में लेता था, पर उसने इसके लिए भी छूट दे रखी थी ।

उसकी पैदल सेना यूरोपीय शैली में अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थी । 1796 में उसने एक आधुनिक नौ सेना खड़ी करने की कोशिश की । उसने 2 नौका घाट बनाकर जहाज के नमूने स्वयं तैयार किये । एक राजनीतिज्ञ के रूप में उसकी तुलना दक्षिण भारत के महान शासकों में की जा सकती है, जिसने जीवन-भर अंग्रेजों से युद्ध किया ।

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मैसूर राज्य की स्वतन्त्रता के लिए वह हमेशा लड़ता रहा । मैसूर के तीसरे युद्ध में उसने वीरतापूर्वक लड़ते हुए 1792 में श्रीरंगपट्टम से सन्धि की, जिसमें उसे आधा राज्य तथा 30 लाख पौण्ड जुर्माना देने को विवश किया गया, किन्तु टीपू ने इससे इनकार किया और युद्ध में वेलेजली की सहायक सन्धि के विरुद्ध लड़ता हुआ 4 मई 1799 को वीरगति पायी ।

टीपू अंग्रेजी राज्य के खतरे को भारत के लिए बड़ा खतरा समझता था । 1799 को जब अंग्रेजों ने उसे मार डाला, तो वे भी उसके राज्य में किसानों तथा नागरिकों की खुशहाली देखकर चकित थे । टीपू ने सम्राट होने की अपेक्षा मातृभूमि का वीर सैनिक होना कहीं अच्छा समझा ।

वह जब तक जिया सर उठाकर जिया । उस पर धार्मिक कट्टरता के आरोप लगते रहे कि उसने हिन्दू मन्दिरों को नष्ट किया । जबरदस्ती मुसलमान बनाकर हिन्दुओं की हत्याएं भी कीं । यह सत्य नहीं है; क्योंकि स्थ्य ने हिन्दू मन्दिरों को विशाल धनराशि प्रदान की थी । वह श्रीरंगपट्टम के रंगनाथ मन्दिर में रोज दर्शनों के लिए जाया करता था । युद्ध पर जाने से पहले ब्राह्मणों से पूजा और मन्त्रोच्चार करवाता था । वह तो अंग्रेजों का शत्रु था, गैर मुसलमानों का नहीं ।

3. उपसंहार:

टीपू एक सुयोग्य सेनानायक, प्रतिभाशाली प्रशासक और मातृभूमि का सच्चा सिपाही था । मातृभूमि की रक्षा के लिए उसने अपना आत्मबलिदान दिया । यदि मराठे और निजाम अंग्रेजों की बजाय टीपू का साथ देते, तो विदेशी सत्ता के सामने घुटने टेकने का साहस कोई नहीं करता और न ही अंग्रेजों की दासता इतने दिनों झेलनी पड़ती । वह कहा करता था कि- ”सम्राट को सम्राट की तरह होना चाहिए । बकरी की तरह जीने की बजाय दो दिन शेर की तरह जीना चाहिए ।”

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