List of Short Stories of Tenali Raman for Kids in Hindi!

Tenali Raman Story # 1. दंड |

तेनालीराम ने एक बार राजा से यह वचन ले लिया था कि अगर कभी मुझसे कोई अपराध हो जाए तो फैसला करने के लिए पंचों का चुनाव मैं स्वयं ही करूंगा । महाराज ने वचन दे दिया । उन्हें पूरा विश्वास था कि तेनालीराम से कोई अपराध नहीं होगा और यह वचन, वचन ही रहेगा ।

किंतु कुछ दिनों बाद तेनालीराम ने हंसी-हंसी में कोई ऐसी बात कह दी जो महाराज की दृष्टि में अपराध था । उन्होंने तेनालीराम से कहा : ”तुम्हें तुम्हारी उद्दंडता के लिए दंड दिया जाएगा ।” ”ठीक है महाराज! किंतु महाराज को स्मरण होगा कि वे मुझे अपने किसी भी अपराध के लिए दण्ड देने के लिए पंच चुनने का अधिकार मुझे दे चुके हैं ।”

”हां याद है । तुम्हें पंच चुनने की आज्ञा है ।” तेनालीराम ने नगर के मजदूरों में से पांच आदमियों को चुन लिया । सब दरबारी और स्वयं महाराज भी तेनालीराम का चुनाव देखकर हैरान हो गए कि ये लोग भला क्या पंचायत करेंगे । खैर! पंचों को आसन दिए गए ।

इधर पंचों की प्रसन्नता का भी कोई अंत न था । जीवन में पहली बार उन्हें यह सम्मान और सौभाग्य मिला था । सारी बात सुनकर पंच आपस में सलाह मशवरा करने लगे । एक ने कहा, ”तेनालीराम ने राजा के सामने उद्दंडता दिखाई है । उस पर कम से कम बीस स्वर्ण मुद्राएं जुर्माना होना चाहिए ।”

दूसरे पंच को लगा कि बीस स्वर्ण मुद्राएं तो बहुत हैं । तेनालीराम ठहरा बाल-बच्चों वाला आदमी । वह बोला, ”नहीं भई, बीस तो बहुत होंगी । पन्द्रह स्वर्ण मुद्राएं ठीक हैं ।” तीसरे पंच ने कहा, ”पन्द्रह स्वर्ण मुद्राएं क्या कम होती हैं ? दस से अधिक स्वर्ण मुद्राओं का दंड देना अन्याय होगा ।”

चौथा कुछ अधिक ही दयावान था । बोला, ”आप लोग ही सोचिए हममें से किसी को दस स्वर्ण मुद्राओं का जुर्माना हो, तो हमारी क्या हालत होगी, इसलिए मेरी राय तो पांच की है ।” पांचवें ने कहा, ”पांच ठीक है । इतने में ही तेनालीराम की अक्ल ठिकाने आ जानी चाहिए ।

पांच स्वर्ण मुद्राओं के दंड का फैसला सुनकर राजा और सारे दरबारी दंग रह गए । उन्होंने स्वप्न में भी न सोचा था कि तेनालीराम इतना सस्ता छूट जाएगा । लेकिन हरेक का विचार था कि तेनालीराम की सूझबूझ इस बार भी काम कर गई ।

उसने पंचों के रूप में ऐसे व्यक्तियों को चुना था, जिनके लिए पांच स्वर्ण मुद्राएं भी बहुत बड़ी बात थी । अगर फैसला राजा ने दिया होता तो तेनालीराम को कम से कम एक हजार स्वर्ण मुद्राओं का दंड दिया जाता, लेकिन तेनालीराम इस बार फिर साफ बच निकला था ।


Tenali Raman Story # 2. परीक्षा |

मुगल बादशाह ने अपने दरबारियों से तेनालीराम की बहुत प्रशंसा सुनी थी । एक दरबारी ने कहा, ”आलमपनाह, सुनने में आया है कि तेनालीराम की हाजिर-जवाबी और अक्लमंदी बेमिसाल है ।”

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बादशाह इस बात की सत्यता परखना चाहता था । उसने राजा कृष्णदेव राय को एक मित्रतापूर्ण पत्र भेजा, जिसमें उसने निवेदन किया कि तेनालीराम को एक मास के लिए दिल्ली भेज दिया जाए जिससे उसकी सूझबूझ का इस्तिहान लिया जा सके ।

कृष्णदेव राय ने तेनालीराम को विदा करते समय कहा, ”तेनालीराम! तुम्हारी सूझबूझ और बुद्धिमानी की परीक्षा का समय आ गया है । जाओ और अपना कमाल दिखाओ । अगर तुम पुरस्कार ले आए तो हम भी तुम्हें एक हजार स्वर्ण मुद्राएं देंगे और अगर तुम पुरस्कार न प्राप्त कर सके तो इसके लिए तुम्हें दंड मिलेगा; क्योंकि तुम्हारी हार हम अपनी हार मानेंगे ।”

तेनालीराम के दिल्ली पहुंचने की सूचना जब बादशाह को मिली तो उसने अपने दरबारियों से कहा, ”हम इस आदमी का इस्तिहान लेना चाहते हैं । मेरी ताकीद है कि आप लोग इसके कारनामों पर न तो हंसे और न वाह-वाह करें । यह आदमी यहां से आसानी से इनाम हासिल करके न ले जाने पाए ।”

दरबार में पहुंचकर तेनालीराम ने अपनी बातों से बादशाह और दरबारियों पर प्रभाव जमाने की चेष्टा की, किंतु असफल रहे । उनकी बातें सुनकर हंसना तो दूर किसी ने वाह-वाह भी नहीं की । यह क्रम पंद्रह दिन तक चलता रहा, लेकिन कोई लाभ न हुआ ।

अब तेनालीराम समझ गए कि दाल में कुछ काला है । सोलहवें दिन से तेनालीराम ने दरबार जाना छोड़ दिया । एक दिन बादशाह रोज की तरह सैर को निकला । उसके साथ एक सेवक भी था, जिसके हाथों में अशर्फियों की थैलियां थीं ।

बादशाह ने देखा कि सड़क के किनारे एक बेहद बूढ़ा व्यक्ति गड़ा खोदकर उसमें आम का पौधा लगा रहा था । उस व्यक्ति की कमर झुकी हुई थी । सिर के बाल ही नहीं भवें तक सफेद थीं जो उसकी बड़ी उस की जली कर रही थीं ।

बादशाह ने उसके पास जाकर कहा, ”बूढ़े मियां, यह क्या कर रहे हो ?” ”आम का पेड़ लगा रहा हूं । समय आने पर फल लगेंगे ।” ”लेकिन आप तो उम्र दराज हैं, इस पेड़ के फल खाने के लिए आप तो शायद ही रहें, फिर इतनी मेहनत से क्या फायदा ?”

”आलमपनाह, मेरे अब्बाजान ने जो पेड़ लगाए थे । उनके फल मुझे खाने को मिले । इसी तरह मेरे लगाए हुए पेड़ के फल कोई और खाएगा । जब अब्बाजान ने मेरे लिए पेड़ लगाए तो मैं आने वाली पीढ़ियों के लिए ऐसा क्यों न करूं ?” बूढ़ा बोला ।

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”हमें आपकी बात पसन्द आई ।” बादशाह खुश होकर बोला । बादशाह के कहते ही नौकर ने सौ अशर्फियों की एक थैली बूढ़े को दे दी । ”बादशाह सलामत बहुत मेहरबान हैं ।” बूढ़े ने कहा, ”सब लोग पेड़ के बड़े हो जाने पर उसके फल पाते हैं । मुझे पौधा लगाने से ही फल प्राप्त हो गया । दूसरों की भलाई का विचार करने भर का ही नतीजा कितना अच्छा है!”

”बहुत खूब!” कहकर बादशाह ने फिर सेवक की ओर देखा । सेवक ने एक और थैली बूढ़े को थमा दी । बूढ़ा फिर बोला, ”बादशाह सलामत की मुझ पर बहुत मेहरबानी है । यह पेड़ तो जब पूरा जवान हो जाएगा तो एक साल में एक बार फल देगा, लेकिन जहांपनाह ने तो इसे लगाने के दिन ही दो बार मेरी झोली भर दी ।”

”हमें यह बात भी बेहद पसंद आई ।” बादशाह ने कहा । नौकर ने फिर एक थैली बूढ़े को दे दी । बादशाह ने हंसते हुए अपने नौकर से कहा, ”यहां से निकल चलो, नहीं तो यह आदमी ऐसी लच्छेदार बातें करके हमारा खजाना ही खाली कर देगा ।”

”एक पल इंतजार कीजिए जहांपनाह ।” कहकर बूढ़े ने अपने ऊपर के कपड़े और नकली दाढ़ी मूंछें उतार दीं । बादशाह चौंका । देखा, सामने तेनालीराम खड़ा था । ”बादशाह सलामत बहुत दरियादिल हैं । तेनालीराम ने कुछ ही देर में जहांपनाह से तीन बार ईनाम हासिल किया है ।” तेनालीराम ने मुस्कराकर कहा ।

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बादशाह ने कहा, ”तेनालीराम । तुम्हारी जैसी प्रसिद्धि हमने सुनी थी, तुम्हें वैसे ही  पाया । तुमने सिद्ध कर दिया कि जो इनामो-इकराम तुमने आज तक हासिल किया है, तुम उसके सच्चे अधिकारी थे ।”  तेनालीराम वापस विजयनगर आया और राजा कृष्णदेव राय को सारी कहानी सुनाई तो राजा ने प्रसन्न होकर उसे एक हजार स्वर्ण मुद्राएं और पुरस्कार में दीं ।


Tenali Raman Story # 3. बंद आखों का जादुई करिश्मा |

एक बार विजय नगर दरबार में एक जादूगर आया । वह जादूगर कम और हाथ की सफाई दिखाने वाला कलाकार अधिक था । राजदरबार में उसने तरह-तरह के खेल दिखाए । पत्थरों को स्वर्ण मुद्राओं में बदल दिया ।

अपने हाथों से अपना सिर काटकर राजा को दिखाया । उसके करिश्मे देखकर पूरे दरबार में वाह-वाह होने लगी । लोगों की बेपनाह प्रशंसा पाकर वह कुछ गरूर में आ गया और अकड़कर बोला :  ”महाराज! आपके राज्य में है ऐसा कोई कलाकार जो मेरा मुकाबला कर सके ?”

महाराज चुप रहे । क्या जवाब देते ? वास्तव में फिलहाल ऐसा कोई कलाकार आज तक उनकी नजरों के सामने से नहीं गुजरा था जो उसका मुकाबला कर पाता । उन्हें चुप देखकर कलाकार और भी अधिक गरूर से भर गया और बोला : ”महाराज! मैं चुनौती देता हूं कि आपके राज्य का जो भी कलाकार मुझे हराएगा, उसके सामने अपना सिर हाजिर कर दूंगा ।”

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महाराज की भांति दरबारी भी चुप बैठे थे । किंतु तेनालीराम भला कहां चुऐप बैठने वाले थे । वे अपने स्थान से उठकर बोले : ”अरे ओ कलाकार! ज्यादा बढ़-चढ़कर बातें न बना । जो करिश्मा मैं बंद आखों से कर सकता हूं, तू खुली आखों से नहीं कर सकता ।”

उसके मुकाबले तेनालीराम को खड़े देखकर महाराज के चेहरे पर रौनक लौट आई । उन्हें तेनालीराम पर पूरा भरोसा था । वे जानते थे कि तेनालीराम हमारी प्रतिष्ठा पर औच नहीं आने देगा । तेनालीराम और उनकी खूबियों से अभी जादूगर वाकिफ नहीं था, अत: अकड़कर बोला : ”क्या बात करते हो ।

ऐसा भला कौन सा करिश्मा है जो तुम बंद आखों से कर सकते हो और मैं खुली आखों से नहीं कर सकता ?  ठीक है, यदि यही बात है, तो तुम अपना करिश्मा दिखाओ, अगर मैं हार गया तो मेरा सिर तुम्हारे सामने हाजिर होगा ।”

”ठीक है ।” तेनालीराम ने चुनौती स्वीकार कर ली और एक सेवक को बुलाकर उसके कान में कुछ कहा । आदेश पाते ही सेवक चला गया । कुछ देर बाद वह एक प्याला लेकर हाजिर हुआ, जिसमें पिसी हुई लाल मिर्च भरी थीं । तेनालीराम ने मिर्चों की मुट्ठी भरी और आखें बन्द करके उन्हें अपनी आखों पर डाल लिया ।

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फिर झाड़कर बोले : ”अब तुम खुली आखों से यही करिश्मा करके दिखाओ या अपनी हार स्वीकार करो ।” कलाकार तो उनका करिश्मा देखकर पहले ही हतप्रभ था । उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो चुकी थी । खुली औखें रखकर ऐसा करिश्मा तो उसके फरिश्ते भी नहीं कर सकते थे ।

तेनालीराम मुंह धोने चले गए । स्तब्ध सा कलाकार खड़ा रह गया । वापस आकर तेनालीराम ने कहा : ”अब तुम भी खुली आखों से ऐसा करिश्मा करके दिखाओ ।”  कलाकार आगे बढ़ा और हाथ जोड़कर तेनालीराम के सामने सिर झुका दिया : ”मेरा सिर हाजिर है । मैं ऐसा करिश्मा नहीं कर सकता ।”

”तुम्हारा सिर मुझे नहीं चाहिए कलाकार । मैं तुम्हें एक शर्त पर क्षमा कर सकता  हूं । तुम्हें मुझे वचन देना होगा कि जीवन में कभी अपनी कला का घमंड नहीं  करोगे ।” ”मैं वचन देता हूं ।” कलाकार ने कहा और अपना साज-सामान समेट कर चलता बना । तेनालीराम की सूझबूझ देखकर महाराज ही नहीं, दरबारी भी बेहद प्रसन्न हुए ।


Tenali Raman Story # 4. पुरस्कार के अधिकारी |

विजय नगर की राजधानी में अनेक रामलीलाएं होती थीं । रामलीलाओं का मौसम आते ही कलाकारों की मंडलियां सक्रिय हो उठती । जगह-जगह मंच बन जाते और कलाकार अभ्यास करने लगते ।

कहीं रामजी की सवारी निकालने की तैयारी होती, तो कहीं श्रवण कुमार-दशरथ नाटक मंचन की तैयारी । सभी मंडलियों को यूं तो राजदरबार से प्रोत्साहन राशि मिलती थी, किंतु इस बार महाराज ने एक अलग ही घोषणा की-इस बार जो सबसे अच्छी रामलीला होगी, उसे राज-पुरस्कार दिया जाए । इसके लिए एक समिति बनाई गई । समिति में राज पुरोहित, सेनापति और मंत्री शामिल हो गए ।

तेनालीराम को जान-बूझकर समिति में नहीं लिया गया । तय हुआ कि समिति ही राज-पुरस्कार के लिए रामलीला का चुनाव करेगी । समिति के सदस्य जगह-जगह जाकर रामलीला देखने लगे । निश्चित दिन उन्होंने राजा को बता दिया कि अमुक रामलीला सर्वश्रेष्ठ है ।

राजा ने तेनालीराम से कहा, ”अब तुम एक समारोह का प्रबंध करो । इसी में उस रामलीला के मुख्य आकर्षण दिखाए जाएंगे और पुरस्कार भी दिया जाएगा ।” तेनालीराम ने भरे दरबार में कहा, ”महाराज, समिति ने सर्वश्रेष्ठ रामलीला का चुनाव सचमुच बड़ी सूझ-मुझ से किया है ।

क्यों न हो, यह रामलीला सर्वश्रेष्ठ कलाकारों ने की है । इस रामलीला मंडली वालों ने सदस्यों का भरपूर स्वागत किया है । उन्हें रेशमी शाल के साथ-साथ चंदन की बनी मूर्तियां और उत्तम किस्म का एक-एक शंख भी भेंट किया है । समिति के सदस्यों को मेरी बधाई ।”

सुनकर राजा चौंके । पता चल गया कि इसी प्रलोभन के कारण समिति ने उस मंडली की रामलीला को सर्वश्रेष्ठ ठहराया है । राजा ने तेनालीराम से राय ली । वह बोला, ”महाराज! यह पुरस्कार तो बालमंडली की रामलीला को मिलना चाहिए ।

पुरस्कार से प्रोत्साहन पाकर बचे आगामी वर्ष और भी उत्साह से रामलीला करेंगे । इसी बहाने बच्चे भगवान राम के सद्‌गुणों से प्रेरणा भी लेंगे ।” सभी दरबारियों ने तेनालीराम की बात का समर्थन किया । अपनी दाल न गलते देखकर राजपुरोहित सेनापति और मंत्री शर्म से पानी-पानी हो रहे थे ।


Tenali Raman Story # 5. विचित्र बैल |

एक बार एक व्यक्ति विजयनगर में आया । जिसने अपने आपको एक पहुंचा हुआ तांत्रिक बताया । उसके पास धातु से बना एक बैल था जो कौड़ियों से सजा हुआ था । वेह पहियों पर चलता था ।

तांत्रिक जहां-तहां मजमा लगता और कहता, ”बैल के कान में चुपके से मन की बात कहो । आपके प्रश्न का जवाब मिलेगा ।” लोग बात पूछते । वह तीन बार बैल के सिर पर थपकी देकर कहता, ”बोलो ।” बस, बैल आदमी की वाणी में बोलने लगता ।

पूरे नगर में उस अद्‌भूत बैल की चर्चा होने लगी । राजा कृष्णदेव राय के कानों में भी उस अद्‌भुत बैल और तांत्रिक की चर्चा पड़ी तो उन्होंने तांत्रिक को दरबार में बुलाया । सबसे पहले सेनापति ने बैल के कान में एक सवाल पूछा, ”क्या हम पड़ोसी राजा से जीत जाएंगे ।”

तांत्रिक ने बैल के सिर पर तीन बार थपकी दी । आवाज आई, ”जीत तो हो सकती है, मगर महाराज अपने कृपापात्र से सावधान रहें ।” यह सुनकर अनायास ही सभी की निगाहें तेनालीराम की ओर उठ गईं ।  तेनालीराम तुरंत भांप गया कि दाल में कुछ काला है ।

वह बोला, ”महाराज, मैं भी नन्दी महाराज से एक सवाल पूछना चाहता हूं पर तांत्रिक को एक तरफ बैठा दिया जाए ।” तेनालीराम ने बैल के कान में पूछा, ”आप उस धोखेबाज देशद्रोही का नाम बताएं ।” काफी देर हो गई, जवाब नहीं मिला । तेनालीराम कौड़ियों से बनी झूल उठाने लगा ।

तांत्रिक चिल्लाया, ”झूल मत छेड़ । मेरा तंत्र इसी में छिपा है । तुम्हें भस्म कर देगा ।” मगर तेनालीराम ने झूल उतार ली । देखा, बैल के सिर के बीच में एक पेंच है । उसे दबाने पर बैल बोलने लगता था । फिर उसने देखा, बैल के पेट में एक दरवाजा भी था । उसे खोला गया । एक आदमी अंदर बैठा था । वही प्रश्नों के उत्तर देता था । उसे पकड़कर बाहर निकाला गया ।

तांत्रिक को भी सिपाहियों ने पकड़ लिया । अंदर कुछ कागज मिले । उनमें विजयनगर और राजमहल से संबंधित कुछ नक्शे  थे । जब उन पर मार पड़ी, तो सारा राज खुल गया । वे दोनों शत्रु राजा के जासूस थे । तेनालीराम से उन्हें खतरा था, इसलिए उसे रास्ते से हटाना चाहते थे । राजा ने इस सूझबूझ के लिए तेनालीराम की पीठ थपथपाई थी ।


Tenali Raman Story # 6. सपने सच होते नहीं |

एक बार राजा कृष्णदेव राय ने सपने में एक बहुत ही सुन्दर महल देखा जो अधर में लटक रहा था । उसके अन्दर के कमरे रंगबिरंगे पत्थर से बने थे । उन पत्थरों से रोशनी कि किरणें फूट रही थीं जिसके कारण महल में रोशनी के लिए दीपक या मशालों की जरूरत नहीं थी ।

मन में सोचा, कि प्रकाश हो जाए तो अपने आप प्रकाश हो जाता था और जब मन में सोचा कि अंधेरा हो जाए तो अंधेरा हो गया । उस महल में सुख और ऐश्वर्य के अनोखे साधन भी मौजूद थे । धरती से महल में पहुंचने के लिए भी केवल सोचना भर था । आख बंद करके मात्र इच्छा करने की देर थी कि व्यक्ति महल में होता ।

दूसरे दिन महाराज कृष्णदेव राय ने अपने राज्य में घोषणा करवा दी कि जो भी ऐसा महल बना देगा उसे पुरस्कार में एक लाख स्वर्ण मुद्राएं दी जाएंगी । सारे राज्य में राजा के सपने की चर्चा होने लगी । जिसने भी सुना, वही महाराज की बुद्धि पर तरस खाने लगा । अधिकांश लोगों की यही राय थी कभी सपने भी सच होते हैं ?

परंतु प्रत्यक्ष रूप में राजा से यह बात कहने की हिम्मत किसमें थी  महाराज ने अपने राज्य के सभी कारीगरों को बुलवाया । सबको उन्होंने अपना सपना सुना दिया ।  कुशल व अनुभवी कारीगरों ने महाराज को बहुतेरा समझाया कि महाराज, यह तो कल्पना की बातें हैं ।

इस तरह का महल नहीं बनाया जा सकता, लेकिन महाराज के सिर पर तो वह महल भूत की तरह सवार था । वह अपनी बात से टस में मस नहीं हुए । कुछ धूर्तों ने इस बात का लाभ उठाया । उन्होंने राजा से इस तरह का महल बना देने का वादा करके काफी धन बटोर लिया ।

जिन दिनों विजयनगर में यह चर्चा जोरों पर थी, उन दिनों तेनालीराम कुछ दिनों का अवकाश लेकर भारत भ्रमण पर निकले हुए थे । इधर सभी मंत्री बेहद परेशान थे । महाराज को समझाना कोई आसान काम नहीं था । अगर उनके मुंह पर सीधे-सीधे कहा जाता कि वह बेकार के सपने में उलझे हैं, तो महाराज के क्रोधित हो जाने का भय था ।

मंत्रियों ने आपस में सलाह की । बहुत सोच विचार के बाद यह फैसला किया गया कि इस समस्या को तेनालीराम के सिवा और कोई नहीं सुलझा सकता । अब क्या राजगुरु, क्या मंत्री और सेनापति, सभी तेनालीराम के लौटने को बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगे ।

मगर कई दिन गुजर गए तेनालीराम नहीं आए । एक दिन रोता-चिल्लाता एक बूढ़ा व्यक्ति महाराज कृष्णदेव राय के दरबार में उपस्थित हुआ ।  ”दुहाई है महाराज! दुहाई है ।” महाराज के आसन के सामने आकर वह बोला : ”रक्षा करो । आपके राज्य में ऐसा अन्याय…ये तो गरीब मार है महाराज ।”

”क्या कहते हो । राजा कृष्णदेव राय एक झटके से सिंहासन से उठ खड़े हुए: ”किसने किया है तुम पर अन्याय । किसने सताया है तुम्हें । फरियादी! साफ-साफ उसका नाम बताओ और निश्चिंत रहो, अब तुम राजा कृष्णदेव राय के दरबार में हो । तुम्हारे साथ पूरा न्याय किया जाएगा ।”

”मैं लुट गया, महाराज । राज कर्मचारियों ने मेरे सारे जीवन की कमाई हड़प ली । मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं, महाराज । आप ही बताइए मैं कैसे उनका भरण-पोषण करूं ?” ”क्या ? क्या हमारे किसी कर्मचारी ने तुम पर अत्याचार किया है ? हमें उसका नाम बताओ ।

हमारे नाम पर प्रजा पर जुल्म ढाने वालों की हम खाल खिंचवा देंगे ।” राजा ने क्रोध से कहा । ”नहीं, महाराज, मैं झूठ ही आपके किसी कर्मचारी को क्यों बदनाम करूं?” बूढ़ा  बोला । ”तो फिर साफ क्यों नहीं कहते कि यह सब क्या परेशानी है ?”

”महाराज, अभयदान पाऊं तो कहूं ।” बूढ़े ने कहा । ”निर्भय रहो, तुम्हारा बाल भी बांका नहीं होगा ।” राजा ने विश्वास दिलाया । ”महाराज कल रात मैंने सपने में देखा कि आप स्वयं अपने कई मंत्रियों और कर्मचारियों के साथ मेरे घर पधारे -और मेरा सन्दूक उठवा कर आपने अपने खजाने में रखवा दिया । उस सन्दूक में मेरे जीवनभर की कमाई थी । पांच हजार स्वर्ण मुद्राएं ।” उस बूढ़े व्यक्ति ने सिर झुकाकर कहा । ”विचित्र मूर्ख आदमी हो तुम! कहीं सपने भी सच हुआ करते हैं ?” राजा ने क्रोधित होते हुए कहा ।

”आपने ठीक कहा महाराज । सपने सच नहीं हुआ करते । सपना चाहे अधर में लटके अनोखे महल का ही क्यों न हो और चाहे उसे महाराज ने ही क्यों न देखा हो, सच नहीं हो सकता ।” राजा कृष्णदेव राय हैरान होकर उस बूढ़े की ओर देखने लगे ।

दरबारी भी हैरान और स्तब्ध थे कि कौन है यह बदतमीज बूढ़ा जो ऐसा दुस्साहस कर रहा है । मगर शीघ्र ही उन्हें अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया । देखते ही देखते उस बूढ़े ने अपनी नकली दाढ़ी, छ और पगड़ी उतार दी ।

”तेनाली! तेनाली!” सभी दरबारियों के मुंह से निकला । इससे कि राजा कुछ कहते तेनालीराम ने कहा, ”महाराज, आप मुझे अभयदान दे चुके हैं ।”  महाराज हंस पड़े । उसके बाद उन्होंने अपने सपने के महल के बारे में कभी बात नहीं की ।


Tenali Raman Story # 7. मक्खीचूस सेठ |

राजा कृष्णदेव राय के राज्य में एक कंजूस सेठ रहता था । उसके पास धन की कोई कमी न थी, पर एक पैसा भी जेब से निकालते समय उसे बड़ा कष्ट होता था ।

एक बार उसके कुछ मित्रों ने उसे हंसी-हंसी में एक कलाकार से अपना चित्र बनवाने के लिए राजी कर लिया, उनके सामने तो वह मान गया, पर जब चित्रकार उसका चित्र बनाकर लाया, तो सेठ की हिम्मत न पड़ी कि चित्र के मूल्य के रूप में चित्रकार को सौ स्वर्ण मुद्राएं दे दे । उसका मन कलपने लगा ।

यों वह सेठ भी एक तरह का कलाकार ही था । उसे अपने चेहरे का स्वरूप बदलने की कला खूब आती थी । चित्रकार को आया देखकर सेठ झट अन्दर गया और कुछ ही क्षणों में अपना चेहरा बदलकर बाहर आ गया । उसने चित्रकार से कहा, ”तुम्हारा चित्र जरा भी ठीक नहीं बन पड़ा ।

तुम्हीं बताओ, क्या यह चेहरा मेरे चेहरे से जरा भी मिलता है ?” चित्रकार ने देखा सचमुच चित्र सेठ के चेहरे से नहीं मिलता था । सेठ बोला, ”जब तुम ऐसा चित्र बनाकर लाओगे, जो ठीक मेरी शक्ल से मिलेगा, तभी मैं उसे खरीदूंगा ।”

दूसरे दिन चित्रकार एक और चित्र बनाकर लाया, जो हूबहू सेठ के उस चेहरे से मिलता था जो सेठ ने पहले दिन बना रखा था । इस बार फिर सेठ ने अपना चेहरा बदल लिया और चित्रकार के चित्र में मीनमेख निकालने लगा । चित्रकार बड़ा लज्जित हुआ ।

उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि इस तरह गलती उसके चित्र में क्यों होती है । ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ । अगले दिन वह फिर एक नया चित्र बनाकर ले गया, पर उसके साथ फिर वही हुआ, जो पहले दो दिन हुआ था । चित्रकार ने उसके बाद सेठ के दो तीन चित्र और बनाए पर हर बार निराश लौटना पड़ा ।

जब तक उसकी समझ में सेठ की चाल आ चुकी थी । वह जानता था कि वह कंजूस सेठ असल में पैसे नहीं देना चाहता, पर चित्रकार अपनी कई दिनों की मेहनत भी बेकार नहीं जाने देना चाहता था । जब चित्रकार काफी दुःखी हो गया तो बहुत सोच-विचार कर चित्रकार तेनालीराम के पास पहुंचा और अपनी समस्या उसे कह सुनाई ।

कुछ समय सोचने के बाद तेनालीराम ने कहा : ”कल तुम उसके पास एक शीशा लेकर जाओ और कहो कि आपकी बिकुल असली तस्वीर लेकर आया हूं । अच्छी तरह मिलाकर देख लीजिए । कहीं कोई अन्तर आपको नहीं मिलेगा । बस, फिर तुम्हारा काम हुआ ही समझो ।”

अगले दिन चित्रकार ने ऐसा ही किया । वह शीशा लेकर सेठ के यहां पहुंचा और उसके सामने रख दिया । ”लीजिए सेठजी, आपका बिकुल सच्चा चित्र । गलती की इसमें जरा भी गुंजाइश नहीं है ।” चित्रकार ने अपनी मुस्कराहट पर काबू पाते हुए कहा ।

”लेकिन यह तो शीशा है ।” सेठ ने झुंझलाते हुए कहा । ”आपकी असली सूरत शीशे के अलावा बना भी कौन सकता है ? जल्दी से मेरे चित्रों का मूल्य एक हजार स्वर्ण मुद्राएं निकालिए ।” चित्रकार बोला । सेठ समझ गया कि यह सब तेनालीराम की सूझबूझ का परिणाम है । उसने झट एक हजार स्वर्ण मुद्राएं चित्रकार को दे दीं ।


Tenali Raman Story # 8. तेनाली की ईमानदारी |

तेनालीराम के व्यवहार की शिकायत लेकर कुछ ब्राह्मण राजगुरु के पास पहुंचे । इनमें अधिकांश ब्राह्मण वही थे जिन्हें तेनालीराम सबक सिखा चुका था । राजगुरु तो पहले ही तेनालीराम से जला बैठा था और बदला लेने की ताक में था, क्योंकि उसकी वजह से राजगुरु को कई बार नीचा देखना पड़ा था ।

राजगुरु उन ब्राह्मणों से मिलकर तेनालीराम को पाठ पड़ाने का उपाय सोचने लगा । फैसला यह हुआ कि राजगुरु तेनालीराम को अपना शिष्य बनाने का नाटक करे और रीति के अनुसार उसके शरीर को दागा जाए । दागा भी इस ढंग से जाए कि तेनालीराम जन्म-जन्मान्तर तक याद रखे ।

जब इस प्रकार तेनालीराम से बदला ले लिया जाए तो राजगुरु उसे यह कहकर शिष्य बनाने से इनार कर दे कि वह नीची जाति का ब्राह्मण है । तय हुआ कि यह योजना उन एक सौ आठ ब्राह्मणों तक ही सीमित रहे, जिन्हें तेनालीराम अपने घर बुलाकर दगवा चुका था ।

सारी बातें तय हो गईं । अब तेनालीराम से बदला लेने को वे सब बहुत उत्सुक थे । योजना के अनुसार राजगुरु ने एक दिन तेनालीराम को अपने घर बुलाया और कहा कि उसकी भक्तिभावना और ज्ञान को देखते हुए वह उसे अपना शिष्य बनाना चाहता है ।

यह सुनते ही तेनालीराम के मन में संदेह का कीड़ा कुलबुलाया कि अवश्य ही दाल में कुछ काला है पर वह नाटक करता रहा कि राजगुरु के प्रस्ताव से बहुत खुश है । पूरी बात सुनकर बड़ी उत्सुकता से तेनालीराम ने पूछा : ”आप कब मुझे अपना शिष्य स्वीकार करेंगे ?”

”अगला शुक्रवार बड़ा ही शुभ दिन है । स्नान करके तुम्हें कीमती वस्त्र पहनने होंगे, जो तुम्हें मेरी ओर से भेंट किए जाएंगे । भेंट के रूप में मैं तुम्हें एक सौ स्वर्ण मुद्राएं भी दूंगा । इसके बाद रीति के अनुसार तुम्हें पवित्र शख और लौहचक्र से दागा जाएगा । इस तरह तुम विधिवत् मेरे शिष्य हो जाओगे ।” राजगुरु ने उत्साहपूर्वक कहा ।

”ठीक है ।” कहकर तेनालीराम चला गया । घर जाकर उसने सारी बात अपनी पत्नी को कह सुनाई । फिर बोला, ”अवश्य इस धूर्त के मन में कोई चाल है ।” पत्नी बोली : ”तुमने उसका शिष्य बनना स्वीकार ही क्यों किया ?” ”परेशान होने की कोई बात नहीं है ।

राजगुरु अगर डाल-डाल है तो मैं पात-पात हूं ।” तेनालीराम ने कहा । ”आखिर आपने सोचा क्या है?” पत्नी ने पूछा । ”मुझे पता चला है कि जिन एक सौ आठ ब्राह्मणों को मैंने अपने घर निमंत्रण दिया था, उनकी राजगुरु के यहां कोई सभा हुई है । असली बात का पता लेने का एक तरीका मेरे पास है ।

इन ब्राह्मणों में से एक का नाम सोमा है । उसके यहां बच्चा होने वाला है; पर उसके पास खर्च के लिए पैसों का अभाव है । मैं दस स्वर्ण मुद्राएं देकर सोमा से सारी बातें मालूम कर लूंगा । फिर देखना, इस राजगुरु के बच्चे की मैं क्या गत बनाता हूं ।” तेनालीराम ने कहा ।

उसी रात तेनालीराम सोमा पण्डित के घर गया और उसे उसकी स्थिति का हवाला देकर तथा जेब से दस स्वर्ण मुद्राएं निकालकर उसके सामने रखते हुए कहा : ”अगर तुम मुझे यह बता दो कि राजगुरु के घर हुई गुप्त बैठक में क्या बात हुई है, तो मैं तुम्हें ये स्वर्ण मुद्राएं दे दूंगा ।”

”नहीं, नहीं, मैंने यह बता दिया तो मैं कहीं का नहीं रहूंगा ।” सोमा ने कहा । ”मैं वादा करता हूं कि यह बात मैं अपने तक ही सीमित रखूंगा ।” तेनालीराम  बोला : ”सोचो, तुम्हारी पत्नी इस समय कितनी नाजुक अवस्था में है । मुर्खता मत करो ।

इस समय तुम्हें राजनीति न खेलकर अपनी नाजुक स्थिति पर गौर करना चाहिए । इस समय ये दस स्वर्ण मुद्राएं तुम्हारे लिए अधिक उपयोगी हैं ना कि राजनीति । मुसीबत के समय मैं स्वयं चलकर तुम्हारी मदद को आया हूं या राजगुरु ।”

सोमा पण्डित को यह बात जम गई । उसने स्वर्ण मुद्राएं ले लीं और बोला : ”देखो, किसी को यह पता न चले कि मैंने यह भेद खोला है ।” और फिर उसने तेनालीराम को वहां हुई सभी बातें बता दीं ।  ”तुम बिस्कूल निश्चिंत रहो ।” तेनालीराम ने कहा: ”किसी को हवा भी नहीं लगेगी कि तुमने मुझे कुछ बताया है ।”

तत्पश्चात् घर आकर तेनालीराम ने अपनी पत्नी को यह बात बताई । पत्नी बोली,  ”अब आप क्या करेंगे ।” ”तुम देखती जाओ, मैं राजगुरु को ऐसा सबक सिखाऊंगा कि वे भी याद रखेंगे ।” शुक्रवार के दिन तेनालीराम सुबह उठा, स्नान किया और राजगुरु के घर जा पहुंचे ।

राजगुरु ने उसे पहनने के लिए लगभग हजार रुपये मूल्य के रेशमी वस्त्र दिए । साथ ही सौ स्वर्ण मुद्राएं भी दीं । अब बारी आई दागने की रीति पूरी करने की । शंख और लौहचक्र आग में तप रहे थे । राजगुरु और ब्राह्मण मन ही मन मुस्करा रहे थे कि बजू आज आए हो झांसे में । अब आएगा मजा जब लौहचक्र से दागे जाओगे ।

जैसे ही शंख और लौहचक्र दागे जाने के लिए तैयार हो गए तेनालीराम ने पचास स्वर्ण मुद्राएं राजगुरु के आगे फेंक दी और यह कहकर भाग खड़ा हुआ, ”आधा ही बहुत है । बाकी आधा मैंने वापस कर दिया है ।” राजगुरु और ब्राह्मण गरम-गरम शंख और लौहचक्र लेकर उसके पीछे भागे ।

रास्ते में और भी बहुत-सी भीड़ इकट्ठी हो गई । तेनालीराम भागता हुआ राजा के पास पहुंचा और बोला, ”महाराज, इंसाफ करें । जब समारोह हो रहा था, तब मुझे अचानक ध्यान आया कि मैं राजगुरु का शिष्य होने योग्य नहीं हूं क्योंकि मैं वैदिकी नहीं, नियोगी ब्राह्मण हूं ।

मान और रेशम के वस्त्र पहनने की रीति पूरी करने की पचास स्वर्ण मुद्राएं मैंने रख लीं और शेष पचास राजगुरु को लौटा दी हैं, जो उन्होंने मुझे दागने की रीति पूरी करने के लिए दी थीं ।”  राजगुरु को राजा के सामने मानना पड़ा कि नियोगी ब्राह्मण होने के कारण तेनालीराम उसका शिष्य नहीं बन सकता ।

अब उसने बहाना बनाया कि वह तेनालीराम के नियोगी ब्राह्मण होने की बात तो भूल ही गया था । असली बात वह राजा से कैसे बताता? ”तेनालीराम की ईमानदारी प्रशंसा के योग्य है । उसे इस ईमानदारी के लिए पुरस्कार मिलना चाहिए ।” और फिर, तेनालीराम को हजार स्वर्ण मुद्राएं पुरस्कार स्वरूप प्राप्त हुईं और राजगुरु को मुंह की खानी पड़ी ।


Tenali Raman Story # 9. भविष्यवक्ता का भविष्य |

बीजापुर, के सुलतान को पता चला कि उसका भेजा हुआ जासूस तेनालीराम की सूझबूझ के कारण पकड़ लिया गया और उसे मार दिया गया है । उसे यह भी पता चला कि विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय बीजापुर पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहे हैं ।

यह जानकर सुलतान घबरा गया । वह जानता था कि विजयनगर के कुशल सेनापति के नेतृत्व में वहां की सेना अवश्य जीत जाएगी । अत: उसने एक चाल चली । उसने विजयनगर के राज ज्योतिषी को एक लाख रुपये की रिश्वत देकर अपने साथ मिला लिया और कहा कि वह यह भविष्यवाणी करे कि अगर राजा ने एक वर्ष के समाप्त होने से पहले तुंगभद्रा नदी पार की तो उसकी मृत्यु हो जाएगी ।

तुंगभद्रा नदी दोनों राज्यों के मध्य थी । नदी पार किए बिना आक्रमण सम्भव नहीं था । अत: ज्योतिषी ने एक लाख रुपये लेकर यह भविष्यवाणी कर दी । राजा ने सुना तो हंस दिए, ”मैं नहीं मानता कि इस समय आक्रमण करने में कोई खतरा है ।”

दरबारियों और सेनापति को अवश्य राजा के प्राणों की चिन्ता थी । उन्होंने राजा से कहा, ”महाराज, देश और देशवासियों की सुरक्षा आप पर निर्भर है । कम-से-कम उनका ध्यान रखकर ही आप अपने प्राणों को संकट में न डालें । आप अगर एक साल प्रतिक्षा कर भी लें तो भी कोई हर्ज नहीं है ।

आपकी शक्ति के आगे बीजापुर कहां टिक पाएगा । लेकिन भाग्य के साथ लड़ाई लड़ना मुश्किल है । आप अभी आक्रमण न करें तो अच्छा है ।” इधर रानियों ने भी राजा की मिन्नत की कि बीजापुर पर आक्रमण के लिए एक वर्ष रुक जाएं । अब अपनी समस्या महाराज ने तेनालीराम के सामने रखी ।

”मैं बीजापुर पर अभी आक्रमण करना चाहता हूं लेकिन रानियों और दरबारियों को भी नाराज नहीं करना चाहता ।” तेनालीराम भी यही चाहता था, अत: उसने कहा, ”हर भविष्यवाणी पर विश्वास नहीं करना चाहिए महाराज ।” ”मैं चाहता हूं कि इस ज्योतिषी की भविष्यवाणी को गलत सिद्ध कर दे ।

अगर कोई ऐसा कर दे तो मैं उसे दस हजार स्वर्ण मुद्राएं दूंगा ।” राजा ने कहा । ”यह काम आप मुझे सौंप दीजिए लेकिन एक शर्त है । ज्योतिषी के झूठ को सिद्ध करने पर अगर उसे कोई दंड देना पड़ा, तो मुझे इसके लिए महाराज क्षमा करेंगे ।” तेनालीराम बोला ।

”अगर वह झूठ बोल रहा है तो तुम्हें उसे मृत्युदंड तक देने का अधिकार देता हूं ।” राजा ने कहा । तेनालीराम ने अपने मित्र सेनापति से मिलकर एक योजना बनाई । अगले दिन तेनालीराम ने राजा के सामने ज्योतिषी से पूछा, ”ज्योतिषी जी, क्या आपकी सभी भविष्यवाणियां सदा सच होती हैं ?”

”इसमें क्या संदेह है?” ज्योतिषी ने कहा, ”अगर मेरी एक भी भविष्यवाणी कोई झूठी साबित कर दे तो मैं कैसी भी सजा भुगतने को तैयार हूं ।” ”तब तो आप जैसे महान ज्योतिषी को पाकर हमारा देश धन्य है । क्या मैं जान सकता हूं कि इस समय आपकी आयु क्या है और आप कितनी आयु तक जिएंगे ?” तेनालीराम ने कहा ।

”इस समय मेरी आयु 44 वर्ष है । अभी मुझे 30 वर्ष और जीना है । भाग्य के अनुसार मेरी मृत्यु 74 वर्ष की आयु में होगी । इसमें एक पल का भी हेर-फेर नहीं हो  सकता ।” ज्योतिषी बोला । एकाएक सेनापति की तलवार चमकी और ज्योतिषी का सिर धड़ से अलग होकर पृथ्वी पर आ गिरा ।

तेनालीराम ने कहा, ”आखिर ज्योतिषीजी की भविष्यवाणी गलत सिद्ध हो गई । बुरा सोचने वाले का बुरा ही होता है । मैं जानता था कि यह आदमी बेईमान है । दूसरों का भाग्य बताने चले थे महाशय, किंतु अपनी किस्मत न पढ़ सके ।”

बाद में ज्योतिषी के घर की तलाशी ली गई तो शत्रु के कई पत्र उसके यहां मिले, जिनसे उसकी देश के प्रति गद्दारी साबित हो गई । सभी ने तेनालीराम की प्रशंसा की । राजा ने उसे दस हजार स्वर्ण मुद्राएं दीं और बीजापुर पर आक्रमण करके उसे जीत लिया ।

उसके बाद बीजापुर और गुलबर्गा पर भी उन्होंने अधिकार कर लिया, विजय के बाद जब राजा वापस लौटे तो बोले, ”यह सब तेनालीराम की बुद्धि का परिणाम है ।” उन्होंने तेनालीराम को स्वर्ण मुद्राओं की एक और बड़ी थैली भेंट में दी ।


Tenali Raman Story # 10. शतरंज की चाल |

तेनालीराम से जलने वालों की कोई कमी नहीं थी । राजा कृष्णदेव राय के दरबारी तेनालीराम को राजा से दंडित कराने की नई-नई युक्तियां करते किंतु हर बार तेनालीराम की बुद्धिमत्ता के कारण उन्हें मुंह की खानी पड़ती ।

जब दरबारी तेनालीराम के हाथों कई बार चोट खा चुके तो उन्होंने उससे बदला लेने के लिए एक नई तरकीब सोची । सभी दरबारी यह जानते थे कि तेनालीराम को शतरंज का खेल पसन्द नहीं है ।  उसे इस खेल से उकताहट होती है, जबकि महाराज शतरंज के बेहतरीन खिलाड़ी हैं ।

इस बार दरबारियों ने तेनालीराम की इसी कमजोरी का फायदा उठाने का निश्चय किया । अगले ही दिन उनमें से एक दरबारी ने महाराज कृष्णदेव राय से कहा, ”महाराज आप तो शतरंज के माहिर खिलाड़ी हैं, फिर भी आपने काफी दिनों से शतरंज का खेल नहीं खेला ? इसका कारण क्या ?”

“खेले कैसे? हमारे दरबार में तो क्या पूरे राज्य भर में शतरंज का कोई कुशल खिलाड़ी नहीं है । यही वजह है कि शतरंज के खेल के शौक के लिए हमें मन मारकर रह जाना पड़ता है ।” ”यह आप क्या कह रहे हैं महाराज?” दरबारी ने गहरा आश्चर्य प्रकट किया ।

फिर रहस्योदघाटन सा करते हुए बोला : ”इसका तो अर्थ यह हुआ कि अभी आप अपने चहेते दरबारियों के गुणों से भी पूरी तरह वाकिफ नहीं हैं ।” ”क्या मतलब ?” ”मतलब यह महाराज किस्तृतरंज का एक कुशल खिलाड़ी तो आपके साथ-साथ रहता है ।”

”कौन ? किसकी बात कर रहे हो तुम ?” चौंककर महाराज ने पूछा । ”महाराज, तेनालीराम शतरंज का एक माहिर खिलाड़ी है, आपका प्यारा भी है, मेरा कहा मानिए तो उसी के साथ कभी-कभी मनोरंजन के लिए शतरंज खेल लिया कीजिए ।”

”क्या कहते हो ? तेनालीराम और शतरंज का खिलाड़ी ।” यह जानकर राजा को और अधिक आश्चर्य हुआ । मगर दूसरे ही क्षण उनका चेहरा बुझ गया, बोले : ”यदि उसे खेल आता होता तो फिर बात ही क्या थी ? फिर तो रोज ही खेल जमा करता ।”

”यह आप क्या कह रहे हैं, महाराज?” दरबारी चौंकने का अभिनय करता हुआ बोला, ”तेनालीराम जैसा शतरंज का खिलाड़ी तो आपको पूरे राज्य में भी नहीं मिलेगा ।” ”लेकिन मैंने तो कई बार तेनालीराम से शतरंज खेलने के लिए आग्रह किया, वह हमेशा यही कहस्त्न रहा कि मुझे इस खेल का कोई अच्छा ज्ञान नहीं है ।”

“महाराज, आप तो तेनालीराम को अच्छी तरह जानते हैं । वह पूरा घाघ है । आप जब उस पर खेलने के लिए दबाव डालेंगे, तभी वह आपके साथ खेलना स्वीकार करेगा ।”  दरबारी ने खुशामद करने हुए कहा । ”ठीक है, आप सभी लोग कल शतरंज का खेल देखने इकट्‌ठे होकर आना ।

मैं तेनालीराम के पास कल शाम को शतरंज खेलने की सूचना भिजवा देता हूं ।” राजा ने कहा । दरबारी तो यही चाहता था । राजा कृष्णदेव राय की बुद्धि में चाभी भरकर वह अपने घर चला गया । दूसरे दिन शाम को राजा कृष्णदेव राय ने शतरंज बिछवा दी और तेनालीराम के लाख इकार करने पर भी उसे जबरदस्ती शतरंज के खेल पर बिठा लिया ।

तभी सारे दरबारी हंसकर बोल उठे, ”तेनालीराम जी! आप तो शतरंज के माहिर खिलाड़ी हैं और महाराज के साथ खेल रहे हैं, ऐसा सुयोग किसी विरले को ही मिलता है, खूब मन लगाकर खेलिएगा । कहीं महाराज को खुश करने के लिए जानबूझकर हारने लगें ।”

तेनालीराम फौरन समझ गया कि इन्हीं दुष्ट दरबारियों ने ही राजा को उल्टी-सीधी पट्टी पढ़ाई है । मजबूर होकर तेनालीराम को शतरंज खेलनी पड़ी और उसने अपनी चाल चल दी । थोड़ी देर शतरंज के घोड़े हाथी घूमते रहे और तेनालीराम बाजी हार गया ।

तेनालीराम के हारते ही सभी दरबारियों में एक ठहाका गूंज गया । वे बोले, ”तेनालीराम, क्यों सब कुछ जानते हुए भी मूर्खता कर रहे हो ? महाराज सरीखे शतरंज के खिलाड़ी को इस तरह खेलने में आनन्द थोड़े ही आएगा, जरा जमकर खेलो भाई…।”

दरबारियों की यह बात राजा के मन में बैठ गई । वह समझ गए कि तेनालीराम मक्कारी कर रहा है । उन्हें क्रोध आ गया और तेनालीराम से बोले : ”तेनालीराम, यदि तुम मन लगाकर हमारे साथ शतरंज नहीं खेलोगे तो याद रखो हम तुम्हें सख्त सजा देंगे ।”

‘बुरे फंसे ।’ तेनालीराम मन-ही-मन बुदबुदाया, फिर बोला, ”महाराज, वास्तव में मुझे इस खेल का सही ज्ञान नहीं है । मैं सच कह रहा हूं ।” ”हम कुछ नहीं जानते । अगर तुम दूसरी बाजी भी हार गए तो याद रहे, कल भरे दरबार में तुम्हारा मुण्डन करा दूंगा ।” रोष में भरे राजा ने कहा ।

दूसरी बाजी शुरू हुई । तेनालीराम ने खूब जोर लगाया, अच्छी तरह अपनी बुद्धि को टटोल-टटोलकर खेला, लेकिन वाह री किस्मत, इस बार भी हार गया । राजा ने झुंझलाकर खेल बंद कर दिया । तेनालीराम के चेहरे पर उदासी छा गई लेकिन शत्रु दरबारियों के चेहरों पर प्रसन्नता नाच उठी ।

उनकी चाल कामयाब हो गई थी और कल तेनालीराम का तमाशा देखने के ख्याल से वे अपने-अपने घरों को चल दिए । दूसरे दिन राजा कृष्णदेव राय का दरबार लगा । दरबार के लगते ही राजा ने एक नाई को बुलवाया और उसे आज्ञा देते हुए कहा, ”उस्तरे से तेनालीराम का सिर मुंड दो ।”

नाई राजा का आदेश सुनकर सकपका गया । इतने बड़े आदमी तेनालीराम का सिर वह कैसे मूंडे ? परंतु राजा का आदेश टाला भी तो नहीं जा सकता था । नाई वहीं दरबार में बैठकर अपना उस्तरा तेज करने लगा । तभी तेनालीराम बोल उठा, ”महाराज एक निवेदन करना चाहता हूं ।”

”हां-हां जरूर करिए…बोलिए क्या कहना चाहते हो ?” राजा ने पूछा । ”महाराज, मैंने इन बालों पर पांच हजार सोने की मोहरें उधार ले रखी हैं । मैं जब तक यह कर्जा नहीं चुका देता, तब तक इन बालों पर मेरा कोई अधिकार नहीं है ।”

”ठीक है पांच हजार सोने की मोहरें लाकर तेनालीराम को दे दी जाएं ।” राजा ने राज्य के कोषाधिकारी को आदेश देते हुए कहा । कोषाधिकारी ने तुरंत राजा की आज्ञा का पालन किया और राजकोष से पांच हजार सोने की मोहरें तेनालीराम के घर भेज दी गईं ।

अब तो बात बड़ी बेतुकी हो गई । आखिर तेनालीराम को नाई के आगे बैठना ही पड़ गया । नाई ने जैसे ही अपना हाथ तेनालीराम के बालों की ओर बढ़ाया तो तेनालीराम ने उसका हाथ रोक दिया और मन ही मन कुछ मंत्रों का जाप करते हुए बुदबुदाने लगा ।

यह देखकर राजा ने कड़ककर पूछा : ”अब यह क्या ढोंग करने लगे, तेनालीराम ?” ”महाराज यह ढोंग नहीं है । हमारे यहां मुण्डन संस्कार मां-बाप के स्वर्ग सिधारने पर किया जाता है । मेरे मां-बाप तो दोनों ही स्वर्ग सिधार चुके हैं ।

अब तो आप ही मेरे मां-बाप हैं, पालक हैं । आपका कुछ अनिष्ट न हो इसलिए मैं प्रभु से प्रार्थना कर रहा हूं ।” अपने अनिष्ट की बात सुनते ही धर्म- भीरु राजा कृष्णदेव राय घबरा गए । बोले, ”अरे…रे, यह तो मैंने सोचा ही नहीं था । तेनालीराम, तुम्हें अब अपना सिर मुंडाने की कोई जरूरत नहीं है ।

मैं अपना आदेश वापिस लेता हूं ।” राजा का इतना कहना था कि सारे दरबारियों की सारी योजनाओं पर पानी पड़  गया । ”महाराज की जय हो ।” कहता हुआ तेनालीराम नाई के आगे से उठकर अपने आसन पर आकर बैठ गया और शत्रु दरबारी मुंह ताकते रह गए ।


Tenali Raman Story # 11. तेनाली की आत्मा |

एक बार किसी बात से रुष्ट होकर महाराज कृष्णदेव राय ने तेनालीराम को मृत्युदंड दे दिया यह समाचार आग की तरह पूएर नगर में फैल गया । जिस दिन यह समाचार फैला, उसी दिन से तेनालीराम लोगों को दिखाई देने बंद हो गए ।

तभी लोगों की ऐसी धारणा बन गई कि तेनालीराम को चुपचाप फांसी पर चढ़ा दिया गया है । लोग तेनालीराम को याद कर-करके चर्चा करते और महाराज को भी दबी-जुबान से बुरा-भला कहते कि इतने योग्य व्यक्ति को मृत्युदंड दे दिया गया ।

मगर इस हकीकत से कोई वाकिफ नहीं था कि तेनालीराम जीवित था और इस समय अपने घर में छिपा बैठा था । कुछ अंधविश्वासियों ने तो यह प्रचार करना भी शुरू कर दिया कि ब्राह्मण की आत्मा भटकती रहती है । इस पाप का प्रायश्चित होना चाहिए ।

दोनों रानियों ने जब आत्मा भटकने की बात सुनी तो वे भी डर गईं । उन्होंने राजा से कहा कि इस पाप से मुक्ति के लिए कुछ उपाय कीजिए । लाचार होकर राजा ने अपने राजगुरु और राज्य के चुने हुए एक सौ आठ ब्राह्मणों को विशेष पूजा करने का आदेश दिया ताकि तेनालीराम की आत्मा को शांति मिले ।

पूजा नगर से बाहर बरगद के उस पेड़ के नीचे की जानी निश्चित हुई, जहां अपराधियों को मृत्युदंड दिया जाता था । यह खबर तेनालीराम तक भी पहुंच गई । रात होने से पहले ही वह उस बरगद के पेड़ पर जा बैठा । उसने सारे शरीर पर लाल मिट्टी पोत ली और धुएं की कालिख चेहरे पर पोत ली ।

इस तरह उसने भटकती आत्मा का रूप बना लिया । रात में ब्राह्मणों ने छोटी-छोटी लकड़ियों से आग जलाई और उसके सामने बैठकर उल्टे-सीधे मंत्र पढ़ने लगे । वे जल्दी से जल्दी पूजा का कार्य समाप्त कर घर जाकर बिस्तरों में दुबक जाना चाहते थे ।

जल्दी-जल्दी मंत्र पढ़कर उन्होंने दिखाने के लिए तेनालीराम को पुकारा, ”तेनालीराम ।” ”कहिए, मैं उसकी आत्मा हूं ।” एक आवाज वहां गूंजी और यह आवाज शर्तिया तेनालीराम की थी । उसकी आवाज सुनते ही ब्राह्मणों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई । चेहरे पीले पड़ गए । आहूतियां देते हाथ कांपने लगे ।

उनमें खुसर-फुसर होने लगी : ”भटकती आत्मा ने सचमुच उत्तर दिया है । हमें तो इस बात की आशा बिकुल नहीं थी ।” असलियत तो यह थी कि वे लोग इस प्रकार की ढोंगबाजी करके राजा से कुछ धन ऐंठने के चक्कर में थे । उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि तेनालीराम की आत्मा भटक रही होगी ।

उन्हें तो उसके मरने की खबर भी एक दूसरे से सुना-सुनी ही मिली थी । मगर अब तेनालीराम की भटकती आत्मा पहली ही पुकार पर सामने थी तो उन्हें सूझा ही नहीं कि उससे क्या बात करें । दरअसल आत्मा आदि से बोलने-बतियाने का कोई अनुभव भी उनके पास नहीं था ।

उधर जब तेनालीराम ने देखा कि ब्राह्मणों को कुछ सूझ ही नहीं रहा है, तो एकाएक अजीब-सी गुर्राहट के साथ वह पेड़ से कूदा ।  ब्राह्मणों ने उसकी भयानक सूरत देखी, तो डर के मारे चीखते-चिल्लाते सिर पर पांव रखकर भाग खड़े हुए । आगे-आगे राजगुरु और पीछे-पीछे दूसरे ब्राह्मण ।

हांफते-हांफते वे राजा के पास पहुंचे और उन्हें पूरी बात बताई कि किस प्रकार उनके मंत्र बल से तेनालीराम की आत्मा साक्षात प्रकट हुई । राजा ने उन सबसे जब यह कहानी सुनी तो वह बहुत हंसे : ”तुम लोग तो बस बड़ी-बड़ी बातें बनाना ही जानते हो । जिस भटकती आत्मा को शांत करने के लिए तुम्हें भेजा था उसी से डर कर भाग आए ।”

ब्राह्मण सिर झुकाए खड़े रहे । ”विचित्र बात तो यह है कि इस भटकती आत्मा ने मुझे दर्शन नहीं दिए । तुम लोगों को ही दिखाई दिया ।” राजा ने कहा: ”जो हुआ सो हुआ । अब जो इस भटकती आत्मा से मुक्ति दिलवाएगा, उसे एक हजार स्वर्ण मुद्राएं दी जाएंगी ।”

राजा की घोषणा के तीन दिन बाद एक हा संन्यासी राजदरबार में उपस्थित हुआ । उसकी दाढ़ी बगुले के पंख की तरह सफेद थी । उसने कहा, ”महाराज, इस भटकती आत्मा से आपको मैं मुक्ति दिला सकता हूं । शर्त यह है कि जब आपको संतोष हो जाए कि भटकती आत्मा नहीं रही, तो आपको मुझे मुंहमांगी वस्तु देनी होगी ।”

”अगर वह चीज हमारे सम्मान और प्रजा के लिए हानिकारक न हो तो हमें कोई आपत्ति नहीं ।” राजा ने कहा । संन्यासी ने कहा, ”बेफिक्र रहें महाराज! मैं ऐसी कोई वस्तु नहीं मांग्ता, जो आपके सम्मान और प्रजा के लिए हानिकारक हो ।”

”ठीक है, आप मुझे इस भटकती आत्मा से तो छुटकारा दिलवाइए ही, साथ ही मुझे ब्रह्म-हत्या के पाप से भी मुक्ति दिलवाइए । वह बेचारा मेरे क्रोध के कारण मारा गया, हालांकि उसका अपराध छोटा-सा ही था ।” राजा ने कहा ।

”आप चिंता न करें, मेरे उपाय के बाद आपको ऐसा लगेगा, जैसे ब्राह्मण मरा ही  नहीं ।” संन्यासी बोला : ”यदि चाहेंगे तो मैं उसे साक्षात् जीवित अवस्था में आपके सामने उपस्थित कर दूंगा ।” ”ऐसा हो सके तो और क्या चाहिए ।” राजा ने कहा, ”हालांकि मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि ऐसा हो सकता है ।”

राजगुरु पास ही बैठा था, बोला, ”लेकिन महाराज, कभी मुर्दे भी जीवित हुए हैं ? और फिर उस मसखरे को जीवित करने से लाभ ही क्या है ? वह फिर अपनी शरारतों पर उतर आएगा और आपसे दोबारा मौत की सजा पाएगा ।”

”कुछ भी हो, हम यह चमत्कार अवश्य देखना चाहते हैं और फिर हमारे मन पर जो बोझ है, वह भी तो उतर जाएगा । संन्यासीजी आप यह कार्य कब करना चाहेंगे?” राजा ने कहा । ”अभी और यहीं ।” सैन्सायी ने उत्तर दिया ।

”लेकिन भटकती आत्मा यहां नहीं, बरगद के उस पेड़ के ऊपर है, महाराज, मुझे तो लगता है कि संन्यासी कोरी बातें ही करना जानता है, इसके बस का कुछ नहीं ।”  राजगुरु ने राजा से कहा । दरअसल वह संन्यासी की बातें सुनकर डर गया था कि कहीं संन्यासी सचमुच में ही उसे जीवित न कर दे ।

”राजगुरुजी, जो मैं कह रहा हूं वह करके दिखा सकता हूं । आप ही कहिए यदि मैं उस ब्राह्मण को आपके सामने ही जीवित कर दूं तो क्या भटकती आत्मा शेष रहेगी ?” संन्यासी बोला । ”बिल्कुल नहीं ।” राजगुरु ने उत्तर दिया । ”तो फिर लीजिए देखिए चमत्कार ।” संन्यासी ने अपने गेरुए वस्त्र और नकली दाढ़ी उतार दी । अपनी सदा की पोशाक में तेनालीराम राजा और राजगुरु के सामने खड़ा था ।

दोनों हैरान थे । उन्हें अपनी आखों पर विश्वास नहीं हो रहा था । तेनालीराम ने तब राजा को पूरी कहानी सुनाई । उसने राजा को याद दिलाया, ”आपने मुझसे मुंहमांगा इनाम देने का वादा किया है । आप उन अंगरक्षकों को क्षमा कर दीजिए जिन्हें आपने मुझे मारने के लिए भेजा था ।

दरअसल मेरी चालाकी से ही वे मुझे मारने में असफल रहे थे, किंतु मैंने ही उनसे भेष बदलकर कहा कि वे आपके पास जाकर झूठ बोल दें । मैंने ऐसा इसलिए किया महाराज कि मैं जानता था कि बाद में आपको अपने इस फैसले पर अफसोस होगा ।

इस धृष्टता के लिए आप मुझे मेरी मुंहमांगी वस्तु क्षमा दें ।” ”तुमने बहुत ठीक ही सोचा था तेनालीराम । हमने तुम्हें क्षमा किया और साथ ही तुम्हें दस हजार मुद्राओं का पुरस्कार भी देते हैं । ”कहकर राजा ने उसे गले से लगा लिया ।


Tenali Raman Story # 12. संदेह |

यह बात उन दिनों की है जब राजा कृष्णदेव राय उन दिनों, रायचूर, बीजापुर और गुलबर्गा पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहे थे । उन्होंने अपने राज्यपालों से कहा कि वे सेना के लिए आदमी और धन इकट्ठा कर भेजें ताकि शत्रु का सिर पूरी तरह कुचल दिया जाए ।

एक पड़ोसी राजा को तो वह हरा ही चुके थे । अब उत्तर के शत्रु राज्यों की बारी थी । उनकी तैयारियां सैनिक शक्ति और साधन सम्पन्नता देखकर बीजापुर का सुल्लान चिंता में पड़ गया । अगर कृष्णदेव राय ने हमला कर दिया, तो सल्लनत बचाना नामुमकिन होगा ।

उसने एक मुसलमान जासूस को ब्राह्मण के भेष में विजयनगर भेजा ताकि वह राजा का विश्वास प्राप्त करे और सही मौका हाथ आते ही राजा को कल्ल कर डाले । सुलतान ने सोचा कि अगर राजा को मार दिया गया तो पहली बात तो हमले का खतरा टल जाएगा, दूसरे उसके मरने से राज्य में जो आपाधापी मचेगी, उसका लाभ उठाकर विजयनगर पर धावा बोलकर उसे जीता जा सकता है ।

इस प्रकार एक तीर से दो शिकार हो जाएंगे । जासूस बड़ा घाघ था । वह पहले एक हिंदू राजा की गुप्तचर संस्था में कार्यरत था, इसलिए उसकी हिन्दी, संस्कृत आदि पर पूरी तरह पकड़ थी । वह ब्राह्मणों के ढेरों कर्मकाण्ड भी जानता था ।

जासूस तमिल ब्राह्मण का भेष बनाकर विजयनगर के दरबार में पहुंचा । वहां वह शुद्ध संस्कृत बोलता, वेदों का पाठ करता, शास्त्रों पुराणों और नाटकों के अंश सुनाया  करता । राजा कृष्णदेव राय विद्वानों का आदर तो करते ही थे ।

अत: शीघ्र ही नकली ब्राह्मण ने दरबार में एक विशेष स्थान बना लिया । उसे दिन या रात किसी भी समय राजा के महल में जाने की इजाजत भी मिल गई । शुरू में तो वह सावधान रहा, लेकिन धीरे-धीरे उसने अपनी पहुंच महल के अन्दरुनी कक्षों तक भी बना ली ।

वह ऐसे स्थान की तलाश में था, जहां मौका पाकर वह राजा पर वार कर सके । एक समस्या यह भी थी कि राजा जहां भी आता-जाता, कुछ लोग हमेशा उसके साथ रहते थे । ऐसे मौके पर पकड़ लिए जाने का खतरा था । तेनालीराम हर वक्त राजा के साथ रहता था, इसलिए जासूस को उससे बड़ी चिढ़ थी ।

तेनालीराम को भी वह अच्छा नहीं लगता था । उसे शक हो गया था कि हो न हो, यह ब्राह्मण किसी शत्रु का जासूस है । बस, जिस क्षण से तेनाली को उस पर शक हुआ, उसी क्षण से वह उसे बेनकाब करने की कोशिशों में लग गया ।

एक दिन अचानक तेनालीराम ने राजा के सामने ही जासूस से पूछ लिया, ”तुम्हारा वेद और गौत्र कौन सा है ?” जासूस ने उसका बिकुल ठीक उत्तर दिया जिसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं थी । ब्राह्मण जासूस के जाने के बाद राजा ने तेनालीराम से पूछा, ”तुमने उससे यह प्रश्न क्यों किया ?”

”महाराज, मुझे शक है कि यह आदमी जासूस है । इस पर भरोसा करने से पहले इसे परख लेना चाहिए । गलत आदमी पर की गई कृपा बहुत नुकसान पहुंचाती है ।” ”क्या कहते हो तेनालीराम ? क्या अब भी तुम्हारा शक दूर नहीं हुआ ?”

”महाराज! आप जरा इस विषय पर सोचें, दिखावे और स्वभाविकता में बहुत अन्तर है । यह दिखावा कुछ ज्यादा ही कर रहा है । शुद्ध संस्कृत बोलने का प्रयत्न । पूजा-पाठ का दिखावा वही करेगा, जिसने सिद्ध करना हो कि वह कर्मकाण्डी है ।”

”तुम्हारी बात में कुछ दम तो है, पर मुझे यकीन नहीं होता । वैसे तो वह अकेला कर ही क्या सकता है ।” ”आपकी हत्या ।” ”मगर मुझे अकेले को मारकर उसे क्या मिलेगा ? मेरे मरने पर भी मेरे लाखों सिपाही तो जीवित रहेंगे ।” राजा ने कहा ।

”एक शेर लाखों भेड़ों से अधिक ताकतवर होता है और फिर आपके न होने से सेना में फूट पड़ जाएगी । इससे शत्रु को हमें कुचलने का अवसर मिल जाएगा । अगर महाराज आज्ञा दें तो मैं सिद्ध कर सकता हूं कि यह आदमी शत्रु का जासूस है ।” तेनालीराम ने कहा ।

महाराज कृष्णदेव राय ने एक क्षण कुछ सोचा, फिर बोले : ”ठीक है, सिद्ध करो । लेकिन तुम जो भी करना चाहते हो, तुम्हें मेरे सामने करना पड़ेगा । जब तक उसका अपराध सिद्ध न हो जाए उस पर औच नहीं आनी चाहिए ।”

उस रात जब ब्राह्मण बना जासूस अपने कमरे में सो रहा था, तब तेनालीराम राजा कृष्णदेव राय के साथ वहां पहुंचा और ठंडे पानी की बाल्टी उस पर उंडेल दी । जासूस एकाएक चिल्लाता हुआ उठ बैठा : ”या अल्लाह! या अल्लाह!”

तभी उसकी नजर तेनालीराम पर पड़ी और क्रोध में आकर उसने अपनी तलवार निकाल ली, मगर इससे पहले कि वह वार कर पाता, राजा कृष्णदेव राय ने तलवार से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया ।  इस तरह तेनालीराम ने अपनी समझदारी सूझबूझ से महाराजा कृष्णदेव राय की जान बचा ली ।


Tenali Raman Story # 13. श्रद्धांजलि |

एक दिन तेनालीराम को एक विषैले सर्प ने काट लिया । सर्प बड़ा ही जहरीला था और तेनालीराम के बचने की कोई उम्मीद नहीं थी । अंतिम समय में तेनालीराम की इच्छा अपने मित्र और महाराज कृष्णदेव राय से मिलने की थी ।

उसने एक व्यक्ति को यह संदेश लेकर महाराज के पास भेजा कि तेनालीराम जीवन की अंतिम सांसें गिन रहे हैं और मरने से पहले आपके दर्शन करना चाहते हैं । महाराज उस व्यक्ति की बात सुनकर हंस पड़े : ”आज फिर मरने का स्वांग भर लिया-एक बार पहले भी वह हमें इसी प्रकार मूर्ख बना चुका है । उससे कहना, मजाक छोड़े और दरबार में आए ।”

”क्षमा करें महाराज!” हाथ जोड़कर वह व्यक्ति बोला: ”यह मजाक नहीं, बिस्कूल सत्य है । उन्हें विषैले सांप ने काट लिया है ।” ”हां-हां-क्यों नहीं-इस बार विषैले सांप ने तो काटना ही था, क्योंकि पहले की तरह रहस्यमय बीमारी का बहाना तो इस बार चलने से रहा ।

वह बहुत चतुर है, हम मानते हैं, किन्तु इस बार हम उसके झांसे में नहीं आने वाले । तुम जा सकते हो ।” उस व्यक्ति ने वापस आकर तेनालीराम को सारी बात बता दी । तेनालीराम की आखों में आसू आ गए : ”भाग्य की कैसी विडम्बना है-झूठा आदमी जब सच बोलता है तो कोई उस पर विश्वास नहीं करता ।

मैं जानता हूं कि जब महाराज को मेरी मृत्यु का समाचार मिलेगा तो वे बहुत दुखी होंगे : खैर…मरते समय मुझे इस बात का सन्तोष है कि मैं जीवन भर महाराज का कृपापात्र बना रहा ।” और फिर! कुछ देर बाद ही तेनालीराम चल बसा । मरते समय उसके होंठों पर मुस्कान थी । शायद मरते-मरते भी उन्हें जीवन का कोई सुखद क्षण याद आ गया था ।

उधर महाराज ने सोचा : ‘जो व्यक्ति उसकी मृत्यु शैथ्या पर होने की खबर लेकर आया था, वह बड़ा ही गमगीन लग रहा था, कहीं ऐसा तो नहीं कि खबर सच्ची हो ? उसे सचमुच सर्प ने डस लिया हो ? दुर्घटना होते देर नहीं लगती । हमें जाकर देखना चाहिए ।’

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यह विचार मन में आते ही महाराज उससे मिलने चल दिए । किन्तु उनके पहुंचने से कुछ क्षण पूर्व ही तेनालीराम ने प्राण त्यागे थे । ”क्या ? क्या यह सचमुच मर गया ?” महाराज स्तब्ध रह गए : ”नहीं-नहीं, यह नाटक कर रहा हें, देखो…देखो इसके चेहरे पर: कैसी मुस्कान है ।”

बोलते-बोलते महाराज का गला रुंध गया, फिर पागलों की भांति वे उसे झंझोड़ने  लगे : ”उठो, उठो तेनालीराम…उठो…अपने मित्र से कुछ तो बात करो-कुछ तो कहो : त…तुम मरे नहीं हो…तुम जैसे जिन्दादिल इंसान कभी नहीं मरा करते-तुमने जीवन भर मुझे हंसाया है…अब…अब रुलाकर मत जाओ मित्र…तुम चले गए तो कौन हंसाएगा हमें…कौन करेगा तुम्हारे जैसी शरारतें…उठो तेनालीराम…उठो… ।”

और फिर-महाराज उसके सीने पर सिर रखकर बच्चों की भांति फूट-फुटकर रोने लगे । सबने महाराज को सान्तवना दी । विजयनगर में सात दिन का राजकीय शोक घोषित कर दिया गया । दूसरे दिन राजकीय सम्मान से तेनालीराम का अंतिम संस्कार किया गया ।

महाराज उसकी चिता से उठते हुए धुएं को आकाश में विलीन होते देख रहे थे । उनकी औखें भरी हुई थीं और वे सोच रहे थे :  ”क्या अब कभी कोई दूसरा तेनालीराम इस धरती पर पैदा होगा ? शायद नहीं…कभी नहीं…उस जैसा अनोखा विदूषक अब इस संसार में कभी पैदा नहीं होगा ।”

सोचते हुए उनकी आखों से तू! बहते रहे । वे दरबारी जो तेनालीराम के कट्टर आलोचक थे, उनकी आखों में भी औसू थे…विजयनगर की पूरी जनता आज औसू बहा रही थी । और ये आंसू ही उस अनोखे विदूषक को सच्ची श्रद्धांजलि थे ।

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