List of twelve popular Hindi stories from Panchtantra Ki Kahaniyan!


Contents:

  1. राजनीतिज्ञ गीदड़ |
  2. कुत्ते का वैरी कुत्ता |
  3. नाई की मूर्खता |
  4. बिना विचारे जो करे, सो पाछे पछताय |
  5. लालच बुरी बला |
  6. विद्वान मूर्ख |
  7. चार मूर्ख पंडित |
  8. मित्र की शिक्षा मानो |
  9. राक्षस और वानर |
  10. जिज्ञासु बनो |
  11. मिल कर करो काम |
  12. मार्ग का साथी |

Hindi Story # 1 (Kahaniya)

राजनीतिज्ञ गीदड़ |

किसी जंगल में महाचतुर नाम का एक गीदड़ रहता था । उसकी दृष्टि में एक दिन अपनी मौत आप मरा हुआ हाथी पड़ गया । गीदड़ ने उसकी खाल में दांत गड़ाने की बहुत कोशिश की लेकिन कहीं से भी उसकी खाल उधेड़ने में उसे सफलता नहीं मिली ।

उसी समय वहां ज शेर आया । शेर को आया देखकर उसने उसे प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बोला : ”स्वामी ! मैं आपका दास हूं । आपके लिए ही इस मृत हाथी की रखवाली कर रहा हूं । आप अब इसका यथेष्ट भोजन कीजिए ।”

शेर ने कहा : ”गीदड़ ! मैं सदैव स्वयं शिकार करके ही भोजन करता हूं इसलिए भूखे रहकर भी मैं अपने इस धर्म क्य पालन करता हूं । अत: तू ही इसको आहार बना । मैंने तुझे इसे भेंट में दिया ।” शेर के जाने के बाद वहां एक बाघ आया ।

गीदड़ ने सोचा एक मुसीबत को तो हाथ-जोड़कर टाला था इसे कैसे टालूं ? इसके साथ भेद-नीति का ही प्रयोग करना चाहिए । जहां साम-दाम की नीति न चले वहां भेद नीति ही काम करती है । भेद-नीति ही ऐसी प्रबल है कि मोतियों को भी माला में बांध देती है ।

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यह सोचकर वह बाघ के सामने ऊंची गर्दन करके गया और बोला-मामा ! इस हाथी पर दांत न गड़ाना । इसे शेर ने मारा है । वह अभी नदी पर नहाने गया है और मुझे रखवाली के लिए छोड़ गया है । वह कह गया है कि यदि कोई बाघ आए तो उसे बता दूं, गीदड़ की बात सुनकर बाघ ने कहा: ”मित्र मेरे जीवन की रक्षा कर ।

शेर से मेरे आने की चर्चा न करना ।” यह कहकर वह बाघ वहां से भाग गया । बाघ के जाने के बाद वहां एक चीता आया । गीदड़ ने सोचा चीते के दांत तीखे होते हैं इससे हाथी की खाल उधड्‌वा लेता हूं । वह उसके पास गया और बोला : ”भगिनीसुत क्या बात है बहुत दिनों में दिखाई दिए हो ।

कुछ भूख से सताए मालूम होते हो ।  आओ, मेरा आतिथ्य स्वीकार करो । यह हाथी शेर ने मारा है मैं इसका रखवाला हूं । जब तक शेर आए इसका मांस खाकर जल्दी से भाग जाओ । मैं उसके आने की खबर दूर से ही दे दूंगा ।”  गीदड़ थोड़ी दूर जाकर खड़ा हो गया और चीता हाथी की खाल उधेड़ने में लग गया ।

जैसे ही चीते ने एक-दो जगहों से खाल उधेड़ी गीदड़ चिल्ला पड़ा : ”शेर आ रहा है । भाग जा !” चीता यह सुनकर भाग गया । उसके जाने के बाद गीदड़ ने उधड़ी हुई जगहों से मांस खाना शुरू कर दिया । लेकिन अभी एक दो ग्रास ही खाए थे कि एक और गीदड़ आ गया । वह उसका समशक्ति ही था ।

इसलिए उस पर टूट पड़ा और उसे दूर तक भगा आया । उसके बाद बहुत दिनों तक वह उस हाथी का मांस खाता रहा । यह कहानी सुनाकर बंदर ने कहा : ”तभी तुझे भी कहता हूं स्वजातीय से युद्ध करके अभी निपट ले नहीं तो उसकी जड़ जम जाएगी । वही तुझे नष्ट कर देगा । स्वजातियों का यही दोष है कि वही विरोध करते हैं जैसे कुत्तों ने किया था ।”


Hindi Story # 2 (Kahaniya)

कुत्ते का वैरी कुत्ता |

एक गांव में चित्रांग नाम का एक कुत्ता रहता था । एक बार उस गांव में अकाल पड़ गया । अन्न के अभाव में कई कुत्तों का वंशनाश हो गया । चित्रांग ने अकाल से बचने के लिए दूसरे गांव की राह ली । वहां पहुंचकर उसने एक घर में चोरी से जाकर भरपेट खाना खा लिया ।

जिसके घर में उसने खाना खाया था उसने तो कुछ नहीं कहा लेकिन घर से बाहर निकला तो आसपास के सब कुत्तों ने उसे घेर लिया । भयंकर लड़ाई हुई । चित्रांग के शरीर पर कई घाव लग गए । चित्रांग ने सोचा इससे तो अपना ही गांव अच्छा है, जहां केवल अकाल है जान के दुश्मन कुत्ते तो नहीं हैं ।

यह सोचकर वह अपने गांव वापस आ गया । अपने गांव आने पर उससे सब कुत्तों ने पूछा : ”चित्रांग दूसरे गांव की बात सुना वह गांव कैसा है ? वहां के लोग कैसे हैं ? वहां खाने-पीने की चीजें कैसी हैं ?” चित्रांग ने उत्तर दिया : ”मित्रों, उस गांव में खाने-पीने की चीजें तो बहुत अच्छी हैं और गृह-पलिया भी नरम स्वभाव की हैं किंतु दूसरे गांव में एक ही दोष है, अपनी ही जाति के कुत्ते बड़े खूंखार हैं ।”

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यह कथा सुनाकर रक्तमुख ने कहा : ”मैं अब तुमको और परामर्श नहीं दे सकता । बस इतना ही कहूंगा कि आज से हमारी तुम्हारी मित्रता खत्म हुई । अपने घर जाओ और प्रयास करो कि उस मगरमच्छ से युद्ध करके अपना घर प्राप्त कर सको ।

जीवन अमूल्य है । इसे व्यर्थ में आत्मदाह करके नष्ट करने की चेष्टा न करो । कर्मशील व्यक्ति ही संसार में सफलता प्राप्त करते हैं । अकर्मण्य लोगों का जीवन तो बेकार ही चला जाता है ।” रक्तमुख बंदर से इस प्रकार के उपदेश सुनने के बाद मगर के ज्ञानचक्षु खुल गए । वह अपने घर वापस पहुंचा और अपने घर पर अधिकार जमाए अनाधिकारी मगर से युद्ध किया । युद्ध में उसने उस मगर को मारा डाला और सुखपूर्वक अपने घर में रहने लगा ।


Hindi Story # 3 (Kahaniya)

नाई की मूर्खता |

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दक्षिण के किसी राज्य में पाटलिपुत्र नाम का एक नगर था । उस नगर में चूड़ामणि नाम का एक क्षत्रिय रहता था । धन पाने की इच्छा से उसने बहुत दिनों तक भगवान् शिव की तपस्या की ।

जब उसके सब पाप क्षीण हो गए तो एक रात सोते समय धन देतवा कुबेर ने उसे स्वप्न में दर्शन दिए और कहा : ‘सवेरे उठने पर तुम अपने बाल बनवा लेना और फिर नहा धोकर हाथ में लाठी लेकर घर के दरवाजे के समीप छिप कर बैठ जाना ।

प्रात: काल तुम्हारे गन में एक भिक्षुक आएगा । उस पर तुम अपनी लाठी से प्रहार करना ताकि वह भिक्षुक वहीं ढेर हो जाए । वह भिक्षुक भूमि पर गिरते ही स्वर्ण के ढेर में परिवर्तित हो जाएगा । वह स्वर्ण तुम रख लेना । इतने स्वर्ण से तुम्हारी जीवनभर की दरिद्रता दूर हो जाएगी ।’

प्रात: होने पर चूड़ामणि ने वैसा ही किया । पहले उसने नाई को बुलावा कर अपने बाल कटवाए फिर स्नान किया और लाठी लेकर दरवाजे के समीप खड़ा हो गया । नाई तब तक वहीं था ।  उसे चूड़ामणि का इस प्रकार लाठी लेकर दरवाजे पर छिप कर खड़े होना विस्मयजनक लग रहा था ।

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नाई यह जानने के लिए कि चूड़ामणि का आगे क्या करने का इरादा है, वहीं कुछ आगे एक अन्य मकान के समीप छिपकर खड़ा हो गया । कुछ ही देर बाद जैसा कि कुबेर ने स्वप्न में चूड़ामणि को बताया था एक भिक्षुक उसके दरवाजे पर पहुंचा ।

तभी दरवाजे के पीछे से चूड़ामणि ने उसके सिर पर अपनी लाठी से प्रहार कर दिया । दो-तीन लाठियां खाकर भिक्षुक चित हो गया और उसका सारा शरीर स्वर्ण में परिवर्तित हो गया । नाई ने जब यह देखा तो उसने सोचा कि वह भी ऐसा ही करेगा । इससे तो उसकी जन्म-जन्मांतर की दरिद्रता दूर हो जाएगी ।

बस उसी दिन से वह नित्य प्रति किसी भिक्षुक की प्रतीक्षा में अपने घर में लाठी लिए छिपा बैठा रहता । बहुत दिनों बाद अंतत: एक भिक्षुक भिक्षा मांगने दरवाजे पर पहुंचा । नाई तो इस अवसर की प्रतीक्षा में था ही उसने आव देखा न ताव उठाई लाठी और दे मारी भिक्षुक के सिर पर । भिक्षुक हाय-हाय करता हुआ तुरंत भूमि पर गिर पड़ा और कुछ ही क्षणों में उसके प्राण पखेरू उड़ गए ।

किंतु जैसी कि नाई को आशा थी वह भिक्षुक मर कर सोने में परिवर्तित न हुआ । इससे उसके मन को भारी आघात पहुंचा । नाई के इस कुकृत्य की खबर जब राजकर्मचारियों को लगी तो वे तत्काल वहां पहुंचे और नाई को गिरफ्तार करके न्यायाधीश के पास ले आए ।

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न्यायाधीश ने जब नाई से उस भिक्षुक को मारने का कारण पूछा तो उसने चूड़ामणि के घर में आए भिक्षुक के सोना बन जाने की बात बताई । उसने न्यायाधीश से कहा : ‘श्रीमान ! मैं शीघ्र से शीघ्र सोना प्राप्त करना चाहता था । इसी कारण मैंने इस भिक्षुक का संहार किया है ।’

नाई की बात सुनकर न्यायाधीश ने चूड़ामणि को बुलाया और उससे पूछा : ‘क्या तुमने किसी भिक्षुक की हत्या की है ?’ चूड़ामणि ने उसे अपने स्वप्न की कहानी आरंभ से अंत तक सुना दी । विवरण सुनकर न्यायाधीश ने आज्ञा दी इस नाई को सूली पर चढ़ा दिया जाए। यह अविवेकी और हत्यारा है ।

बिना विचारे, बगैर सोचे-समझे अथवा बगैर परीक्षण किए कोई काम नहीं करना चाहिए अन्यथा उसे उसी प्रकार पश्चात्ताप करना पड़ता है जिस प्रकार अपने नेवले को मारकर ब्राह्मणी को पश्चात्ताप करना पड़ा था ।’


Hindi Story # 4 (Kahaniya)

बिना विचारे जो करे, सो पाछे पछताय |

उज्जयिनी नगरी में माधव नाम का एक ब्राह्मण रहता था । जिन दिनों उसकी पत्नी ने अपने पुत्र को जन्म दिया उन्हीं दिनों उनको कहीं से नेवले का एक बच्चा मिल गया । ब्राह्मणी ने उस नेवले के बच्चे को भी अपने बच्चे के समान ही पाला-पोसा ।

नेवले का बच्चा कुछ बड़ा हो गया तो वह ब्राह्मणी के बच्चे के साथ ही खेलने लगा । दोनों में खूब प्रेम हो गया था । ब्राह्मणी उन दोनों का प्रेम देखकर बहुत प्रसन्न रहती थी किंतु वह इस बात से शकित भी रहती थी कि नेवला है तो पशु ही किसी दिन उसके बेटे को न काट ले ।

एक दिन ब्राह्मणी अपने पति से बच्चे की रक्षा करने के लिए कह कर स्वयंस्नान करने के लिए सरोवर पर चली गई । ब्राह्मण अपने पुत्र के पास बैठा उसकी देख-रेख कर रहा था कि उसी समय राजा के यहां से उसको नालन देने के लि नियंत्रण आ गया ।

यह देखकर ब्राह्मण सोच में पड़ गया : ‘यदि जाता हूं तो बच्चे की रक्षा कौन करेगा, और यदि नहीं जाता तो राजा अवश्य किसी दूसरे ब्राह्मण को बुलाकर अपना ‘पार्वण श्राद्ध’ पूरा करा लेगा । बहुत सोच विचार के बाद अंतत : उसको यही सूझा कि बच्चे की रक्षा का भार नेवले पर डालकर उसे राजा के यहां चले जाना चाहिए । फिर उसने ऐसा ही किया । बच्चे की रक्षा का भार नेवले को सौंप वह राज-दरबार चला गया ।

ब्राह्मण के जाने के कुछ ही देर बाद न जाने कहां से एक काला सांप वहां आ पहुंचा और फन उठा कर इधर-उधर देखने लगा । तभी नेवले की निगाह उस पर पड़ गयी । वह बिजली की तरह उस पर झपट पड़ा और उसका सिर मुंह में दबा कर उस को मार डाला ।

संयोग की बात कि जब तक ब्राह्मणी सरोवर से स्नान करके लौटती वह ब्राह्मण भी राजा के दरबार से वापस लौट आया । नेवला ब्राह्मण को आता देख उसके समीप पहुंचा और अपनी स्वामिभक्ति को दर्शाने के लिए उछलने-कूदने लगा ।

ब्राह्मण ने जब देखा कि नेवले का मुंह रक्त से भरा हुआ है तो उसे संदेह हो गया कि अवश्य ही इस दुष्ट ने मेरे बच्चे को मार डाला है । तब उसने आगे सोचा न पीछे बिना विचारे ही उस निरपराध नेवले को मार डाला ।

किंतु जैसे ही वह बच्चे के समीप पहुंचा तो देखा कि बच्चा तो आनंदपूर्वक अपने पालने में खेल रहा है परंतु एक मरा हुआ काला सांप टुकड़े-टुकड़े हुआ पड़ा हैं । जब ब्राह्मण ने रोते-कलपते हुए नेवले की मृत्यु के बारे में ब्राह्मणी को बताया तो ब्राह्मणी को भी बहुत दुख हुआ ।

तत्पश्चात् ब्राह्मण की पत्नी ने उस पर क्रोध भी किया और उसे समझाया भी । उसने ब्राह्मण से कहा : ‘तुम दान पाने के लालच में यहां से गए ही क्यों । मनुष्य को अधिक लोभ भी नहीं करना चाहिए । अधिक लोभ करने से कई बार मनुष्य के सिर पर विपत्ति चक्र घूमने लगता है ।’


Hindi Story # 5 (Kahaniya)

लालच बुरी बला |

किसी नगर में चार ब्राह्मण-पुत्र रहते थे । चारों में गहरी मित्रता थी । चारों ही निर्धन थे । निर्धनता को दूर करने के लिए चारों ही चिंतित रहते थे । उन्होंने अनुभव कर लिया था कि बंधु-बांधवा में धनहीन जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा शेर-हाथियों से भरे कंटीले जंगल में रहना अच्छा है ।

निर्धन व्यक्ति को सब अनादर की दृष्टि से देखते हैं । बंधु बांधव भी उससे किनारा कर लेते हैं । अपने ही पुत्र-पौत्र भी उससे मुख मोड़ लेते हैं, पत्नी भी उससे विरक्त हो जाती है । मनुष्य लोक में धन के बिना न यश संभव है न सुख ।

धन हो तो कायर भी वीर हो जाता है कुरूप भी और सुरूप कहलाता है और मूर्ख भी पंडित बन जाता है । यह सोचकर उन्होंने धन कमाने के लिए किसी दूसरे देश जाने का निश्चय कर लिया । यह निश्चय करके चारों एक दिन घर छोड़ विदेश यात्रा पर निकल पड़े ।

इस प्रकार चलते हुए वे अवंती नगर में पहुंच गए । वहां सबसे पहले उन्होंने पवित्र शिप्रा नदी में स्नान किया फिर महाकालेश्वर के मंदिर में जाकर भगवान शिव की आराधना की । वे लोग मंदिर से जब बाहर निकल रहे थे तो उन्हें एक जटाधारी योगी दिखाई दिए । इन योगिराज का नाम भैरवानंद था । चारों ने योगिराज को प्रणाम किया और उनके साथ ही उनके आश्रम में जा पहुंचे ।

योगिराज ने उनसे प्रवास का प्रयोजन पूछा तो उन चारों ने बताया : ‘हम चारों धन कमाने के लिए यात्रा पर निकले हैं । धनोपार्जन ही हमारा लक्ष्य है । अब या तो धन कमाकर लौटेंगे या मुत्यु का स्वागत करेंगे । धनहीन रहकर जीवन व्यतीत करने से तो मृत्यु ही अच्छी है ।’ यह सुनकर योगिराज बोले : ‘धनवान बनना न बनना तो ईश्वर की इच्छा है ।’

तब उन्होंने कहा : ‘यह सच है कि भाग्य से ही पुरुष धनी बनता है । किंतु साहसी पुरुष भी अवसर का लाभ उठाकर अपने भाग्य को बदल देते हैं । पुरुष का पौरुष कभी-कभी इश्वरीय इच्छा से भी अधिक बलवान हो जाता है । इसलिए आप हमें निरुत्साहित न करें । आप योगी हैं ।

आपके पास अनेक सिद्धियां और शक्तियां हैं । हमारी प्रार्थना है कि आप अपनी शक्तियों से हमारी सहायता करें । हमने धनोपार्जन किए बिना घर वापस न लौटने का पक्का निर्णय कर लिया है ।’  उनका यह दृढ़ निश्चय देखकर योगिराज को बहुत प्रसन्नता हुई ।

उन्होंने प्रसन्न होकर धन कमाने का एक उपाय बताते हुए उन्हें चार दीपक दिए और कहा : ‘तुम चारों अपने हाथों में ये सिद्ध दीपक लेकर हिमालय पर्वत की ओर जाओ । वहां जाते समय जिसका भी दीपक जिस जगह गिर पड़े वह वहीं ठहर जाए ।

जिस स्थान पर दीपक गिरेगा, उस स्थान पर खोदने पर धन प्राप्त होगा । लेकिन याद रहे, धन प्राप्त करने के बाद उसे वापस लौट आना चाहिए ।’ यह सुनकर चारों ब्राह्मण-पुत्र हाथों में योगिराज द्वारा दिए सिद्ध दीपकों को लेकर चल पड़े ।

हिमालय की दिशा में बढ़ते हुए उनमें से एक के हाथ का दीपक गिर गया । जब उसे स्थान को खोदा तो वहां ताबें की खान मिली । उसने अपने साथियों से कहा : ‘मित्रों ! हमें यहां से अपनी इच्छानुसार तांबा लेकर लौट जाना चाहिए । इस पर उसके साथियों ने कहा : ‘तुम तो मूर्ख हो ।

इस तांबे को लेकर हम क्या करेंगे ? इस तांबे से हमारी दरिद्रता थोड़े ही मिटेगी, चलो आगे चलते हैं’ । जिस ब्राह्मण-पुत्र के हाथ से दीपक गिरा उसने कहा : ‘मैं तो इस तांबे को पाकर ही संतुष्ट हूं । आप लोग जाना चाहे तो आगे चले जाइए ।’ यह कहकर उसने अपनी इच्छानुसार तांबा इकट्‌ठा किया और वापस लौट गया ।

बाकी तीनों ब्राह्मण-पुत्र आगे बढ़ चले । कुछ और आगे चलने पर उनमें से एक का दीपक गिर गया । भूमि खोदी गई तो वहां चांदी की खान मिली । यह देखकर जिसके हाथ से दीपक गिरा था उसने अपने मित्रों से कहा : ‘मित्रों ! अपनी-अपनी इच्छानुसार चांदी इकट्‌ठी करो और लौट चलो ।’

उसकी बात सुनकर शेष दो साथी बोले : ‘देखो इससे पहले तांबे की खान मिली थी और अब चांदी की । आगे निश्चय ही हमें सोने की खान मिलेगी । चांदी को लेकर क्या करेंगे ? आगे चलकर सोना प्राप्त करेंगे । यह कह कर दोनों मित्र आगे बढ गए ।

उनका दूसरा साथी चांदी को पाकर ही संतुष्ट हो गया और इच्छानुसार चांदी देकर लौट गया । कुछ आगे जाने पर तीसरे का भी दीपक हाथ से गिर गया । जमीन खोदी गई तो वहां सोने की खान मिली । इस पर उसने अपने साथी से कहा : ‘मित्र अब आगे जाने की क्या आवश्यकता है । सोना तो बहुत बहुमूल्य होता है । यहां से इच्छानुसार सोना इकट्‌ठा करो और लौट चलो ।’

उसकी बात सुनकर उसका साथी बोला : ‘तुम तो निपट मूर्ख हो । देखो पहले तांबा, फिर चांदी, अब सोना मिला है तो आगे निश्चय ही रत्नों की खान मिलेगी । उनमें से यदि थोड़े से भी रत्न हम अपने साथ लाने में कामयाब हो गए तो सारी दरिद्रता दूर हो जाएगी । इसलिए उठो आगे चलते हैं क्यों इस सोने का बोझा उठाने की सोचते हो ?’

यह सुनकर तीसरा ब्राह्मण पुत्र बोला : ‘तुम आगे जाओ । मैं तो यहीं बैडूंगा और तुम्हारे लौटने की प्रतीक्षा करूंगा ।’ विवश होकर चौथा ब्राह्मण पुत्र अकेला ही आगे बढ़ गया । रास्ता बहुत विकट था । पैर छलनी हो गए । कंटीली झाड़ियों में उलझ कर कपड़े तार-तार हो गए । हलक सूख गया । प्यास से गले में कांटे से उग आए लेकिन वह आगे बढ़ता ही गया ।

बहुत देर तक भटकने के बाद अंत में वह एक ऐसे स्थान पर पहुंच गया जहां खून से लथपथ एक व्यक्ति बैठा हुआ था उसके सिर पर एक चक्र घूम रहा था । ब्राह्मण-पुत्र ने उस व्यक्ति से पूछा : ‘आप कौन हैं और इस घूमते चक्र के नीचे क्यों बैठे हैं ? मैं प्यास से व्याकुल हो रहा हूं । यहां कहीं जल तो कृपया मुझे जल्दी बताइए ।’

उसकी बात अभी समाप्त हुई भी नहीं थी कि चक्र उस व्यक्ति के सिर से उतर कर ब्राह्मण-पुत्र के सिर पर आकर घूमने लगा । यह देखकर ब्राह्मण-पुत्र ने आश्चर्य से पूछा : ‘यह कैसा आश्चर्य है ? यह चक्र तुम्हारे सिर से उतर कर मेर सिर पर कैसे आ गया ? उस व्यक्ति ने कहा : ‘मेरे सिर पर भी इसी प्रकार आया था ।’

ब्राह्मण पुत्र ने पूछा : ‘अब यह कब और कैसे मेरे सिर से उतरेगा ? इसके कारण तो मुझे अत्यधिक वेदना हो रही है ।’ इस पर उस व्यक्ति ने बताया : ‘जब तुम्हारी भांति कोई दूसरा व्यक्ति धन के लोभ में यहां आएगा और इसी प्रकार तुमसे प्रश्न करेगा जिस प्रकार तुमने मुझसे किए थे तो उसी समय यह चक्र तुम्हारे सिर से उतरकर उसके सिर पर जाकर घूमने लगेगा ।’

ब्राह्मण-पुत्र ने पूछा : ‘आप यहां कितने दिनों से हैं ? उत्तर में उस व्यक्ति ने स्वयं ही प्रश्न कर दिया । उसने पूछा : ‘आजकल इस पृथ्वी पर किस राजा का राज्य है ?’ ब्राह्मण पुत्र बोला : ‘इस समय वीणावत्सराज इस पृथ्वी पर शासन कर रहे हैं ।’

तब उस व्यक्ति ने बताया: ‘मुझे सही समय का ज्ञान नहीं है । मैं राजा राम के राज्य में दरिद्र पैदा हुआ था और सिद्ध दीपक लेकर यहां तक पहुंचा था । यहाँ मैंने भी एक  व्यक्ति से इसी विषय में पूछा था कि यह चक्र मेरे सिर पर आकर घूमने लगा था ।’

ब्राह्मण पुत्र ने पूछा : ‘किंतु इतने समय तक तुम्हें भोजन और जल कैसे मिलता रहा ?’ इस पर उस व्यक्ति ने बताया : ‘यह चक्र धन के अति लोभी पुरुषों के लिए बना है । इस चक्र के मस्तक पर लगने के बाद मनुष्य को भूख-प्यास-बुढ़ापा अथवा मृत्यु आदि का भय नहीं रहता । केवल सिर पर चक्र घूमने का कष्ट ही सताता रहता है । वह व्यक्ति अंतकाल तक असहनय कष्ट भोगता रहता है ।’

इधर वह तीसरा ब्राह्मण-पुत्र जिसे अब बहुत-सा स्वर्ण प्राप्त हो चुका था और जिसके मन में अब और अधिक धन का लोभ समाप्त हो चुका था उस सुवर्णसिद्धि ने अपने मित्र के लौटने की बहुत प्रतीक्षा की । किंतु जब वह नहीं आया तो वह स्वयं उएसकी खोज में निकल पड़ा ।

अपने मित्र के पदचिन्हों के सहारे पता लगाते हुए जब वह उसके पास पहुंचा तो उसने देखा कि उसका मित्र खून से लथपथ एक स्थान पर बैठा है और उसके सिर पर एक चक्र घूम रहा है । इससे उसको बहुत दुख हुआ । उसने जब अपने मित्र से इस सबका कारण पूछा तो उसके चक्रधर मित्र ने बताया : ‘मित्र ! यह भाग्य का चक्र है ।’

यह कहकर उसने आदि से अंत तक सारा वृत्तांत बता दिया । अपने मित्र से वृतांत सुनकर सुर्वणासिद्धि ने कहा: ‘मित्र ! मैंने तुम्हें कितना मना किया था किंतु तुम नहीं माने । ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण तुम्हें विद्या और कुलीनता तो मिल गई किंतु भले और बुरे को पहचानने वाली बुद्धि न मिली ।

विद्या की अपेक्षा बुद्धि का स्थान ऊंचा होता है । विद्या होते हुए भी जिसके पास बुद्धि नहीं होती वे उसी तरह नष्ट हो जाते हैं । जिस प्रकार सिंह को जीवित करने वाले ब्राह्मण नष्ट हो गए थे ।’


Hindi Story # 6 (Kahaniya)

विद्वान मूर्ख |

किसी नगर में एक ब्राह्मण रहता था । उसके चार बेटे थे । उनमें से तीन शास्त्र-विद्या के अच्छे जानकार थे किंतु उनमें बुद्धि की कमी थी । चौथा बेटा हालांकि किसी विद्या का जानकार नहीं था, किंतु बुद्धिमान था ।

उसे लोक व्यवहार का ज्ञान अपने तीनों भाईयों से ज्यादा था । एक दिन चारों ने आपस में विचार-विमर्श किया परदेश जाकर अपनी अर्जित विद्याओं से धनोपार्जन किया जाए । समाज में मान-सम्मान उसी को मिलता है जिसके पास पर्याप्त धन होता है । निर्धन व्यक्ति तो अनेक विद्याओं का जानकार होते हुए भी धनहीन ही रहता है । समाज में उसका कोई मान-सम्मान नहीं होता ।

यही विचार कर वे चारों विदेश यात्रा पर निकल पड़े । दिनभर चलने के बाद वे एक स्थान पर विश्राम के लिए ठहरे । तब उनमें से सबसे बड़े भाई ने कहा : ‘देखो भाई ! हमारा सबसे छोटा भाई कुछ विशेष पड़ा लिखा नहीं है । उसे किसी प्रकार की कोई विद्या भी नहीं आती ।

हम विदेश में चलकर जो धन कमाएंगे उसमें से उसे कोई हिस्सा नहीं देंगे । वह थोड़ा बुद्धिमान अवश्य है किंतु सिर्फ बुद्धिमान होने से ही धन प्राप्त नहीं किया जा सकता । मेरा तो यही विचार है कि वह यहीं से घर वापस लौट जाए ।’

दूसरे भाई ने उसकी बात का समर्थन किया और सबसे छोटे भाई से बोला : ‘बड़े भैया ठीक कहते हैं सुबुद्धि ! तुम्हें घर लौट जाना चाहिए ।’ किंतु तीसरे भाई ने उन दोनों की बात का प्रतिवाद करते हुए कहा : ‘मेरे विचार से ऐसा करना ठीक नहीं है । सुबुद्धि हम सबसे छोटा है, हमारा सगा भाई है । बचपन से हम सब इकट्‌ठे ही रहे ।

इसे साथ ही चलने दो । ऐसी बातें तो संकुचित बुद्धि वाले ही किया करते हैं । तुम तो विशाल हृदयी हो । अपने भाई के प्रति ऐसी दुर्भावना मत रखो ।’दोनों बड़े भाईयों ने अनमने भाव से तीसरे भाई की बात मान ली । इस प्रकार वह छोटा भाई भी उनके साथ चल पड़ा ।

मार्ग में एक घना जंगल आया । वहां उन्होंने अस्थियों का एक विशाल ढेर देखा । अस्थियों को देखकर बड़ा भाई बोला : ‘इस अस्थियों के ढेर को देखा । यह किसी जंगली जानवर का लगता है । हमें अपनी-अपनी विद्या आजमाने का एक सुअवसर मिल रहा है ।

क्यों न इसी पर अपनी-अपनी सीखी हुई विद्याओं की परीक्षा ली जाए ।’ इस पर दोनों भाईयों ने अपनी सहमति जताई किंतु छोटा भाई सुबुद्धि चुप बैठा रहा । तब बड़े भाई ने उन अस्थियों को चुना और उन्हें आकार दे दिया । दूसरे ने अपनी विद्या से उस आकार में मांस-मज्जा रुधिर आदि का सृजन कर दिया ।

अब एक शेर की आकृति स्पष्ट नजर आने लगी । तीसरा जैसे ही अपनी विद्या से उसमें प्राण संचार करने को हुआ कि तभी सबसे छोटे भाई सुबुद्धि ने उसे टोका । वह बोला : ‘ठहरो भैया ! बिना विचारे इसमें प्राण मत डालो । यह हिंसक जीव है । जीवित होते ही हम पर आक्रमण कर देगा ।’

लेकिन तीसरा न माना । उसने कहा : ‘जब मेरे दोनों भाईयों ने अपनी विद्या का चमत्कार दिखा दिया है तो मैं ही क्यों पीछे हटूँ ? मैं इस सिंह में प्राण-संचार अवश्य करूंगा ।’ ‘यदि ऐसा है तो पहले मुझे पेड़ पर चढ़ जाने दो तत्पश्चात् इसे जीवित करना ।’ यह कहते हुए सबसे छोटा भाई सुबुद्धि दौड़कर एक वृक्ष पर चढ़ गया ।

तीसरे ने जैसे ही अपनी विद्या से सिंह के शरीर में प्राण फूंके सिंह अंगड़ाई लेता हुआ उठ खड़ा हुआ । फिर जैसे ही उसकी नजर तीनों भाईयों पर पड़ी उसने उन्हें दबोच लिया और चीर-फाड़ कर खा गया । सिंह जब वहां से चला गया तो छोटा भाई पेड़ से उतरा और घर को लौट गया ।

उसको अपने भाईयों के मरने का बड़ा दु:ख था । किंतु वह कर भी क्या सकता था । बुद्धिहीन उसके भाईयों ने स्वयं ही तो मृत्यु को आमंत्रण दिया था । परिणाम सोचे बिना जो काम करता है उसका अंत ऐसा ही होता है ।

यह कथा सुनाकर सुवर्णसिद्धि बोला : ‘शास्त्रों में कुशल होने पर भी लोक-व्यवहार से अनभिज्ञ व्यक्ति उपहास का पात्र बनता है । चार ब्राह्मण जो प्रकांड पंडित थे लेकिन लोक व्यवहार से अनभिज्ञ थे इसी प्रकार उपहास का पात्र बन गए थे ।’ चक्रधर ने पूछा : ‘कौन थे वे पंडित ?’ तब सुवर्णसिद्धि ने उसे यह कथा सुनाई ।


Hindi Story # 7 (Kahaniya)

चार मूर्ख पंडित |

किसी नगर में चार ब्राह्मण रहते थे । चारों विद्याध्ययन के लिए कन्याकुब्ज गए । वहां निरंतर बारह वर्ष तक विद्याध्ययन के बाद वे संपूर्ण शास्त्रों के पारंगत विद्वान हो गए । किंतु व्यवहार-बुद्धि में चारों खाली थे । विद्याध्ययन के बाद चारों स्वदेश के लिए लौट पड़े ।

कुछ दूर चलने के बाद रास्ता दो ओर पड़ता था । किस मार्ग जाना चाहिए इसका कोई भी निश्चय न करने पर वे वहीं बैठ गए । उसी समय वहां से एक मृत वैश्य बालक की अर्थी निकली । अर्थी के साथ बहुत-से महाजन भी थे । ‘महाजन’ नाम से उनमें से एक को कुछ याद आ गया ।

उसने पुस्तक के पन्ने पलट कर देखे तो लिखा था-महाजनो येन गत: स पन्था:, अर्थात् जिस मार्ग से महाजन जाएं वही मार्ग है । पुस्तक में लिखे को बस्म वाक्य मानने वाले चारों पंडित महाजनों के पीछे-पीछे श्मशान की ओर चल पड़े ।

थोड़ी दूर श्मशान में उन्होंने एक गधे को खड़ा हुआ देखा । गधे को देखते ही उन्हें शास्त्र की यह बात याद आ गई-राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धव:, अर्थात् राजद्वार और श्मशान में जो खड़ा हो वह भाई होता है । फिर क्या था चारों ने उस श्मशान में खड़े गधे को भाई बना लिया ।

कोई उसके गले से लिपट गया तो कोई उसके पैर धोने लगा । इतने में एक ऊंट उधर से गुजरा । उसे देखकर सब सोचने लगे कि यह कौन है । बारह वर्ष तक विद्यालय की चारदीवारी में रहते हुए उन्हें पुस्तकों के अतिरिक्त संसार की किसी वस्तु का ज्ञान नहीं था । ऊंट को वेग से भागते हुए देखकर उनमें से एक की पुस्तक में लिखा यह वाक्य याद आ गया-धर्मस्य त्वरिता गति:, अर्थात् धर्म की गति में बड़ा वेग होता है ।

उन्हें निश्चय हो गया कि वेग से जाने वाली यह वस्तु अवश्य धर्म है । उसी समय उनमें से एक को याद आया-इष्ट धर्मेण योजयेत्, अर्थात् धर्म का संयोग इष्ट से करा दे । उनकी समझ में इष्ट बान्धव था गधा । दोनों का संयोग कराना उन्होंने शास्त्रोक्त मान लिया ।

बस खींच-खांचकर उन्होंने ऊंट के गले में गधा बांध दिया । वह गधा एक धोबी का था । जब उसे पता लगा तो वह भागा आया । उसे अपनी ओर आता देखकर चारों शास्त्रपारंगत पंडित वहां से भाग खड़े हुए । थोड़ी दूर पर एक नदी थी । नदी में पलाश का एक पत्ता तैरता हुआ आ रहा था ।

उसे देखते ही उनमें से एक को याद आ गया-आगमिष्यति यत्पत्र दअस्मांस्तारयिष्यति अर्थात् जो पत्ता तैरता आएगा वही हमारा उद्धार करेगा । उद्धार की इच्छा से वह मूर्ख पंडित पत्ते पर लेट गया । पत्ता पानी में डूब गया तो वह भी डूबने लगा । केवल उसकी शिखा पानी से बाहर रह गई ।

इसी तरह बहते-बहते जब वह दूसरे मूर्ख पंडित के पास पहुंचा तो उसे एक और शास्त्रोक्त वाक्य याद आ गया-सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धत्यजति पंडित:, अर्थात् सम्पूर्ण का नाश होते देखकर आधे को बचा ले और आधे का त्याग कर दे । यह याद आते ही उसने बहते हुए पूरे आदमी का आधा भाग बचाने के लिए उसकी शिखा पकड़ कर गरदन काट दी ।

उसके हाथ में केवल सिर का हिस्सा आ गया । देह पानी में बह गई । उन चारों में से अब तीन रह गए । गांव पहुंचने पर तीनों को अलग-अलग घरों में ठहराया गया । वहां उन्हें जब भोजन दिया गया तो एक ने सभी को यह कहकर छोड़ दिया-दीर्घसूत्री निनश्यति अर्थात् दीर्घ तन्तु वाली वस्तु नष्ट हो जाती है ।

दूसरे को रोटियां दी गई तो उसे याद आ गया-अतिविस्तार विस्तीर्ण तद्‌भवेन्न चिरायुषम् अर्थात् बहुत फैली हुई वस्तु आयु को घटाती है । तीसरे को छिद्र वाली वटिका दी गई तो उसे याद आ गया-छिद्रध्वनर्था बहेली भवन्ति, अर्थात् छिद्र वाली वस्तु में बहुत अनर्थ होते हैं । परिणाम यह हुआ कि तीनों की जग-हंसाई हुई और तीनों भूखे भी रहे ।

यह कथा सुनने के बाद चक्रधर सुवर्णसिद्धि से बोला : ‘मित्र ? तुम ठीक कहते हो । किसी ने ठीक ही कहा है कि जो बुद्धिहीन हो और अपने मित्र का कहना भी न माने वह उसी तरह मृत्यु को प्राप्त होता है जैसे मंथरक जुलाहा मारा गया था ।’


Hindi Story # 8 (Kahaniya)

मित्र की शिक्षा मानो |

किसी गांव में मंथरक नाम का एक जुलाहा रहता था । एक बार कपड़ा बुनते समय उसके सब उपकरण टूट गये । नये उपकरण बनाने के लिए उसे लकड़ी की आवश्यकता महसूस हुई तो वह कुन्हाड़ी लेकर जंगल की ओर निकल पड़ा ।

घूमता-घामता वह समुद्र तट पर जा पहुंचा जहां उसे एक शीशम का वृक्ष खड़ा दिखाई दे गया । उसने सोचा कि इसकी लकड़ी से उसके एक उपकरण बन जाएंगे । यह सोच कर वह वृक्ष के तने में कुल्हाड़ी मारने ही वाला था कि वृक्ष की शाख पर बैठे हुए एक यक्ष ने उससे कहा : ‘मैं इस वृक्ष पर आनंद से रहता हूं और समुद्र की शीतल हवा का आनंद लेता हूं ।

तुम इस वृक्ष को नहीं काट सकते ।’ दूसरे के सुख को छीनने वाला कभी सुखी नहीं रहता ।’ यक्ष की बात सुनकर जुलाहा बोला : ‘मैं भी लाचार हूं । मेरे बुनने के सारे उपकरण टूट गए हैं । लकड़ी के बिना वे कैसे बनेंगे ? और अगर उपकरण नहीं होंगे तो मैं बुनाई कैसे करूंगा ? मेरी तो रोजी-रोटी उसी से चली है ।

काम नहीं होगा तो मैं और मेरा परिवार भूखा मर जाएगा । इसलिए अच्छा यही है कि आप किसी दूसरे वृक्ष पर अपना आवास बना लें । मैं इस वृक्ष की लकड़ी काटने को विवश हूं ।’ यक्ष बोला : ‘मैं तुम्हारे उत्तर से प्रसन्न हूं । तुम मुझ से कोई भी एक वरदान मांग लो किंतु इस वृक्ष की लकड़ी मत काटो ।’

जुलाहा बोला : ‘यदि ऐसी बात है तो मैं घर जाकर अपनी पत्नी और मित्रों से पूछ कर आता हूं । उसके बाद ही आप मुझे कोई वरदान दें ।’  यक्ष बोला : ‘ठीक है मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा ।’ गांव पहुंचने पर जुलाहे की भेंट अपने एक मित्र नाई से हो गई ।

उसने उससे पूछा : ‘मित्र एक यक्ष मुझे वरदान दे रहा है, मैं तुमसे पूछने आया हूं कि कौन-सा वरदान मांगा जाए ?’ नाई बोला : ‘यदि ऐसा है तो तुम उससे कोई राज्य मांग लो । तुम राजा बन जाओगे और मैं तुम्हारा मंत्री बन जाऊंगा ।’

जुलाहा बोला : ‘तुम्हारा कहना ठीक है । फिर भी मैं अपनी पत्नी से सलाह किए लेता हूं । नाई बोला : ‘क्या बात करते हो ? स्त्री से परामर्श करना नीति विरुद्ध है । स्त्रियों में बुद्धि ही कितनी होती है ?  अपने सुख साधन के अतिरिक्त उन्हें कुछ और नहीं सूझता ।

समझदार लोगों का मानना है कि जिस घर में स्त्री की चलती है वह घर जल्दी ही नष्ट हो जाता है ।’ जुलाहा बोला : ‘बात तो तुम्हारी ठीक ही है । पर वह मेरी अर्द्धांगनी है । वह एक नेक और पतिव्रता स्त्री है मैं उससे परामर्श अवश्य करूंगा ।’ यह कहकर जुलाहा नाई से विदा लेकर अपनी पत्नी के पास पहुंचा ।

उसने यक्ष द्वारा वरदान देने की बात तथा अपने मित्र नाई के साथ हुआ वार्तालाप पत्नी को बता दिया । उसकी पत्नी बोली : ‘छि: नाई की भी कोई बुद्धि होती है । नाई और भाट जैसे व्यक्तियों से तो कभी कोई परामर्श करना ही नहीं चाहिए । और फिर तुम उस यक्ष से राज्य मांगने की सोच रहे हो ।

राज्य कार्यो से इतना अवकाश ही नहीं मिलता है कि व्यक्ति चैन की नींद सो सके । राजमुकुट तो कांटों का ताज होता है । ऐसे राज्य से फायदा ही क्या जहां सुख न मिल सके ।’ पत्नी की बात सुनकर जुलाह बोला : ‘बात तो तुम्हारी ठीक है प्रिये ! राजा राम और राजा नल जैसे पराक्रमी राजाओं को भी राज्य मिलने से कोई सुख नहीं मिला था ।

हमें भी कैसे मिल सकता है । किंतु प्रश्न यह है कि उस यक्ष से राज्य न मांगू तो और क्या मांगू ?’ जुलाहे की पत्नी बोली : ‘तुम रोजाना एक कपड़ा बुनते हो । उससे हमारे घर का खर्च चलता है । उस यक्ष से तुम दो हाथ एक सिर और मांग लो इससे दोगुना काम होगा ।

एक के मूल्य से हम घर का खर्च चला लेंगे दूसरे के मूल्य से अन्य खर्चे पूरे हो जाएंगे । इससे हमारी जाति में हमारी प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी और हम आनंदपूर्व जीवन भी व्यतीत कर सकेंगे ।’ जुलाहे ने वैसा ही किया । यक्ष के वरदान से उसके शरीर पर दो हाथ तथा एक सिर और पैदा हो गया ।

किंतु ऐसी हालत में जब वह गांव में पहुंचा तो गांव वालों ने उसे कोई राक्षस समझ लिया । वे लोग लाठी-डण्डे लेकर जुलाहे पर टूट पड़े और उसे पीट-पीट कर मार डाला । चक्रधर से यह कथा सुनने के बाद सुवर्णसिद्धि ने कहा : ‘उस जुलाहे को ठीक ही दण्ड मिला ।

अपनी पत्नी की सलाह न मानकर यदि वह अपने मित्र नाई की सलाह मानता तो उसकी जान तो बच जाती । लालच के वशीभूत होकर कुछ लोग ऐसे काम कर जाते हैं जिनसे उनका अपना अपमान तो होता ही है जग-हंसाई होती है सो अलग । तुमने भी मेरी बात नहीं मानी । रत्न मिलने के लालच में तुम आगे बढ़ते ही गए परिणाम तुम्हारे सामने है ।

चक्रधर बोला : ‘मित्र मुझे इस कष्ट से छुटकारा दिलाओ ।’ सुवर्णसिद्धि बोला : ‘तुम्हें इस कष्ट से छुड़ाना मेरी शक्ति से बाहर है । बल्कि मुझे भय है कि कहीं तुम्हारे संसर्ग से मैं भी इसी कष्ट से पीड़ित न हो जाऊं । अब मेरा यहां से दूर भाग जाना ही ठीक है ।  नहीं तो मेरी अवस्था भी विकाल राक्षस के पंजे में फंसे वानर जैसी हो जाएगी ।’


Hindi Story # 9 (Kahaniya)

राक्षस और वानर |

एक नगर में भद्रसेन नाम का राजा रहता था । उसकी एक कन्या थी जिसका नाम रत्नवती था । उसे हर समय यही डर रहता था कि कोई राक्षस उसका अपहरण न कर ले । उसके महल के चारों ओर पहरा रहता था फिर भी वह सदा डर से कांपती रहती थी ।

रात के समय उसका डर और भी बढ़ जाता था । एक रात एक राक्षस पहरेदारों की नजर बचाकर रत्नवती के कक्ष में घुस गया । कक्ष के एक अंधेरे कोने में जब वह छिपा हुआ था तो उसने सुना कि रत्नवती अपनी एक सहेली से कह रही है-यह दुष्ट विकाल मुझे हर समय परेशान करता है इसका कोई उपाय कर ।

राजकुमारी रत्नवती के मुख से यह सुनकर राक्षस ने सोचा कि अवश्य ही विकाल नाम का कोई दूसरा राक्षस होगा जिससे राजकुमारी इतनी डरती है । किसी तरह यह जानना चाहिए कि वह कैसा है कितना बलशाली है । यह सोचकर वह घोड़े का रूप धारण करके अश्वशाला में जा छिपा ।

उसी रात कुछ देर बाद एक चोर उस राजमहल में आया वह वहां घोड़ों की चोरी करने के लिए ही आया था । अश्वशाला में जाकर उसने घोड़ों की देखभाल की और अश्वरूपी राक्षस को ही सबसे सुंदर घोड़ा देखकर वह उसकी पीठ पर चढ़ गया ।

अश्वरूपी राक्षस ने समझा कि अवश्य ही यह व्यक्ति विकाल राक्षस है और मुझे पहचान कर मेरी हत्या के लिए ही यह मेरी पीठ पर चढ़ा है । किंतु कोई चारा नहीं था । उसके हाथ में लगाम आ चुकी थी । चोर के हाथ में चाबुक थी । चाबुक लगते ही वह भाग खड़ा हुआ ।

कुछ दूर जाकर चोर ने उसे रोकने के लिए लगाम खींची लेकिन घोड़ा भागता ही गया । उसका वेग कम होने के स्थान पर बढ़ता ही गया । तब चोर के मन में शंका हुई यह घोड़ा नहीं बल्कि घोड़े की सूरत में कोई राक्षस है, जो मुझे मारना चाहता है ।

किसी ऊबड़-खाबड़ जगह पर ले जाकर यह मुझे पटक देगा और मेरी हड्‌डी-पसली टूट जाएगी ।’ चोर यह सोच ही रहा था कि सामने वट वृक्ष की एक शारत्रा आई । घोड़ा उसके नीचे से गुजरा । चोर ने घोड़े से बचने का उपाय देखकर शाखा को दोनों हाथों से पकड़ लिया ।

घोड़ा नीचे से गुजर गया चोर वृक्ष की शाखा से लिपट कर बच गया । उसी वृक्ष पर अश्वरूपी राक्षस का एक मित्र बंदर रहता था । उसने डरकर भागते हुए अश्वरूपी राक्षस को बुलाकर कहा : ‘मित्र ! डरते क्यों हो ? यह कोई राक्षस नहीं बल्कि मामूली मनुष्य है । तुम चाहो तो इसे क्षण में खाकर हजम कर लो ।’

चोर को बंदर पर बड़ा क्रोध आ रहा था । बंदर दूर ऊंची शाखा पर बैठा हुआ था । किंतु उसकी लंबी पूंछ चोर के मुख के सामने लटक रही थी । चोर ने क्रोधवश उसकी पूंछ को अपने दांतों में भींच कर चबाना शुरू कर दिया ।

बंदर को पीड़ा तो बहुत हुई लेकिन मित्र राक्षस के सामने चोर की शक्ति को कम बताने के लिए वह वहां बैठा ही रहा । फिर भी, उसके चेहरे पर पीड़ा की छाया साफ नजर आ रही थी । यह कथा सुनाकर सुवर्णसिद्धि ने चक्रधर से घर जाने की आज्ञा मांगी और उसे लोभ-वृक्ष का फल खाने के लिए वहीं ठहरने का उलाहना दिया ।

चक्रधर ने कहा : ‘मित्र ! उपालंभ देने से क्या लाभ ? यह तो दैव का संयोग है । अंधे, कुबड़े और विकृत शरीर व्यक्ति भी संयोग से जन्म लेते हैं, उनके साथ भी न्याय होता है। उनके उद्धार का भी समय आता है। एक राजा के घर विकृत कन्या हुई थी ।

दरबारियों ने राजा से निवेदन किया कि ब्राह्मणों को बुलाकर इसके उद्धार का प्रश्न कीजिए । मनुष्य को सदा जिज्ञासु रहना चाहिए, और प्रश्न पूछते रहना चाहिए । एक बार राक्षसेत्र के पंजे में पड़ा हुआ ब्राह्मण केवल प्रश्न के बल पर छूट गया था । प्रश्न की बड़ी महिमा है।


Hindi Story # 10 (Kahaniya)

जिज्ञासु बनो |

किसी जंगल में चण्डकमी नाम का एक राक्षस रहता था । उसी जंगल से एक दिन एक ब्राह्मम गुजर रहा था । जंगल में उसे घूमते-घूमते उसके कंधे पर एक राक्षस बैठ गया ब्राह्मण ने राक्षक से पूछा कि मेरे कंधे पर क्यों बैठे हो । ब्राह्मण के प्रश्न पर वह बोला : ‘ब्राह्मण मैंने व्रत लिया हुआ है । गीले पैरों से मैं जमीन को नहीं छू सकता । इसीलिए तेरे कंधे पर बैठा हूं ।’

थोड़ी दूर पर एक जलाशय था । जलाशय में स्नान के लिए जाते हुए राक्षस ने ब्राह्मण को सावधान कर दिया कि जब तक मैं स्नान करता हूं तू यहीं बैठ कर मेरी प्रतीक्षा कर । राक्षस की इच्छा थी कि वह स्नान के बाद ब्राह्मण का वध करके उसे खा जाएगा ।

ब्राह्मण को भी इसका संदेह हो गया था । अत: ब्राह्मण अवसर पाकर वहां से भाग निकला । उसे मालूम हो चुका था कि राक्षस गीले पैरों से जमीन नहीं छू सकता इसलिए वह उसका पीछा नहीं कर सकेगा । ब्राह्मण यदि राक्षस से प्रश्न न करता तो उसे यह भेद कभी मालूम न होता ।

अत: मनुष्य को प्रश्न करने से कभी चूकना नहीं चाहिए । प्रश्न करने की आदत अनेक बार उसकी जीवन रक्षा कर देती है । यह कहानी सुनकर सुवर्णसिद्धि ने कहा : ‘यह तो ठीक ही है, दैव अनुकूल हो तो सब काम स्वयं हो जाते हैं । फिर भी पुरुष को श्रेष्ठ मित्रों के वचनों का पालन करना ही चाहिए । स्वेच्छाचार बुरा है ।

मित्रों की सलाह से मिल-जुलकर और एक-दूसरे का भला चाहते हुए ही सब काम करने चाहिए । जो लोग एक-दूसरे का भला नहीं चाहते और स्वेच्छा से काम करते हैं उनकी दुर्गति वैसी ही होती है जैसी स्वेच्छाचारी भारण्ड पक्षी की हुई थी ।


Hindi Story # 11 (Kahaniya)

मिल कर करो काम |

एक तालाब में भारण्ड नाम का एक विचित्र पक्षी रहता था । उसके दो मुख थे, किंतु पेट एक ही था । एक दिन समुद्र के किनारे घूमते हुए एक अमृत समान मधुर फल मिला । यह फल समुद्र की लहरों ने किनारे पर फेक दिया गया था । उसे खाते हुए एकमुख बोला : ‘वाह ! कितना मीठा फल है यह ।

आज तक मैंने अनेक फल खाए लेकिन इतना मधुर व स्वादिष्ट फल कभी नहीं खाया । न जाने किस अमृत बेल का फल है यह ।’ दूसरा मुख उससे वंचित रह गया था । उसने भी जब उसकी महिमा सुनी तो उसने पहले मुख से कहा : ‘मुझे भी थोड़ा-सा चखने को दे दे ।’

पहला मुख हंस कर बोला : ‘तुझे क्या करना है ? हमारा पेट तो एक ही है, उसमें वह चला भी गया है । तृप्ति तो हो ही गई है । यह कह कर उसने शेष फल अपनी प्रियसी को दे दिया । उसे खाकर उसकी प्रेयसी बहुत प्रसन्न हुई ।

दूसरा मुख उसी दिन विरक्त हो गया और इस तिरस्कार का बदला लेने के उपाय सोचने लगा । अंत में एक दिन उसे एक उपाय सूझ गया । वह कहीं से एक विषैला फल ले आया और प्रथम मुख को दिखाते हुए बोला : ‘देख ! यह विषफल मुझे मिला है । मैं इसे खा रहा हूं ।’

प्रथम मुख ने उसे रोकते हुए आग्रह किया : ‘मूर्ख ! ऐसा मत कर । इसे खाने से हम दोनों मर जाएंगे ।’ द्वितीय मुख ने प्रथम मुख के मना करते-करते अपने अपमान का बदला लेने के लिए वह विषफल खा लिया । परिणाम यह हुआ कि दोनों मुखों वाला पक्षी मर गया ।

चक्रधर इस कहानी का अभिप्राय समझ कर सुवर्णसिद्धि से बोला : ‘अच्छी बात है । मेरे पापों का फल तुझे नहीं भोगना चाहिए । तू अपने घर लौट जा । किंतु अकेले मत जाना । संसार में कुछ काम ऐसे हैं, जो एकांकी नहीं करने चाहिए ।

अकेले सुस्वादु भोजन नहीं खाना चाहिए । सोने वालों के बीच अकेले जागना ठीक नहीं मार्ग पर अकेले चलना जटिल विषयों पर अकेले सोचना नहीं चाहिए । मार्ग में कोई भी सहायक हो तो वह जीवन-रक्षा कर सकता है जैसे केकड़े ने सांप को मार कर प्राण रक्षा की थी ।’


Hindi Story # 12 (Kahaniya)

मार्ग का साथी |

किसी गांव में बहमदत्त नाम का एक ब्राह्मण रहता था । एक दिन उसे किसी दूसरे गांव से एक संदेश प्राप्त हुआ । संदेश के अनुसार उस ब्राह्मण का वहां पहुंचना अतिआवश्यक था । यह बात उसने अपनी माता से कही तो उसकी ताता ने परामर्श किया: ‘पुत्र, अकेले मत जाना ।

किसी को साथ ले लेना ।’ ब्राह्मण बोला : ‘मां तुम चिंता मत करो । वहां का रास्ता मेरा खूब देखा-भाला है । रास्ते में कोई डर की बात नहीं है । इसलिए मैं अकेला ही वहां आराम से चला जाऊंगा ।’ मां का सम्मान करते हुए ब्राह्मण ने अनमने भाव से एक केकड़ा ले लिया और उसे एक कपूर की डिबिया में बंद करके थैले में रख लिया ।

फिर वह अपनी यात्रा पर निकल गया । थोड़ी देर बाद जब वह थक गया और धूप की गर्मी उसे सताने लगी तो वह एक घने वृक्ष की छाया में विश्राम करने लगा । उस वृक्ष की कोटर में एक काला सर्प रहता था । ब्राह्मण के थैले से कपूर की खुशबू आ रही थी सर्प को उस खुशबू का आभास हुआ तो वह कोटर से बाहर निकल आया और ब्राह्मण के निकट पहुंच कर उस डिबिया को खोजने की कोशिश करने लगा, जिसमें केकड़ा रखा हुआ था ।

जैसे ही डिबिया खुला, केकड़ा डिबिया से बाहर निकल आया और सर्प के गले में चिपट गया । उसके संडानीनुमा पंजों में फंस कर सर्प छटपटाने, लगा लेकिन केकड़ेने उसे नहीं छोड़ा । अंत में सर्प की श्वास नली कट गई और उसने वहीं दम तोड़ दिया ।

कुछ देर बाद ब्राह्मण जागा तो देखा कि पास ही एक काला नाग मरा पड़ा है । उसके समीप ही कपूर की एक डिबिया भी खुली पड़ी थी । ब्राह्मण समझ गया कि केकड़े ने ही सर्प को मारा है । उस समय उसको अपनी माता का कथन याद आ गया, और वह सोचने लगा, मां ठीक ही कहती थी ।

पुरुष को कभी अकेले यात्रा नहीं करनी चाहिए । मैंने उस समय मां की बात न मानी होती तो आज जीवित नहीं होता । चक्रधर से यह कथन सुनने के बाद सुवर्णासिद्धि को संतोष हो गया । उसने अपने मित्र से अनुमति मांगी और अपने घर की ओर लौट पड़ा ।