विनायक दामोदर सावरकर की जीवनी | Biography of Vinayak Damodar Savarkar in Hindi

1. प्रस्तावना:

भारत माता के गौरव एवं सम्मान की रक्षा के लिए जिन महान् विभूतियों ने संघर्ष किया है, उनमें महाराष्ट्र भूमि से अपना सर्वस्व बलिदान करने वालों में वीरसावरकर का नाम अत्यन्त श्रद्धा एवं गौरव से लिया जाता है । स्वतन्त्रता के लिए विदेशियों से जूझने वालों में इस भूमि से नाना साहब, वासुदेव बलवंत फड़के, चाफेकर बन्धु, रानाडे, तिलक भी हुए हैं, किन्तु वीर सावरकर का इसमें विशिष्ट योगदान रहा है ।

2. जन्म एवं शिक्षा-दीक्षा:

वीरसावरकर का जन्म महाराष्ट्र के नासिक के समीप भगूर नामक ग्राम में 28 मई सन् 1883 को हुआ था । उनके पिता का नाम दामोदर पन्त था । सावरकर बन्धु 3 भाई थे । बड़े श्रीगणेश, मंझले श्री विनायक और छोटे नारायणजी थे । विनायक सावरकर अपने भाइयों तथा पिताजी के साथ-साथ धार्मिक एवं राष्ट्रीय संस्कारों में बचपन से काफी रुचि लिया करते थे ।

रामायण, महाभारत की कथा के साथ-साथ वे छत्रपति शिवाजी, राणा प्रताप आदि से प्रभावित होने लगे थे । ‘मराठा केसरी’ तिलकजी की इस पत्रिका को वे भी पढ़ा करते थे । राष्ट्रीयता के भाव से भरे सावरकर गणेश एवं दुर्गाजी के भक्त भी थे । महाराष्ट्र में 1857 के राष्ट्रीय जागरण से वे काफी प्रभावित थे । शिवाजी जयन्ती, गणेशोत्सव के राष्ट्रीय जागरण से एकता का पाठ पढ़ने वाले सावरकर पर गहरा असर तब पड़ा, जब चाफेकर बन्धुओं को फांसी की सजा सुनाई गयी थी ।

सन् 1901 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर वे कॉलेज की शिक्षा ग्रहण करने पूना पहुंचे । अपने कॉलेज में राजनैतिक दुरावस्था पर प्रखर विचार रखने वाले सावरकरजी को काफी उपेक्षाओं का सामना करना पड़ा । वे अपने जीवन की सार्थकता आजादी की लड़ाई में अपना बलिदान देने हेतु मानते थे ।

3. स्वतन्त्रता आन्दोलन में उनका योगदान:

सन् 1905 और 1906 में देश का स्वतन्त्रता आन्दोलन का जोर अपनी तेजी पर था । सावरकरजी इस आन्दोलन में सक्रिय रूप से शामिल हो गये । उन्होंने पूना, नासिक तथा महाराष्ट्र के अन्य स्थानों में स्वदेशी प्रचार हेतु ओजस्वी भाषण दिये, सभाएं कीं ।

लोगों ने उनके स्वदेशी आन्दोलन से प्रभावित होकर पूना शहर के मध्य एक भव्य मैदान में विदेशी वस्त्रों की होली जला दीं । इस होलीकाण्ड का समाचार केसरी, अमृत बाजार, बंगवासी आदि समाचार-पत्रों में प्रमुख रूप से प्रकाशित हुआ । सरकारी कोष से बचने के लिए कॉलेज में उन पर 10 रुपये का दण्ड एवं 24 घण्टों के भीतर छात्रावास त्यागने का आदेश मिला । कॉलेज की दण्ड राशि सार्वजनिक निधि को दान कर वे बम्बई आ गये ।

बी०ए० प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर अपने राजनैतिक आन्दोलन को तेज किया । अभिनव भारत के नाम से क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना कर महाराष्ट्र में घूम-घूमकर इसका प्रचार किया । यह सब करते हुए उन्होंने वकालत भी की । नासिक में अंग्रेज सरकार की विदेशी नीतियों पर उनके ओजस्वी भाषणों से घबराकर अंग्रेज सरकार ने उनके विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करने का आदेश दिया ।

सन् 1906 में जब वे लंदन गये, तो वहां उन्होंने होमरूल लीग की स्थापना भी की और 1 वर्ष के भीतर ही फ्री इण्डिया सोसाइटी नामक दूसरी संस्था खोली । लंदन के साथ-साथ इटली, फ्रांस तथा अमेरिका में उन्होंने अंग्रेज विरोधी भाषण दिये । श्री श्यामजी कृष्ण वर्माजी भी इनकी सोसाइटी में शामिल हो गये थे । अपना इण्डिया हाऊस नामक भवन सावरकर को सौंपकर पेरिस चले गये । सावरकर के प्रभाव से वहां के विद्यार्थियों ने छात्रवृत्ति त्याग दी ।

बंग-भंग आन्दोलन में अपनी भूमिका का निर्वाह करने वाले इस क्रान्तिकारी वीरसावरकर ने अब लंदन में ही एक निर्वासित रूसी से बम बनाने की विधि सीखी । इण्डिया हाउस और अभिनव भारत द्वारा जोर-शोर से चलने वाली अंग्रेज विरोधी नीतियों से घबराकर ब्रिटिश सरकार ने इसे कुचलने के लिए सोची । उनकी दोनों संस्थाओं पर पुलिस का सख्त पहरा होने के बाद भी उन्होंने अपनी शासन विरोधी गतिविधियां जारी रखीं ।

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इसी बीच उनके भाई गणेश सावरकर को आजीवन कारावास की सजा सुनाने की खबर मिली । इस खबर से व्यथित एक ब्राह्मण युवक ने कलेक्टर जैक्सन को गोली से उड़ा दिया । सन्देह और षड़यन्त्र का आधार बनाकर ब्रिटिश सरकार ने उनके भाइयों और मित्रों को राजद्रोह के अपराध में पकड़ लिया ।

अंग्रेज सरकार अब सावरकर की गिरफ्तारी चाहते थी । उनके मित्रों ने लंदन जाने की सलाह दी । भारी मन से वे मित्रों के कहने पर पेरिस चले गये । वहां मैडम कॉमा के यहां ठहरे । भारत में उनके भाइयों और मित्रों पर अमानुषिक यातनाओं की खबर मिली । मैडम कॉमा ने इस बीच अभिनव भारत की सदस्यता ग्रहण कर ली ।

बर्लिन में राष्ट्रीय ध्वज फहरा दिया । जैक्सन हत्याकाण्ड की घटना के लिए गणेश कोन्हेर नाम के ब्राह्मण युवक को फांसी की सजा दी गयी, जिससे वे अत्यन्त क्षुब्ध हो उठे । इधर पेरिस से लंदन आते ही उन्हें रेल से उतरते ही गिरफतार कर लिया गया ।

सन् 1910 की 13 मार्च को सशस्त्र पुलिस दल द्वारा उनकी गिरफ्तारी का समाचार अखबार की प्रमुख सुर्खियां थी । अंग्रेज सरकार उन्हें जहाज द्वारा भारत लाकर सजा सुनाना चाहती थी । जहाज पर सावरकर पर सिपाहियों का कड़ा पहरा था । वे उचित अवसर पाकर भागने की ताक में थे । शौच करने की अनुमति मांगकर वे शौचालय पहुंचे ।

वहा उन्होंने एक छोटा-सा छेद देखा, जहा से वे कूदकर समुद्र के रास्ते भाग निकले थे । अंग्रेज सिपाही उन पर गोलियां बरसाते रहे । सावरकर बडी चतुराई से तैरते हुए बच निकले और फ्रांस के किनारे आ पहुंचे । उन्हें पुन: जहाज की बेड़ियों से जकड़ दिया गया । अब अंग्रेज सिपाही उनकी एक-एक हरकत पर नजर रखे हुए थे ।

सावरकर को अब नासिक जेल में बन्द कर दिया गया । वहां रहकर उन्होंने फ्रांस की प्रतिष्ठा पर लम्बा-सा लेख लिखा । फ्रांस सरकार ने अन्तर्राष्ट्रीय कानून के तहत उन्हें मुक्त कराने की मांग की । यह मांग वापस ले ली गयी । अब उनका मामला बम्बई के स्पेशल ट्रिब्यूनल के सामने था । वहां उन्होंने 30-40 जंजीर में जकड़े हुए कैदियों को अपना स्वागत करते हुये पाया ।

उनका छोटा नारायण भी उन कैदियों में से एक था । 3 माह तक उन पर मुकदमा चलाने के बाद 23 दिसम्बर 1910 को उनको आजन्म काले पानी की सजा सुनाई गयी । सावरकर पर नासिक कलेक्टर की हत्या में प्रोत्साहन देने व अंग्रेज विरोधी नीतियों का ठीकरा फोड़ा गया । उन्हें 50-50 वर्ष के काले पानी की सजा सुनाई गयी ।

सजा सुनने के पश्चात् अपनी पत्नी से उन्होंने कहा कि- ”धीरज रखो, केवल सन्तान पैदा करना और मौजमस्ती करना ही जीवन का उद्देश्य नहीं है । यह काम तो पशु-पक्षी भी करते हैं । हमने तो व्यक्तिगत सुखों के त्याग का संकल्प लेकर करोड़ों भारतवासियों के कष्ट को दूर करने का संकल्प लिया है । यही सच्चा मानवीय पुरुषार्थ है ।”

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4 जुलाई 1911 को सावरकर को अण्डमान की काल कोठरी में रखा गया । इस बीच उनका छोटा भाई आरोपों से मुक्त कर दिया गया । 8 वर्ष तक अण्डमान की जेल में रहते-रहते उनका शरीर निर्बल हो गया था । संग्रहणी ने उन्हें जकड़ लिया । वे 2 वर्षो तक रोग शैय्या पर पड़े रहे ।

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इधर सावरकर की मुक्ति हेतु 70,000 लोगों ने हस्ताक्षर युक्त प्रार्थना पत्र भेजा । सावरकर को मई 1921 को कलकत्ता भेजा गया । वहां से उन्हें रत्नागिरि जेल भेज दिया गया । 6 जनवरी 1924 को जेल से उनकी मुक्ति हुई, तो उन्होंने हिन्दू संगठन का कार्य आरम्भ कर दिया ।

4. सावरकर की हिन्दुत्व सम्बन्धी मान्यता:

सावरकर ने हिन्दू धर्म की व्याख्या करते हुए कहा- ”जो इस पुण्य भूमि को अपना मानता है, वही हिन्दू है ।” उन्होंने हिन्दू धर्म को सामाजिक कुरीतियों एवं बुराइयों से मुक्त कराने हेतु आवाहन किया । वे सभी सम्प्रदायों को हिन्दू मानते थे । सावरकर का मत था कि देश का नाम भारतवर्ष थोड़े समय का है । वास्तविक नाम सिन्धुस्तान है ।

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हिन्दू धर्म की उदारवादी सोच की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा- ”इस नाम को धार्मिक रंग देना एक भूल है । यह विशुद्ध राष्ट्रीय नाम है । जो हिन्दुत्व की विशेषताएं हैं, वही हमारी राष्ट्रीय विशेषताएं हैं । प्रत्येक व्यक्ति को अपने राष्ट्र के प्रति गौरव एवं स्वाभिमान होना चाहिए ।” हिन्दू की व्याख्या को वे विस्तृत व मानवतावादी मानते हुए देश को हिन्दुत्ववादी राष्ट्र बनाने की महत्त्वाकांक्षा रखते थे ।

5. उपसंहार:

निश्चय ही सावरकर वीरता एवं साहस के पर्याय तथा सच्चे राष्ट्रभक्त थे । स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात उनके हिन्दुत्ववादी विचारों पर सन्देह करते हुए 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधीजी की हत्या की घटना पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था । सरकार द्वारा जांच-पड़ताल के बाद उन्हें निर्दोष पाकर 1949 में जेल से मुक्त कर दिया गया ।

सन् 1962 में चीन द्वारा भारत पर आक्रमण, 1965 में पाकिस्तानी आक्रमण से वे काफी व्यथित थे । ताशकन्द समझौते से उन्हें गहरा आघात लगा । तब से वे शीघ्र मृत्यु की कामना करने लगे । किसी रोग से पीड़ित हुए बिना वे समस्त खाद्य पदार्थो का त्याग कर बैठे और केवल जल का सेवन करने लगे । 26 फरवरी 1966 को उन्होंने अन्तिम विदा ली और अपने जीवन को अमर कर दिया ।

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