Read this article in Hindi to learn about:- 1. जनसंख्या का परिचय (Introduction to Population) 2. जनसंख्या वृद्धि एवं वितरण (Population Growth and Its Distribution) 3. क्रम पर प्रभाव (Impact on Ecosystem) 4.  भारतीय परिदृश्य (Indian Scenario).

जनसंख्या का परिचय (Introduction to Population):

पारिस्थितिकविदों के अनुसार जनसंख्या से तात्पर्य समान प्रकार के जीवों का सामूहिक समूह है जो एक निश्चित स्थान पर रहता है । अर्थात् प्रत्येक जीव चाहे वह जीव-जंतु हो, पक्षी हो, वनस्पति हो, सभी की संख्या होती है और यह संख्या पारिस्थितिक चक्र द्वारा परिचालित होती है तथा उस चक्र को प्रभावित करती है ।

वनस्पति एवं जंतुओं की संख्या एवं पारिस्थितिकी से संबंधों का अध्ययन वनस्पति विज्ञान, जीव विज्ञान एवं पारिस्थितिकी विज्ञान में विशदता से किया जाता है । जनसंख्या से तात्पर्य मानवीय जनसंख्या से है जो अपने क्रिया-कलापों से पर्यावरण को प्रभावित करती है और पारिस्थितिक चक्र में व्यवधान उपस्थित कर संकट का कारण बनती है ।

जनसंख्या का निवास एवं वृद्धि पर्यावरण की परिस्थितियों पर निर्भर करता है । आज भी विश्व में अंटार्कटिका जैसा प्रदेश है जहाँ वर्ष भर हिमानी के जमाव के कारण मानव का निवास नहीं है, उच्च पर्वतीय क्षेत्र भी मानव रहित हैं ।

टुंड्रा प्रदेश की विपरीत परिस्थितियाँ एवं विषुवत्‌रेखीय वन न्यूनातिन्यून जनसंख्या के क्षेत्र हैं । शुष्क मरुस्थली क्षेत्रों में भी अपेक्षाकृत कम जनसंख्या है तो दूसरी ओर समतल मैदानी प्रदेश जहाँ उपयुक्त जलवायु है मानव संख्या का वहाँ केन्द्रीकरण है ।

तात्पर्य यह है कि जनसंख्या पर्यावरण के तत्वों द्वारा नियंत्रित है । तकनीकी विकास एवं वैज्ञानिक उपलब्धियां से मानव अनेक क्षेत्रों को अपने रहने योग्य बना लेता है । इसी क्रम में जब वह पर्यावरण से छेड़-छाड़ करता है तो वहाँ की पारिस्थितिकी को प्रभावित करता है जिससे अनेक समस्याओं का जन्म होता है ।

जनसंख्या का पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी से सीधा संबंध होता है अर्थात यदि जनसंख्या अधिक होगी तो पर्यावरण का अधिक शोषण होगा और पारिस्थितिक- संकट अधिक हानिकारक होंगे । इस तथ्य की विस्तार से विवेचना से पूर्व जनसंख्या वृद्धि, वितरण, शहरीकरण आदि तथ्यों का विवेचन आवश्यक है ।

जनसंख्या वृद्धि एवं वितरण (Population Growth and Its Distribution):

मानव के अस्तित्व में आने के पश्चात् उसकी संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है । प्रारंभ में निश्चित ही जनसंख्या सीमित थी एवं उपयुक्त क्षेत्रों में निवास करती थी, किंतु उसकी क्रमिक वृद्धि आज एक ऐसे बिंदु पर पहुँच गई है कि वह अनेक राष्ट्रों के लिये चिंता का कारण बनी हुई है ।

किसी भी प्रदेश की जनसंख्या वृद्धि वहाँ की जन्म और मृत्यु दर के अंतर से जानी जाती है । यदि जन्म दर अधिक और मृत्यु दर कम होगी तो जनसंख्या की तीव्र वृद्धि होगी । इसके विपरीत यदि दोनों में आनुपातिक संबंध होगा तो वृद्धि सामान्य होगी एवं यदि जन्म से मृत्यु दर अधिक हो जाती है तो जनसंख्या में कमी आ जाती है ।

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एक प्रदेश अथवा देश में समय के साथ जो जनसंख्या वृद्धि का प्रारूप चलता है उसे नौरिस हैरिस एवं विटेक ने अपनी पुस्तक- ‘Geography : An Introductory Perspective’ में जनसांख्यिकीय संक्रमण का नाम दिया इसकी चार अवस्थायें व्यक्त की हैं । प्रथम अवस्था में जन्म और मृत्यु दर दोनों अधिक होती हैं अत: जनसंख्या वृद्धि नहीं होती या नगण्य होती है । इस अवस्था में वर्तमान में कोई देश नहीं है, यह मात्र इतिहास का उदाहरण है ।

द्वितीय अवस्था वाले देशों में जन्म दर अधिक होती है और मृत्यु दर घटती है, फलस्वरूप तेजी से जनसंख्या वृद्धि होती है जैसा कि भारत, बोलिवीया, सऊदी अरब आदि में है । तृतीय अवस्था वाले देशों में मंद वृद्धि अर्थात् जन्म दर कम होने की प्रवृत्ति तथा मृत्युदर भी कम होती है जैसा कि संयुक्त राज्य अमेरिका में हैं ।

चतुर्थ अवस्था वाले देशों में स्थिर जनसंख्या अर्थात् जन्म एवं मृत्यु दर दोनों ही कम होने से वास्तविक वृद्धि कम होती है जैसा कि स्वीडन, ग्रेट ब्रिटेन एवं अन्य यूरोपीय देशों में है । संपूर्ण विश्व में जनसंख्या वृद्धि की प्रवृत्ति है । यह वृद्धि विगत 45 वर्षों में और तीव्र है । स्पष्ट है कि विश्व की जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि हो रही है । प्रति सैकण्ड में दुनिया में 117 शिशुओं का जन्म होता है और लगभग 46 व्यक्तियों की मृत्यु अर्थात् वास्तविक वृद्धि 71 की होती है ।

दूसरे शब्दों में प्रतिदिन 200,000 व्यक्तियों की या प्रतिवर्ष 7.5 करोड़ जनसंख्या अधिक हो जाती है । यदि यही क्रम चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब न खाने के लिये पर्याप्त भोजन होगा, न रहने को आवास और यह स्थिति निस्संदेह संपूर्ण विश्व के पारिस्थितिक-तंत्र को झकझोर कर रख देगी ।

विश्व जनसंख्या की एक अन्य महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है सीमित प्रदेशों में जनसंख्या का जमाव अर्थात् जहाँ भी उपयुक्त पर्यावरण होता है वहीं जनसंख्या का केन्द्रीकरण होने लगता है । वर्ष 2011 में विश्व की कुल जनसंख्या 7,167,705,600 अंकित की गई है ।

विभिन्न महाद्वीपों की जनसंख्या तालिका 9.2 के अनुसार निम्न प्रकार से रही:

विश्व के प्रत्येक देश में जनसंख्या के वितरण एवं घनत्व में अत्यधिक असमानता है । विश्व के सघन जनसंख्या वाले क्षेत्र आदर्श मानवोपयोगी क्षेत्रों में सीमित हैं । दूसरी ओर न्यून जनसंख्या के क्षेत्र हैं जहाँ वातावरण कठोर है जैसे भूमध्यरेखिक प्रदेश, शीत प्रदेश, शुष्क मरुस्थली प्रदेश एवं उच्च पर्वतीय प्रदेश जनसंख्या आवास के प्रतिकूल हैं ।

विश्व की अधिकांश जनसंख्या कुछ क्षेत्रों में सीमित होने से वहाँ 500 व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी. से भी अधिक घनत्व हो गया है, जबकि दूसरी ओर विश्व का लगभग 42% स्थलीय क्षेत्र ऐसा है जहाँ एक व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी. से भी कम जनसंख्या घनत्व है ।

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जनसंख्या के घनत्व का वर्तमान प्रारूप हजारों वर्षों के मानव पर्यावरण अंतर्संबंधों का प्रतिफल है । अनेक बार समान प्रकार के पर्यावरण में असमान जनसंख्या का जमाव देखा गया है, यह वहाँ के प्राकृतिक पर्यावरण के अतिरिक्त सामाजिक परिवेश, आर्थिक एवं तकनीकी प्रगति का परिणाम है । सामान्य रूप से सांस्कृतिक पर्यावरण के तत्व अंतरसंबंधित होते हैं और सामूहिक रूप से ही मानवीय जनसंख्या के वितरण एवं घनत्व को नियंत्रित करते हैं ।

जनसंख्या का पारिस्थितिक क्रम पर प्रभाव (Impact of Population on Ecosystem):

जनसंख्या विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि जनसंख्या पर्यावरण एवं पारिस्थितिक क्रम को अत्यधिक प्रभावित कर रही है । देखा जाये तो एक क्षेत्र के पारिस्थितिक क्रम के तीन अंग हैं- प्राकृतिक वातावरण, मानव या जनसंख्या और तकनीकी विकास ।

प्राकृतिक वातावरण वह पृष्ठभूमि तैयार करता है जहाँ जनसंख्या निवास करती है । इस वातावरण में तकनीकी स्तर द्वारा मानव कतिपय परिवर्तन लाकर उसका अधिकतम उपयोग करता है और उसे अपने अनुकूल बनाने या स्वयं को उसके अनुकूल ढालने का प्रयत्न करता है ।

इस क्रम में जहाँ वह अपना विकास करता है, वहीं कतिपय पर्यावरण की व्यवस्था में व्यतिक्रम उपस्थित कर पारिस्थितिक क्रम में बाधा डालकर न केवल तात्कालिक हानि पहुँचाता है अपितु भविष्य के लिये भी अनेक समस्याओं का कारण बन जाता है ।

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मानव पर्यावरण द्वारा अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करता है, इसके लिये वह बुद्धि, क्षमता, तकनीक आदि का प्रयोग कर पर्यावरण के तत्वों को परिवर्तित एवं शोधित करता रहता है ।

दूसरे शब्दों में, मानव पारिस्थितिक तंत्र के साथ सामंजस्य एवं समन्वय स्थापित करता जाता है, उसके स्तर में वृद्धि होती जाती है, किंतु जैसे ही यह संतुलन बिगड़ने लगता है, उसकी प्रगति अवरुद्ध हो जाती है और उस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगता है ।

जब भी जनसंख्या में वृद्धि होती है तो उसे रहने के लिये भूमि, कृषि पशुपालन एवं अन्य सामाजिक कार्यों के लिये स्थान की आवश्यकता होती है । इसके लिये वह वनों को साफ करता है, वन्य जीवों को मारता है, बाँध बनाता है, नहरें, सड़कें, रेल मार्ग बनाता है, उद्योग स्थापित करता है, संसाधनों का अधिकतम शोषण करने लगता है । वैज्ञानिक और तकनीकी विकास से वह अजैविक वातावरण को भी अत्यधिक प्रभावित करता है ।

जो निम्नांकित रूपों में दृष्टिगत होता है:

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(i) मृदा का अधिक अपरदन एवं अन्यत्र जमाव,

(ii) मृदा की प्राकृतिक, रासायनिक एवं जीवाणु संरचना में परिवर्तन,

(iii) भूमिगत जल की मात्रा एवं उत्तमता में परिवर्तन,

(iv) ग्रामीण क्षेत्र की जलवायु में सीमित एवं नगरीय क्षेत्रों की जलवायु में अत्यधिक परिवर्तन एवं

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(v) जीव-जंतुओं एवं वनस्पति की अनेक प्रजातियों का लुप्त होना ।

जनसंख्या का दबाव जैसे-जैसे पर्यावरण पर अधिक होता जाता है, वह पर्यावरण का अधिक शोषण करने लगता है और पारिस्थितिक तंत्र को उतनी ही अधिक हानि होने लगती है । इस पर सर्वाधिक प्रभाव नगरों में जनसंख्या जमाव अर्थात् नगरीकरण का होता है ।

संक्षेप में जनसंख्या का पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी पर प्रभाव निम्नलिखित रूपों में दृष्टिगत होता है:

i. वनोन्मूलन,

ii. कृषि विस्तार, भूमि का अधिक उपयोग, उर्वरा शक्ति में कमी,

iii. जीव-जंतुओं का विनाश,

iv. जल आपूर्ति में कमी,

v. पर्यावरण प्रदूषण-जल, वायु, शोर एवं भूमि प्रदूषण में उत्तरोत्तर वृद्धि,

vi. जलवायु में क्रमिक परिवर्तन,

vii. संसाधनों के शोषण में वृद्धि आदि ।

उपर्युक्त प्रभावों से जहां पारिस्थितिक-तंत्र के सामान्य परिचालित में बाधा आती है, वहीं मनुष्य अनेक आपदाओं जैसे सूखा, अकाल, बाढ़, मरुस्थलीकरण तथा अनेक जानलेवा बीमारियों का शिकार हो जाता है ।

जनसंख्या की वृद्धि वर्तमान में जिस गति से हो रही है यदि यह क्रम जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब मानव का अस्तित्व संकट में हो जायेगा, क्योंकि मानव-वातावरण का सामंजस्य ही वह आधार है जिससे विश्व मानव का भविष्य सुरक्षित रह सकता है ।

जनसंख्या का भारतीय परिदृश्य (Indian Population Scenario):

जनसंख्या एवं पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी के सन्दर्भ में भारत का विवेचन आवश्यक है क्योंकि भारत विश्व का द्वितीय सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश है । भारत एक ऐसा देश है जहाँ प्राचीनकाल से प्राकृतिक वातावरण की छाया में जनसंख्या का न केवल उद्भव अपितु विकास हुआ है ।

विश्व के अन्य देशों में जब मानव बसाव भी प्रारम्भ भी नहीं हुआ था उस समय भारत में सभ्यता का विकास हो गया था । प्राचीन भारतीय सभ्यता का मूल ही उसका पर्यावरण के साथ सामन्जस्य था ।

सम्पूर्ण क्षेत्र वनों से आच्छादित था, कल-कल बहती नदियाँ और झरने तथा उन्मुक्त विचरण करते हुए पशु-पक्षी और इन्हीं के साथ मानव । भारत ऋषि-मुनियों, ज्ञानियों एवं सन्यासियों का देश रहा है जो पर्वतों की घाटियों एवं वनों में निवास करते थे ।

उस काल में सीमित जनसंख्या थी और प्रकृति के साथ मानव का पूर्ण समायोजन था, फलस्वरूप वह प्रगतिशील रहा, यद्यपि प्राकृतिक आपदायें यदा-कदा हानि पहुँचाती रहती थी किन्तु मानवकृत पर्यावरण अवकर्षण एवं प्रदूषण से मुक्त था ।

कालान्तर में जनसंख्या वृद्धि का क्रम प्रारम्भ हुआ जो आज ऐसे बिन्दु पर पहुँच गया है कि सभी का ध्यान उस ओर आकृष्ट है । पर्यावरण के वास्तविक शोषण की कहानी का भारत आज एक उदाहरण प्रस्तुत करता है ।

जहाँ तीव्र जनसंख्या वृद्धि ने उसे एक ऐसे बिन्दु पर पहुँचा दिया जहाँ यदि समुचित ध्यान न दिया गया तो अस्तित्व का खतरा उत्पन्न हो जायेगा । भारत में नियमित जनगणना का क्रम 1901 से प्रारम्भ हुआ, अत: इसके पश्चात ही क्रमबद्ध जनसंख्या की जानकारी हो सकी ।

हमारे देश में जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है । केवल 1911-21 के दशक में अकाल एवं महामारी के कारण जनसंख्या में कमी आई । वर्ष 1951 के बाद वृद्धि और तीव्र गति से हुई है । 2011 में हमारी जनसंख्या 121 करोड़ को पार कर चुकी है ।

वर्ष 2011 में हुई जनगणना के अनुसार भारत के विभिन्न राज्यों की जनसंख्या निम्नानुसार अंकित की गई है:

यदि जनसंख्या वृद्धि दर इसी प्रकार रही तो यह एक चिंताजनक अवस्था है । निरंतर विकास के फलस्वरूप भी हमारी अधिकांश जनसंख्या निम्न जीवन स्तर पर है । खाद्यान्न उत्पादन में अपूर्व वृद्धि के उपरांत भी सभी को पोषक भोजन उपलब्ध नहीं है, आर्थिक स्थिति दयनीय हो रही है, संसाधन समाप्त हो रहे हैं, ऊर्जा का संकट है, पेयजल की कमी है और इन सब से भयंकर तथ्य यह है कि हमारा पर्यावरण तीव्र गति से प्रदूषित होता जा रहा है । जनसंख्या दबाव से आज हमारे देश में अनेक पर्यावरण की समस्याएँ उत्पन्न हो गईं हैं ।

जिनमें प्रमुख हैं:

i. कृषि भूमि की कमी,

ii. उत्पादकता में कमी,

iii. वनोन्मूलन,

iv. चरागाहों का समाप्त होना,

v. भूमि अपरदन, भूस्खलन, भूमि में क्षारीयता एवं लवणता का विस्तार,

vi. पेयजल की कमी,

vii. कुपोषण,

viii. जलवायु में क्रमश: परिवर्तन,

ix. सूखा एवं बाढ़ का प्रकोप,

x. सभी प्रकार के प्रदूषण का मानव स्वास्थ पर विपरीत प्रभाव,

xi. तीव्र गति से पर्यावरण अवकर्षण आदि ।

भारत की जनसंख्या का एक पक्ष जिसने पर्यावरण को अत्यधिक प्रभावित किया है वह है ‘नगरीकरण’ । विश्व के अन्य देशों के समान भारत में भी विगत दशकों में नगरों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई है । 1901 में केवल 5.81 प्रतिशत नगरीय थी जो 1951 में 18.92 प्रतिशत हो गई और वहीं 1971 एवं 1981 में क्रमश: 25.63 एवं 26.91 प्रतिशत हो गई । 1991 की जनगणना से इसकी गति में कुछ कमी आई है अर्थात् यह 25.7 प्रतिशत हो गई है ।

2001 में नगरीय जनसंख्या का प्रतिशत 27.8 था जो 2011 में 31.16 प्रतिशत हो गया । स्पष्ट है कि नगरीय जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ नगरों का भी विस्तार हो रहा है, फलस्वरूप उनकी समस्यायें, विशेषकर पर्यावरण की समस्यायें भी और अधिक गहरी होती जा रही हैं ।

भारत में नगरीकरण के कारण अनेक समस्याओं का जन्म हुआ है जिनमें मूलभूत सुविधाओं का अभाव, अनियंत्रित विकास एवं यातायात, घटती ‘ग्रीनबेल्ट’, बढ़ता ध्वनि प्रदूषण, कोलाहल, गंदगी, गंदी बस्तियाँ, पानी का निकास न होना, जल प्रदूषण वायु प्रदूषण, मच्छरों का प्रकोप, सघन बस्तियों में घुटता जीवन, विकृत पर्यावरण पेयजल की कमी आदि के कारण नगरों में निवास करने वाली आधी से अधिक जनसंख्या नारकीय जीवन बिताने पर विवश हो रही है ।

यह सब अनियंत्रित फैलाव तथा शासन तंत्र के खोखलेपन का परिणाम है, साथ ही नगर निवासियों की उदासीनता भी इसके लिये उत्तरदायी है । भारतीय नगरीकरण के फलस्वरूप जो ज्वलंत पर्यावरण की समस्यायें उभर कर आई हैं ।

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वे निम्नांकित हैं:

i. औद्योगिक संस्थानों द्वारा वायु एवं जल प्रदूषण,

ii. परिवहन द्वारा वायु प्रदूषण,

iii. शोर (ध्वनि) प्रदूषण में वृद्धि,

iv. नगरों में अपशिष्ट पदार्थों को समाप्त करने की समस्या,

v. गंदे जल एवं अन्य पदार्थों द्वारा जल एवं भूमि प्रदूषण,

vi. गंदी बस्तियों का विकास,

vii. पेयजल की कमी,

viii. पार्क एवं खेल के मैदानों की कमी,

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ix. अस्वास्थ्यकर आवासीय दशायें,

x. प्राकृतिक वनस्पति का निरंतर समाप्त होना,

xi. नगरों का कृषि क्षेत्रों में विस्तार होने से कृषि भूमि में कमी,

xii. पर्यावरण अवकर्षण के कारण अनेक प्राणघातक बीमारियों के प्रकोप में वृद्धि आदि ।

तात्पर्य यह है कि भारत में विकास के नाम पर जो नगरीकरण की प्रवृत्ति में वृद्धि हो रही है इस पर अंकुश लगाना आवश्यक है । प्रमुख आवश्यकता नगरीय पर्यावरण के संरक्षण एवं संवर्धन की है, क्योंकि नगरों का पर्यावरण यदि इसी गति से अवकर्षित होता रहा तो यहाँ जीवन कठिन हो जायेगा । वर्तमान और भविष्य दोनों की दृष्टि से नगरीय विकास एवं उसके पर्यावरण को नियोजित करना आवश्यक है ।

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