पसीने का कोई मजहब नहीं होता पर निबंध | Essay on Sweat has no Religion in Hindi!

समाज में राजनीतिक नेतृत्व का तानाबाना बिखर चुका है । जाने-अनजाने यह देश नागरिक अराजकता की ओर बढ़ रहा है, क्योंकि कद्दावर राजनीतिक नेतृत्व का अभाव है ।

व्यवरथा राजनेताओं के हाथों से फिसलकर ‘पॉलिटिकल मैनेजरों’ के हाथों में आ गई है, जिनकी नजरें स्वार्थों और तात्कालिक लाभ के गुणा-भाग के कारण इस कदर धुँधला गई हैं कि वो दो गज आगे का भविष्य भी नहीं पढ पाते है । देश सभी को मिलाकर बनते हैं । इसके लिए पसीना बहाने की जरूरत होती है और पसीने का कोई महजब नहीं होता ।

इस वक्त हमारे देश में दो चीजें बड़े कमाल की चल रही हैं । पहली राजनीति और दूसरी मीडिया । दोनों इतने बड़े करतबबाज हैं कि कही भी, कभी भी कुछ भी रच सकते हैं । इसमें एक समानता है कि दोनों ही नंबर गेम के दीवाने हैं ।

राजनीति वोटों के नंबर की खातिर औंधे मुँह पड़ी नजर आती है तो इलेक्ट्रॉनिक या प्रिंट मीडिया टीआरपी और प्रसार संख्या के कारण दिन में भी तारे गिनता रहता है । दिलचस्प यह है कि राजनीतिक दल सिर उठाकर आस-पास भी नहीं देखना चाहते हैं । यदि एक औंधे मुँह पड़ा है तो दूसरा गड्ढ़ा खोदकर और गहरे औंधे मुँह पड़े रहना चाहता है ।

टीआरपी का चक्कर ऐसा है कि मीडिया, खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लोग तो ज्यादा तारे गिनने के लिए दूसरे ब्रह्मांड भी ढूँढ लेते है । संयोग कहें या दुर्योग दोनों एक-दूसरे के सहारे चलने के लिए अभिशप्त हैं । मीडिया को घटनाएँ रचने के लिए कोट’ या ‘बाइट’ की जरूरत होती है और राजनीति को लोकप्रियता हासिल करने के लिए तथाकथित पब्लिक में अपना चेहरा बनाए रखना आवश्यक होता है ।

नतीजतन एक बाइट लेता है, दूसरा देता है । दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि दोनों के करतब देश और बड़े समाज को तात्कालिक रूप से व्यापक पैमाने पर प्रभावित करते हैं । इनका अपरिपक्व, असंयत, अविवेकशील व्यवहार अनजाने ही समाज को इतना कुरेद देता है कि खून छलछलाने लगता है । इस खतरनाक जुगलबंदी के दो ताजा उदाहरण हाल ही में देखने को मिले हैं, जबकि छोटी-छोटी सी घटनाओं में से तूफान पैदा करने की कोशिशें की गई ।

नतीजतन देश और समाज के सीने पर खून छलछलाने लगा । पहला उदाहरण मध्य प्रदेश का है, जबकि एक दिन सवेरे-सवेरे राज्य सरकार को ‘इलहाम’ हुआ कि ‘जोधा-अकबर’ फिल्म के प्रदर्शन के कारण प्रदेश में नागरिक असंतोष की स्थितियाँ निर्मित हो सकती है । भारी संकट की आशंकाओं के बीच मध्य प्रदेश में ‘जोधा-अकबर’ के प्रदर्शन पर रोक लगा दी गई और थिएटरों में अच्छी-खासी चलती फिल्म को उतार दिया गया ।

सरकारी तर्क यह है कि मध्य प्रदेश में राजपूत समाज फिल्म के ऐतिहासिक तथ्यों से सहमत नहीं था, इसलिए प्रदर्शन को रोका गया । असहमति यह थी कि जोधा, अकबर की नहीं बल्कि उनके बेटे जहाँगीर की पत्नी थी । इस तथाकथित तथ्यात्मक भूल से राजपूत समाज की आन-बान को बट्‌टा लग सकता था । इसलिए मजबूरन सरकार को यह कदम उठाना पड़ा ।

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इसी प्रदेश में पचास साल पहले बनी ‘मुगले- आजम’ फिल्म खूब चली । जब पहली बार रिलीज हुई, तब कोई एक साल थिएटरों में धूम मचती रही, और हाल ही जब उसका रंगीन प्रिंट आया, तब भी खूब चली लोकप्रियता बटोरी । उसमें भी अकबर की पत्नी का नाम जोधाबाई ही रखा गया था । ‘मुगले आजम’ की जोधाबाई और ‘जोधा-अकबर’ की जोधाबाई में क्या अंतर है?

उस समय राजपूत समाज क्यों आहत नहीं हुआ और इस मर्तबा इतना आहत क्यों हो गया कि प्रदेश सरकार की कानून व्यवस्था काँपने लगी? इन विरोधाभासी स्थितियों में मौजूद सवाल का उत्तर तो सभी पक्षों की ओर से सामने आना चाहिए । कलात्मक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी के सवाल इससे अलहदा हैं ।

दूसरी घटना महाराष्ट्र की है, जहाँ राज ठाकरे के एक बयान और गुंडेनुमा राजनैतिक कार्यकर्ताओं ने अराजकता फैलाकर पूरे देश में चिंताएँ पैदा कर दी । दूसरे में भी मीडिया, खासतौर से ‘इलेक्ट्रॉनिक मीडिया’ की भूमिका सवालों के घेरे में रही है । इससे जुड़े कवरेज के संदर्भ में एक सत्य घटना का बयान एक राष्ट्रीय चैनल के संवाददाता के सामने बयान किया ।

घटना का ‘लाइव टेलीकास्ट’ कर रहे टीवी स्क्रीन पर मची एंकरों और फील्ड रिपोर्टरों की चीख-पुकार सुनकर ऐसा महसूस हो रहा था कि राज ठाकरे के जमानत पर छूटते ही जैसे जलजला आ जाएगा । एक राष्ट्रीय चैनल के परदे पर एकर और संवाददाता तनावपूर्ण मुद्रा में एक-दूसरे से सवाल के गुत्थम-गुत्था हो रहे थे । फील्ड रिपोर्टर मुंबई के किसी कोने पर व्याप्त तथाकथित ‘तनाव’ को रिपोर्ट करने के लिए शब्दों में आग झोंक रहा था ।

दूसरी ओर स्क्रीन पर मौजूद एंकर सवालों की गोलाबारी के बीच आग्रह कर रहा था कि कैमरे को भीड़ की ओर मोड़िए । भीड़ की नाराजगी दिखाइए, तनाव दिखाइए । राज ठाकरे की समर्थक जनता की उग्रता से दर्शकों को रूबरू कराइए, लेकिन रिपोर्टर टस-से-मस नहीं हो रहा था । माइक्रोफोन हाथ में पकड़े सिर्फ अपनी बातें दोहराने के अलावा कुछ नहीं कर रहा था । बहरहाल हल्ला खत्म हुआ । जब उस संवाददाता से फोन पर पूछा गया कि ‘भाई, भीड़ की ओर कैमरा क्यों नहीं मोडा’ । उधर से जवाब आया कि ‘जब भीड नहीं थी तो कैमरा कैसे घुमाता’ ।

ये दो घटनाएं हमारी राजनीति और मीडिया के चालचलन को उजागर करती है जो समाज और लोगों को गहराई से प्रभावित करता है । मसले गंभीर हैं, जिनका विश्लेषण गंभीरता और गहनता का निर्वाचित आग्रह करता है । मोटे तौर पर हम एक प्रजातांत्रिक देश के निवासी हैं । जहाँ हर पाँच साल में चुनाव होते हैं और निर्वाचित सरकारें केन्द्र और प्रदेश के काम करती हैं ।

सबको कहने, सुनने और बोलने की आजादी है । कोई कहीं भी आ-जा सकता है, रह सकता है और अपना व्यवसाय कर सकता है, सरकारें उन्हें इसके लिए संरक्षण देंगी । ये बातें संविधान में लिखी हैं, जिन्हें दोहराते हुए हम कभी भी थकते नहीं हैं । सवाल यह कि क्या सही अर्थों में समाज, सरकार और व्यवस्थाएं संविधान की मंशा के अनुरूप चल रही है? उत्तर नकारात्मक है ।

हमारे देश का संविधान उसमें दी गई स्वतंत्रताएं व्यक्तिगत, सामाजिक, सामूहिक, अधिकार, लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ प्रतिबद्धताएँ शब्द संसार का हिस्सा मात्र हैं । इनकी शाब्दिक और सैद्धांतिक विवेचनाएँ अभिभूत भले ही करती रहें, लेकिन रोजमर्रा के व्यवहार में हमारे आस-पास संविधान नदारद नजर आता है ।

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सही है कि देश में शासन स्तर पर तानाशाही नहीं है क्योंकि हर पाँच साल में जनता अपनी सरकारें चुनती है, लेकिन यह बात इसलिए राहत-दायी नहीं हो सकती, क्योंकि परोक्ष तानाशाही जो छोटे-छोटे स्तर पर अलग-अलग, आकार-प्रकार और व्यवहार में मौजूद है, जीवन को दूभर बना रही है । विडंबना यह है कि संप्रदाय-जाति-भाषा, क्षेत्र और स्थानीयता की ओछी भाव-भूमि पर पैदा खंडित ताकतों की इस तानाशाही से निपटने में सर्वशक्तिमान सरकारें सक्षम नहीं हैं । वे कमजोर हैं, क्योंकि उन्हें राष्ट्र से ज्यादा अपने क्षेत्र की फिक्र है ।

वे कमजोर हैं, क्योंकि उन्हें जनता से ज्यादा वोट की चिंता है । उन्हें जाति से आगे गुट, गुट से ऊपर ‘अपने’ व्यक्तियों और स्वार्थों की गरज है । हमारा राजनीतिक नेतृत्व एकता के व्यापक धरातल पर स्वयं को असुविधाजनक और आशंकित महसूस करता है ।

उसकी राजनीति को स्वार्थपरक, छोटे-छोटे खंडित आधार अनुकूल लगते हैं कि चिंगारी को आग समझकर छुईमुई गुलाटी खाने लगता है । मध्य प्रदेश में ‘जोधा- अकबर’ पर प्रतिबंध और महाराष्ट्र में राज ठाकरे जैसे प्रसंग शायद इन्हीं कमजोरियों के प्रतिफल के रूप में सामने आ रहे हैं ।

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ये घटनाएँ दर्शाती हैं कि समाज में राजनीतिक नेतृत्व का तानाबाना बिखर चुका है । व्यवस्था राजनेताओं के हाथ से फिसलकर ‘पोलिटिकल मैनेजरों’ के हाथों में आ गई है जिनकी नजरें स्वार्थो और तात्कालिक लाभ के गुणा भाग के कारण इस कदर धुँधला गई हैं कि वे दो गज आगे का भविष्य भी नहीं पढ़ पाते हैं ।

हिन्दू, मुसलमान, बिहारी, गुजराती, मराठी, बंगाली, या पंजाबी भाषा-भाषी होने से देश नही बनता है । इसके लिए पसीना बहाने की जरूरत होती है? और पसीने का कोई मजहब, कोई भाषा और कोई क्षेत्र नही होता है ।

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