पंजाब केसरी-लाला लाजपतराय पर अनुच्छेद | Paragraph on Lala Lajpat Rai

1. प्रस्तावना:

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में पंजाब के जिन वीर सपूतों ने अपना अविस्मरणीय योगदान दिया था, उनमें लाला लाजपतराय का अमिट स्थान है । साहस, धैर्य, लगन, संघर्ष के प्रति लाला लाजपतराय महान देशभक्त थे ।

2. जन्म एवं शिक्षा:

एक अत्यन्त निर्धन वैश्य परिवार में 28 जनवरी सन् 1865 में पंजाब के फिरोजपुर के मोगा तहसील में ढ़ोडि ग्राम में उनका जन्म हुआ था । उनकी माता गुलाब देवी धार्मिक संस्कारों वाली महिला थीं । पिता राधाकृष्ण एक साधारण अध्यापक थे । लाला लाजपतराय ने रोपड़ के राजकीय मिडिल स्कूल में अल्पायु में ही परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी ।

घर की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के बाद भी उन्होंने बड़े ही परिश्रम से हाई स्कूल की परीक्षा लाहौर से उत्तीर्ण की । अपनी आवश्यकता को सीमित कर आगे की पढ़ाई पूरी की । इसके लिए ट्‌यूशन तथा छात्रवृत्ति भी ली । लुधियाना से पढ़ाई पूरी कर अस्वस्थ होने के बाद भी मैट्रिक में विशेष योग्यता प्राप्त की । अरबी, उर्दू, भौतिक विज्ञान के साथ कलकत्ता से ऑनर्स परीक्षा उत्तीर्ण की ।

वकील बनकर सामाजिक तथा व्यक्तिगत आकांक्षा पूरी की । घर-घर जाकर शिक्षा के महत्त्व का प्रचार-प्रसार करते थे । माता-पिता को बच्चों को स्कूल भेजने के लिए उन्होंने प्रेरित भी किया । भारतसुधा तथा पंजाबी पत्र नामक पत्रिकाएं निकालीं । हिसार में म्यूनिसिपेल्टी में अवैतनिक रूप से कार्य करके उन्होंने यह सन्देश दिया कि-रुपया व्यक्ति को स्वार्थी बना देता है ।

3. लालाजी और उनके सामाजिक कार्य:

लालाजी ने जनता के बीच जाकर न केवल शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया, वरन समाज में जागृति लाने के लिए दो पत्रिकाएं भी निकालीं । म्युनिसिपेल्टी में कार्य करते हुए उन्होंने नगर की स्वच्छता, छोटी संस्थाओं को शिक्षा हेतु सहायता का कार्य भी किया । चुंगी, चौकी पर होने वाले भ्रष्टाचार को रोककर कर्मचारियों के लिए अनेक सुधार कार्य किये । यह उनकी निःस्वार्थ भावना थी कि उन्होंने अपने लिए कभी जमीन-जायदाद नहीं बटोरी ।

लालाजी ने एक अनाथालय की स्थापना कर न जाने कितने अनाथों को आश्रय दिया । हिसार में डी०ए०वी० कॉलेज की व्यवस्था सुधारने हेतु घर-घर जाकर आर्थिक सहायता की मांग की । स्वाभिमान तथा पद की भी चिन्ता नहीं की । स्वामी दयानन्द सरस्वती की तरह आर्यसमाज के सिद्धान्तों, आदर्शों का पालन किया । उन्होंने आर्य मैसेन्जर तथा दयानन्द एग्लो वैदिक कॉलेज समाचार-पत्रों का न केवल सम्पादन किया, वरन् उसके लिए लेख भी लिखते रहे ।

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सन् 1896-97 में पूरे भारतवर्ष में पड़े भयावह अकाल में तो लाहौर छोड़कर अकाल एवं महामारी से पीड़ित जनता की सहायता की । उन्होंने पेड़ों के पत्ते और छालों को भी खा जाने वाली अकाल पीड़ित जनता की पीड़ा तथा महिलाओं से उनके शील के बदले स्वार्थी नर-पशुओं को अनाज का व्यापार करते देखा । ईसाई मिशनरियां थोड़े-से भोजन के बदले धर्म परिवर्तन करवा रही थीं ।

समाज तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए लालाजी ने न केवल अपील की, अपितु लेख भी लिखे, ताकि उनकी प्रेरणा से लोग अकाल पीड़ितों की मदद कर सकें । लालाजी का मन उस समय सरकार, नेताओं और जनता की किंकर्तव्यमूढ़ता से इतना दुखी हो गया था कि उन्होंने सभी को आड़े हाथों लिया था ।

सुबह से लेकर शाम तक न केवल जनता की सेवा की, अपितु आगरा, लखनऊ, इलाहाबाद जाकर कमेटियों का गठन किया । डॉक्टर, नर्सों, स्वयंसेवकों को भेजकर बीमारों की सेवा तथा मृतकों का दाह संस्कार भी करवाया । वे मानते थे कि- ”अपनी थोड़ी-सी शारीरिक, आर्थिक हानि सहकर भी पीड़ित मानवता की सेवा करनी पड़े, तो मैं इसे सस्ता सौदा समझूंगा ।” इसके बाद राजस्थान में पड़े अकाल पीड़ितों की सहायता हेतु वे राजस्थान में जा डटे ।

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5 साल बाद कांगड़ा में भीषण भूकम्प पीड़ितों की धन, वस्त्र, अन्न एकत्र कर सहायता की । 1907-08 में उड़ीसा तथा मध्यप्रदेश में पड़े अकाल पीड़ितों की सहायता की । अछूतों के उद्धार के लिए कमेटियां, सामाजिक सुधार कार्य, प्रारम्भिक पाठशालाएं प्रारम्भ की । अछूतों के प्रति सम्मान भाव के लिए जनसभाएं कीं । बंग-भंग के बाद वे सामाजिक सुधार का कार्य जनसेवक समिति को सौंपकर सक्रिय राजनीति में कूद पड़े ।

4. लालाजी का स्वतन्त्रता आन्दोलन में योगदान:

लालाजी ने बंग-भंग आन्दोलन के साथ सक्रिय राजनीति में भाग लेते हुए सर्वप्रथम अंग्रेजों के पिट्ठू नेताओं व देशद्रोहियों की जमकर आलोचना की । अंग्रेजी के बजाय हिन्दी में भाषण देने की परम्परा की शुरुआत कर वे शासन सुधार का प्रस्ताव लेकर इंग्लैण्ड गये । अन्तर्राष्ट्रीय समर्थन प्राप्त करने के लिए यूरोपीय देशों की यात्राएं कर सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखे । नौजवानों को संगठित किया । स्वदेशी प्रचार, विदेशी बहिष्कार का आन्दोलन छेड़ दिया ।

उनके क्रान्तिकारी तेवर देखकर सरकार ने 1907 में उन्हें माण्डले जेल भेज दिया । यह खबर देश में आग की तरह फैल गयी, परिणामस्वरूप 11 नवम्बर 1907 में उन्हें मुक्त कर लाहौर पहुंचाया गया । 5-7 महीने के पाश्विक अत्याचारों के बीच लालाजी की अंग्रेज विरोधी नीति को बल मिला । दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी द्वारा प्रवासी भारतीयों के लिए किये जा रहे आन्दोलन के लिए हजारों की राशि लालाजी ने भेजी ।

कांग्रेस में पड़ी आपसी फूट और झगड़ों ने लालाजी को बहुत दुखी कर दिया था । फिर वे जनहित और समाजसेवा की ओर लौटने लगे । डी०ए०वी० कॉलेज की अनेक शाखाएं और कक्षाएं देश में खोलीं । 1907 में सूरत अधिवेशन में अपना नाम प्रस्तावित होने पर रास बिहारी बोस के समर्थन में नाम वापस ले लिया । 1920 में गांधीजी के साथ असहयोग आन्दोलन में हिस्सा लिया, किन्तु चौरा-चौरी हत्याकाण्ड में गांधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन को वापस लेने पर उन्होंने गांधीजी की भर्त्सना कर डाली ।

मदनमोहन मालवीयजी के साथ इण्डिपेण्डेन्ट पार्टी एवं लोकसेवक संघ की स्थापना की । इसमें निःस्वार्थ भाव से काम करने वालों में पुरुषोत्तम दास टण्डन, लालबहादुर शास्त्री, बलवंत मेहता थे । सन् 1921 में उन्होंने सविनय अवज्ञा आन्दोलन में पंजाब का नेतृत्व किया ।

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30 अक्टूबर 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया, तो लालाजी ने ”साइमन कमीशन भारत लौट जाओ” का नारा दिया । उनके ओजस्वी भाषणों को सुनकर जनता ने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध लालाजी के नेतृत्व में जुलूस में हिस्सा लिया ।

इनके क्रान्तिकारी तेवर से घबराकर अंग्रेज सरकार ने लाठियां बरसानी शुरू कर दीं । लाठियों का वार सहते-सहते लालाजी बोलते रहे- ”आप सब मेरे ऊपर होते हुए अत्याचार को देखें और विश्वास रखें कि मेरे ऊपर होने वाली लाठी की एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के कफन की एक-एक कील साबित होगी ।” 17 नवम्बर 1928 को लाठियों के संघातिक वार से लालाजी की मृत्यु हो गयी ।

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5. उपसंहार:

लालाजी एक देशभक्त, समाजसेवी, पत्रकार के साथ-साथ साहित्यकार भी थे । उन्होंने मैजिनी, गैरीवाल्डी, शिवाजी, कृष्ण, दयानन्द आदि की जीवनियां भी लिखीं । लालाजी ने सच ही कहा था- ”मेरा मजहब हकपरस्ती है, मेरी मिन्नत कौमपरस्ती है, मेरी इबादत खलकपरस्ती है, मेरी अदालत मेरा अन्तःकरण है, मेरी जायदाद मेरी कलम है, मेरा मन्दिर मेरा दिल है और उमंगें सदा जवान है ।”

उन्होंने यह भी कहा था- ”देश सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है । जिस व्यक्ति में अपना जातीय गौरव और आत्मसम्मान नहीं है, वह नरपशु है ।” मानसिक दाता से बढ़कर कोई हानिकारक दासता नहीं है । मातृभूमि की सेवा ही सच्ची और समर्थ सेवा है ।

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