Panchtantra Ki Kahaniyan for Kids in Hindi!


Content:

  1. ब्राह्मण और धूर्त |
  2. संगठन की शक्ति |
  3. लोभ का परिणाम |
  4. शरणागत को दुत्कारो नहीं |
  5. शरणागत के लिए आत्मोत्सर्ग |
  6. शत्रु का शत्रु मित्र |
  7. घर का भेदी लंका ढाए |
  8. बोलने वाली गुफा |
  9. बुद्धिमान की चातुरी |
  10. अनुकूल समय की प्रतीक्षा |

Hindi Story # 1 (Kahaniya)

ब्राह्मण और धूर्त |

किसी गांव में मित्र शर्मा नाम का एक धार्मिक ब्राह्मण रहता था । एक दिन माघ महीने में जब आकाश पर थोड़े-थोड़े बादल मंडरा रहे थे वह अपने गांव से चला और दूर के गांव में जाकर अपने यजमान से बोला : ‘यजमान जी मैं अगली अमावश के दिन यज्ञ कर रहा हूं । जिसके लिए मुझे एक बकरे की जरूरत है । क्या तुम एक बकरा मुझे दे सकते हो ?’ ब्राह्मण की बात सुनकर यजमान ने उसे एक बकरा दे दिया ।

बकरे को लेकर मित्र शर्मा अपने गांव की ओर लौट पड़ा । मार्ग में एक निर्जन वन पड़ता था । मित्र शर्मा ने बकरे को अपने कंधे पर लाद लिया था । जंगली जीवों के भय से वह तेजी से अपना मार्ग तय कर रहा था कि तभी उसे तीन धूर्ता ने देख लिया ।

बकरे को देखकर तीनों के मुंह में पानी आ गया । तीनों ने ब्राह्मण से वह बकरा हथियाने का उपाय सोचा । उनमें से एक वेश बदलकर किसी और रास्ते से ब्राह्मण के आगे जा पहुंचा । जब मित्र शर्मा वहां से गुजरने लगा तो वह धूर्त बोला : ‘पंडित जी ! यह क्या अनर्थ कर रहे हैं आप ? ब्राह्मण होकर इस कुत्ते को कंधे पर बैठाकर ले जा रहे हैं ? छि: छि: । ऐसा घृणित कर्म ।’

ब्राह्मण बोला : ‘अंधा हो गया है क्या जो एक बकरे को कुत्ता बता रहा है ?’ पंडित जी क्रोध क्यों करते हो ! ठीक है अगर यह कुत्ता नहीं बकरा है तो ले जाइए इसे कंधे पर ढो कर । मुझे क्या ? मैंने तो ब्राह्मण जानकर आपका धर्म नष्ट न हो इसलिए बता दिया है । अब आप जाने और आपका काम ।

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कुछ दूर जाने पर दूसरा धूर्त मिल गया । उसने भी इस प्रकार बातें कीं और बकरे को कुत्ता बता कर उसे छोड़ने को कहा । यह सुनकर पंडितजी ने उसे भी डांट-फटकार दिया और आगे बढ़ गया । कुछ और आगे चलकर तीसरा धूर्त टकरा गया । उसने भी वैसी ही बातें कीं तो ब्राह्मण संशय में पड़ गया ।

उसने सोचा तीन-तीन व्यक्ति इस बकरे को कुत्ता बता रहे हैं तब कहीं यह सचमुच ही कुत्ता न हो । उसने बकरे को भूमि पर पटक दिया और पल्ला झाडू कर आगे बढ़ गया । ब्राह्मण को जाते देख तीनों धूर्त इकट्‌ठा हुए और खुशी से चहकने लगे । उन्होंने बकरे को थामा और अपने मार्ग पर चल दिए ।

यह कथा सुनाकर स्थिरजीवी बोला : ‘इसीलिए मैं कहता हूं कि विद्वान व्यक्ति भी ठगे जा सकते हैं । इसके अतिरिक्त बहुत से दुर्बलों के साथ भी विरोध करना अच्छा नहीं होता । अपने फन को फैलाकर फुफकार मारने वाले अत्यंत भीषण और शक्तिशाली सर्प को भी मामूली सी चीटियों के समूह ने मार डाला था ।’ ‘मेघवर्ण ने पूछा-वह कैसे ?’ स्थिरजीवी ने तब सांप और चीटियों की यह कथा सुनाई ।


Hindi Story # 2 (Kahaniya)

संगठन की शक्ति |

किसी बिल में एक बहुत बड़ा काला नाग रहता था । अभिमानी होने के कारण उसका नाम था अतिदर्य । एक दिन वह अपने बिल को छोड्‌कर एक और संकीर्ण बिल से बाहर जाने का यत्न करने लगा ।

इससे उसका शरीर कई स्थानों से छिल गया । जगह-जगह घाव हो गए खून निकलने लगा । खून की गंध पाकर वहां चीटियों का एक समूह आ गया और उसे घेर कर तंग करने लगी ।  सांप ने कई चीटियों को मार डाला । किंतु कहां तक मारता ? अंत में चीटियों ने ही उसे काट-काट कर मार डाला ।

यह कहानी सुनाकर स्थिरजीवी बोला : ‘इसीलिए मैं कहता हूं कि बहुतों के साथ विरोध मत करो ।’ मेधवर्ण बोला : ‘ठीक है, आप जैसा आदेश करेंगे. मैं वैसा ही करूंगा ।’  स्थिरजीवी बोला : ‘अच्छी बात है । मैं स्वयं गुप्तचर का काम करूंगा । तुम मुझसे लड़कर मुझे लहूलुहान करने के बाद इसी वृक्ष के नीचे फेंककर स्वयं सपरिवार क्षष्यमूक पर्वत पर चले जाओ ।

मैं तुम्हारे शत्रु उन्नओं का विश्वास पात्र बनकर उन्हें इस वृक्ष पर बने अपने दुर्ग में बसा लूंगा और अवसर पाकर उन सबका नाश कर दूंगा । तब फिर तुम यहां आ जाना । मेघवर्ण ने ऐसा ही किया । थोड़ी देर में दोनों की लड़ाई शुरू हो गई । दूसरे कौवे जब उसकी सहायता को आए तो उसने उन्हें दूर करके कहा : ‘इसका दण्ड मैं स्वयं इसे दे दूंगा ।

अपनी चोंच के प्रहार से घायल करके वह स्थिरजीवी को वहीं फेंकने के बाद अपने परिवार सहित क्षष्यमूक पर्वत पर चला गया । तब उल्लू की मित्र कृकालिका ने मेघवर्ण के भागने और अमात्य स्थिरजीवी से लड़ाई होने की बात उलूकराज से कह दी ।

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उलूकराज ने भी रात होने पर दल-बल समेत पीपल के वृक्ष पर आक्रमण कर दिया । उसने सोचा : ‘भागते हुए शत्रु को नष्ट करना अधिक सहज होता है । पीपल के वृक्ष को घेर कर उसने शेष रह गए सभी कौवों को मार डाला ।

अभी उलूकराज की सेना भागे हुए कौवों का पीछा करने की सोच ही रही थी कि आहत स्थिरजीवी ने कराहना शुरू कर दिया । यह सुनकर सबका ध्यान उसकी ओर गया सब उन्न उसे मारने को झपटे । तब स्थिरजीवी ने कहा : ‘इससे पूर्व कि तुम मुझे जान से मार डालो मेरी एक बात सुन लो ।

मैं मेघवर्ण का मंत्री हूं । मेघवर्ण ने ही मुझे घायल करके इस तरह फेंक दिया था । मैं तुम्हारे राजा से बहुत सी बातें करना चाहता हूं । उससे मेरी भेंट करा दो । सब उन्नओं ने उलूकराज से यह बात कही । उलूकराज स्वयं वहां आया । स्थिरजीवी को देखकर वह आश्चर्य से बोला, तेरी यह दशा किसने कर दी ?

स्थिरजीवी बोला : ‘देव बात यह हुई कि दुष्ट मेघवर्ण आपके ऊपर सेना सहित आक्रमण करना चाहता था । मैंने उसे रोकते हुए कहा कि वह बहुत बलशाली है । उससे युद्ध मत करो । उससे सुलह कर लो ।  बलशाली शत्रु से संधि करना ही उचित है उसे सब कुछ देकर भी वह अपने प्राणों की रक्षा तो कर ही लेता है ।

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मेरी बात सुनकर उस दुष्ट मेघवर्ण ने समझा कि मैं आपका हितचिंतक हूं । इसीलिए वह मुझ पर झपट पड़ा । अब आप ही मेरे स्वामी हैं । मैं आपकी शरण में आया हूं । जब मेरे घाव भर जाएंगे तो मैं स्वयं आपके साथ जाकर मेघवर्ण को खोज निकालूंगा और उसके सर्वनाश में आपका सहायक बनूंगा ।’

स्थिरजीवी की बात सुनकर उलूकराज ने अपने सभी पुराने मंत्रियों से सलाह ली । उसके पास भी पांच मंत्री थे-पक्ताक्ष क्रराक्ष दीप्ताक्ष से पूछा-इस शरणागत शत्रु-मंत्री के साथ कौन-सा व्यवहार किया जाए ? रक्ताक्ष ने कहा : ‘इसे अविलम्ब मार दिया जाए ।

शत्रु को निर्बल अवस्था में ही मार देना चाहिए अन्यथा बली होने के बाद वही दुर्जन हो जाता है । इसके अतिरिक्त एक और बात है एक बार टूटकर जुड़ी हुई प्रीती स्नेह के अतिशय प्रदर्शन से भी बढ़ नहीं सकती ।


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Hindi Story # 3 (Kahaniya)

लोभ का परिणाम |

किसी गांव में हरिदत्त नाम का एक ब्राह्मण रहता था । उसकी जीविका का प्रमुख साधन खेती-बाड़ी करना था । किंतु दुर्भाग्यवश उसके पास ज्यादा भूमि नहीं थी । अधिकांश समय वह खाली ही रहता था ।

एक बार ग्रीष्म-ऋतु में वह अपने खेत पर एक वृक्ष की छाया में बैठा हुआ था । तभी उसकी निगाह पास की एक झाड़ी के नीचे पड़ी । झाड़ी में एक काला नाग अपने बिल के बाहर फन फैलाए खड़ा था । उस भयंकर नाग को देखकर हरिदत्त ने सोचा-अवश्य ही यह नाग इस क्षेत्र का कोई देवता है ।

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मैंने आज तक इसकी पूजा-अर्चना नहीं की है इसी कारण हर साल मेरी फसल सूख जाती है । अब इसकी पूजा अवश्य करूंगा । यह सोचकर वह एक पात्र में दूध लेकर आया और पात्र को बिल के समीप रखकर अनुनयपूर्वक बोला : हे क्षेत्रपाल ! मैंने अज्ञातवश आज तक तुम्हारी पूजा नहीं की । आज मुझे इसका ज्ञान हुआ है ।

मुझे मेरे पिछले अपराधों के लिए क्षमा कर दो और पूजा की इस भेंट को स्वीकार करो ।’ यह कहकर वह दूध से भरे पात्र को वहीं रखकर चला गया । अगले दिन  प्रात: जब वह बिल के पास पहुंचा तो उसने दूध का वर्तन खाली देखा ।

दूध गायब था और उसके स्थान पर बर्तन में एक सोने की मुहर रखी हुई थी । हरिदत्त समझ गया कि नाग देवता ने उसकी भेंट स्वीकार कर ली है और प्रसन्न होकर यह मुहर दे दी है । फिर तो वह प्रति-दिन नाग को दूध पिलाने लगा और बदले में एक सोने की मुहर प्रतिदिन लाने लगा ।

संयोगवश एक दिन हर्रिदत्त को कहीं बाहर काम से जाना पड़ा था । इसलिए उसने अपने पुत्र को पूजा का दूध ले जाने का आदेश दिया । पुत्र भी पात्र में दूध भरकर बिल के पास रख दिया । दूसरे दिन उसे भी एक सोने की मुहर मिल गई ।

तब वह सोचने लगा कि अवश्य ही इस बिल में सोने की मुहरों का भंडार छिपा हुआ है । नाग उसी भण्डार में एक मुहर प्रतिदिन लाकर देता है । क्यों न इसे तोड़कर पूरा खजाना एक बार में ही हासिल कर लिया जाए । यह सोचकर अगले दिन जब उसने दूध का पात्र बिल के समीप रखा और नाग दूध पीने आया तो उसने नाग की पीठ पर लाठी से प्रहार किया ।

निशाना ठीक से बैठा नहीं नाग जख्मी तो जरूर हुआ पर उसने पलट कर फुर्ती से हमला कर दिया । आक्रमणकारी के शरीर में अपने तीक्षण दांत गड़ा दिए । जहरीले विष के प्रभाव से हरिदत्त का पुत्र वहीं का वहीं ढेर हो गया ।

कुछ देर बाद घटना की सूचना परिवारजनों के पास पहुंची तो हरिदत्त की अनुपस्थिति में उन्होंने उसका दाह-कर्म उसी जगह कर दिया । दूसरे दिन जब हरिदत्त लौटा तो परिवारजनों से अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार सुना ।

तब उसने कहा : ‘यह ठीक ही हुआ है । क्योंकि जो व्यक्ति शरणागत जीवों पर दया नहीं करता उसके बने बनाए काम बिगड़ जाते हैं । उसका वैभव उसी प्रकार हाथ से निकल जाता है जैसे चित्ररथ नाम वाले राजा के हाथ से हंस निकल गए थे ।’


Hindi Story # 4 (Kahaniya)

शरणागत को दुत्कारो नहीं |

एक नगर में एक राजा रहता था । उसका नाम चित्ररथ था । उसके राज्य में एक सुंदर-सा पद्‌मसर नाम का एक सरोवर था । उस सरोवर में अनेक हंस निवास करते थे । वे हंस हर छह महीने के बाद एक स्वर्ण-पंख देते थे ।

इससे राजा को हर छह महीने के बाद अनेक सोने के पंख मिल जाते थे । एक बार उस सरोवर में एक बहुत बड़ा स्वर्ण पक्षी आया । हंसों ने उससे कहा : ‘तुम यहां से चले जाओ क्योंकि इस सरोवर में रहने के लिए हम लोग हर छह महीने के बाद एक स्वर्ण पंख देते हैं ।

लेकिन वह बड़ा पक्षी नहीं माना । वहां रहने वाले हंसों में और उसमें बड़ा विवाद हुआ । उस पक्षी ने राजा से जाकर शिकायत की : ‘महाराज इस सरोवर में ये हंस किसी और को नहीं रहने देते और ये आप-जैसे राजा की भी परवाह नहीं करते ।’

यह सुनकर राजा को बहुत क्रोध आया । उसने अपने सेवकों को आज्ञा दी : ‘सेवकों, जाओ और उन हंसों को मार कर मेरे पास ले आओ ।’ राजा की आज्ञा पाकर सेवक सरोवर के पास पहुंचे तो उनके आक्रामक तेवर देखकर स्वर्ण हंसों का मुखिया सब बात समझ गया और अपने साथी हंसों को लेकर वह तुरंत उस सरोवर से उड़ गया ।

अपने परिवारजनों को यह कथा सुनाकर हरिदत्त शर्मा ने फिर उस नाग की पूजा का विचार किया । दूसरे दिन सवेरे वह दूध लेकर सांप के बिल के पास पहुंचा और उसकी स्तुति करने लगा । स्तुति सुनकर सांप अपने बिल के अंदर से बोला : ‘तू पुत्र शोक को भूल कर लोभ के कारण मेरे पास आया है ।

अब हमारा-तुम्हारा मेल नहीं है’ । यह कह कर नाग ने उसे एक कीमती हीरा दिया और वहां फिर आने के लिए मना कर दिया । ब्राह्मण ने वह हीरा उठा लिया और अपने पुत्र की मूर्खता पर पश्चात् करता हुआ घर वापस लौट आया ।

यह कथा सुनाकर रक्ताक्ष ने कहा : ‘मित्रता एक बार टूट जाने के बाद कृत्रिम स्नेह से नहीं जुड़ा करती । इसलिए मेरी सलाह तो यही है कि शत्रु के इस मंत्री को तुरंत मार डालना चाहिए ।’ रक्ताक्ष के मुख से यह सुनकर उलूक राज ने अपने दूसरे मंत्री क्रूराक्ष से पूछा : ‘कहिए इस विषय में आपकी क्या राय है ?’

क्रूराक्ष बोला : ‘देव मैं समझता हूं कि शरणागत का वध नहीं करना चाहिए । हमें अपने शरणागत की रक्षा उसी प्रकार करनी चाहिए । जैसे एक कबूतर ने शरण में आए अपने एक शत्रु की रक्षा की थी । इतना ही नहीं उसने अपने मांस से उसे भोजन भी कराया था ।’


Hindi Story # 5 (Kahaniya)

शरणागत के लिए आत्मोत्सर्ग |

किसी जंगल में एक बहेलिया रहता था । वह बड़ा लोभी और निर्दयी था । पक्षियों को मारकर खाना ही उसका काम था । इस भयंकर काम के कारण उसके प्रियजनों ने भी उसका त्याग कर दिया था । तब से वह अकेला ही हाथ में जाल और लाठी लेकर जंगलों में पक्षियों के शिकार के लिए घूमा करता था ।

एक बार उसके जाल में एक कबूतरी फंस गई । उसे लेकर जब वह अपनी कुटी की ओर चला तो आकाश बादलों से घिर गया । मूसलाधार वर्षा होने लगी । थोड़ी दूरी पर पीपल का एक वृक्ष था । उसके खोल में घुसते हुए उसने कहा : ”यहां जो भी रहता है मैं उसकी शरण चाहता हूं ।

इस समय जो मेरी सहायता करेगा उसका जन्मभर ऋणी रहूंगा ।” उस खोल में वही कबूतर रहता था जिसकी पत्नी को उस बहेलिए ने जाल में फंसाया था । कबूतर उस समय पत्नी के वियोग में दुखी होकर विलाप कर रहा था । पति को प्रेमातुर पाकर कबूतरी का मन आनंद से नाच उठा ।

उसने मन ही मन सोचा मेरे धन्य भाग्य हैं जो ऐसा प्रेमी पति मिला है । पति का प्रेम ही पत्नी का जीवन है । पति की प्रसन्नता से ही स्त्री जीवन सफल होता है । मेरा जीवन सफल हुआ । यह विचार कर वह पति से बोली : ”पतिदेव मैं तुम्हारे सामने हूं ।

इस बहेलिए ने मुझे बांध लिया है । यह मेरे पुराने कर्मों का फल है । हम अपने कर्म-फल से ही दुख भोगते हैं । मेरे बंधन की चिंता छोड़कर तुम इस समय अपने शरणागत अतिथि की सेवा करो । जो जीव अपने अतिथि का सत्कार नहीं करता उसके सब पुण्य छूटकर अतिथि के साथ चले जाते हैं और सब पाप वहीं रह जाते हैं ।”

पत्नी की बात सुनकर कबूतर ने बहेलिए से कहा : ”चिंता मत करो वधिक ! इस घर को अपना ही जानो । कहो मैं तुम्हारी क्या सेवा कर सकता हूं ?” बहेलिया बोला : ”मुझे सर्दी सता रही है इसका उपाय कर दो ।” बहेलिए की बात सुनकर कबूतर ने लकड़ियां इकट्‌ठी करके आग जला दी और कहा : ”तुम आग से गर्मी पाकर सर्दी दूर कर लो ।”

कबूतर को अब अतिथि के लिए भोजन की चिंता हुई । किंतु उसके घोंसले में तो अन्न का एक दाना भी नहीं था । बहुत सोचने के बाद उसने अपने शरीर से ही बहेलिए की भूख मिटाने का विचार किया । यह सोचकर वह महात्मा कबूतर स्वयं जलती आग में कूद पड़ा । अपने शरीर का बलिदान करके भी उसने बहेलिए के तर्पण करने का प्रण पूरा किया ।

बहेलिए ने जब कबूतर का यह अद्‌भुत बलिदान देखा तो आश्चर्य में डूब गया । उसकी आत्मा उसे धिक्कारने लगी । उसी क्षण उसने कबूतरी को जाल से मुक्त कर दिया और पक्षियों के फंसाने के जाल व अन्य उपकरणों को तोड़-फोड़कर फेंक दिया ।

कबूतरी अपने पति को आग में जलता देखकर विलाप करने लगी । उसने सोचा:  ‘अपने पति के बिना अब मेरे जीवन का प्रयोजन ही क्या है ? मेरा संसार उजड़ गया अब किसके लिए प्राण धारण करूं ?’  यह सोचकर वह पतिव्रता भी आग में कूद पड़ी । इन दोनों के बलिदान पर आकाश से पुष्प वर्षा हुई ।

बहेलिये ने भी उस दिन से प्राणी-हिंसा छोड़ दी और वैरागी बनकर जीवन व्यतीत करने लगा । यह कथा सुनाकर कूराक्ष ने कहा : ”मेरे विचार से तो इस शरणागत की रक्षा करनी चाहिए ।” कूराक्ष के विचार सुनने के बाद उलूकराज ने अपने मंत्री दीप्ताक्ष से पूछा तो उसने भी लगभग कूराक्ष के विचारों का समर्थन किया ।

इसके बाद चौथे मंत्री वक्रनास की बारी आई तो उसने भी यही व्यक्त किया कि इस शरणागत की हत्या नहीं करनी चाहिए । कई बार शत्रु भी हित का कार्य कर देते हैं । आपस में ही जब विवाद हो जाए तो एक शत्रु दूसरे शत्रु को नष्ट कर देता है ।


Hindi Story # 6 (Kahaniya)

शत्रु का शत्रु मित्र |

किसी गांव में द्रोण नाम का एक निर्धन ब्राह्मण रहता था । उसकी आजीविका भिक्षा मांग कर चलती थी । वह इतना निर्धन था कि सर्दी-गर्मी से बचाव के लिए उसके पास पर्याप्त वस्त्र भी नहीं थे ।

निरंतर सर्दी-गर्मी सहते-सहते वह बहुत कमजोर हो गया था । एक बार उसकी निर्धनता पर तरस खाकर किसी यजमान ने उसे दो बछड़े दान में दे दिए । ब्राह्मण ने किसी तरह मांग-मांगकर इन दोनों बछड़ों की परवरिश की । शीघ्र ही दोनों बछड़े खूब इष्ट-पुष्ट हो गए ।

ब्राह्मण सोच रहा था कि इन बछड़ों को बेच दूंगा जिससे मुझे पर्याप्त धन मिल जाएगा । फिर मेरी निर्धनता काफी कम हो जाएगी । लेकिन उसका दुर्भाग्य कि एक दिन उन दोनों बछडों को एक चोर ने देख लिया ।

उसने उसी क्षण दोनों बछड़ों को चुराने का निश्चय कर लिया । एक रात वह चोर बछड़े चुराने के लिए रस्सी आदि लेकर ब्राह्मण के घर की ओर चल पड़ा । जब वह गांव के कुछ निकट पहुंचा तो मार्ग में उसे एक भयंकर आकृतिवाला व्यक्ति मिला ।

उस व्यक्ति की आखें अंगारों की तरह सुर्ख हो रही थीं । लम्बे-लम्बे दांत बाहर को निकले हुए थे नाक चिपकी हुई थी और बाल उलझे हुए थे । चोर उसे देखकर भयभीत हो गया । उसने डरते-डरते पूछा : ”तुम कौन हो ?”

राक्षस बोला : ”मैं सत्यवचन नामक ब्रह्मराक्षस हूं किंतु तुम कौन हो और इतनी रात गए कहां जा रहे हो ?”  चोर बोला : ”मैं कूरकर्मा नामक चोर हूं । पास वाले गांव में एक ब्राह्मण के यहां से बछड़ों को चुराने के लिए जा रहा हूं ।”

राक्षस ने कहा : ”मित्र ! मुझे पिछले छह दिनों से आहार नहीं मिला । मैं बहुत भूखा हूं। चलो मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं । आज उस ब्राह्मण को खाकर ही अपनी भूख मिटाऊंगा ।”  इस प्रकार वे दोनों ब्राह्मण के घर के निकट पहुंचकर छिप गए और अवसर देखकर राक्षस उसे खाने के लिए आगे बढ़ा ।

तभी चोर ने फुसफुसाते हुए कहा : ”ठहरो मित्र ! तुम्हारा यह उतावलापन ठीक नहीं है । पहले मुझे बछड़ों को यहां से ले जाने दो बाद में तुम इस ब्राह्मण को खा लेना ।”  राक्षस बोला : ”बछड़ों के रंभाने से यदि ब्राह्मण की नींद खुल गई तो मेरा यहां आना व्यर्थ हो जाएगा । इसलिए मैं पहले ब्राह्मण को खाऊंगा बाद में तुम चोरी कर लेना ।”

यह सुनकर चोर ने कहा : ”ब्राह्मण की हत्या के प्रयास में यदि ब्राह्मण बच गया और उसने रखवाली करनी शुरू कर दी तो मैं चोरी नहीं कर पाऊंगा इसलिए पहले मुझे चोरी कर लेने दो ।”  दोनों में विवाद होने लगा । शोर सुनकर ब्राह्मण की नींद खुल गई ।

उसे जगा हुआ देखकर चोर उसके पास गया और उससे बोला: ”ब्राह्मण यह राक्षस तुम्हें खाना चाहता है ।”  यह सुनकर राक्षस ब्राह्मण के पास पहुंचा और बोला : ”ब्राह्मण, यह चोर तुम्हारे बछड़ों को चुराकर ले जाना चाहता है ।”

दोनों की बात सुनकर ब्राह्मण सावधान हो गया । उसने पास रखी लाठी उठा ली और दोनों की ओर झपटा । यह देखकर दोनों वहां से भाग छूटे । ब्राह्मण की जान बच गई और उसके बछड़े भी सुरक्षित रह गए । यह कथा सुनाकर वकनास बोला: ”इसीलिए मैंने कहा है कि कभी-कभी शत्रु भी अपने हितसाधक बन जाया करते हैं ।”

वक्रनास के विचार जानने के बाद उलूकराज ने अपने एक और मंत्री प्राकारकर्ण के विचार जानने चाहे । प्राकारकर्ण ने कहा : ”देव ! शरणागत व्यक्ति अवध्य होता है इसलिए कौवों के राजा के इस मंत्री को मारना उचित नहीं है ।

संभव है इसी के प्रयास से उन्नओं और कौवों में चला आ रहा परंपरागत बैर समाप्त हो जाए । हमें अपने परस्पर धर्मों की रक्षा करनी चाहिए । जो ऐसा नहीं करते वे बिल में बैठे सर्प की तरह नष्ट हो जाते हैं ।”


Hindi Story # 7 (Kahaniya)

घर का भेदी लंका ढाए |

किसी नगर में देवशक्ति नाम का एक राजा रहता था । एक बार उसके पुत्र के पेट में एक सांप चला गया । उस सांप ने वहीं अपना बिल बना लिया था । पेट में बैठे सांप के कारण उसके शरीर का प्रतिदिन क्षय होता जा रहा था ।

बहुत उपचार करने के बाद भी जब स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ तो अत्यंत निराश होकर राजपुत्र अपने राज्य से बहुत दूर दूसरे प्रदेश में चला गया और वहां सामान्य भिखारी की तरह मंदिर में रहने लगा । उस प्रदेश के राजा बलि की दो नौजवान लड्‌कियां थीं ।

वे दोनों प्रतिदिन सुबह अपने पिता को प्रणाम करने आती थीं । उनमें से एक राजा को नमस्कार करती हुई कहती थी-महाराज की जय हो । आपकी कृपा से ही संसार में सब सुखी हैं । दूसरी कहती थी-महाराज ! ईश्वर आपको आपके कर्मों का फल दे ।

दूसरी के वचन को सुनकर राजा क्रोधित हो जाता था । एक दिन इसी क्रोधावेश में उसने मंत्री को बुलाकर आज्ञा दी : ”मंत्री जी ! इस कटु बोलने वाली लड़की को किसी गरीब परदेसी के हाथों में दे दो जिससे यह अपने कर्मों का फल स्वयं चखे ।”

राजा का आदेश पाकर मंत्री ने उस लड़की का विवाह मंदिर में सामान्य भिखारी की तरह ठहरे परदेसी राजपुत्र के साथ कर दिया । राजकुमारी ने उसे ही अपना पति मान कर उसकी सेवा की । फिर दोनों ने उस देश को छोड़ दिया ।

थोड़ी दूर जाने पर वे एक तालाब के किनारे ठहरे । वहां राजपुत्र को छोड़कर उसकी पत्नी पास के गांव से घी-तेल अन्न आदि सौदा लेने गई । सौदा लेकर वह वापस आ रही थी तब उसने देखा कि उसका पति तालाब से कुछ दूरी पर एक सांप के बिल के पास सो रहा है ।

उसके मुख से एक फनियल सांप बाहर निकल कर हवा खा रहा था । एक दूसरा सांप भी अपने बिल से निकलकर फन फैलाए वहीं बैठा था । दोनों में बातचीत हो रही थी । बिल वाला सांप पेट वाले सांप से कह रहा था : ‘दुष्ट, तू इतने सर्वांग सुन्दर राजकुमार का जीवन क्यों नष्ट कर रहा है ?’

पेट वाला सांप बोला : ”तू भी तो इस बिल में पड़े स्वर्णकलश को दूषित कर रहा है ।” बिल वाला सांप बोला : ”तो तू क्या समझता है कि तुझे पेट से निकालने की दवा किसी को भी मालूम नहीं ? कोई भी व्यक्ति राजकुमार को उबाली हुई राई की कांजी पिलाकर तुझे मार सकता है ।”

पेट वाला सांप बोला : ”तुझे भी तो तेरे बिल में गरम तेल डालकर कोई भी मार सकता है ।”इस तरह दोनों ने एक-दूसरे का भेद खोल दिया । राजकन्या ने दोनों की बातें सुन ली थीं । उसने उनकी बताई विधियों से ही दोनों का नाश कर दिया ।

उसका पति भी निरोगी हो गया और बिल में से स्वर्ण-भरा कलश पाकर उनकी गरीबी भी दूर हो गई । तब दोनों अपने देश को चल दिए। राजपुत्र के माता-पिता ने उनका स्वागत किया । उसके दिन आनंदपूर्वक बीतने लगे । पूर्व संचित कर्मों का फल पाकर वह सुखी हो गई ।

प्राकारकर्ण से यह कथा सुनकर उलूकराज ने यही निश्चय किया कि स्थिरजीवी की हत्या नहीं करनी चाहिए । रक्ताक्ष ने बहुत विरोध किया किंतु उसका विरोध काम न आया । इस तरह स्थिरजीवी को उलूकराज अरिदमन के यहां शरण मिल गई ।

रक्ताक्ष से अपना यह अपमान बर्दाश्त न हुआ । उसने अपने पक्ष के साथियों को एकत्रित करके कहा : ”मित्रों ! अब हमें यहां नहीं रहना चाहिए । वह चालाक कौवा अपने मंतव्य में सफल हो गया है । मुझे उन्नओं का सर्वनाश निश्चित दिखाई दे रहा है इसलिए हमें किसी दूसरे पर्वत की गुफा में अपना ठिकाना बना लेना चाहिए । हमें उस बुद्धिमान सियार की तरह आने वाले संकट को देख लेना चाहिए जिसने सिंह के डर से अपना घर छोड़ दिया था ।”


Hindi Story # 8 (Kahaniya)

बोलने वाली गुफा |

किसी जंगल में खरनख नाम का शेर रहता था । एक बार इधर-उधर बहुत दौड़-धूप करने के बाद उसके हाथ कोई शिकार नहीं आया । भूख-प्यास से उसका गला सूख रहा था ।

शाम होने पर उसे एक गुफा दिखाई दी । वह उस गुफा के अंदर घुस गया और सोचने लगा रात के समय रहने के लिए इस गुफा में कोई जानवर अवश्य आएगा उसे मारकर अपनी भूख मिटाऊंगा । तब तक इस गुफा में ही छिपकर बैठता हूं ।

इस बीच उस गुफा का अधिवासी दधिपुच्छ नामक गीदड़ वहां आ गया । उसने देखा गुफा के बाहर शेर के पदचिन्हों की पंक्ति है । पदचिन्ह गुफा के अंदर तो गए थे लेकिन बाहर नहीं आए थे । गीदड़ ने सोचा मेरी गुफा में कोई शेर अवश्य गया है ।

लेकिन वह बाहर आया या नहीं इसका पता कैसे लगाया जाए । अंत में उसे एक उपाय सूझ गया । गुफा के द्वार पर बैठकर वह किसी को संबोधित करके पुकारने लगा : ”मित्र ! मैं आ गया हूं । तूने मुझे वचन दिया था कि मैं आऊंगा तो तू मुझसे बात करेगा । अब चुप क्यों है ?”

गीदड़ की पुकार सुनकर शेर ने सोचा, ‘शायद यह गुफा गीदड़ के आने पर खुद बोलती है और गीदड़ से बात करती है जो आज मेरे डर से चुप है । इसकी चुप्पी से गीदड़ को मेरे यहां होने का संदेह हो जाएगा । इसलिए मैं स्वयं बोलकर गीदड़ को जवाब देता हूं ।’

यह सोचकर शेर स्वयं गरज उठा । शेर की गर्जना सुनकर गुफा भयंकर आवाज से गूंज उठी । गुफा से दूर के जानवर भी डर से इधर-उधर भागने लगे । गीदड़ भी गुफा के अंदर से आती शेर की आवाज सुनकर वहां से भाग गया ।

अपनी मूर्खता से शेर ने स्वयं ही उस गीदड़ को भगा दिया जिसे पास लाकर वह खाना चाहता था । उसने यह नहीं सोचा कि गुफा कभी बोल नहीं सकती और गुफा का बोल सुनकर गीदड़ का संदेह पक्का हो गया । यह कथा सुनकर रक्ताक्ष ने अपने साथियों से कहा : ”इसलिए मैं कहता हूं कि अरिदमन के मूर्ख समुदाय में रहना विपत्ति को न्योता देना है ।

इसीलिए हमें आज ही इस समुदाय को छोड़कर चले जाना चाहिए ।” रक्ताक्ष के साथियों ने उसकी बात से सहमति जताई और वे उसी दिन अपने-अपने परिवार समेत रक्ताक्ष के बताए ठिकाने पर रहने लगे । रक्ताक्ष के चले जाने से स्थिरजीवी प्रसन्न होकर सोचने लगा : ‘यह अच्छा ही हुआ कि रक्ताक्ष चला गया । इन मूर्ख मंत्रियों में अकेला वही चतुर और दूरदर्शी था । अब मैं बड़ी आसानी से इन उल्लुओं के सर्वनाश की तैयारी कर सकूंगा ।’

तब से स्थिरजीवी ने उन्नओं के सर्वनाश की तैयारी पूरे जोश से शुरू कर दी । छोटी-छोटी लकड़ियां चुन-चुनकर वह पर्वत की गुफा के चारों ओर रखने लगा । जब पर्याप्त लकड़ियां एकत्र हो गई तो वह एक दिन सूर्य के प्रकाश में उन्नओं के अंधे होने के बाद अपने पहले मित्र मेघवर्ण के पास गया और बोला: ”मित्र मैंने शत्रु को जलाकर भस्म कर देने की पूरी योजना तैयार कर ली है ।

तुम भी अपनी चोंच में एक-एक जलती लकड़ी लेकर उलूकराज के दुर्ग के चारों ओर फैला दो । दुर्ग जलकर राख हो जाएगा । शत्रुदल अपने ही घर में जलकर नष्ट हो जाएंगे ।” यह सुनकर मेघवर्ण बहुत प्रसन्न हुआ । उसने ऐसा ही किया ।

सभी कौवे अपनी चोंचों में एक-एक जलती हुई लकड़ी लेकर शत्रुदुर्ग की ओर चल पड़े और वहां जाकर लकड़ियां दुर्ग के चारों ओर फैला दीं । उस्तुओं के घर जलकर राख हो गए और सारे उन्न अंदर ही तड़पकर मर गए । इस प्रकार उन्नओं का वंशनाश करके मेघवर्ण फिर अपने पुराने उसी वृक्ष पर आ गया ।

विजय के उपलक्ष्य में सभा बुलाई गई । स्थिरजीवी को बहुत-सा पुरस्कार देकर मेघवर्ण ने उससे पूछा : ”महाराज ! आपने इतने दिन शत्रु के दुर्ग में किस प्रकार व्यतीत किए ? शत्रु के बीच रहना तो बड़ा संकटापन्न है । हर समय प्राण गले में अटके रहते हैं ।”

मेघवर्ण की बात सुनकर स्थिरजीवी बोला : ”आपकी बात ठीक है किंतु मैं तो आपका सेवक हूं । सेवक को अपनी तपश्चर्या के अंतिम फल का इतना विश्वास होता है कि वह क्षणिक कष्टों की चिंता नहीं करता ।  इसके अतिरिक्त मैंने यह देखा कि आपके प्रतिपक्षी उलूकराज के मंत्री महामूर्ख हैं ।

एक रक्ताक्ष ही बुद्धिमान था वह भी उन्हें छोड़ गया । मैंने सोचा यही समय बदला लेने का है । शत्रु-शत्रु के बीच विचरने वाले गुप्तचर को मान-अपमान की चिंता छोड़नी ही पड़ती है । वह केवल अपने राजा का स्वार्थ सोचता है ।

मान-मर्यादा की चिंता का त्याग करके वह स्वार्थ-साधन के लिए चिंताशील रहता है । अवसर देखकर उस शत्रु को पीठ पर उठाकर चलना चाहिए, जैसे एक काले नाग ने मेंढकों को अपनी पीठ पर उठाया था और सैर कराई थी ।”


Hindi Story # 9 (Kahaniya)

बुद्धिमान की चातुरी |

किसी पुराने उद्यान में मंदविष नाम का एक सर्प रहता था । वह बहुत आ था निर्बल होने के कारण वह अपने भोजन का प्रबंध भी नहीं कर पाता था । आहार की तलाश में वह सर्प एक दिन किसी तरह सरकता हुआ एक तालाब के किनारे पहुंच गया ।

बहुत देर तक वह तालाब के किनारे सुस्त-सा पड़ा रहा । उसे देखकर तालाब में रहने वाले एक मेंढक ने उससे पूछा : ”भद्र ! आज आप इतने सुस्त-से क्यों पड़े हो ? अपना आहार क्यों नहीं खोजते ?” सर्प आह-सी भरते हुए बोला : ”भाई ! तुम क्यों मुझ अभागे को व्यर्थ में परेशान कर रहे हो जाओ और जाकर अपना आहार खोजो ।” यह सुनकर मेंढक को यह जानने की उत्सुकता हुई कि सर्प आखिर ऐसा किसलिए कह रहा है ? उसने सर्प से पूछा : ”भद्र ऐसी क्या बात है । कुछ हमें भी बताओ ।”

यह सुनकर सर्प बोला : ”अगर तुम्हारा ऐसा ही आग्रह है तो सुनो । अब से कुछ समय पहले मैं ब्रह्मपुत्र नाम के एक गांव में रहता था । उस गांव में कौंडिन्य नाम का एक ब्राह्मण भी रहता था । वह ब्राह्मण महान ब्रह्मनिष्ट एवं वेदपाठी था । एक दिन उसका बीस वर्षीय पुत्र मेरे पास से निकला ।

दुर्भाग्यवश अपने कठोर स्वभाव के कारण मैंने उसके सुशील नामक पुत्र को डस लिया । पुत्र के निधन का समाचार सुनकर ब्राह्मण को मूर्च्छा आ गई । उसके दुख की बात सुनकर सारे ग्रामवासी भी उसके घर पर एकत्रित हो गए । सब लोग उस ब्राह्मण को भांति-भाँति से सानना देने लगे ।

तब कपिल नाम के एक गृहस्थ ने उसे समझाया : ‘सुनो मित्र ! जैसा कि गीता में कहा गया है जो आया है वह तो एक दिन जाएगा ही । कोई जल्दी चला जाता है कोई कुछ दिन रुक जाता है जाते सब हैं ।  कहा भी गया है कि मनुष्य जिस प्रथम रात को अपनी माता के गर्भ में प्रविष्ट होता है उसी समय से वह अबाध गति से प्रतिदिन मृत्यु की ओर अग्रसर होता रहता है ।’

कपिल नाम के उस गृहस्थ की बातें सुनकर कौंडिन्य मानो सोते से जागा । वह उठ बैठा और बोला : ”तब तो इस गृह रूपी नर्क में निवास करना भी व्यर्थ है । अब मैं यहां नहीं रहूंगा । मैं आज ही वन को प्रस्थान करता हूं ।”

यह सुनकर कपिल मुनि ने पुन: कहा : ”वन में भी जाकर क्या तुम्हें शांति मिल जाएगी । जो विषयी होता है वह तो चाहे घर में रहे या वन में उसके मन में बुरे विचार उत्पन्न होते ही रहते हैं ।” कपिल मुनि की बात सुनकर कौंडिन्य का मन कुछ शांत हुआ किंतु मुझ पर उसका क्रोध बना ही रहा ।

उसने मुझे शाप दिया : ”जाओ आज से तुम मेंढकों की सवारी बनकर जीवन यापन करोगे ।”  उसी कौंडिन्य के शाप के कारण अब मैं यहां मेंढकों की सेवा करने के लिए आया हूं नहीं तो इस ठण्डे तालाब के पास मेरा क्या काम ?”

मेंढक ने जब यह सुना तो वह बहुत प्रसन्न हुआ । उसने अपने राजा जालपाद को यह सब बातें बताईं तो उसे भी बहुत कौतूहल हुआ । वह स्वयं सर्प के पास पहुंचा और उससे इस विषय में पूछा ।  सर्प ने एक लंबी-सी सांस खींचते हुए कहा : ‘तुम्हारे सेवक ने जो भी कुछ बताया है, वह सत्य है ।

तुम्हें मेरे विषय में कोई संदेह नहीं होना चाहिए । चाहे तो इसी समय तुम इसका परीक्षण कर सकते हो ।’ तब झिझकते हुए परीक्षण के लिए जालपाद स्वयं सर्प के ऊपर बैठा । सर्प ने उसे तालाब के किनारे पर घुमाया और पुन: लाकर उसी स्थान पर छोड़ दिया ।

उस दिन से जालपाद नित्य प्रति सर्प की गुदगुदी पीठ पर बैठकर उसकी सवारी का आनंद लेने लगा । एक दिन जब सर्प धीरे-धीरे रेंगता उसे सवारी करा रहा था तो जालपाद ने कहा:  ”भद्र आज आपकी सवारी करने में आनंद नहीं आ रहा । क्या कारण है जो आप इतने धीरे-धीरे चल रहे हैं ?”

सर्प बोला : ”क्या बताऊं मित्र ! भोजन न मिलने के कारण मैं बहुत दुर्बल हो गया हूं । इसीलिए मुझसे चला नहीं जा रहा ।” इस पर जालपाद ने कहा ”यदि ऐसी बात है तो आज से तुम साधारण कोटि के मेंढकों को खा लिया करो ।”

मंदविष को मनचाही मुराद मिल गई । उस दिन से वह नित्यप्रति बिना परिश्रम किए अपना आहार पाने लगा । मूर्ख जालपाद यह समझ न सका कि अपने क्षणिक सुख के लिए वह अपने वंश का नाश करने का भागी बन रहा है । एक दिन दूसरा काला सर्प वहां आ पहुंचा । उसने मेंढकों को सर्प पर सवारी करते देखा तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ ।

उसने मंदविष से पूछा : ”मित्र ये मेंढक तो हमारे भोजन हैं और तुम उन्हीं को अपनी पीठ पर सवारी करा रहे हो । यह तो स्वभाव विरुद्ध बात है ।” मंदविष बोला : ”मित्र यह बातें तो मैं भी जानता हूं किंतु समय की प्रतीक्षा कर रहा हूं । अनुकूल समय की प्रतीक्षा में उसी तरह हूं जैसे घी के पकवानों से अंधे बने ब्राह्मण की स्थिति हुई ।”


Hindi Story # 10 (Kahaniya)

अनुकूल समय की प्रतीक्षा |

एक नगर में यज्ञदत्त नाम का ब्राह्मण रहता था । उसकी पत्नी दूसरे व्यक्ति से प्रेम करती थी । अपने प्रेमी को सदा घी के पकवान बनाकर खिलाया करती थी । एक दिन उसके पति ने देख लिया तो उससे पूछा : ”तुम यह घी के पकवान रोज-रोज किसके लिए बनाती हो ?”

पत्नी बोली : ”देवी को चढ़ाने के लिए बनाती हूं । पास में जो देवी मंदिर है वहां ले जाकर देवी को भोग लगाती हूं ।” उसके पति को कुछ शक-सा हुआ । एक दिन वह मंदिर में गया और देवी की मूर्ति के पीछे छिप गया । जब उसकी पत्नी पकवान लेकर मंदिर में आई तो उसने पहले देवी की पूजा की फिर पकवान का भोग लगाकर बोली : ”हे देवी ! मेरे पति को किसी प्रकार अंधा करने का उपाय बताइए ।”

मूर्ति के पीछे से ब्राह्मण ने कहा : ”अगर तू घी से बने अच्छे-अच्छे पकवान अपने पति को खिलाएगी तो वह जल्दी ही अंधा हो जाएगा ।” इस वाणी को सुनकर पत्नी बड़ी प्रसन्न हुई ।  अब वह प्रतिदिन अपने पति को घी के बने हुए पकवान खिलाने लगी ।

एक दिन ब्राह्मण ने अपनी पत्नी से कहा : ”मुझे अब दिखाई नहीं पड़ता । अब मैं अंधा हो गया हूं ।” पत्नी ने सोचा कि यह देवी की कृपा से ही हुआ है । अब वह देख तो पाएगा नहीं यह मानकर वह अपने उस प्रेमी को अपने घर पर ही उसके सामने बुलाने लगी ।

एक दिन जब उसका प्रेमी घर पर आया तो उस ब्राह्मण ने उसको इतना मारा कि वह मर ही गया । उसने चरित्रहीन पत्नी के नाक-कान काट कर उसे घर से निकाल दिया ।” यह कथा सुनाकर मंदविष ने कहा : ”इसलिए जो कुछ मैं कर रहा हूं अंक कर कर रहा हूं ।”

बस, फिर क्या था मंदविष ने अनुकूल अवसर पाकर धीरे-धीरे तालाब के सभी मेंढक खा लिए ।  जब सारा तालाब मेंढकों से खाली हो गया तो एक दिन सर्प ने जालपाद से कहा: ”मित्र, अब तो मेरे लिए इस तालाब में कुछ भी नहीं बचा । सारे मेंढक समाप्त हो गए हैं ।”

यह सुनकर जालपाद रुखाई से बोला : ”तो मैं क्या कर सकता हूं । जाओ जाकर किसी अन्य जगह अपना आहार खोज लो ।” सर्प बोला : ”ठीक है । मैं आज ही यहां से चला जाऊंगा । किंतु इस समय का भोजन तो मुझे चाहिए ही ।” यह कहकर उसने जालपाद को अपनी पीठ से गिराया और उसे भी हड़प कर गया ।

ADVERTISEMENTS:

यह कथा सुनाकर स्थिरजीवी ने कहा : ”बस कुछ ऐसी ही चालाकी से मैंने भी काम लिया । तभी तो मैं उन्नओं के इतने बड़े दल को नष्ट करने में कामयाब हो पाया । बुद्धि और पराक्रम दोनों से ही कार्य सिद्धि होती है । भाग्य का भी इसमें बड़ा हाथ होता है ।”

यह सुनकर मेघवर्ण ने उसकी बहुत प्रशंसा की और कहा : ”तात ! आप सचमुच बहुत बुद्धिमान और दूरदर्शी हैं । संसार में कई तरह के लोग होते हैं । नीचतम प्रवृत्ति के लोग वे होते हैं जो विप्न या भय के कारण किसी काम को आरंभ ही नहीं करते ।

मध्यम वर्ग के वे लोग हैं जो काम तो आरंभ कर देते हैं किंतु विप्न और बाधाओं से डर कर उसे बीच में ही छोड़ देते हैं । किंतु उत्कृष्ट लोग सैकड़ों विश्व और बाधाओं के बावजूद भी अपने उद्देश्य को पूरा करके ही रहते हैं । आपने शत्रुओं का वंश नाश करके बहुत उत्तम कार्य किया है ।”

स्थिरजीवी ने विनम्र स्वर में कहा : ”वत्स ! मैंने सिर्फ अपने कर्त्तव्य का पालन किया है । पुरुषार्थ बड़ी चीज होती है किंतु यदि दैव अनुकूल न हो तो वह भी फलित नहीं हो पाता । इसलिए आप ईश्वर का आभार प्रकट कीजिए जिसने आपका साथ दिया ।

लेकिन एक बात हमेशा याद रखिए कि राज्य चिर-स्थायी नहीं होते । बड़े से बड़े राज्य क्षणभर में ही बनते और मिट जाते हैं । राज्य के मद में आकर अन्याय नहीं करना चाहिए और हमेशा अपनी प्रजा को अपनी संतान के समान समझना चाहिए । राजा प्रजा का स्वामी नहीं सेवक होता है ।” मेघवर्ण ने स्थिरजीवी के उपदेशों का अक्षरश: परिपालन किया । उसके पश्चात् वह स्थिरजीवी की सहायता से वर्षों आनंदपूर्वक राज-सुख भोगता रहा ।


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