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मेरे प्रिय नेता: संत विनोबा भावे पर निबंध | Essay on My Favourite Leader : Saint Vinoba Bhave in Hindi!

बचपन में मैंने एक कहावत सुनी थी- ‘गुरु बनाइए जान, पानी पीजिए छान ।’ इस कहावत का अर्थ है- पानी छानकर पीना चाहिए और गुरु सोच-समझकर बनाना चाहिए । आजकल नेताओं की भरमार है ।

नेता तीन प्रकार के होते हैं- असली, फसली और नकली । असली नेता वे होते हैं, जो हमारी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में हमारा पथ-प्रदर्शन करते हैं, हमें देश-प्रेम का पाठ पढाते है और हमारी कुप्रवृत्तियों का संस्कार करते हैं । वे हमें राष्ट्र की रक्षा के लिए तैयार करते हैं । उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता । राष्ट्र का सर्वागीण विकाम करना ही उनका लक्ष्य होता है । फसली नेता समय की उपज होते हैं । राष्ट्र में

किसी ज्वलंत समस्या के पैदा होने पर उनका उदय होता है और समस्या के शांत होने पर वे चले जाते हैं । ऐसे नेताओं को हम अवसरवादी नेता भी कह सकते है । अवसरवादी नेता स्वार्थी होते हैं । उनसे राष्ट्र का कुछ भी कल्याण नहीं हो सकता । तीसिरे प्रकार के नेता नकली होते हैं ।

वे देशभक्ति का इतना ढोंग रचाते हैं कि जनता उनके इंद्रजाल में फँसकर अपना तो अनिष्ट करती ही है, अपने साथ संपूर्ण राष्ट्र को भी अवनति के गहरे गर्त में धकेल देती है । आजकल हमारे देश में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है । ऐसी स्थिति में हमें अपना प्रिय नेता चुनने में बड़ी कठिनाई होती है । बड़ी खोज के बाद मैंने अपने मन का प्रिय नेता चुना है और वे हैं- संत विनोबा भावे ।

संत विनोबा भावे ने महाराष्ट्र के एक साधारण ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर अपने परिवार का ही नहीं, महाराष्ट्र और संपूर्ण भारत का मस्तक ऊँचा किया । उनके रक्त में ईश्वर- भक्ति, मानव-प्रेम और निष्काम-सेवा की उदात्त प्रवृत्तियों का संचार करने का श्रेय उनके दादा शंभु राव और उनकी माता रुक्मिणी देवी को जाता है ।

समर्थ गुरु रामदास कृत ‘दासबोध’ का अध्ययन कर बारह वर्ष की अल्पावस्था में ही आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत लेना उनके जीवन की एक आश्चर्यजनक घटना थी । उसी समय से उन्होंने कठोर और संयमी जीवन व्यतीत करना आरंभ किया । वे नंगे पैर रहते थे, चटाई पर सोते थे, अत्यंत सादा भोजन करते थे, कम-से-कम वस्त्र धारण करते थे और पैदल ही यात्रा करते थे ।

ऐसे त्यागी नेता संसार में विरले ही होते हैं । विनोबाजी सन् १९१६ के आरंभ में गांधीजी के संपर्क में आए । उस समय उनकी अवस्था उन्नीस वर्ष की थी । वे गांधीजी के साथ साबरमती आश्रम में रहने लगे । उनके माता-पिता को यह बात नहीं मालूम थी । इसकी सूचना गांधीजी ने ही उनके पिता श्री नरहरि भावे के पास बड़ौदा भेजी थी ।

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उन्होंने लिखा था- ”तुम्हारा विनोबा मेरे पास है । इस छोटी सी उम्र में ही तुम्हारे पुत्र ने जो तेजस्विता और वैराग्य प्राप्त कर लिया है, उसे प्राप्त करने में मुझे कितने ही वर्ष लग गए थे ।” गांधीजी के इन शब्दों से विनोबाजी के यौवन-काल के तप और त्याग का पता चल जाता है । विनोबाजी जितने दिनों तक गांधीजी के साथ साबरमती आश्रम में रहे, आश्रम का सारा काम अपने हाथों से करते रहे ।

उन्होंने मल-मूत्र तक साफ किया, पर अपने मन पर मैल नहीं बैठने दी । गांधीजी के आदर्शों पर चलकर ही उन्होंने अपने जीवन का निर्माण किया । सत्य और अहिंसा में विश्वास करते हुए उन्होंने मानव-सेवा को ही अपने जीवन में प्राथमिकता दी ।

राजनीति के पचड़े में वे नहीं पड़े, किंतु इससे उनकी देशभक्ति में कमी नहीं आई । सर्वोदय के सिद्धांतों का प्रचार उनका मुख्य कार्यक्षेत्र था ! इसके अंतर्गत उन्होंने भू-दान, श्रम-दान, संपत्ति-दान, ग्राम-दान, शांति-सेना आदि लोकोपयोगी योजनाओं को स्थान देकर गांधीजी के स्वप्न को साकार किया ।

संत विनोबा भावे मौलिक चिंतक, निर्भीक आलोचक और स्पष्ट वक्ता थे । वे जो सोचते थे, वही कहते भी थे और जो कहते थे, वही करते थे । उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था । वे कई भाषाओं के अच्छे विद्वान् थे । उन्होंने अनेक धर्मों का गहन अध्ययन किया था ।

इसलिए सभी धर्मों में उनकी आस्था थी । उन्होंने किसी डाकू को अपनी अहिंसा-वृत्ति से प्रभावित कर उसे सामान्य जीवन जीने की प्रेरणा दी । उनमें गर्व तो नाममात्र के लिए भी नहीं था । जाति-पाँति, धर्म, भाषा, प्रांतीयता, संप्रदाय आदि के संकुचित घेरों से वे बहुत ऊँचे उठे हुए थे । वे सादा जीवन उच्च विचार की प्रतिमूर्ति थे । इसलिए उनके प्रति मेरी अगाध श्रद्धा है और वही मेरे प्रिय नेता हैं ।

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