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संसद में प्रतिपक्ष की भूमिका पर निबन्ध |Essay on Role of the Opposition Party in Parliament in Hindi!

लोकतांत्रिक संसदीय व्यवस्था में बहुमतवाला दल शासन सँभालता है, अन्य दलों के सदस्य सत्तारूढ़ दल के कार्यकलापों की आलोचना करते हैं । सरकार बनने के बाद जो दल शेष बचते हैं, उनमें सबसे अधिक सदस्योंवाले दल को ‘विरोधी दल’ कहा जाता है ।

सत्तारूढ़ दल के सदस्य अपने दल की आलोचना प्राय: नहीं करते, परंतु विपक्ष बिना किसी भय के सत्तारूढ़ दल की कमियों पर प्रकाश डालता है । समय-समय पर काम रोको प्रस्ताव, मत-विभाजन की माँग और ध्यानाकर्षण प्रस्ताव द्वारा सरकार के कार्यों में रुकावट पैदा करता है ।

इन सबका उद्‌देश्य सरकार की नीतियों और कार्यों के औचित्य-अनौचित्य के प्रति जनता का ध्यान आकर्षित करना होता है । यह कथन सत्य है, ‘प्रतिपक्ष अंधी सरकार की आँख’ है । प्रतिपक्ष की इस भूमिका से सरकार शासन में मनमाना नहीं कर पाती । विपक्ष की आलोचना की अनदेखी करने से जनता के सम्मुख सरकार की छवि बिगड़ने का डर बना रहता है ।

अत: सरकार प्रत्येक विधेयक को सदन में प्रस्तुत करने से पूर्व विपक्ष के रुख पर विचार करती है । इस प्रकार प्रतिपक्ष सरकार की अंधी चाल पर अंकुश लगाता है । जैसे सत्ता पक्ष की कार्यप्रणाली राष्ट्रहित से प्रेरित होनी चाहिए ठीक उसी प्रकार प्रतिपक्ष की आलोचना का लक्ष्य भी राष्ट्रहित होना चाहिए ।

वस्तुत: विरोधी दल सत्तारूढ़ दल के कार्यों का पूरक है, न कि जानी दुश्मन । भारतीय संसद् में ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जबकि विपक्षी दल की रचनात्मक आलोचना के कारण सरकार ने अपने विधेयक को स्वयं वापस ले लिया है । ”जो मैं कह रहा हूँ वही ठीक है, परंतु संभव है कि वह ठीक न हो और विरोधी जो कह रहा है, वह ठीक हो” लोकतांत्रिक शासन प्रणाली का यही आदर्श है ।

कभी-कभी यह देखा जाता है कि सत्तारूढ़ दल सत्ता के मद में इतना चूर हो जाता है कि वह ‘अधिनायकवादी’ बन जाता है । ऐसी विकट परिस्थिति में प्रतिपक्ष अपनी तीव्र आलोचना से देश को अधिनायकवादी प्रवृत्तियों से बचाता है ।

कभी किसी मामले के संबंध में सरकार की जानकारी अधूरी रहती है और प्रतिपक्ष सत्य की गहराई तक पहुँचकर सदन में रहस्योद्‌घाटन करता है । इससे सरकार को अपनी भूल सुधारने का मौका मिलता है । इस प्रकार संसदीय प्रणाली में प्रतिपक्ष की भूमिका का महत्त्व निर्विवाद है ।

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भारत में प्रारंभकाल में विपक्ष प्रबल नहीं था । सन् १९५६ में केवल तीन मान्य विरोधी दल थे-साम्यवादी दल, समाजवादी दल और भारतीय जनसंघ । शनै:-शनै: विपक्षी दलों की संख्या बढ़ती गई, जैसे-लोकदल, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, डी.एम.के. ए.डी.एम.के. जनता पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, भारतीय जनता पार्टी आदि ।

जनता सरकार के अल्प कालावधि को छोड़ आरंभ से आज तक केंद्र में कांग्रेस का ही शासन रहा है और अन्य दल विपक्षी दलों की भूमिका निभाते रहे हैं । भारतीय संसद् का सौभाग्य रहा कि विपक्षी दलों में डी. राममनोहर लोहिया, भूपेश गुप्त, एच.बी, कॉमथ जैसे उच्च कोटि के सांसद रहे, जिन्होंने समय-समय पर सरकार की आँखें खोलने के साथ ही जनता-जनार्दन को भी जाग्रत् किया था ।

मगर आज की स्थिति इसके विपरीत है, विपक्षी दलों में वैचारिक भिन्नता बढ़ गई है । प्रतिपक्ष की भूमिका निभानेवाले दलों में वैचारिक एकता का अभाव है । जो भी हो, कुल मिलाकर भारतीय संसद् में प्रतिपक्षीय दल की भूमिका ही उचित रही है ।

कांग्रेस पार्टी के आपातकालीन शासन के विरुद्ध विपक्षी दलों का मोरचा देश-हित में सफल रहा था । लोकतंत्र की सफलता के लिए पक्ष और विपक्ष, दोनों को समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए । पक्ष और विपक्ष को एक-दूसरे का पूरक होना चाहिए न कि विरोधी । विपक्षी दलों को चाहिए कि वे लोकहित को सर्वोपरि मानकर सत्तारूढ दल को सही दिशा में अग्रसर करें तथा पक्ष को भी चाहिए कि प्रतिपक्ष के सुझावों का सम्मान करे ।

अभी भारत में लोकतंत्र युवावस्था में है । दलों की भीड़- भाड़ लोकतंत्र के स्वस्थ विकास का लक्षण नहीं है । दलों के सिद्धांतों में सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयता,  धर्म-जाति-संस्कार होना दुर्भाग्यपूर्ण है । दीर्घकाल से शासन पर काबिज रहने के कारण कांग्रेस पार्टी में भी शिथिल प्रवृत्तियों का प्रवेश हो चुका है । ऐसी दुर्व्यवस्था में मजबूत विपक्षी दल ही राष्ट्र का हितचिंतक बन सकता है ।