परहित सरिस धरम नहिं भाई पर निबंध! Here is an essay on an ‘Atheism is not Fond of Religion’ in Hindi language.

”परहित सरिस धरम नहिं भाई ।

पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।।”

परोपकार से बढ़कर कोई उत्तम कर्म नहीं और दूसरों को कष्ट देने से बढ़कर कोई नीच कर्म नहीं । परोपकार की भावना ही वास्तव में मनुष्य को ‘मनुष्य’ बनाती है । कभी किसी भूखे व्यक्ति को खाना खिलाते समय चेहरे पर व्याप्त सन्तुष्टि के भाव से जिस असीम आनन्द की प्राप्ति होती है, वह अवर्णनीय है ।

किसी वास्तविक अभावग्रस्त व्यक्ति की नि:स्वार्थ भाव से अभाव की पूर्ति करने के बाद जो सन्तुष्टि प्राप्त होती है, बह अकथनीय है । परोपकार से मानव के व्यक्तित्व का विकास होता है ।

व्यक्ति ‘स्व’ की सीमित संकीर्ण भावनाओं की सीमा से निकलकर ‘पर’ के उदात्त धरातल पर खड़ा होता है, इससे उसकी आत्मा का विस्तार होता है और वह जन-जन के कल्याण की ओर अग्रसर होता है ।

प्रकृति सृष्टि की नियामक है, जिसने अनेक प्रकार की प्रजातियों की रचना की है और उन सभी प्रजातियों में सर्वश्रेष्ठ प्रजाति मनुष्य है, क्योंकि विवेकशील मनुष्य जाति सिर्फ अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तक सीमित नहीं रहती, बल्कि वह स्वयं से परे अन्य लोगों की आवश्यकताओं की भी उतनी ही चिन्ता करती है, जितनी स्वयं की ।

इसी का परिणाम मनुष्य की सतत विचारशील, मननशील एवं अग्रगामी दृष्टिकोण सम्बन्धी मानसिकता के रूप में देखा जा सकता है । प्रकृति के अधिकांश जीव सिर्फ अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तक ही स्वयं को सीमित रखते हैं, अपनी एवं अपने बच्चों की उदरपूर्ति के अतिरिक्त उन्हें किसी अन्य की चिन्ता नहीं रहती, लेकिन मनुष्य स्वयं के साथ-साथ न सिर्फ अपने परिवार, बल्कि पूरे समाज को साथ लेकर चलता है एवं उनके हितों के प्रति चिन्तित रहता है ।

मनुष्य की यही भावना उसे भ्रातृत्व की भावना से जोड़ती है । विश्व बन्धुत्व की भावना का विकास ही अन्ततः विश्व शान्ति एवं प्रेम की स्थापना को सम्भव कर सकता है । किसी भी समाज के सभी प्रबुद्ध व्यक्तियों का सपना एक ऐसे आदर्श समाज की स्थापना होता है, जहाँ मानव-मानव के बीच किसी प्रकार का कोई भेदभाव न रहे ।

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मनुष्य की बस एक ही जाति हो मनुष्यता की, उसका सिर्फ एक ही धर्म हो इंसानियत का, उसका सिर्फ एक ही नारा हो मानवीयता का । समतामूलक एवं मानव के प्रति गरिमायुक्त व्यवहार जिस समाज की रग-रग में व्याप्त होगा, वह समाज धरती पर स्वर्गतुल्य हो जाएगा ।

मानव के प्रति समानता एवं गरिमापूर्ण व्यवहार सिर्फ उस मानसिकता की उपज हो सकती है, जो वैश्विक स्तर पर सभी मनुष्यों को न केवल समान समझे, बल्कि मनुष्य-मनुष्य के बीच किसी भी प्रकार की असमानता को अतार्किक एवं हेय समझे ।

जो व्यक्ति जीव के अन्दर ही ईश्वर का अंश देखता है, मनुष्य को ईश्वर की साक्षात कृति समझता है, उसे न सिर्फ धार्मिक दृष्टिकोण से, बल्कि वैज्ञानिक एवं भौतिकवादी दृष्टिकोण से भी मनुष्य-मनुष्य के बीच अन्तर करने का कोई औचित्य नजर नहीं आता ।

धार्मिक दृष्टि से मनुष्य को ईश्वर की रचना या अंश मानने का श्रेष्ठ परिणाम यह होता है कि मनुष्य किसी भी मनुष्य को उचित सम्मान एवं गरिमा प्रदान करने के लिए नैतिक रूप से बाध्य रहता है । नैतिकता सम्बन्धी बाध्यता उसे व्यवहार में दूसरे मनुष्यों की चिन्ता, उनके हितों की पूर्ति हेतु सार्थक प्रयत्न करने की ओर अग्रसर करती है ।

समाज के सभी प्रबुद्ध एवं विचारशील व्यक्ति इस मत से सहमत हैं कि प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह सम्पूर्ण समाज की बेहतरी के लिए यथासम्भव प्रयत्न करे । सभी व्यक्तियों के कल्याण में ही प्रत्येक व्यक्ति का कल्याण छिपा है ।

किसी समाज का वृहत स्तर पर कल्याण होने से तात्पर्य उस समाज के प्रत्येक व्यक्ति का कल्याण होने से है । किसी भी समाज का अस्तित्व समाज के सदस्यों पर ही टिका होता है ।

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सदस्यों के सामाजिक सम्बन्धों के जाल को ही समाज कहते हैं अर्थात् समाज का निर्माण ही सदस्यों के बीच की अन्त:क्रिया से होता है, इसलिए समाज एवं व्यक्ति दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।

व्यष्टि स्तर पर व्यक्ति, तो समष्टि स्तर पर समाज । यदि कोई व्यक्ति किसी भी अन्य व्यक्ति के प्रति परोपकार या परहित की भावना के साथ व्यवहार करता है, तो अन्ततः वह ऐसा समाज के प्रति ही कर रहा होता है । मनुष्य में तो अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के आरम्भ से ही सहकारी प्रवृत्ति निहित है ।

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उसने प्रारम्भ से ही दूसरों के दु:ख-दर्द को अपना समझा है और सामूहिक स्तर पर सम्मिलित रूप से उसे दूर करने की कोशिश की है, साथ-साथ रहने की प्रक्रिया में पनपी आत्मीयता की भावना ने उसे एक-दूसरे के साथ भावनात्मक रूप से सुदृढ़ किया ।

आत्मीयता, लगाव, स्नेह, प्रेम, भाईचारा जैसी विशिष्ट मानवीय प्रवृत्तियाँ मनुष्य को प्रकृति की नैसर्गिक देन हैं । यदि कोई मनुष्य इस नैसर्गिक प्रवृत्ति को विकृत करने की कोशिश करता है, तो यह प्रकृति एवं मानव समाज दोनों के प्रति नैतिक दृष्टि से अपराध है ।

इन सबके बावजूद समाज के अनेक सदस्य अपने संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति हेतु समाज की अनेक मर्यादाओं का उल्लंघन करते हैं, उनमें से एक परहित की चिन्ता या परोपकार की भावना का त्याग करना भी है । परोपकार की भावना से रहित मनुष्य पशु या जड़ के समान है । परोपकार की भावना का सन्देश तो हमें जड़ एवं चेतन प्रकृति भी देती है-

“वृच्छ कबहुँ न फल भखैं नदी न सँचै नीर ।

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परमारथ के कारनै साधुन धरा सरीर ।।”

जड़ प्रकृति के अन्तर्गत सूर्य, चन्द्रमा, नदी, वायु आदि, तो चेतन प्रकृति के अन्तर्गत पेड़-पौधे अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरी के लिए अपना जीवन जीते हैं । मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है कि वह दूसरों के कल्याण पर भी ध्यान दे ।

जो व्यक्ति दु:खी व्यक्तियों की करुण पुकार से अशक्त एवं असहाय व्यक्तियों की याचनापूर्ण करुण दृष्टि से विचलित या प्रभावित न हो, वह मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं है । उसमें एवं पशु में अधिक अन्तर नहीं होता ।

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वह मानव जाति में उत्पन्न होकर भी पशु के समान ही होता है । उसे प्रकृति की भूल के रूप में देखा जाना चाहिए । ऐसे व्यक्ति को सामाजिक बहिष्कार के दण्ड से दण्डित किया जाना चाहिए, जिससे मनुष्य-मनुष्य के बीच की सहयोगात्मक आवश्यकता का उसे भी अनुभव हो सके ।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इसलिए कदम-कदम पर उसे एक-दूसरे के सहयोग एवं समर्थन की आवश्यकता पड़ती है । पारस्परिक सहयोग एवं समर्थन देना ही एक-दूसरे की सहायता करना, परोपकार करना एवं आपसी सुख-दु:ख की भावनाओं में सम्मिलित होना है ।

ऐसा करने वाला मनुष्य ही सही अर्थों में मनुष्य है और मानव प्रजाति उस पर गर्व कर सकती है, क्योंकि इससे वह स्वयं एवं समाज दोनों को अर्थपूर्ण बनाता है । कवि ‘मैथिलीशरण गुप्त जी’ ने कितना सार्थक लिखा है-

“यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,

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वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।”

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