प्रतिबंध के बाद बाल मजदूरी पर निबंध | Essay on Child Labor : After the Ban in Hindi!

राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग ने सरकार से कृषि क्षेत्र को भी बच्चों के लिए खतरनाक काम की श्रेणी में शामिल करने की सिफारिश की है, क्योंकि आयोग का मानना है कि बाल मजदूरी में लगे बच्चों में से 80 फीसदी सिर्फ खेती में लगे हैं ।

खेती में लगे बच्चों के प्रति आयोग की चिंता उचित है, लेकिन घरेलू नौकरों और ढाबों में काम करने वाले बच्चों पर लगाए गए प्रतिबंध के जो नतीजे निकले है उसे देखते हुए इस सिफारिश से बाल मजदूरों के भविष्य की कोई बेहतर उम्मीद नहीं बंधती ।

अक्टूबर 2006 में केंद्रीय सरकार ने बेहद चिंतन-मनन और हंगामे के बाद अधिसूचना जारी कर घरों, होटलों और ढाबों में चौदह वर्ष से कम आयु के बच्चों को काम पर लगाने पर रोक लगा दी थी । इस बहु-प्रचारित प्रतिबंध के बाद भी देश भर में काम करने वाले बाल मजदूरों में से एक प्रतिशत बच्चों की स्थिति में भी सुधार नहीं हुआ।

बाल मजदूरी (उन्मूलन एवं प्रतिषेध) अधिनियम 1986 की खतरनाक श्रेणी में मौजूद 13 व्यवसायों में घरेलू नौकर और होटलों को शामिल करने के पीछे सोच यह बताई गयी कि इससे इन स्थलों पर काम करने वाले लाखों बच्चों के मानसिक और शारीरिक शोषण पर रोक लग सकेगी और स्कूलों में इन बच्चों की भर्ती हो सकेगी । उस समय बाल अधिकारों के समर्थक सभी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने एकमत से सरकार की इस पहल का स्वागत किया था ।

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मीडिया ने भी आम जनता को इस प्रतिबंध के संबंध में जानकारी देने और 14 साल से कम आयु के बच्चों को घरों और होटलों में रोजगार देने के खतरों से आगाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी । लेकिन आज इस बहुप्रचारित प्रयास का लेखा-जोखा करने पर स्पष्ट होता है कि यह प्रतिबंध महज एक सरकारी मजाक साबित होकर रह गया हैं ।

सरकारी आकड़ों के मुताबिक देश में कुल एक करोड़ 26 लाख बाल मजदूर घरों या होटल व्यवसायों में काम कर रहे हैं । वर्ष 2007 तक समूचे देश में सरकारी मशीनरी महज 6669 बाल मजदूरों की ही पहचान कर पायी । इनमें से भी केवल 872 मालिकों के खिलाफ ही मामला दर्ज किया गया लेकिन इनमें से किसी एक को भी सजा नहीं हुई । प्रतिबंध पर नियंत्रण रखने की पूरी जिम्मेदारी श्रम विभाग की है । वह वर्ष 2007 में पूरे देश में केवल 94 बच्चों को ही इन उद्योगों से छुड़ा पाया ।

उत्तराखंड में समूचे वर्ष में केवल छह बच्चे घरों और ढाबों में से छुड़ाए गये । उनमें से भी चार बच्चों के 14 वर्ष से अधिक की उम्र को बताकर छोड़ दिया गया । हालांकि प्रचारित यह किया गया था कि 10 अक्टूबर, 2006 को अधिसूचना जारी होने के बाद राजधानी दिल्ली में किसी भी घर, ढाबे-ठेले या रेस्तरां में पानी पिलाते, मेज पोंछते बच्चे नहीं देखे जा सकेंगे, लेकिन इसके ठीक विपरीत पूरे वर्ष में श्रम विभाग राजधानी से केवल 55 बाल श्रमिकों को ही मुक्त करा पाया ।

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उनमें से इन बच्चों से मजदूरी करवाने वाले केवल 45 मालिकों के खिलाफ ही मुकदमे दर्ज हुए । जबकि गैर सरकारी आकड़ों के अनुसार केवल दिल्ली में घरों, रेस्तरां, ढाबों वाली श्रेणी में काम करने वाले बच्चों की संख्या दो लाख से भी अधिक है ।

ये कड़े इस बात के गवाह है कि सरकारी अमला प्रतिबंध के क्रियान्वयन में पूरी तरह से विफल रहा । दरअसल कम आयु के लड़के या लड़कियों को काम पर लगाना उनके शिक्षा और स्वास्थ्य के अधिकारों का हनन है । हर बच्चे का यह मौलिक अधिकार है कि वह उचित रूप से अपना मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विकास कर सके । बच्चों से संबंधित सभी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संधियों और कानूनों का यही निचोड़ है ।

लेकिन इसके बावजूद दुनिया के 76 प्रतिशत बच्चे इस अधिकार से वंचित है क्योंकि बच्चों से संबंधित अभी तक बने सभी कानूनो में बच्चों के हितों की रक्षा की राजनीतिक इच्छा उतनी प्रबल नहीं जितनी जरूरत है । इन्हीं तथ्यों के मद्देनजर सरकार के द्वारा लगाए गये प्रतिबंध की प्रशंसा की गयी थी और उम्मीद यह जताई गयी थी कि इससे बाल अधिकारों की सुरक्षा को बल मिलेगा । लेकिन सरकार ने मात्र अधिसूचना जारी कर वाह-वाही लूटने में अधिक दिलचस्पी दिखाई ।

अधिनियम को लागू करने से पहले सरकार के पास घरों, होटलों में काम करने वाले बच्चों की पहचान करने और उनको छुड़ाने के प्रति कोई ठोस योजना प्रक्रिया नहीं थी । बच्चों को छुड़ाने के बाद उनके बचाव, पुनर्वास और उनके काम करने के कारणों को खत्म करने के प्रति भी कोई विशेष कार्ययोजना सरकार ने नहीं बनाई । यह पहले से ही तय था कि प्रतिबंध के बाद घरों और होटलों में काम करने वाले लाखों बच्चे काम से बाहर हो जायेंगे ।

इनमें से कई बच्चों की कमाई से उनके घर का खर्च चलता है । लेकिन ऐसे काम से निकाले जाने वाले बच्चों के परिवारों में वयस्कों को काम देने, बच्चों को स्कूल में भर्ती कराने अथवा छुड़ाए गये बच्चों को अन्य किसी भी प्रकार से शोषण से बचाने के लिए सरकार के पास कोई वैकल्पिक नीति तैयार नहीं थी ।

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बच्चों के अधिकारों पर काम करने वाली संस्था बटरफ्लाई और ह्यूमन राइट लॉं नेटवर्क ने 20 संस्थाओं के साथ विचार-विमर्श करने के बाद छुड़ाए गये बच्चों की सुरक्षा और पुनर्वास से संबंधित एक विस्तृत कार्ययोजना तैयार की थी । इसका मुख्य उद्देश्य प्रतिबंध से प्रभावित होने वाले बच्चों के अधिकारों की रक्षा करना था । इस कार्ययोजना को केंद्र और दिल्ली सरकार को भी दिया गया था ।

उम्मीद जताई गयी थी कि सरकार प्रतिबंध से पैदा होने वाली स्थिति से निबटने के लिए सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर किसी प्रभावी पुनर्वास योजना को लागू करेगी । लेकिन बटरफ्लाई संस्था के मुताबिक सरकार ने इस कार्ययोजना पर कोई ध्यान नहीं दिया और न ही इस पर कोई कार्यवाही की ।

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दरअसल प्रतिबंध से तब तक सार्थक परिणामों की उम्मीद करना फिजूल है जबकि गारंटी नहीं दी जा सकती । वर्ष 1997 से देश के कुछ राज्यों में लागू मौजूदा पुनर्वास नीति राष्ट्रीय बाल मजदूर परियोजना अभी तक प्रभावी साबित नहीं हो पायी । बच्चों से संबंधित बाल मजदूरी जैसी गंभीर और जटिल समस्या को केवल श्रम मंत्रालय के जिम्मे नहीं छोड़ा जाना चाहिए । इसके लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और सामाजिक न्याय जैसे मंत्रालयों की भागीदारी भी जरूरी है ।

सरकार ने प्रतिबंध लगाने से पूर्व इन विभिन्न मंत्रालयों की एक समिति बनाने पर ध्यान नहीं दिया । ऐसा करने से बच्चो से संबंधित बिभिन्न पहलुओं की जिम्मेदारी अलग-अलग मंत्रालयों की बनती है । लेकिन बाल मजदूरों को केवल श्रम मंत्रालय के भरोसे छोड़ दिया गया । श्रम विभाग के जो इंस्पेक्टर बाल श्रम अधिनियम को लागू कर रहे हैं और वहीं 15 अन्य श्रम अधिनियमों को लागू करने के लिए भी जिम्मेदार है.

जब तक बचाव और पुनर्वास की बेहतर प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती बच्चों को घरों या होटलों से छुड़ाना उनके लिए अधिक शोषण के दरवाजे खोलना है । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बच्चों को रोजगार देने पर पाबंदी है मगर बदबूदार कूड़े के ढेरों से उनके विचरण पर कोई बंदिश नहीं क्योंकि कानूनी भाषा में कूड़े के ढेर न तो उद्योग है और न ही खतरनाक ।