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स्वामी विवेकानंद पर निबंध | Swami Vivekananda in Hindi!

‘उठो, जागो और अपने लक्ष्य की प्राप्ति से पूर्व मत रुको ।’

यह दिव्य उपदेश स्वामी विवेकानंद द्‌वारा दिया गया था । स्वामी विवेकानंद महामानव के रूप में अवतरित हुए । विश्व के समक्ष हिंदू धर्म और भारतीयता की जो अनुपम छवि स्वामी जी ने प्रस्तुत की वह अद्‌वितीय थी ।

मानव सेवा का लक्ष्य रखते हुए स्वामी जी ने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए जो कार्य किए उसके लिए मानव समाज सदैव उनका ऋणी रहेगा । भारतीय इतिहास में हिंदू धर्म के महान प्रवर्तकों में उनका नाम सदा अग्रणी रहेगा ।

स्वामी विवेकानंद का बचपन का नाम नरेंद्रनाथ था । उनका जन्म सन् 1863 ई॰ में कोलकाता में हुआ था । वे बचपन से अत्यंत चंचल स्वभाव के थे । अध्ययन में अधिक रुचि न होने के कारण उनका अधिकांश समय खेलकूद में ही बीतता था । उनकी माता धार्मिक आचार-विचार की थीं । नरेंद्रनाथ पर अपनी माता के धार्मिक विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा जिसके फलस्वरूप वे धीरे-धीरे धार्मिक प्रवृत्ति में स्वयं को ढालते चले गए ।

ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति के लिए उनकी इच्छा बढ़ती गई । इसके लिए उन्होंने तत्कालीन संत रामकृष्ण परमहंस की शरण ली । इनकी ओजस्विता को गुरु ने पहचाना और शिक्षा देना प्रांरभ कर दिया । गुरु रामकृष्ण परमहंस जी से उन्हें मानव जाति के कल्याण व उत्थान के लिए कार्य हेतु प्रेरणा मिली ।

वे धीरे-धीरे स्वामी परमहंस के परम शिष्य व उनके अनुयायी बन गए । उन्होंने स्वामी जी के सत्संग में रहकर यह समझा कि संन्यास का वास्तविक अर्थ संसार और स्वयं से विरक्ति नहीं है अपितु इसका उद्‌देश्य मानव कल्याण के लिए कार्य करना है ।

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स्वामी परमहंस के देहावसान के उपरांत उन्होंने वेदों और शास्त्रों का गहन अध्ययन किया । सन् 1881 ई॰ में विधिवत् संन्यास के उपरांत वे स्वामी विवेकानंद कहलाए। उसके पश्चात् वे जीवन पर्यंत धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए कृत संकल्पित हो गए ।

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सन् 1883 ई॰ में अमेरिका के शिकागो शहर में विश्वधर्म सम्मेलन का आयोजन हुआ जहाँ विश्व के सभी धर्मो के जनप्रतिनिधि एकत्रित हुए । स्वामी विवेकानंद भी हिंदू धर्म के प्रतिनिधि के रूप मैं वहीं गए । सम्मेलन में जब उनकी बारी आई तो वे मंच पर पहुँचे तथा पूर्णत: अद्‌वितीय तरीके से उन्होंने अपना संबोधन ‘अमेरिकावासियो भाइयो और बहनो’ से प्रारंभ किया तो वहाँ बैठे सभी श्रोतागण हर्ष से परिपूरित तथा और भी अधिक एकाग्र हो गए । इसके पश्चात् उन्होंने हिंदू धर्म की महानता और विशालता तथा मानव धर्म के प्रति जो ओजस्वी भाषण दिया उसने सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया।

धर्म की इतनी सुंदर और सुदृढ़ व्याख्या इससे पूर्व किसी ने नहीं की थी । वहाँ के लोकप्रिय समाचार-पत्र द न्यूयार्क हेराल्ड ने उनके बारे में टिप्पणी की, ”इस धर्म सम्मेलन में विवेकानंद सबसे महान हस्ती हैं । जो देश धर्म ज्ञान में इतना श्रेष्ठ है वहाँ ईसाई-धर्म प्रचारकों को भेजना बहुत ही मूर्खतापूर्ण है । ”

धीरे-धीरे स्वामी जी की ख्याति चारों ओर फैलती गई । अनगिनत लोग उनके अनुयायी बन गए । उसके पश्चात् सभी धर्म सम्मेलनों में उन्हें सादर आमंत्रित किया जाने लगा। वे निरंतर बिना रुके धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए कार्य करते रहे ।

अमेरिका और इंग्लैंड के अलावा वे अन्य यूरोपीय देशों में भी गए जहाँ अनेक युवक-युवतियाँ उनके शिष्य बन गए । भारत आकर उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की । कार्य के प्रति उनका समर्पण बढ़ता ही चला गया । अंतत: उनका यही परिश्रम उनकी अस्वस्थता का कारण बना और 1921 ई॰ में वे चिरनिद्रा में लीन हो गए ।

स्वामी विवेकानंद महामानव के रूप में अवतरित हुए । उन्होंने धर्म के प्रचार-प्रसार में जो भूमिका प्रस्तुत की वह अतुलनीय है । वे भारत माँ के सच्चे सपूत थे । इन्होंने भारत का गौरव बढ़ाया और विश्व के समक्ष भारत की अनुपम तस्वीर प्रस्तुत की । उनके कार्य आज भी आदर्श और प्रेरणा के स्रोत हैं ।