स्वामी विवेकानन्द | Swami Vivekananda in Hindi!

1. भूमिका:

स्वामी विवेकानंद के नाम हम स्व ऐसे महापुरुष के रूप में जानते हैं जिन्होंने विदेशों में भारतीय संस्कृति (Culture) तथा धर्म का प्रचार किया और संसार भर में पिछड़े (Backward) तथा आशिक्षित (Uneducated) समझे जाने वाले भारतियों का सिर ऊंचा किया ।

2. जन्म और शिक्षा:

स्वामी विवेकानन्द के बचपन का नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था । इनका जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में हुआ था । उनके दादाजी श्री दुर्गाचरण दत्त फारसी, संस्कृत तथा कानून केबहुत बड़े विद्वान थे । पिता श्री विश्वनाथ दत्त संगीत प्रेमी थे । नरेन्द्र की माता को भी अंग्रेजी, बंगला और भारतीय ग्रंथों का अच्छा ज्ञान था ।

ऐसे सुशिक्षित परिवार में नरेन्द्र की प्रतिभा (Talent) का अच्छा विकास होना ही था । नरेन्द्र बचपन में शरारती थे, लेकिन उनकी स्मरणशक्ति (Memory) बड़ी तेज थी । सात वर्ष की अवस्था में उन्हें पण्डित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के मेट्रोपालिटन इन्व्हीट्‌यूट में दाखिल कराया गया ।

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वे स्कूल की सीढ़ियों पर प्राय: राजा-प्रजा का खेल खेला करते थे । एन्ट्रेस पास करने के बाद उन्होंने प्रेसिडेंसी कॉलेज और फिर जनरल एसेम्बलीज इन्व्हीट्‌यूशन में प्रवेश किया । वहाँ के प्रधानाचार्य डज्यूडक्यू हेस्टी महोदय नरेन्द्र की बुद्धि की बड़ी प्रशंसा करते थे । बी.ए, पास करने के बाद विवाह की बात चली किन्तु नरेन्द्र ने आजीवन विवाह न करने का प्रण ले लिया ।

3. कार्यकलाप:

शिक्षा प्राप्त करने के बाद नरेन्द्र बझ समाज में शामिल हुए किन्तु कुछ ही दिनों बाद वे काली के परम उपासक स्वामी रामकृष्ण परमहंस की शरण में चले गये । वहीं से नरेन्द्र का नाम विवेकानन्द पड़ गया । स्वामी रामकृष्ण के देहांत के बाद उनके विचारों का प्रचार करने के लिए विवेकानन्द ने ‘रामकृष्ण मिशन’ नामक संस्था की स्थापना की ।

विवेकानन्दजी के विचारों से प्रभावित होकर सभी वर्ग और उम्र के लोग उनके शिष्य बनने लगे । खेतड़ी के महाराजा के कहने पर वे विश्व धर्म संसद में भाग लेने के लिए अमरीका गये । 11 सितंबर 1893 ई. को शिकागो शहर में हुए इस धर्म संसद में विवेकानन्द ने जो भाषण दिया, उससे प्रभावित होकर पूरे संसार से लते उनका शिष्य बनने आने लगे ।

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भारत के अनेक स्थानों के साथ-साथ उन्होंने सन् 1899 में दुबारा अमरीका यात्रा तथा सन् 1900 में पेरिस की यात्रा की । अन्तत: 4 जुलाई 1902 की संध्या को सदा के लिए उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई ।

4. उपसंहार:

विवेकानन्दजी ने संसार को बताया कि शरीर और आत्मादोनों के स्वस्थ और पवित्र रहने से ही संसार का कल्याण करना संभव है । उनकी शिक्षाएँ यशचंद्रिका नामक पुस्तक में संकलित हैं जो हमें सदा स्वच्छ जीवन और ऊंचे विचार की प्रेरणा देते रहेंगे ।