List of 25 original Tenali Raman Stories in Hindi!

Story of Tenali Raman  # 1. दो हाथ धुआं |

सम्राट कृष्णदेव राय का दरबार लगा था । महाराज दरबारियों के साथ हल्की-फुल्की चर्चा में व्यस्त थे कि अचानक चतुर और चतुराई पर चर्चा चल पड़ी । महाराज के अधिकांश मंत्री और यहां तक कि राजगुरु भी तेनालीराम से जलते थे ।

महाराज के समक्ष अपने दिल की बात रखने का मौका अच्छा था, अत: एक मंत्री बोले- ” महाराज! आपके दरबार में चतुर लोगों की कमी नहीं है, यदि मौका मिले तो यह बात सिद्ध हो सकती है, मगर… ।”  ”मगर क्या मंत्री जी?” उत्सुकता से महाराज ने पूछा ।

”मैं बताता हूं महाराज!” सेनापति अपने स्थान से उठकर बोला- ”मंत्रीजी कहना चाहते हैं कि तेनालीराम के सामने किसी को अपनी योग्यता सिद्ध करने का अवसर ही नहीं मिलता-हर मामले में तेनालीराम अपनी टांग अड़ा देते हैं और चतुराई का सारा श्रेय स्वयं ले जाते हैं । अन्नदाता! जब तक दूसरे लोगों को अवसर नहीं मिलेगा, वे अपनी योग्यता भला कैसे सिद्ध करेंगे?”

”हूं ।” महाराज गम्भीर हो गए । समझ गए कि सभी दरबारी तेनालीराम के विरुद्ध हैं । कुछ क्षणों तक वे कुछ सोचते रहे । अचानक ही उनकी दृष्टि एक कोने में ठाकुर जी की प्रतिमा के सामने जलती धूप पर स्थिर हो गई और तुरन्त ही उन्हें दरबारियों की परीक्षा लेने का उपाय सूझ गया ।

वे बोले – ”आप लोगों को अपनी योग्यता सिद्ध करने का अवसर अवश्य दिया जाएगा, तेनालीराम बीच में नहीं आएंगे ।”  ”ठीक है महाराज ।” सभी दरबारी प्रसन्न हो उठे- ”कहिए हम क्या करें ।” ”मुझे इस धूपबत्ती का दो हाथ धुआ चाहिए ।” महाराज ने कोने में जलती धूपबत्ती की ओर संकेत करके कहा- ”जो भी दरबारी यह कार्य करेगा, उसे तेनालीराम से भी चतुर समझा जाएगा ।”

सम्राट का प्रश्न सुनकर सभी दरबारी सिटपिटा गए । यह कैसी मूर्खतापूर्ण परीक्षा है, भला आ भी कभी नापा जाता है । मगर कोई न कोई युक्ति तो लगानी ही थी । कई दरबारियों ने हाथ से धुआ नापने की कोशिश की, किन्तु धुआ भला कैसे नपता ?  वह तो ऊपर उठता और बलखाए सांप की तरह इधर-उधर लहरा जाता । सुबह से शाम हो गई, मगर कोई भी धुआ न नाप सका ।

महाराज कृष्णदेव राय मंद-मंद मुस्करा रहे थे । जब सभी दरबारी थक-हारकर बैठ गए तो एक दरबारी बोला- ”महाराज! धुएं को नापना हमारी दृष्टि में तो असम्भव है, हां, यदि तेनालीराम इस कार्य को कर देगा तो हम उसे अपने से चतुर मान लेंगे । मगर यदि वह भी न नाप सका तो आप उसे हमारे समान ही समझें और अधिक मान-सम्मान न दें ।”

महाराज कृष्णदेव ने मुस्कराते हुए तेनालीराम की तरफ देखा- ” क्यों तेनालीराम! क्या तुम्हें दरबारियों की चुनौती स्वीकार है?”  ”मैं भी कोशिश ही कर सकता हूं अन्नदाता ।” तेनालीराम अपने स्थान से उठकर विनम्रता से सिर झुकाकर बोला- ”मैंने सदा आपके आदेश का पालन किया है, इस बार भी करूंगा ।”

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तेनालीराम ने एक सेवक को अपने करीब बुलाकर उसके कान में कुछ कहा । सेवक तत्काल वहां से चला गया । दरबार में सन्नाटा छाया रहा । सभी उत्सुक थे कि देखें तो तेनालीराम कैसे धुएं को नापकर राजा को दो हाथ धुआ सौंपता है । तभी सेवक शीशे की दो हाथ लम्बी एक नली लेकर दरबार में हाजिर हुआ ।

तेनालीराम ने धूप बत्ती से उठते हुए धुएं पर उस नली का मुंह लगा दिया । धुआ नली में भरने लगा । कुछ ही देर में पूरी नली धुएं से भर गई । तेनालीराम ने कपड़ा ठूंसकर नली का मुंह बन्द कर दिया । फिर उसे महाराज की ओर बढ़ाकर बोला- ”लो महाराज! दो हाथ धुआं ।”

महाराज ने मंद-मंद मुस्कराते हुए नली ले ली, फिर दरबारियों की ओर देखा, सभी के सिर झुके हुए थे । कुछ एक दरबारी, जो तेनालीराम से ईर्ष्या नहीं करते थे, आखों में प्रशंसा के भाव लिए तेनालीराम को देख रहे थे । महाराज बोले- ”अब तो आप लोग मान गए कि तेनालीराम बुद्धिमान हैं और इनका मुकाबला कोई नहीं कर सकता ।” दरबारी भला क्या जवाब देते ।


Story of Tenali Raman # 2. ढोल की पोल |

एक बार राजा कृष्णदेव राय से उनके राजपुरोहित ने कहा- ”महाराज! हमें अपनी प्रजा के साथ सीधे जुड़ना चाहिए ।” पुरोहित की बात सुनकर सभी दरबारी चौंक उठे । फिर असमंजस से उनकी ओर देखने लगे कि आखिर पुरोहित जी कहना क्या चाहते हैं ।

”आप कहना क्या चाहते हैं पुरोहित जी… ।” महाराज ने कहा- ”अपनी बात स्पष्ट करें ।” तब पुरोहित जी ने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा- ”दरबार में जो चर्चा होती है, उस चर्चा की प्रमुख-प्रमुख बातें प्रत्येक सप्ताह प्रजा के सामने रखी जानी चाहिए ताकि प्रजा भी उन बातों को जाने और चाहे तो अपने सुझाव भी दे ।”

यह सुनकर मुख्यमंत्री और सेनापति आपस में खुसर-पुसर करने लगे । चंद पलों में उन्होंने न जाने क्या खिचड़ी पकाई कि महाराज से मुखातिब होकर मुख्यमंत्री बोले- ”पुरोहित जी का सुझाव तो वास्तव में ही बहुत उत्तम है ।

इससे हमारे और प्रजा के बीच की दूरी कम होगी और विश्वास बढ़ेगा-मेरे खयाल से यह काम तेनालीराम जैसे कुशाग्र बुद्धि व्यक्ति काफी सूझबूझ से कर सकते हैं । हमारी भांति उन पर कुछ अधिक जिम्मेदारी भी नहीं है ।”

”ठीक है ।” राजा ने मंत्री की बात मान ली और यह कार्य तेनालीराम को सौंप दिया । तय हुआ कि गुप्त बातों को छोड्‌कर जनहित सम्बंधी सभी बातें तेनालीराम लिखित रूप से दरोगा को देंगे और दरोगा उनकी मुनादी करा-कराकर जनता को बताएगा ।

तेनालीराम मुख्यमंत्री और सेनापति की सारी चाल समझ गए । उन्हें यह भी समझते देर नहीं लगी कि राजपुरोहित भी इनके साथ मिला हुआ है और इन तीनों ने मिलकर उसे फंसाया है । लेकिन तेनालीराम ने भी सोच लिया कि इनके हथियार से इन्हें ही मारना है ।

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और फिर अपनी योजना के तहत तेनालीराम ने सप्ताह के अन्त में दरोगा को एक पर्चा थमा दिया । दरोगा ने पर्चा मुनादी वाले को पकड़ा दिया कि जाओ, नगर के प्रत्येक चौराहे पर यह संदेश प्रसारित कर दो । मुनादी वाला सीधा चौराहे पर पहुंचा और ढोल पीट-पीटकर मुनादी करने लगा- ” सुनो.. सुनो… नगर के सभी नागरिक सुनो ! महाराज चाहते हैं कि दरबार में जो भी जनहित के फैसले हों, उन्हें सारे नगरवासी जानें-प्रजा तक इन सूचनाओं को पहुंचाने का यह दायित्व तेनालीराम जी को सौंपा गया है,  उन्हीं की आज्ञा से हम यह सूचनाएं आपको पहुंचा रहे हैं, ध्यान देकर सुनें-महाराज चाहते हैं कि प्रजा को न्याय मिले तथा प्रत्येक अपराधी को दण्ड मिले । इसी बात को लेकर राजदरबार में काफी गम्भीर चर्चा हुई ।

महाराज चाहते थे कि पुरानी न्याय-व्यवस्था की अच्छी और साफ सुथरी बातें भी न्याय प्रणाली में शामिल की जाएं । इस विषय में उन्होंने पुरोहित जी से पौराणिक न्याय-व्यवस्था की जानकारी चाही तो पुरोहित जी इस विषय में अल्पज्ञानी सिद्ध हुए और कुछ न बता सके, वे तो दरबार में बैठे ऊंघते रहते हैं । इस बात को लेकर महाराज ने उन्हें भी दरबार में फटकारा ।

इसके अगले दिन अर्थात बृहस्पतिवार को सीमाओं की सुरक्षा पर चर्चा हुई, किन्तु सेनापति ठीक समय पर दरबार में उपस्थित न हो सके । ऐसे लेट-लतीफ सेनापति को महाराज ने बुरी तरह लताड़ा । अगली सभा सोमवार को होगी । ” फिर उसने जोर से ढोल बजाया और अगले चौराहे की ओर बढ़ गया ।

प्रजा राजपुरोहित के अल्पज्ञान की छीछालेदर करने लगी । सेनापति पर कटाक्ष किए जाने लगे । फिर तो हर सप्ताह प्रजा में मुनादी द्वारा मुख्यमंत्री, मंत्रियों व सेनापति तथा पुरोहितों की भद्द पिटने लगी । तेनालीराम जानबूझकर खबरों में अपने आपको बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत करते ।

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ऐसा लाना मानो उन्हें छोड़कर पूरा दरबार ही निकम्मा हो और सारा कामकाज उन्हीं के कंधों पर आ पड़ा हो । मुख्यमंत्री को जब अपने जासूसों द्वारा इस बात की खबर लगी तो वे बड़े  तिलमिलाए । तुरन्त उन्होंने सभा की ।

प्रधानमंत्री बोले- ”ये क्या हो गया पुरोहित जी, तेनालीराम ने तो हमारे ही कान काट लिए । उसने तो प्रजा के सामने हमारी मिट्टी पलीद कर दी । जनता समझ रही है कि हम काहिल और मूर्ख हैं और महाराज की झिड़किया ही खाते रहते हैं तथा काम तेनालीराम की सूझबूझ से ही हो रहा है ।”

”आप ठीक कहते हैं-मगर मैं कर भी क्या सकता हूं मैंने तो ये सोचकर महाराज को ऐसी सलाह दी थी कि वे तेनालीराम से स्वयं ढोल लटका कर मुनादी करने के लिए कहेंगे और इस प्रकार प्रजा के सामने तेनालीराम का जुलूस निकल जाएगा; मगर ये पासा तो उल्टा ही पड़ गया-अब मैं महाराज से किस मुंह से कहूं कि इस कार्यवाही को स्थगित कर दें ।” पुरोहित ने चिन्ता जाहिर की ।

”हमने भी आपकी हां में हां मिलाई थी, इसलिए हम भी तो कुछ नहीं कह सकते । ” सेनापति हाथ मलने लगा ।” आप लोग चिन्ता न करें ।” उनकी बातें सुनकर प्रधानमंत्री बोला- ”मैं महाराज से इस कार्यवाही को बंद करने की गुजारिश करूंगा ।”

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दो दिन बाद । फिर सभा हुई । इससे पहले कि कार्यवाही शुरू हो पाती कि प्रधानमंत्री ने महाराज के समक्ष सिर झुकाकर कहा- ”महाराज! मैं एक निवेदन करना चाहता हूं ।” ”कहिए प्रधानमंत्री जी! क्या कहना चाहते हैं ?” ”अन्नदाता ? हमारा संविधान कहता है कि राज-काज की समस्त बातें गोपनीय होती हैं ।

अत: नीति के लिहाज से उन्हें सार्वजनिक किया जाना उचित नहीं है । वे बातें प्रजा के बीच नहीं जानी चाहिए ।”  प्रधानमंत्री की बात पूरी होते ही तेनालीराम बोल पड़े- ”वाह प्रधानमंत्री जी ! नीति और संविधान की बात आपको भी तब ध्यान आई जब आपके नाम का ढोल पिटा ।”

यह सुनकर महाराज सहित सभी दरबारी हंस पड़े । दरअसल महाराज सहित सभी दरबारी प्रधानमंत्री, पुरोहित और सेनापति की चाल को समझ गए थे, मगर तेनालीराम की बुद्धि पर उन्हें पूरा भरोसा था कि वे ईंट का जवाब पत्थर से देंगे और ऐसा ही हुआ भी । सभी दरबारियों और महाराज के हंसने का यही कारण था ।


Story of Tenali Raman # 3. बहुभाषी विद्वान |

यह बात उन दिनों की है जब राजा कृष्णदेव राय के दरबार में रहते तेनालीराम को काफी अर्सा गुजर चुका था और उनकी विद्वता की कहानियां दूर-दूर तक फैल चुकी थीं । एक दिन की बात है कि राजा कृष्णदेव राय के दरबार में एक अत्यंत विद्वान ब्राह्मण आया ।

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उसने महाराज को अपना परिचय देने के बाद कहा- ”राजन ! मैंने सुना है कि आपके पास एक से एक विद्वान दरबारी हैं ।” ”आपने ठीक सुना है ब्रह्मदेव ।” महाराज ने प्रसन्न दृष्टि से तेनालीराम की ओर देखकर गर्वपूर्ण लहजे में कहा- ”हमें अपने दरबारियों की बुद्धिमता पर गर्व है ।”

”तो क्या कोई बता सकता है कि मेरी मातृभाषा क्या है ?” कहकर उस ब्राह्मण ने धारा-प्रवाह बोलना आरम्भ किया । पहले तेलुगू में बोला, फिर तमिल में, कन्नड, मराठी, मलयालम और कोणकी भाषा में भी उसने धाराप्रवाह व्याख्यान दिया ।

वह जब भी जो भाषा बोलता था, लगता था वही भाषा उसकी मातृभाषा है, क्योंकि प्रत्येक भाषा पर उसका पूर्ण अधिकार था । अपने उद्‌गार व्यक्त करने के बाद वह बोला- ”राजन! क्या आप या आपका कोई दरबारी बता सकता है कि मेरी मातृभाषा क्या है ?”

सभी दरबारी चुप । कोई समझ न पाया । महाराज ने तेनालीराम की ओर देखा, तब वे अपने स्थान से उठे और बोले- ”महाराज! मेरी प्रार्थना है कि इन विद्वान अतिथि को कुछ दिन अतिथि गृह में ठहराएं तथा मुझे इनकी सेवा का अवसर प्रदान करें ।”

ऐसा ही किया गया । तेनालीराम उसी दिन से उनकी सेवा में लग गए । एक दिन जब अतिथि एक वृक्ष के नीचे आसन पर बैठे थे कि पांव छूने के बहाने तेनालीराम ने उनके पांव में कांटा चुभा दिया । पंडितजी दर्द से छटपटाए और तमिल भाषा में ‘अम्मा-अम्मा’ करने लगे ।

तेनालीराम ने वैद्य को बुलाकर तत्काल उनका उपचार कराया । दूसरे दिन विद्वान सभा में आए और बोले- ”महाराज! आज चौथा दिन है, क्या मेरे प्रश्न का उत्तर मिलेगा ?” महाराज कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की ओर देखा तो वे उठकर बोले- ”महाराज! इनकी मातृभाषा तमिल है ।”

”वाह! वाह तेनालीराम ।” महाराज के कुछ कहने से पहले ही अतिथि बोल पड़े-  ”आपने बिस्कुल सही बताया । किन्तु आपको ये कैसे पता चला ।” ”हे सम्मानित अतिथि! आपके पांव में जब मैंने कल कांटा चुभाया था, तब आप तमिल भाषा में ‘अम्मा-अम्मा’ पुकार रहे थे, इसी से मैंने अनुमान लगाया कि आपकी मातृभाषा तमिल है ।

क्योंकि जब व्यक्ति किसी दुःख-तकलीफ या संकट में होता है, तब आडम्बर छोड्‌कर अपने वास्तविक रूप में आ जाता है और अपनी स्वाभाविक भाषा में अर्थात मातृभाषा में अपनी मां और परमात्मा को याद करता है । यही जानने के लिए मैंने जानबूझकर आपके पांव में कांटा चुभाया था, इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूं । ”

”आप धन्य हैं तेनालीराम- आप वास्तव में विद्वान और कुशाग्र बुद्धि हैं । महाराज ! मैं तेनालीराम के उत्तर से सन्तुष्ट हूं ।” अतिथि के श्रीमुख से यह सुनते ही महाराज कृष्णदेव राय ने तेनालीराम को अपने गले का कीमती हार उतारकर भेंट स्वरूप दिया । दरबारियों ने भी उनकी बुद्धि की भूरि-भूरि प्रशंसा की । इस प्रकार तेनालीराम ने सभी दरबारियों की लाज रख ली ।


Story of Tenali Raman # 4. सबसे बड़ा उपहार

एक बार एक पड़ोसी राजा ने विजय नगर पर आक्रमण कर दिया । महाराज कृष्णदेव राय और दरबारियों की सूझ-बूझ से कृष्णदेव राय ने वह युद्ध जीत लिया और विजय उत्सव की घोषणा की । तेनालीराम किसी कारणवश उचित समय पर उत्सव में न आ पाया ।

उत्सव की समाप्ति पर महाराज ने कहा- ”यह जीत मुझ अकेले की जीत नहीं है बल्कि आप सभी दरबारियों की जीत है । इस अवसर पर हमने अपने सभी दरबारियों को उपहार देने की व्यवस्था की है । सभी सदस्य उस मंच पर रखे अपनी-अपनी पसंद के उपहार उठा लें ।”

एक ओर मंच पर कीमती उपहार रखे थे । प्रधानमंत्री सहित सभी दरबारी उस ओर झपट पड़े और एक-दूसरे को धकेलकर कीमती से कीमती उपहार उठाने लगे । जितने दरबारी थे, उतने ही उपहार थे । पलक झपकते ही मंच उपहारों से खाली हो गया और वहां केवल एक तश्तरी पड़ी रह गई ।

तभी तेनालीराम भी वहां आ पहुंचे तो सभी दरबारी उनकी ओर देखकर व्यंग्य से मुस्कराने लगे कि अब आए हैं जब दुनिया लुट गई । तेनालीराम महाराज के करीब पहुंचे तो उन्होंने उन्हें सारी बात बताकर कहा कि वहां आपके हिस्से का उपहार बचा है, उसे आप ले लें ।

तेनालीराम ने चांदी की वह तश्तरी उठा ली और बड़ी श्रद्धा से उसे माथे से लगाकर अपने पटके से ढक लिया । सभी दरबारी खुश थे कि तेनालीराम को मात्र चांदी की एक तश्तरी ही मिली जबकि उनके पास बहुमूल्य उपहार थे ।

तेनालीराम को तश्तरी इस प्रकार ढकते देखकर महाराज कृष्णदेव राय ने आश्चर्य से पूछा- ”तेनालीराम ! तश्तरी को इस प्रकार क्यों ढक लिया ।” ”आपका सम्मान कायम रखने के लिए महाराज ।” ”क्या मतलब ? हमारे सम्मान को क्या हुआ ?” महाराज चौंके ।

”महाराज! आपसे आज तक मैंने अशर्फियों और मोतियों से भरे थाल उपहार में प्राप्त किए हैं, जरा सोचिए कि यदि मैं आज ये खाली तश्तरी लेकर जाऊंगा तो प्रजा क्या सोचेगी, यही न कि महाराज का दीवाला निकल गया, इसीलिए तेनालीराम को खाली तश्तरी इनाम में दी है ।”

”ओह!” तेनालीराम की चतुराई भरी बात सुनकर महाराज गद्‌गद हो उठे और बोले- ”नहीं तेनालीराम! आज भी हम तुम्हें खाली तश्तरी नहीं देंगे-ये तश्तरी खाली नहीं रहेगी-लाओ, तश्तरी आगे बढ़ाओ ।” महाराज ने अपने गले का बहुमूल्य हार उतारकर उसकी तश्तरी में डाल दिया । ये सबसे कीमती उपहार था जो तेनालीराम ने अपनी चतुराई से पाया था, यह देखकर उनसे जलने वाले दरबारी जल-भुनकर राख हो गए ।


Story of Tenali Raman # 5. पौधों की जड़ें

नेनालीराम की पत्नी को गुलाब के बड़े-बड़े फूलों को जूड़े में लगाने का बेहद शौक था । उसकी जड़ के प्यूल केवल राज उद्यान में ही थे । अत: वह बेटे को वहां भेजकर चोरी से एक फूल रोज तुड़वा लेती थीं ।

तेनालीराम से जलने वालों को जब यह पता चला तो उन्होंने तेनालीराम को महाराज की नजरों में गिराने का निर्णय लिया । उन्होंने उसके फूल चोरी करने का समय जांच लिया और जब एक दिन सभा-रही थी, तब तेनालीराम की मौजूदगी में महाराज से शिकायत कर दी और कहा कि महाराज !

चोर इस समय आपके बगीचे में है, यदि इजाजत हो तो पकड़वा कर हाजिर करें । ”ठीक है,, वह चोर जो कोई भी है, उसे हमारे सामने हाजिर करो ।” सभी दरबारी कुछ सैनिकों के साथ बगीचे के द्वार पर आ गए और सिपाहियों को बगीचा घेर लेने का आदेश दिया ।

वे लोग तेनालीराम को भी अपने साथ ले आए थे और उन्हें पूरी बात बता भी चुके थे कि वह चोर और कोई नहीं, आपका बेटा है ।  कुछ दरबारी इस बात का बड़ा रस ले रहे थे कि जब तेनालीराम का बेटा चोर की हैसियत से दरबार में हाजिर होगा तो तेनालीराम की क्या गत बनेगी ।

एक दरबारी ने चुटकी ली- ”क्यों तेनालीराम ! अब क्या कहते हो ?” ”अरे भई कहना क्या है ?” एकाएक ही तेनालीराम जोर से चिल्लाए- ”मेरे बेटे के पास अपनी बात कहने के लिए जुबान है । वह स्वयं ही महाराज को बता देगा कि वह बगीचे में क्या करने आया है ।

वैसे मेरा खयाल तो यह है कि वह अपनी मां की दवा के लिए पौधों की जड़ें लेने आया होगा न कि गुलाब के फूल चोरी करने आया है ।” तेनालीराम के बेटे ने बगीचे के अन्दर ये शब्द सुन लिए । दरअसल उसे सुनाने के लिए ही तेनालीराम इतने जोर से बोला था ।

वह फौरन समझ गया कि उसका पिता क्या कहना चाहता है, अत: उसने झोली में एकत्रित किए फूल फेंक दिए और कुछ पौधों की जड़ें उखाड़कर अपनी झोली में रख लीं और बाहर आ गया । जैंसे ही वह बाहर आया, वैसे ही दरबारियों के इशारे पर सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और ले जाकर दरबार में पेश किया ।

”महाराज ! यह है आपके बगीचे का चोर । तेनालीराम का पुत्र । यह देखिए अभी भी इसकी झोली में गुलाब के फूल हैं ।” ”गुलाब के फूल ? कैसे गुलाब के फूल । ”तेनालीराम के बेटे ने अपनी झोली में से सारी जड़ें महाराज के सामने फर्श पर डाल दीं और बोला- ”मैं तो अपनी मां की दवा के लिए पौधों की कुछ जड़ें लेने आया था ।”

यह देखकर महाराज ने दरबारियों को खूब फटकार लगाई । सभी दरबारी शर्म से सिर झुकाए खड़े सोचते रहे कि गुलाब के फूलों की जड़ें कैसे बन गईं ?


Story of Tenali Raman # 6. पुरस्कार का सच्चा अधिकारी |

महारज कृष्णदेव राय को अद्‌भुत व विलक्षण वस्तुएं एकत्रित करने का शौक था । अत: दरबारियों होड़ लगो रहती थी कि वे दुर्लभ से दुर्लभ वस्तुएं महाराज की सेवा में प्रस्तुत करें और भारी पुरस्कार ग्यं कुछ दरबारी मौका पाकर महाराज को ठगने से भी नहीं चूकते थे ।

ऐसे ही एक दिन एक दुष्ट दरबारी ने एक अनोखी चाल चली । वह लाल पंखों वाला एक जिंदा मोर लेकर महाराज की सेवा में हाजिर हुआ और बोला- ”महाराज! मैंने मैसूर के घने जंगलों से आपके लिए एक अनूठा मोर मंगवाया है ।”

महाराज ने लाल पंखों वाले उस मोर को देखकर बड़ा ताजुब किया कि कुदरत का कैसा करिश्मा है । वाकई अद्‌भुत है । उन्होंने तुरन्त आज्ञा दी किमोर को राजउद्यान में हिफाजत से रखवाया जाए फिर दरबारी से पूछा कि उस मोर की खोज आदि पर उसका कितना धन खर्च हुआ ?

”कुल तीस हजार ।” महाराज ने आज्ञा दी कि राजकोष से तीस हजार अशर्फियां तुरन्त इस दरबारी को अदा की जाएं । फिर दरबारी को आश्वासन दिया कि इसका पुरस्कार तुम्हें बाद में दिया जाएगा । दरबारी को और भला क्या चाहिए था । उसके लिए तो यह तीस हजार अशर्फियां भी किसी भारी इनाम से कम नहीं थीं ।

इन्हें पाने के लिए उसने केवल सौ अशर्फियां और थोड़ी सी अक्ल खर्च की थी । तेनालीराम ने भी उस मोर को देखा था, मगर उसे यह बात हजम नहीं हो रही थी कि मोर कुदरती पंखों वाला कैसे हो सकता है । उसने दरबारी की तरफ देखा, दरबारी कुटिल भाव से उसकी ओर देखकर मुस्करा रहा था ।

तेनालीराम को समझते देर नहीं लगी कि इसमें अवश्य ही कोई चाल है । बस, दूसरे ही दिन्तंतेनालीराम ने उस रंग विशेषज्ञ को खोज निकाला जिसने मात्र सौ अशर्फियों में उस मोर के पंख रंगे थे । वेह चित्रकार राजधानी की सीमा पर स्थित एक गांव में रहता था और मस्त-मौला किस्म का व्यक्ति था ।

तेनालीराम ने चार मोर मंगवाकर उन्हें पहले वाले मोर की भांति रंगवाया और चार दिन बाद ही उन्हें लेकर दरबार में हाजिर हो गया- ”महाराज! हमारे दरबारी मित्र ने तीस हजार अशर्फियां खर्च करके लाल पंखों वाला सिर्फ एक मोर ही मंगवाया, मगर मैं मात्र चार सौ अशर्फियों में चार वैसे ही मोर आपकी सेवा में हाजिर कर रहा हूं ।”

राजा ने हैरानी से पहले उन मोरों को देखा, फिर प्रश्नवाचक दृष्टि से तेनालीराम और उसके साथ आए व्यक्ति को देखने लगे । उस दरबारी की, जिसने तीस हजार अशर्फियों में वह मोर राजा को भेड़ दिया था, तेनालीराम के साथ आए व्यक्ति को देखकर सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई ।

यदि अवसर मिलता तो वह वहां से निकल ही भागता, मगर भागकर जाता भी कहां ? तेनालीराम के साथ आया व्यक्ति वही चित्रकार था जिसे सौ अशर्फियां देकर उसने मोर के पंख रंगवाए थे । राजा ने मोर उद्यान में भिजवा दिए फिर तेनालीराम से पूछा-‘ ‘ तेनाली! यह माजरा क्या है?”

”महाराज! यदि आप इन मोरों की छठा से प्रसन्न होकर किसी को कोई पुरस्कार देना चाहते हैं तो इस चित्रकार को दें, ये है पुरस्कार का सच्चा अधिकारी ।” कहकर तेनालीराम ने उन्हें पूरी बात बता दी ।  अपने आपको ठगे जाने की बात सुनकर महाराज आग-बबूला हो उठे ।

उन्होंने तुरन्त उस दरबारी को दो माह के लिए उसके पद से निलम्बित कर दिया तथा तीस हजार अशर्फियों के साथ बतौर जुर्माना दस हुजार अशर्फियां और राजकोष में जमा कराने का आदेश दिया । फिर चित्रकार को बहुत सा इनाम देकर विदा किया और तेनालीराम को भी सम्मानित किया ।


Story of Tenali Raman # 7. मां की अंतिम इच्छा |

श्वेनालीराम जबसे महाराज कृष्णदेव राय की सेवा में आए थे, तब से एक ही बात उन्हें साल रही थी इश विजयनगर के ब्राह्मण बड़े लालची हैं और वे धर्म-कर्म की उल्टी-सीधी पट्टियां पढ़ाकर आए दिन महाराज को लूटते रहते थे ।

एक दिन महाराज कृष्णदेव राय ने सभा में बताया कि मरते समय हमारी मां को आम खाने की इच्छा मे मगर उनकी यह इच्छा पूर्ण न हो सकी थी । क्या अब ऐसा कुछ हो सकता है कि मेरी मां की आत्मा-ढके-शान्ति मिले ?

ये मसला राजपुरोहित से सम्बंधित था, अत: किसी के भी बोलने से पहले वे बोले- ” महाराज! रुपय मैं बताता हूं ।” ”हां-हां, कहिए राजपुरोहित जी ।” महाराज कृष्णदेव राय ने कहा- ”आपसे अच्छा सुझाव इस ज्पय में भला और कौन दे सकता है ।”

”महाराज! मेरा सुझाव तो ये है कि एक सौ आठ ब्राह्मणों को एक-एक सोने का आम दक्षिणा स्वरूप भेंट किया जाए इसी प्रकार राजमाता की आत्मा को शान्ति प्राप्त हो सकती है ।” उसकी लालच भरी यह बात सुनकर जहां तेनालीराम के तन-बदन में आग लग गई, वहीं महाराज खुश हो उठें और तुरन्त सोने के एक सौ आठ आम दान करने की घोषणा कर दी ।

‘अब तो बात हद से गुजरती जा रही है ।’ मन ही मन में तेनालीराम ने सोचा- ‘इन ब्राह्मणों का कोई इलाज करना ही पड़ेगा ।’ किन्तु अभी फिलहाल उन्हें कोई युक्ति नहीं सूझ रही थी, इसलिए वे मन मसोसकर रह गए । मगर कुछ दिन बाद उन्हें एक अवसर प्राप्त हो गया ।

हुआ ये कि तेनालीराम की मां की मृत्यु हो गई । उन्होंने विधिवत उनका अंतिम संस्कार किया और तेरहवीं के लिए एक सौ आठ ब्राह्मणों को राजपुरोहित महित अपने निवास पर आमंत्रित किया । तेरहवीं के सभी कार्य सम्पन्न हुए ब्राह्मणों ने खूब डटकर माल उड़ाया ।

फिर तेनालीराम के आदेश पर सभी ब्राह्मणोंको एक अलग कक्ष में बैठाया गया । वहां आकर तेनालीराम ने नौकरों को इशारा किया । इशारा पाते ही नौकर दहकती हुई सलाखें लेकर उपस्थित हो गए । ”इन सभी को गर्म सलाखों से घुटनों पर दागा जाए ।”

ये सुनते ही सभी ब्राह्मणों में चीख-पुकार मच गई । वे उठकर भागने लगे तो तेनालीराम के नौकरों ने पकड़ लिया, फिर एक-एक करके सभी के घुटनों में सलाखें दागी गईं । बात महाराज कृष्णदेव राय तक पहुंची तो उन्होंने तेनालीराम को तलब किया और ब्राह्मणों के साथ की गई इस अभद्रता का कारण पूछा ।

तब तेनालीराम ने कहा-  ”महाराज! दरअसल बात ये है कि मेरी मां के पैर के जोड़ों में दर्द रहता था । उन्हें एक वैद्य ने बताया था कि उनके घुटने लोहे की गर्म सलाखों से दागे जाएं तो उनका रोग जाता रहेगा, वरना सात जन्म भी पीछा न छोड़ेगा ।

अब उनकी यह इच्छा पूर्ण होने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई । तब मैंने यह रास्ता अपनाया । जब ब्राह्मणों को सोने के आम दान देने से राजमाता की अंतिम इच्छा पूर्ण हो सकती है तो क्या इस प्रकार मेरी मां का रोग दूर नहीं हो सकता ।” तेनालीराम की बात सुनकर सबकुछ समझकर महाराज हंस पड़े जबकि राजपुरोहित सहित सभी ब्राह्मणों के सिर शर्म से झुक गए ।


Story of Tenali Raman # 8. अनोखा उपहार

एक बार पड़ोसी देश का एक दूत महाराज कृष्णदेव राय के दरबार में आया । वह न् पने राजा के संदेश के साथ ढेरों उपहार भी लाया था । विजयनगर में उसका खूब स्वागत और आदर-सत्कार किया गया । तीन दिन रुककर जब वहजाने को हुआ तोमहाराज बोले- ”हम तुम्हें भी कोई उपहार देना चाहते हैं-जो चाहो, मांग लो ।”

दूत बड़ा चतुर था । वह एकतीर से दो शिकार करना चाहता था, अर्थात उपहार तो पाना ही चाहता था, तेनालीराम की परीक्षा भी लेना चाहता था । अत: वह बोला- ”महाराज! हीरे-मोती, सोना-चांदी मेरे किसी काम के नहीं हैं, हां, यदि आप देना ही चाहते हैं तो कोई ऐसा उपहार दीजिए जो सुख-दुख, धूप-छांव में सदा मेरे साथ रहे ।”

यह सुनकर महाराज चकराए कि ऐसा क्या उपहार दें । उन्होंने इस आशा से दरबारियों की ओर देखा कि शायद वही कुछ सुझाएं । मगर किसी की भी बुद्धि में ऐसा उपहार न आया, तब राजा ने तेनालीराम की ओर देखा ।

तेनालीराम ने महाराज का आशय समझकर अपने स्थान से उठकर महाराज के सामने हौले से सिर झुकाया फिर बोला- ”महाराज! दोपहर को जब ये यहां से प्रस्थान करेंगे तो वैसा उपहार इनके साथ ही जाएगा ।” दोपहर को जब अतिथि प्रस्थान करने लगे तो उनकी विदाई समारोह तेनालीराम के कहने पर महल से बाहर खुले स्थान पर किया गया जहां धूप खिली हुई थी ।

सारे उपहार दूत के रथ में रखवा दिए गए । तब महाराज ने तेनालीराम की ओर देखा- ” तेनाली! तुम्हारा वह उपहार कहां है ?” तेनालीराम हंसे- ”महाराज! उपहार तो मैं अतिथि को दे चुका ई जो इस समय भी इनके साथ है । किन्तु यह उसे देख नहीं पा रहे हैं, इनसे कहें कि पीछे पलटकर धरती की तरफ देखें ।”

दूत ने फौरन पीछे मुड़कर देखा – “कहां है तेनालीराम जी ? मुझे तो दिखाई नहीं दे रहा ।” ”अतिथि महाशय! ध्यान से देखें, क्या आपको अपना साया दिखाई नहीं दे रहा अतिथि महाशय! इंसान का साया कभी उसका साथ नहीं छोड़ता-न दुख में, न सुख में-न ही इसे कोई छीन सकता है, न चोरी हो सकती है इसकी..हालांकि यह पहले भी आपके साथ था, किन्तु तब आपको इसकी उपयोगिता नहीं मालूम थी ।”

महाराज मुस्करा उठे । दूत बोला- ”वाह तेनालीरामजी । जैसा आपके विषय में सुना था, वैसा ही पाया-धन्य हैं सम्राट कृष्णदेव राय जिन्हें आप जैसे सुयोग्य और बुद्धिमान व्यक्ति का साथ और सेवाएं प्राप्त हैं । मैंने आपकी बुद्धि की परीक्षा लेने के लिए ही ऐसा उपहार मांगा था और सचमुच आपने मुझे लाजवाब कर दिया ।”  तेनालीराम सिर्फ मुस्कराकर रह गए । उनसे जलने वाले दरबारी मन ही मन ईर्ष्या से जले जा रहे थे ।


Story of Tenali Raman # 9. मनहूस और महा मनहूस |

सुखदेव नामक एक व्यक्तिच्छेलेकर पूरे विजय नगर में यह बात प्रसिद्ध थी कि सुबह-सुबह जो भी उसकी सूरत देख लेता है, उसे पूरे दिन अन्न नसीब नहीं होता । उड़ती-उड़ती यह बात महाराज कृष्णदेव राय के कानों तक भी पहुंची ।

तब महाराज ने सोचा कि इस बात की जांच करनी चाहिए । ऐसा मनहूस व्यक्ति तो राज्य में रहने के योग्य ही नहीं है । यही सोचकर उन्होंने सुखदेव को बुलवाया और रात में खूब खातिरदारी करके अपने कक्ष में ही उसका बिस्तर लगवा दिया ।

महाराज सुबह-सुबह उठे और सबसे पहले उसे उठाकर हाल-चाल पूछा, फिर अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त हो गए । किसी कार्य में वह इस प्रकार उलझ गए कि खाने की बात क्या कहें, समय पर नाश्ता भी न मिला । खैर, दोपहर हो गई और महाराज के सामने खाना परोस दिया गया ।

मगर तभी अन्त:पुर (रनिवास) में कोई ऐसी घटना घटी कि महाराज को उठकर जाना पड़ गया । गर्ज ये कि शाम तक इसी प्रकार की घटनाएं घटती रहीं और महाराज को खाना नसीब नहीं हुआ । अब वे इस निर्णय पर पहुंचे कि यह व्यक्ति सचमुच मनहूस है और इसका जिन्दा रहना ठीक नहीं ।

अत: उसी समय उन्होंने सिपाहियों को बुलाया और हुक्म जारी कर दिया कि कल शाम इस व्यक्ति को सरेआम फांसी दे दी जाए । सिपाहियों ने फौरन सुखदेव को गिरफ्तार करके कारागार में डाल दिया । सुबह होते-होते यह खबर चारों ओर फैल गई कि आज शाम को मनहूस सुखदेव को महाराज के हुक्म से फांसी पर लटकाया जाएगा ।

यह बात तेनालीराम के कानों में भी पड़ी और पलक झपकते ही वह सारा माजरा समझ गए । वे फौरन निर्दोष सुखदेव के पास पहुंचे । सुखदेव ने रो-रोकर उन्हें सारा किस्सा सुनाया कि किस प्रकार महाराज ने उसे एक रात का अतिथि बनाकर फांसी का हुक्म सुना दिया है ।

”तेनालीराम जी! अब आप ही बताएं कि मेरा क्या कसूर है । मनहूस या भाग्यवान तो ईश्वर बनाता है, इसमें कोई प्राणी कर ही क्या सकता है ? कृपा करके आप मेरी मदद करें अन्यथा मेरे बच्चे अनाथ हो जाएंगे ।”  “चिन्ता मत करो सुखदेव और जैसा मैं कहता हूं वैसा ही करना ।” तेनालीराम ने कहा, फिर धीरे-धीरे उसे कुछ समझाने लगे ।

“समझ गए ?” ‘जी हां- जैसा आप कहते हैं, वैसा ही करूंगा ।” तेनालीराम वहां से चले गए । शाम को सैनिक आए और उसरसे पूछा- ”सुखदेव! महाराज का आदेश है कि यदि तुम्हारी कोई ऊर्मेनम इच्छा हो तो कहो ।” ”दरोगा जी!” निर्भीक होकर सुखदेव बोला- ”मैं सारी प्रजा के सामने यह बात कहना चाहता हूं ऊइ दे न्नक्तु हूं और जो सुबह-सुबह मेरी शक्ल देख लेता है उसे भोजन नसीब नहीं होता, मगर महाराज पद्यसे भी बड़े मनहूस हैं जो मैंने उनकी शक्ल देखी थी और शाम को मुझे फांसी पर चढ़ना पड़ रहा है ।”

”क्या बकता है ?” दरोगा आखें निकालकर गुर्राया- ”जानता है क्या कह रहा है तू- महाराज ने सुन लिया तो… ।” ”तो क्या फांसी से भी बड़ी कोई सजा है जो वे मुझे दे सकते हैं ?” सुखदेव व्यंग्य से मुस्कराया- ”जाओ दरोगा जी, जाकर महाराज को बता दो कि यही मेरी अंतिम इच्छा है ।”

सिपाही दौड़े-दौड़े महाराज कृष्णदेव राय के पास पहुंचे और उन्हें सुखदेव की अंतिम इच्छा बताई । चुनते ही महाराज सन्नाटे में आ गए और बोले- ”हम उसकी फांसी की सजा रह करते हैं, उसे फौरन हमारे पास लाओ ।” सिपाही उसे लेकर आए तो महाराज ने उसे सम्मान सहित अपने पास बैठाया, फिर बड़े ही प्यार से पूछा- ”सच-सच बताना सुखदेव ।

यह बात तुम्हें कैसे सूझी ।” ”मुझ मूर्ख को ऐसी बातें कहां सूझ सकती हैं महाराज! मृत्युदण्ड पाकर तो मैं वैसे ही अपनी सूझ-चूझ खो बैठा था । यह तो भला हो तेनालीराम जी का जिन्होंने मुझे ये युक्ति सुझाई ।” ”ओह!” महाराज को झटका सा लगा, फिर वे बोले- ”तेनालीराम धन्य है जिसने एक निर्दोष को फांसी से बचा लिया ।” फिर महाराज ने सुखदेव को बहुत सा इनाम दिया ।


Story of Tenali Raman # 10. अनमोल सुझाव |

एक बार महाराज कृष्णदेव के दरबार में दो व्यक्ति आए । उनमें से एक के हाथ में सोने का एक हंस था । आते ही वे बोले- ” महाराज! हमारा न्याय करें ।” ”कैसा न्याय ?” महाराज ने चौंककर पूछा- ”आखिर बात क्या है-क्या इस स्वर्ण हंस को लेकर तुम दोनों में कोई झगड़ा है ।”

”झगड़ा नहीं है महाराज-मतभेद है ।” एक व्यक्ति, जिसके हाथ में हंस था, बोला- ”दरअसल हम दोनों आपस में मित्र हैं । हुआ यह महाराज कि मेरी तंगी की हालत में मेरे इस दोस्त ने मुझे अपने खेत की कुछ जमीन जोतने के लिए दी थी । जब एक दिन मैं उसी जमीन पर हल चला रहा था, तो मुझे यह स्वर्ण हंस मिला ।

मैं यह हंस लेकर जब अपने इस दोस्त के पास पहुंचा तो यह इसे लेने से इकार कर रहा है ।” ”मैं कैसे ले लूं महाराज! जब मैंने वह जमीन अपने मित्र को दी थी तो उसमें से उत्पन्न होने वाली हर चीज पर इसी का हक है ।” ”किन्तु जमीन तो इसकी है महाराज !” ”मगर वह जमीन मैं इसे दे चुका हूं ।”

इस प्रकार दोनों अपनी-अपनी बात पर अड़े हुए थे । महाराज भी उनकी सच्चाई से अत्यधिक प्रभावित हुए । उनके समक्ष ऐसा मुकद्दमा पहली बार आया था जिसमें न कोई चोर था और न साहूकार । क्या फैसला दें, कुछ समझ न पा रहे थे । उन्होंने दरबारियों की ओर देखा- ”आप लोग क्या कहते है ?”

”महाराज!” एक दरबारी बोला- ”सोने का हंस दो हिस्सों में बांटकर एक-एक हिस्सा दोनों को दे दिया जाए ।” ”मूर्ख! जब दोनों में से कोई भी पूरा हंस लेने को राजी नहीं है तो आधा कैसे स्वीकार करेंगे ।” दरबारी सिटपिटाकर चुप हो गया ।

फिर एक अन्य दरबारी बोला- ”महाराज! आप इनसे ही पूछें कि ये क्या चाहते हैं-मेरी राय में तो इस हंस को राजकोष में जमा करा देना चाहिए क्योंकि धरती से निकली सम्पत्ति पर राजा का अधिकार होता है ।” ”हम ऐसा ही करते, यदि ये लोग चोरी से इस सम्पत्ति को अपने पास रख लेते, किन्तु इन दोनों में से कोई लालची नहीं है, बल्कि दोनों ही सच्चे और ईमानदार हैं, अत: इस सम्पत्ति का कुछ ऐसा प्रयोग हो जिससे इन दोनों मित्रों की मित्रता की मिसाल कायम हो जाए ।”

दरबारी अपनी-अपनी राय देते रहे, किसी ने कहा कुएं खुदवाए जाएं किसी ने धर्मशाला का सुझाव दिया । किसी ने मंदिर का सुझाव दिया । मगर महाराज को कोई सुझाव पसंद न आया । फिर उन्होंने तेनालीराम की ओर देखा, इशारा पाकर तेनालीराम बोले- ”महाराज! मेरा निवेदन है कि इस हंस को महाराज जौहरियों से मोल लगवाकर स्वयं खरीद लें तथा उस धन से इन दोनों की मित्रता के नाम पर एक ‘स्वर्ण हंस उद्यान’ का निर्माण हो जिसमें छायादार वृक्ष व दुर्लभ फल-फूल वाले पौधे हों: उद्यान में एक शानदार सरोवर हो जिसमें दो सफेद हंस तैर रहे हों महाराज! जब तक स्वर्ण हंस उद्यान कायम रहेगा, तब तक इनकी अनोखी मिसाल कायम रहेगी ।”

”वाह-स्वर्ण हंस उद्यान ।” महाराज मुस्कराए- ”तेनालीराम! तुम्हारा सुझाव तो वास्तव में ही अच्छा है, हमारा फैसला भी यही है कि कीमत के धन से ‘स्वर्ण हंस उद्यान’ बनाया जाए ।  तेनालीराम के इस अमूल्य सुझाव का पूरे दरबार ने समर्थन किया और यह पहला अवसर था जब उनसे ईर्ष्या रखने वालों ने भी उनकी जमकर प्रशंसा की ।


Story of Tenali Raman # 11. मित्र संधि

महाराज कृष्णदेव राय का अपने पड़ोसी राजा से पिछले कई वर्षों से मन-मुटाव चल रहा था । कई बार दोनों राज्यों की सेनाएं आमने-सामने आ चुकी थीं । इस समय भी तनावपूर्ण स्थिति बनी हुई थी ।

ऐसे में तेनालीराम के विरोधियों ने सोचा कि क्यों न इस मौके का लाभ उठाकर महाराज को तेनालीराम के विरुद्ध भड़काया जाए । सभी ने मिलकर सलाह की और एक दरबारी को ये जिम्मेदारी सौंप दी । एक दिन जब महाराज कृष्णदेव राय अपने उद्यान में टहल रहे थे कि वह दरबारी वहां जा पहुंचा, कुछ देर तो वह इधर-उधर की बातें करता रहा, फिर पूछा- ”महाराज! आपने कुछ सुना?”

”क्या?” महाराज ठिठककर उसका चेहरा देखने लगे । ”यदि जान बखाने का वचन दें तो कुछ कहूं ।” महाराज ने एक क्षण कुछ सोचा, फिर बोले- ”ठीक है, जो कहना है, निःसंकोच  कहो ।” ”महाराज! मुझे कुछ ऐसा आभास मिला है कि हमारे तेनालीराम जी पड़ोसी शत्रु राजा से मि ने हुए हैं । हमारे यहां की गुप्त बातें उनके जरिए पड़ोसी राजा तक पहुंचती रहती हैं ।”

”क्या बकते हो ।” आखें निकालकर महाराज गरजे- ”जानते हो क्या कह रहे हो  तुम ? ”मुझे तो पहले ही ऐसा अंदेशा था महाराज कि मेरी बात सुनते ही आप आग-बबूला हो उठेंगे । यही कारण है कि बाकी दरबारी भी इस बात को जानते हैं, किन्तु इसी कारण कहने का साहस नहीं करते कि तेनालीराम का जादू आपके सिर पर चढ़कर बोलता है ।

उसकी शिकायत तो आप सुन ही नहीं सकने और यही कारण है कि वह… ।” ”कैसे विश्वास कर लें हम तुम्हारी बात पर-जबकि हम जानते हैं कि तेनालीराम हमारा सच्चा वफादार है । सुनो दरबारी । हम विश्वास से कह सकते हैं कि तुम्हें कहीं से गलत सूचना मिली है ।”

”अपने- अपने विश्वास की बात है, महाराज । आपको जिस प्रकार तेनालीराम पर विश्वास है, उसी प्रकार मुझे अपनी सूचना पर विश्वास है । पूरी तरह जांच-परख के उपरान्त ही मैंने आपके समक्ष यह बात रखने का साहस किया है ।”

उस दरबारी की दृढ़ता देखकर एक बार तो महाराज भी सोचने पर विवश हो गए कि कहीं यह दरबारी सत्य ही तो नहीं कह रहा ? फिर कुछ सोचकर वे बोले : ”ठीक है, हम इस बात की गुप्त जांच करवाएंगे और यदि तेनालीराम दोषी पाए गए तो उन्हें राजद्रोह के अपराध में कठोर दण्ड दिया जाएगा ।”

दरबारी अभिवादन करके चला गया । उसके जाते ही महाराज ने तेनालीराम को बुलाया और सीधे लहजे में पूछा-  ”तेनालीराम! हमें सूचना मिली है कि तुम राजद्रोह में शामिल हो और पड़ोसी राजा से मिलकर हमारे राज्य की गुप्त सूचनाएं उसे देते हो । क्या यह सच है ।”

तेनालीराम हकबकाए से खड़े कृष्णदेव राय का चेहरा देखते रह गए । आरोप ऐसा था कि उनके दिमाग पर सन्नाटा छा गया । कहें तो क्या कहें ? एकाएक ही कुछ सूझा ही नहीं । ”तुम्हारी खामोशी इस बात की गवाह है तेनालीराम की हमें जो सूचना मिली है, वह सच है-तुम देशद्रोही और गद्दार हो ।”

”महाराज…!” तेनालीराम की आखें छलछला आईं- ”यह आप… ।” ”यदि पड़ोसी राजा के लिए तुम्हारे मन में इतनी ही हमदर्दी है तो जाओ, वहीं जाकर रहो और हमारे राज्य को फौरन छोड़ दो ।” महाराज ने अपना निर्णय सुना दिया । ”महाराज! इतने बड़े अपराध की इतनी मामूली सजा?” रुंधे से स्वर में तेनालीराम बोला ।

”तुम्हारी अब तक की सेवाओं, तुम्हारे मित्रतापूर्ण व्यवहार तथा तुम्हारे पद की गरिमा को देखते हुए तुम्हें इतना ही दण्ड देना उचित है-किन्तु यदि यही अपराध किसी और ने किया होता तो हम उसकी बोटियां नुचवा कर चील कौवों को खिला देते ।” क्रोध से बिफर कर महाराज बोले ।

तेनालीराम ने महाराज का निर्णय सुनकर सिर झुका दिया । अपनी सफाई में एक लफज भी उन्होंने नहीं कहा और चुपचाप वहां से चले गए । दूसरे दिन: पूरे विजय नगर में यह बात फैल गई कि तेनालीराम राज्य छोड्‌कर चला गया है । दरबारियों की तो खुशी की सीमा ही नहीं रही थी । अब तो वे सब महाराज पर अपना-अपना प्रभाव बढ़ाने और पदोन्नति पाने के विषय में सोचने लगे ।

उधर तेनालीराम विजयनगर के शत्रु राजा की राजधानी में जा पहुंचे और वहां के राजा से भेंट की । फिर छन्दों में उसके तथा उसके राज्य के गुणों का वर्णन किया । राजा उसे पहचानते नहीं थे । उन्होंने प्रसन्न होकर तेनालीराम से उसका परिचय पूछा ।

तेनालीराम का परिचय पाकर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ । उसने उसका बड़ा नाम सुना  था । अत: उसने आदेश दिया की तेनालीराम का राजकीय स्वागत किया जाए तथा उनसे व्यवहार भी राजकीय अतिथि की भांति हो ।

सारी औपचारिकताओं के बाद राजा ने उसे अपने करीब ही सिंहासन पर बैठाया और बोला- ”तेनालीराम जी! आपके महाराज कृष्णदेव राय तो हमें अपना शत्रु समझते हैं, फिर आप कैसे इतनी निडरता से हमारे राज्य में चले आए । क्या आपको ऐसा नहीं लगा कि हमारे राज्य में आपका कोई अहित भी हो सकता था-क्या आप अपने महाराज का कोई संदेश लेकर पधारे हैं ?”

”राजन! आप विद्वान हैं, नेक और गुणी हैं, अपार शक्ति के स्वामी और सुयोग्य प्रशासक हैं तथा प्रजा का हित चाहने वाले हैं । बिस्कूल ऐसे ही गुण हमारे महाराज में भी हैं । वे आपको अपना शत्रु नहीं, मित्र मानते हैं । आपके और हमारे राज्य में शत्रुता का जो भ्रम बना हुआ है, उसी के निवारण के लिए महाराज ने मुझे आपके पास भेजा है ।”

”क्या कहा?” राजा चौके- ”महाराज कृष्णदेव राय ने आपको स्वयं हमारे पास भेजा है और वे हमें अपना मित्र मानते हैं ? किन्तु हमारे गुप्तचरों के अनुसार वे हम पर हमला करने की तैयारियां कर रहे हैं ।” ”राजन! ये गुप्तचरों की अज्ञानता है । हमारे गुप्तचरों का भी ऐसा ही कहना है ।

लगता है कहीं कोई गलतफहमी उत्पन्न हो गई है और दोनों राज्यों की फौजें आमने-सामने आ गईं-राजन! इतिहास गवाह है कि युद्ध किसी के लिए भी लाभकारी सिद्ध नहीं हुआ, इसी कारण सत्यता का पता लगाने के लिए हमारे महाराज ने हमें आपके पास भेजा है कि किस कारण आप युद्ध के लिए उतावले हैं ।”

”हम तो हरगिज भी युद्ध नहीं चाहते-आपकी सेनाएं सीमा पर आईं तो हमें भी अपने बचाव में वहां सेनाएं भेजनी पड़ी-अब आप कहते हैं कि महाराज कृष्णदेव राय युद्ध नहीं चाहते-मगर हम किस प्रकार विश्वास करें कि वे युद्ध नहीं चाहते और मित्रता के इक्षक हैं ।”

”आप कल ही कुछ उपहार व सन्धि पत्र लेकर अपना एक दूत विजय नगर के लिए रवाना कर दें । उस दूत को मैं भी अपना एक पत्र दे दूंगा । यदि महाराज कृष्णदेव राय आपका उपहार स्वीकार कर लें, तो मित्रता समझी जाए और यदि न स्वीकार करें तो आप जो चाहें मुझे दण्ड दें ।”

”किन्तु यह तो मेरी ओर से सुलह हुई । ये तो मेरी हेठी मानी जाएगी लोग कहेंगे कि मैंने डरकर सन्धि का प्रस्ताव भेजा ।” ”नहीं इसमें हेठी की कोई बात नहीं । प्रजा की भलाई और शांति के लिए किया कोई कार्य शर्मनाक नहीं होता ।”

राजा की समझ में आ गया और दूसरे ही दिन उसने कीमती उपहारों के साथ अपना एक दूत विजय नगर की ओर रवाना कर दिया । उधर-दो ही दिन में चालाक दरबारियों की करतूत महाराज को पता चल चुकी थी कि तेनालीराम तो बेकसूर था ।

उन्होंने सोच लिया कि ऐसे दरबारियों को कठोर दण्ड देंगे किन्तु उससे पहले वे तेनालीराम के विषय में जानने को बेचैन थे कि वह कहां होगा । तीसरे दिन जैसे ही पड़ोसी राजा का दूत बहुमूल्य उपहार और सन्धिपत्र लेकर महाराज कृष्णदेव राय के पास पहुंचा और उसने सारी बात बताई, वैसे ही महाराज प्रसन्न हो उठे ।

मन ही मन में उन्होंने तेनालीराम की बुद्धि की प्रशंसा की तथा तुरन्त एक मंत्री को उपहारों सहित पड़ोसी राज्य के लिए रवाना कर दिया और एक पत्र में ये भी प्रार्थना की कि तेनालीराम को सम्मान सहित हमारे मंत्री के साथ भेज दें । और जब तेनालीराम वापस विजय नगर पहुंचा तो महाराज कृष्णदेव राय ने उसको अपने सीने से लगा लिया ।

जिन दरबारियों ने तेनालीराम के विरुद्ध षड्‌यंत्र रचा था, उन्हें काफी शर्मिन्दगी उठानी पड़ी । राजा उन्हें कठोर दण्ड देने के पक्ष में थे, किन्तु तेनालीराम ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया और कहा : ”महाराज! यदि ये लोग ऐसा न करते तो पड़ोसी राज्य से मन-मुटाव कैसे समाप्त होता- आपको तो इनका उपकार मानना चाहिए ।” अपने प्रति अब भी तेनालीराम के मन में आदर देखकर उन सभी के सिर शर्म से झुक गए ।


Story of Tenali Raman # 12. सबसे बड़ा सबूत |

दरवार में कुछ दरबारियों का तो काम ही यही था कि जैसे भी हो तेनालीराम को नीचा दिखाया जाए । कोई ऐसा षड़यंत्र रचा जाए जिससे कि तेनालीराम महाराज की नजरों से गिर जाए । वे सब यानी तेनालीराम से ईर्ष्या रखने वाले सभी अधिकारी पिछले काफी दिनों से इसी प्रयास में लगे हुए थे ।

इस बार उन्होंने तेनालीराम पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा-लगाकर महाराज के कान भरने आरम्भ कर दिए थे । अकसर ऐसा होता है कि जब बार-बार किसी झूठी बात को कहा जाए तो वह सच लगने लगती है । पिछले कुछ दिनों से सभी दरबारी राजा के कान भरने पर लगे हुए थे ।

इस समय भी एक दरबारी महाराज के पास उपस्थित था- ”महाराज! यदि जान की अमान पाऊं तो कुछ अर्ज करूं ।” ”हां-हां-कहो क्या बात है ?” ”पहलें आप अभयदान दें तो कहूं ।” डरते हुए दरबारी बोला । ”ठीक है-हम तुम्हें अभयदान देते हैं-अब कहो ।”

”महाराज!” निर्भय होकर वह दरबारी बोला- ”सुनने में आ रहा है कि आजकल तेनालीराम अनाप-शनाप तरीकों से खूब धन बटोर रहे हैं और क्योंकि वो आपके मुंह चढे हैं, परमप्रिय हैं, इसलिए किसी की हिम्मत नहीं होती कि आपसे शिकायत करे-बेचारी प्रजा दो पाटों के बीच पिस रही है ।

एक ओर आपका डर है दूसरी ओर तेनालीराम की पुर्णिया ।” बड़े ही प्रभावशाली ढंग से दरबारी ने अपनी बात रखी । ”ठीक है, हम इस तथ्य की जांच कराएंगे ।” महाराज चूंइक जानते थे कि दरबारी तेनालीराम से जलते हैं, इसलिए शिकायतें करते रहते हैं, अत: इस प्रकार कहकर वे बात को टाल दिया करते थे ।

इसके बावजूद यह क्रम बदस्तूर जारी था । दरबारी भी हार मानने वाले नहीं थे । महाराज बात टालते नहीं थक रहे थे और दरबारी शिकायतें करते नहीं थक रहे थे । किन्तु वही बात-एक झूठ को रोज-रोज बोलो तो वह भी सच लगने लगता है ।

एक दिन महाराज कृष्णदेव राय सोचने लगे कि कहीं ऐसा तो नहीं कि दरबारियों की बातों में कुछ सच्चाई अवश्य हो और हम तेनालीराम के स्नेह के कारण बात को टालकर कोई अनर्थ कर रहे हों ।  जिस प्रकार से तेनालीराम की शिकायतें आ रही हैं, उससे तो यही लगता है कि वह हमारे प्यार और दिए गए सम्मान का अनुचित लाभ उठा रहा है ।

किसी ने सच ही कहा है, इंसान की बुद्धि बदलते देर नहीं लगती । लगता है तेनालीराम को दण्ड देना ही होगा अन्यथा मेरे न्याय पर उंगली उठने लगेगी । ये बात मस्तिष्क में आते ही महाराज ने दूसरे दिन ही तेनालीराम को दरबार में तलब कर लिया: ”तेनालीराम! पिछले लगभग दो माह से तुम्हारे खिलाफ शिकायतें मिल रही हैं कि तुमने राज्य में रिश्वत का बाजार गर्म किया हुआ है ।”

”रिश्वत ? महाराज! मैं और रिश्वत ? महाराज! ये तो उसी प्रकार असम्भव है जिस प्रकार नदी के दो पाटों का मिलना ।” ”हम भी यह बात जानते हैं, इसी कारण इतने दिनों तक खामोश रहे, किन्तु अब और अधिक शिकायतें नहीं सुनी जातीं, अत: या तो तुम अपनी ईमानदारी का प्रमाण दो या पद से त्यागपत्र ।”

महाराज के स्वर में छिपी वेदना को तेनालीराम ने तुरन्त भांप लिया । वह समझ गया कि उसके दुश्मनों ने महाराज की नाक में दम किया हुआ है, इसीलिए दुखी होकर महाराज को यह सब कहना पड़ा है । इस साजिश का भंडाफोड़ करना ही पड़ेगा ।

उधर-तेनालीराम को भरे दरबार में अपमानित करवाकर उनसे जलने वाले दरबारी मन ही मन बेहद खुश हो रहे थे । फिलहाल तेनालीराम की समझ में कुछ नहीं आ रहा था, अत: वह सिर झुकाए खामोश बैठा था ।

दरबार में रोजमर्रा की कार्यवाही प्रारम्भ हो गई ।

जब दरबार की कार्यवाही समाप्त होने को आई तो महाराज ने एक बार पुन: तेनालीराम को याद दिलाया कि उसे अपनी ईमानदारी का प्रमाण देना है । तेनालीराम चुपचाप अपने घर चले गए । अगले दिन जैसे ही दरबार की कार्यवाही आरम्भ हुई, वैसे ही तेनालीराम का नौकर आखों में औसू लिए दरबार में हाजिर हो गया और एक पत्र मंत्री जी के हाथों में सौंप दिया ।

सभी ने आश्चर्य से एक दूसरे की ओर देखा । मंत्री ने पत्र लेकर महाराज की ओर बढ़ाया तो वे बोले- ”पत्र पढ़ा जाए-इसमें अवश्य ही तेनालीराम की बेगुनाही का सबूत है ।” मंत्री पत्र खोलकर पढ़ने लगा: महाराज!  शत-शत प्रणाम ।

कल मुझ बेकसूर को भरे दरबार में बड़ा लज्जित होना पड़ा । मेरे दरबारी साथी भी मेरे खिलाफ यह आरोप सुनकर चुप बैठे रहे, जिससे लगा कि मैं उनकी नजर में कुसूरवार हूं-महाराज! मुझ जैसे सत्यवादी के लिए ऐसी अपमानजनक स्थिति बेहद कष्टकर थी-ऐसे जीवन से तो मृत्यु ही श्रेष्ठ है, इसलिए मैं स्वयं को नदी की भेंट चढ़ा रहा हूं-ईश्वर से यही कामना है कि महाराज के नेतृत्व में विजय नगर राज्य खूब फूले फले ।

आपकासेवक तेनालीराम पत्र का मजमून सुनते ही महाराज कृष्णदेव राय ने आखें मूंद लीं । आसुओं के दो मोती उनके गालों पर लुढ़क आए फिर एक दीर्घ निःश्वास लेकर वह बडूबड़ाए- ‘हे मेरे प्रभु! यह मैं कैसा अनर्थ कर बैठा- अब तेनालीराम जैसा अनमोल हीरा हमें कहां मिलेगा ।

”आप ठीक कहते है महाराज!” तेनालीराम का हितैषी एक दरबारी दुखी स्वर में  बोला- “तैनालीराम बहुत ही बुद्धिमान था । उसकी पूर्ति हो पाना असम्भव है । वह राजभक्त, विद्वान, सत्यवादी ६ ईमानदार था । वह सबका हितैषी और खुशमिजाज था ।”

धीरे-धीरे दरबार कक्ष में तेनालीराम की प्रशंसा के गीत गाए जाने लगे । इनमें दोनों ही किस्म के लोग थे । तेनालीराम के हितैषी भी और शत्रु भी । जो रोज राजा के कान भरते थे, वे भी इस वार्ता में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे ।

महाराज कृष्णदेव राय को फौरन अपनी भूल का अहसास हो गया, किन्तु अब हो भी क्या सकता था । उन्होंने तत्काल आदेश जारी किया- ”आज की सभा शोक सभा के रूप में होगी । आप सभी ननालोराम की आत्मा की शान्ति के लिए ईश्वर से सच्चे मन से प्रार्थना करें । आज हम तेनालीराम के गुणों का चर्चा करके उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि देंगे ।”

आज्ञा का तुरन्त पालन हुआ । राज्य का झण्डा झुका दिया गया । सभी ने कुछ न कुछ कहकर तेनालीराम को श्रद्धांजलि अर्पित की, फिर तेनालीराम के गुणों की चर्चा शुरू हो गई । सभी बढ़-चढ़कर तेनालीराम की बढ़ाइयां कर रहे थे । बात यहां तक आ पहुंची कि दरवारियों ने स्वयं कुबूल किया कि उन पर लगा भ्रष्टाचार का यह आरोप बिस्कूल मिथ्या था और उनके दुश्मनों ने उन्हें बदनाम करने के लिए यह चाल चली थी । सभी ने एकमत से इसका अनुमोदन किया ।

और-यही वक्त था जब दर्शक दीर्घा से एक जटाजूट उठ खड़ा हुआ और अपना लिबास आदि उतारकर फेंकते हुए बोला- ”महाराज की जय हो-महाराज न केवल आपने अपने श्रीमुख से बल्कि मो दरबारी साथियों ने भी मुझे एक स्वर में निर्दोष व सत्यवादी बताया है-मेरी ईमानदारी का इससे बड़ा मुख और क्या होगा महाराज!” सभी ने देखा कि वह नकली जटाजूटधारी स्वयं तेनालीराम था ।

उसे अपने समक्ष देखकर उससे ईर्ष्या करने वाले दरबारी जहां भौचक्के से लगे, वहीं उसके मित्र और स्वयं महाराज का भी चेहरा खिल उठा । वे एक सुखद मुस्कान होंठों पर बिखेरकर बोले- ”तुमसे कोई नहीं जीत सकता तेनालीराम । तुम्हारी विद्वता का पार नहीं पाया जा सकता ।

तुमने सिद्ध कर दिया कि तुम निर्दोष हो और ऐसा तुमने अपने आलोचकों के मुंह से ही कहलवा दिया-तुम धन्य हो ।” यह बात महाराज ने दरबारियों की ओर देखकर कही थी, अत: जो दरबारी तेनालीराम से खार खाते थे, उनकी गरदनें शर्म से झुक गईं ।


Story of Tenali Raman # 13. सबसे बड़ी कमी |

एक बार महाराज कृष्णदेव राय को न जाने क्या सूझा कि उन्होंने विजय नगर को सजाने-संवारने का हुक्म दिया । वह विजय नगर को सुन्दरता और स्वच्छता में बेजोड़ देखना चाहते थे । अत: उन्होंने प्रधानमंत्री को बुलाकर अपनी इच्छा से अवगत कराया तथा आवश्यक निर्देश भी दिए ।

”मंत्री जी! हमारे सपनों का विजय नगर ऐसा होना चाहिए कि स्वर्ग के देवता भी विजय नगर से ईर्ष्या करें.. .इस कार्य के लिए जितना चाहे धन खर्च हो, इसकी तनिक भी चिन्ता न करें ।” आदेश मिलने भर की देर थी । विजय नगर का कायाकल्प होने लगा ।

कुछ ही समय में विजय नगर की चर्चा आर्यावर्त के सुन्दरतम राज्यों में होने लगी । दूर-दूर से सैलानियों के झुण्ड विजय नगर की शोभा देखने आने लगे । जो भी वहां आता, महाराज कृष्णदेव राय और विजय नगर की सुन्दरता की चर्चा करता । ज्यों-ज्यों विजय नगर की कीर्ति फैलती जा रही थी, त्यों-त्यों महाराज फूले न समा रहे थे ।

एक दिन दरबार लगा हुआ था । सभी अपने-अपने आसनों पर विराजमान थे और अपने मंत्रियों की प्रशंसा करते हुए महाराज कह रहे थे- ”हमारे प्रधानमंत्री जी की दिन-रात की मेहनत ने विजय नगर की खूबसूरती में चार चांद लगा दिए फिर भी यदि आपकी दृष्टि में कोई कमी हो तो बताइये ताकि उसे भी दूर किया जाए ।”

”अन्नदाता!” लगभग सभी ने समवेत स्वर में उत्तर दिया- ”विजय नगर जैसा सुन्दर राज्य तो इस पूरी पृथ्वी पर दूसरा नहीं है । हमें तो इसकी सुन्दरता में कोई कमी या कोई दोष दिखाई नहीं देता ।”  पूरा दरबार महाराज और प्रधानमंत्री की प्रशंसा के गीत गा रहा था । तभी पुरोहित की दृष्टि तेनालीराम पर पड़ी जो मुंह पर हाथ रखे दरबार की कार्यवाही को देख रहा

था । देखते ही उसने महाराज से कहा- ”महाराज! तेनालीराम को शायद विजय नगर की प्रशंसा पसंद नहीं आई । देखिए तो किस प्रकार चुपचाप बैठे हैं । लगता है आपकी खुशी से इन्हें कोई खुशी प्राप्त नहीं हुई ।” महाराज ने तेनालीराम की ओर देखा, फिर पूछा- ”क्यों तेनालीराम ।

इस प्रकार गुमसुम क्यों बैठे हो? आज चारों ओर विजय नगर की प्रशंसा हो रही है, क्या तुम्हें इस बात की कोई खुशी नहीं है?”  ”खुशी तो बहुत है महाराज! मगर… ।” ”मगर….मगर क्या ? जवाब दो तेनालीराम- अवश्य ही कोई ऐसी बात है जो तुम्हें भली प्रतीत नहीं हो रही ।”

“एक कमी रह गयी है महाराज ।” ”कैसी कमी?” कमी की बात सुनकर महाराज तिलमिला से गए- ”स्पष्ट कहो तेनालीराम यदि तुमने वह कमी न बताई तो तुम्हें मृत्युदण्ड मिलेगा ।” ”मुझे मंजूर है महाराज, किन्तु उस कमी को देखने के लिए आपको मेरे साथ नगर भ्रमण के लिए चलना होगा ।”

”ठीक है-चलो ।” तेनालीराम महाराज व अन्य दरबारियों को लेकर कमी दिखाने चल पड़ा । सभी अधिकारी, मंत्रीगण और स्वयं महाराज भी चकित थे कि ऐसी कौन सी कमी विजय नगर में रह गई जो तेनालीराम को मृत्युदण्ड का भी भय नहीं है ।

महाराज की सवारी महल से बाहर निकली और सुनसान सड़क पर चल दी । हमेशा ऐसा होता था कि ज्यों ही महाराज की सवारी महल से बाहर निकलती, त्यों ही प्रजा सड़क के दोनों ओर एकत्रित हो जाती तथा महाराज की जय-जयकार के स्वर बुलंद होने लगते थे ।

लोग महाराज पर फूलों की वर्षा करते थे, किन्तु इस बार ऐसा कुछ भी न था । न प्रजा थी, न जय-जयकार का उद्‌घोष और न फूलों की वर्षा और न किसी प्रकार का उत्साह । एक अजीब सा सन्नाटा चारों ओर बिखरा हुआ था । निःशब्द सवारी आगे बढ़ती जा रही थी ।

ये सन्नाटा महाराज को बड़ा अजीब लगा । महाराज ने तेनालीराम की ओर देखा । ”महाराज! इस सुन्दरता के चक्कर में आप प्रजा से दूर हो क्यू हैं और प्रजा आपसे दूर चली गई है-क्या इससे बड़ी भी कोई कमी हो सकती है ?” महाराज ने मंत्री की ओर देखा:

”महाराज! फूल आदि बरसाकर प्रजा विजय नगर की सड़कें गंदी न करे, व्यर्थ का ध्वनि प्रदूषण न फैले, इसलिए इन सब कार्यों पर रोक लगा दी गई है ।” इसी बीच महाराज का रथ नगर से दूर एक बस्ती के करीब आ गया ।

वहां आकर महाराज को पता लगा कि प्रजा पर नए-नए कर लगाकर उसकी कमर तोड़ दी गई है । विजय नगर की सुन्दरता के चक्कर में बस्तियों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा-बस्तियों में गंदगी के कारण बीमारियां फैल रही हैं ।

प्रजा के इस कष्ट को देखकर महाराज का दिल बहुत दुखी हुआ । वे समझ गए कि क्या कमी है पहले वाले विजय नगर की अपेक्षा आज के विजय नगर में । उन्होंने फौरन आज्ञा दी: ”सारे काम बंद करा दिए जाएं । बड़े व नए कर वापस ले लिए जाएं ।

प्रजा का जीवन ही सुन्दर रहीं बना तो विजय नगर की सुन्दरता का क्या  महत्व ? हमें प्रजा और अपने बीच ये दूरी स्वीकार नहीं । सचमुच तेनालीराम ने एक बड़ी कमी की ओर ध्यान आकृष्ट किया है ।” और उस दिन से महाराज की नजरों में तेनालीराम की इज्जत और अधिक बढ़ गई ।


Story of Tenali Raman # 14. तोता बोलता नहीं |

एक दिन तेनालीराम सुबह-सुबह सोकर उठे ही थे कि राजमहल का एक सेवक दौड़ा-दौड़ा आया और उनके कदमों में गिर पड़ा- ”रक्षा…रक्षा…।” ”अरे भई ! कौन हो तुम, उठो और बताओ कि क्या बात है ?” उसे कंधों से पकड़कर ऊपर उठाते हुए तेनालीराम ने पूछा- ”आखिर किस्सा क्या है ?”

”अब आप ही मुझे मरने से बचा सकते हैं ।” ”आखिर बात क्या है ? कौन हो तुम ?” । ”मैं महल का सेवक हूं महाराज!” रोते-रोते वह बोला- ”करीब एक माह पूर्व महाराज को एक व्यापारी ने एक तोता भेंट किया था । महाराज ने उसकी देखभाल की जिम्मेदारी मुझे सौंपी थी और कहा था कि यदि तोता मर गया या मुझे तुमने तोते के मरने की सूचना लाकर दी, तो तुम्हारा सिर कलम करवा दिया जाएगा ।

अब तोता तो मर गया- आप ही बताएं कि मैं महाराज को ये खबर कैसे दूं । यदि तोता मरने की सूचना देता हूं तो सिर कलम होता है, नहीं देता, तो भी मारा जाऊंगा ।” ”हूं ।” तेनालीराम सोचने लगा । समस्या सचमुच गम्भीर थी ।

कुछ देर सोचने के बाद वह बोले- ”तुम ऐसा करना… ।” और फिर वह धीरे-धीरे उसके कान में कुछ बताने लगा । पूरी बात सुनकर रखवाले की आखों में चमक उभर आई । कुछ देर बाद वह चला गया । तेनालीराम भी तैयार होकर दरबार में जा पहुंचे । वह महाराज के कक्ष में बैठे बातें कर रहे थे कि तभी तोते का रखवाला वहां आ पहुंचा- ”महाराज की जय हो ।”

”कहो, क्या बात है-तोता कैसा है ?” ”वैसे तो ठीक दिख रहा है महाराज, मगर कल रात से कुछ खा-पी नहीं रहा है ।” ”क्यों ?” ”क्या मालूम महाराज-न हिलता-डुलता है और न ही बोलता है-सुबह से तो उसने आख भी नहीं खोली है ।” ”ऐसी बात है तो चलो, हम स्वयं चलकर देखते हैं- आओ तेनालीराम ।”

रखवाला उन्हें लेकर उस स्थान पर आया जहां तोता पिंजरे में रखा गया था । महाराज ने तोते को और भड़क उठे- ”अरे मूर्ख! सीधी तरह क्यों नहीं बोलता कि तोता मर गया है: बात को इतना घुमा फिरा रहा है ।” ”क्षमा करें महाराज! आपने कहा था कि यदि तुम मेरे पास तोते के मरने की खबर लाओगे तो तुम्हारा सिर धड़ से अलग करवा दिया जाएगा ।”

”ओह!” अब महाराज की समझ में सारी कहानी आ गई । उन्होंने तेनालीराम की ओर देखा, वह मंद-मंद मुस्करा रहा था । महाराज समझ गए कि यह सब किया धरा तेनालीराम का ही है । ”आज तुमने फिर एक निर्दोष की रक्षा कर ली तेनालीराम-तुम धन्य हो । ” ”सब आपकी कृपा है महाराज ।” तेनालीराम ने सम्मान से सिर झुका दिया ।


Story of Tenali Raman # 15. महामूर्ख |

होली और दीवाली दो त्योहार ऐसे थे जिनपर महाराज कृष्णदेव राय अपने दरबारियों को विशेष उपाधियां दिया करते थे । दीवाली पर पण्डितश्री की उपाधि दी जाती थी और होली पर महामूर्ख राज की ।

इसे इत्तफाक ही कहा जाएगा कि अपनी तीक्षा बुद्धि के बल पर हर बार यह उपाधियां और इनसे संबंधित उपहार तेनालीराम ही झटक ले जाते थे । इस बार भी होली का त्योहार आया तो चारों ओर धूम मच गई । सभी दरबारियों की एक गुप्त सभा हुई जिसमें तय हुआ कि इस बार ‘महामूर्ख राज’ का खिताब और उपहार तेनालीराम को नहीं लेने दिया जाएगा ।

महाराज की ओर से इस बार दस हजार स्वर्ण मुद्राओं का इनाम घोषित किया गया था । खैर, इस बार सभी दरबारियों ने फैसला कर लिया कि खिताब और उपहार तेनालीराम को न लेने दिया जाए इसके लिए उन्होंने तेनालीराम के खास सेवक को पढ़ा-लिखाकर व इनाम का लालच देकर तेनालीराम को छककर भांग पिलवा दी ताकि होली उत्सव पर वह अपने घर पर ही सोता रहे और राजकीय उत्सव में शामिल न हो सके ।

दोपहर बाद तेनालीराम का नशा कुछ हलका हुआ तो हड़बड़ाकर वह उठा और घबराहट में ही राजमहल की ओर दौड़ पड़ा । राजा कृष्णदेव राय उसे देखते ही डपटकर बोले- ”अरे तेनालीराम! यह क्या मूर्खता की कि आज के दिन भी भांग घोंटकर सो गए ।”

तेनालीराम पर झाडू पड़ते देखकर सभी दरबारी प्रसन्न हो उठे और बोले- ”आप बिकुल ठीक कहते हैं महाराज! सचमुच बड़ा ही मूर्खतापूर्ण कार्य किया है तेनालीराम ने । ये मूर्ख ही नहीं महामूर्ख है ।” ”हां-महामूर्ख । ” महाराज के श्रीमुख से यह सुनते ही तेनालीराम की औखें चमक उठीं । वह बोला- ”आपने मुझे महामूर्ख कहा महाराज ?”

”तुम्हारा कार्य ही मूर्खों जैसा है । तुम्हें तो इस राजकीय उत्सव में सबसे पहले उपस्थित होना चाहिए था ।” ”इसलिए मैं महामूर्ख हुआ ।” ”बिकुल । महाराज चटखारा सा लेकर बोले ।” ”क्यों भाइयों ।” तेनालीराम दरबारियों की ओर घूम गए । फिर पूछा- “क्या आप लोग भी ऐसा ही समझते हैं कि मैं महामूर्ख हूं ?”

”हां बिकुल- तुम महामूर्ख हो ?” सभी दरबारी एक स्वर में बोले । ”महाराज!” तेनालीराम महाराज से मुखातिब होकर बोला- ”आपका और पूरी सभा का आज होली उत्सव पर यह फैसला है कि मैं महामूर्ख हूं इसलिए महाराज से मेरा निवेदन है कि इस उत्स जन की सबसे बड़ी उपाधि ‘मूर्खराज’ और सबसे बड़ा पुरस्कार दस हजार स्वर्ण मुद्राएं मुझे प्रदान करने की कृपा करें ।”

और इस प्रकार होली के अवसर की सबसे बड़ी उपाधि और पुरस्कार तेनालीराम ने झपट लिया । उसकी चतुराई देखकर महाराज मन ही मन उसकी प्रशंसा किए बिना न रह सके ।


Story of Tenali Raman # 16. हत्यारे फूलदान |

एक बार महाराज कृष्णदेव राय ने अपने राज्य का वार्षिक उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया, उसमें आस-पास के राजाओं को भी आमंत्रित किया । सभी ने उन्हें कीमती उपहार दिए । उपहारों में चार बेशकीमती फूलदान भी थे जो एक राजा ने दिए थे ।

महाराज कृष्णदेव राय को वे फूलदान इतने अधिक मन भाए कि उन्होंने उनकी हिफाजत के लिए अलग से एक सेवक तैनात कर दिया और उसे सख्त हिदायत दी कि यदि फूलदानों के रख-रखाव में किसी प्रकार की लापरवाही हुई या वे टूट गए तो उसे मृत्युदण्ड दिया जाएगा ।

रामसिंह नामक वह सेवक दिन-रात उनकी हिफाजत करता । उन पर धूल नहीं जमने देता था । किन्तु एक दिन ऐसा हुआ कि जब वह उन फूलदानों की सफाई कर रहा था तो अचानक उसके हाथ से छूटकर एक फूलदान टूट गया ।

महाराज को खबर मिली तो वे आग-बबूला हो उठे और उन्होंने तुरन्त आदेश जारी कर दिशा कि रामसिंह नामक इस लापरवाह सेवक को आज से आठवें दिन फांसी दे दी जाए । सैनिकों ने फौरन रामसिंह को कारागार में डाल दिया ।

यह बात तेनालीराम को भी पता चली तो वे महाराज के पास गए और बोले-  ”महाराज! रामसिंह बीस वर्षों से महल कीन्डेवा में है, उसे इतने मामूली नुकसान का इतना कठोर दण्ड देना उचित नहीं है ।”  उस समय महाराज क्रोध में भरे बैठे थे, बोले- ”तेनालीराम इस विषय में हम किसी की कोई भी बात नहीं सुनना चाहेंगे-हमने जो आदेश दे दिया, वह अटल है ।”

तेनालीराम अपना-सा मुंह लेकर रह गए लेकिन मन ही मन सोच लिया कि चाहे कुछ भी हो, रामसिंह को मृत्युदण्ड नहीं मिलने देंगे । वे तुरन्त कारागार में जाकर रामसिंह से मिले और उससे सारी बात पूछी । रोते हुए रामसिंह ने बताया कि वह अपनी जान से भी अधिक हिफाजत कांच के उन फूलदानों की करता था, किन्तु शायद मेरा ही बुरा वक्त आ गया था कि फूलदान हाथ से छूट गया ।

तेनालीराम ने उसे दिलासा दिया, फिर उसके कान में एक बात कही । पूरी बात समझाकर बोले- ”यदि तुम ऐसा करोगे तो कम से कम तीन लोगों के प्राण और बचा लोगे ।” तेनालीराम अपनी बात कहकर चला गया । दिन तेजी से बीते और फांसी वाला दिन आ गया ।

उस दिन सभी फांसी गृह में एकत्रित हुए । महाराज भी आए । रामसिंह को लेकर उनके मन में अभी भी क्रोध  था । वे अपनी आखों से उसे फांसी पर झूलते देखना चाहते थे । रामसिंह को फांसी के तख्ते पर चढ़ा दिया गया, तब जल्लादों ने उससे उसकी अंतिम इच्छा पूछी । रामसिंह ने कहा- ”मैं बाकी बचे वे तीनों फूलदान भी देखना चाहता हूं जिनकी वजह से मैं फांसी पर चढ़ाया जा रहा हूं ।”

जल्लादों ने महाराज की ओर देखा, महाराज ने आज्ञा दे दी । तुरन्त तीनों फूलदान उसके सम्मुख लाए रामसिंह ने आव देखा न ताव, वे तीनों फूलदान धरती पर पटककर चूर-चूर कर दिए । अब तो महाराज कृष्णदेव राय और भी अधिक क्रोधित हो उठे और क्रोध से थरथर कांपते हुए वे बोले- “मूर्ख ये कीमती फूलदान क्यों तोड़ दिए तुमने-क्या मिला तुम्हें इन्हें तोड़कर ?”

”तीन निर्दोषों का जीवन महाराज!” निर्भीकता से रामसिंह बोला- ”जिस प्रकार मैं निर्दोष इन फूलदानों के कारण फांसी पर चढ़ाया जा रहा हूं कभी न कभी मेरी तरह तीन और लोग भी फांसी पर चढ़ाए जा सकते थे-ये फूलदान मनुष्यों के जीवन से अधिक कीमती नहीं हैं महाराज ।”

रामसिंह की बात सुनकर जैसे नींद से जागे महाराज कृष्णदेव राय । एक पल के सौंवे हिस्से से भी पूर्व उनके मस्तिष्क पर छाई क्रोध की सभी परतें हट गईं और उन्हें तुरन्त आभास हो गया कि क्रोध में वे यह कैसा अनर्थ करने जा रहे थे । उन्होंने फौरन रामसिंह की फांसी स्थगित कर दी ।

अगले दिन उन्होंने सुबह-सुबह रामसिंह को दरबार में बुलाकर पूछा- ”सच-सच बताओ कि तुम्हें ऐसा करने की सलाह किसने दी ?” रामसिंह ने तेनालीराम की ओर देखा । महाराज कृष्णदेव राय सब कुछ समझ गए । फिर तेनालीराम से मुखातिब होकर वह बोले- ”आज तुमने एक निर्दोष की जान तो बचाई ही है तेनालीराम, हमें भी क्रोध में विवेक न खोने देने की मूक सलाह न हैं-दूब धन्य हो तेनालीराम-तुम धन्य हो ।”


Story of Tenali Raman # 17. मनुष्य का स्वभाव |

एक दिन महाराज कृष्णदेव राय के दरबार में इस बात पर बहस चल पड़ी कि मनुष्य का स्वभाव बदला जा सकता है या नहीं ? इस बात को लेकर पूरा दरबार दो भागों में बंट गया था । एक दल का कहना था कि स्वभाव बदला जा सकता है, दूसरे का कहना था कि नहीं बदला जा सकता ।

दूसरे दल का तर्क था कि मनुष्य का स्वभाव कुत्ते की दुम की तरह होता है । यह बहस चल ही रही थी कि महाराज को एक मजाक सूझा । उन्होंने सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करके कहा- ”बात यहां तक पहुंच चुकी है कि यदि कुत्ते की दुम सीधी हो सकती है तो मनुष्य का स्वभाव भी बदल सकता है, नहीं तो नहीं ।”

स्वभाव बदले जाने के समर्थक दल का एक सदस्य बोला- ”मेरा विचार तो यह है कि यदि मन से यत्न किया जाए तो कुत्ते की दुम भी सीधी की जा सकती है ।” ”ठीक है ।” महाराज ने इस बहस में रस लेते हुए कहा- ”आप लोग प्रयास करके देखें ।”

और फिर-राजा ने दस व्यक्ति चुने और उन्हें एक-एक कुत्ते का पिल्ला दिलवाया तथा छ: माह का समय और हर माह की दस स्वर्ण मुद्राएं निर्धारित कीं-उन सभी को कुत्ते की दुम सीधी करनी थी । उन दस व्यक्तियों में तेनालीराम भी था ।

तेनालीराम का भी यही तर्क था कि मनुष्य का स्वभाव बदलता नहीं है, मर जाता है । खैर, तेनालीराम सहित दसों व्यक्ति अपनी-अपनी बुद्धि के हिसाब से दुम सीधी करने के प्रयास में जुट गए । एक ने कुत्ते को भारी वजन बांध दिया ताकि दुम सीधी हो जाए ।

दूसरे ने उसकी दुम एक पीतल की नली में डाल दी । तीसरा कहीं से एक ओझा-तांत्रिक को पकड़ लाया जो कई प्रकार की तांत्रिक क्रियाएं करता रहता, चौथा सुबह-शाम दुम की मालिश करता, पांचवें ने एक ब्राह्मण से मंत्रजाप करवाने शुरू कर दिए छठे ने कुत्ते की पूंछ को सीधी कर उस पर बीस की खप्पचियां बांध दीं, सातवें ने तो शल्य चिकित्सा करवा दी, आठवां नित्य कुत्ते के सामने बैठकर विनती करता कि भाई दुम सीधी रख, दुम सीधी रख, जायका बदलने को भले ही कभी टेढ़ी कर लिया कर, मगर सीधी रख ।

नौंवा कुत्ते को खूब घी-दूध और मिष्ठान्न खिलाता कि शायद अधिक शक्तिशाली होकर सीधी हो जाए । मगर तेनालीराम ? उसने सबसे अनोखा तरीका निकाला, वह कुत्ते को केवल उतना ही खिलाता, जिससे कि वह जीवित रह सके । भूखा रहकर वह पिल्ला अधमरा हो गया । उसके अंग निर्जीव होने लगे ।

छ: माह किस प्रकार व्यतीत हो गए किसी को पता ही न चला । अब पिल्लों को दरबार में पेश करने का दिन आया । पहले व्यक्ति के पिल्ले की दुम वजन बंधी होने के कारण सीधी दिखती थी, मगर जैसे ही उसे भार किया गया, वह फिर टेढ़ी हो गइ । उस व्यक्ति ने अपना माथा पीट लिया । इस प्रकार सभी कुत्तों की र्‌ष दे जत्र पर्दा हटा तो वह टेढ़ी की टेढ़ी ही निकली ।

अब तेनालीराम की बारी आई, उन्होंने कपड़े में से निकालकर अपना मरियल सा पिल्ला महाराज को सामने खड़ा कर दिया । ”लीजिए महाराज!” खुश होकर तेनालीराम बोला- “मैंने कुत्ते की दुम फिलहाल सीधी कर दी है ।” ”ओह तेनालीराम! दुष्ट! यह तुमने क्या किया । अच्छे भले कुत्ते को अधमरा कर दिया । इसमें तो इर हिलाने भर की भी शक्ति नहीं है ।”

”महाराज! मेरा मुख्य उद्देश्य फौरी तौर पर इसकी दुम सीधी करना था जो कि आप देख ही रहे हैं कि सीधी है । यदि मैं इसे खिलाता-पिलाता और इसे किसी प्रकार का अभाव महसूस न होने देता, तो इसकी पूंछ हरगिज सीधी न होती-यदि इसे दो दिन भरपेट और मनोनुकूल खाना मिले तो इसकी पूंछ फिर टेढ़ी हो जाएगी ।

ऐसा ही मनुष्य का स्वभाव होता है-वह बदलता नहीं है, केवल परिस्थितिवश दब जाता है और जब मौका मिलता है तो उभर आता है । स्वभाव निर्जीव प्राय हो सकता है बदल नहीं सकता ।” तेनालीराम की बातें सुनकर सभी दरबारी उनके समर्थन में सिर हिलाने लगे । महाराज की आखों में भी उसके प्रति प्रशंसा के भाव थे ।


Story of Tenali Raman # 18. कितने कौवे |

महाराज कृष्णदेव राय कभी-कभी तेनालीराम को परेशान करने के लिए उल्टे-पुल्टे सवाल पूछा करते थे, किन्तु तेनालीराम हर बार ऐसा उत्तर देते कि महाराज को चुप रह जाना पड़ता ।

ऐसे ही एक दिन महाराज ने तेनालीराम से पूछा- ”तेनालीराम! क्या तुम बता सकते हो कि हमारे राज्य में कुल कितने कौवे हैं ?” ”बता सकता हूं महाराज!” तपाक से तेनालीराम बोले । ”बिल्कुल ठीक-ठीक ?” ”जी हां महाराज, बिल्कुल ठीक-ठीक ।” ”यदि न बता पाए तो मृत्युदण्ड मिलेगा ।”

”कुबूल है महाराज ।” निर्भीकता से तेनालीराम ने कहा । दरबारियों ने महाराज और तेनाली की बातें सुनकर अंदाज लगा लिया कि आज तेनालीराम अवश्य फंसेगा । भला परिन्दों की भी कभी गिनती सम्भव है ? ”ठीक है, हम तुम्हें दो दिन का समय देते हैं-तीसरे दिन तुम्हें बताना है कि हमारे राज्य में कितने कौवे हैं ।”

तीसरे दिन फिर दरबार लगा । महाराज ने तेनालीराम की ओर देखा तो वह फौरन अपने स्थान से उठकर बोला-  ”महाराज, एक लाख, छप्पन हजार नौ सौ बारह ।” ”क्या सचमुच ?” ”महाराज, कोई शुबहा हो तो गिनती करा लें ।” ”यदि गिनती होने पर संख्या कम-ज्यादा निकली तो ?”

”महाराज, वैसे तो ऐसा होगा नहीं…।” बड़े इत्मीनान से तेनालीराम बोला- ”यदि होगा भी तो उसका कारण होगा ।” ”क्या कारण होगा ?” ”यदि संख्या बढ़ रही होगी तो इसका यही मतलब होगा कि हमारे राज्य के कौवों के कुछ रिश्तेदार उनसे मिलने आए होंगे और यदि संख्या घट रही होगी तो इसका अर्थ होगा कि हमारे कुछ कौवे राज्य से बाहर अपनी रिश्तेदारी में गए हैं ।

बाकी मेरी बताई हुई संख्या बिकुल ठीक है ।” महाराज निरुत्तर हो गए । उनसे जलने वाले दरबारी भी अन्दर ही अन्दर कुढू कर रह गए कि ये कमबख्त हमेशा अपनी चालाकी से बच निकलता है ।


Story of Tenali Raman # 19. सयाना कौन |

एक दिन महाराज कृष्णदेव राय ने तेनालीराम से पूछा- ”तेनालीराम! मनुष्यों में सबसे अधिक मूर्ख तथा डरपोक और सबसे अधिक सयाना कौन है ।” तेनालीराम ने एक नजर राजपुरोहित पर डाली, फिर चटखारा-सा लेकर बोले- ”महाराज! ब्राह्मण सबसे अधिक डरपोक व कुछ मूर्ख तथा वैश्य व्यापारी सबसे अधिक सयाने होते हैं ।”

”क्या कहते हो तेनालीराम! ब्राह्मण तो पढ़े-लिखे और विद्वान होते हैं, कोई व्यापारी वैश्य भला ब्राह्मण का क्या मुकाबला करेगा ।” ”महाराज! मैं अपनी बात सत्य सिद्ध कर सकता हूं ।” ”कैसे?” महाराज ने उत्सुकता से पूछा । ”यह बात मैं कल दरबार में सिद्ध करूंगा महाराज !”

दूसरे दिन दरबार लगा तो तेनालीराम ने सबसे पहले राजपुरोहित को अपने करीब बुलाया- ”राजपुरोहित जी ! महाराज ने मुझे एक काम सौंपा है जिसे पूर्ण करने की मुझे पूरी स्वतंत्रता है । इस सिलसिले में चाहूं तो किसी को दण्ड भी दे सकता हूं और चाहूं तो उपहार भी दे सकता हूं । क्यों महाराज ?”

”हां, एक कार्य को पूरा करने के लिए हमने तेनालीराम को विशेष अधिकार दिए हैं ।” महाराज ने कहा । सभी दरबारी चकित थे कि महाराज ने तेनालीराम को ऐसा कौन सा कार्य सौंपा है, जो उसे दण्ड तक देने का अधिकार प्राप्त हो गया ? और फिर…यह बात तेनालीराम राजगुरु को क्यों बता रहा है । अवश्य ही कोई गड़बड़ है ।

राजपुरोहित भी हकबकाया हुआ सा था, वह बोला- ”यह सारी बात तो ठीक है तेनालीराम, किन्तु तुमने मुझे यहां क्यों बुलाया है- और…और यह सब तुम मुझे क्यों बता रहे हो ?” ”घबराएं नहीं राजगुरु ! दरअसल बात यह है कि महाराज को आपकी चोटी की आवश्यकता है, इसके बदले आपको मुंहमांगी रकम दी जाएगी ।”

राजपुरोहित को काटो तो खून नहीं । ये महाराज को कैसी सनक सवार हुई, भला चोटी भी लेने की चीज है । वह हकबकाए से प्रश्नसूचक नजरों से महाराज का चेहरा देखने लगे । लेकिन महाराज खामोश बैठे थे । ”सोच क्या रहे हैं राजगुरु ? क्या आप महाराज को अपनी चोटी देने से इंकार कर रहे हैं ।”

”नहीं-नहीं तेनालीराम जी ।” राजपुरोहित घिघियाए- ”महाराज की आज्ञा सिर माथे पर मगर…मगर मेरी यह चोटी मेरी विद्वत्ता की निशानी है, मेरा सम्मान है ।” ”ओह! तो आज आपका सम्मान महाराज की इच्छा से भी ऊपर है ।” तेनालीराम ने व्यंग्य कसा, फिर फटकार सी लगाई : ”आप जीवनभर महाराज का नमक खाते रहे और आज एक मामूली चोटी के लिए इतने नखरे दिखा रहे हैं-जानते है, जिस सिर पर यह चोटी है, महाराज उसे धड़ से अलग करने का आदेश भी दे सकते हैं, किन्तु हमारे महाराज न्यायशील और रहमदिल हैं, वे ऐसा नहीं चाहते कि आपको कोई नुकसान हो ।

अन्यथा तुम्हारी चोटी मांगने की आवश्यकता ही क्या थी । सीधे कहते कि पुरोहितजी का सिर कलम करके उनकी चोटी उखाड़ ली जाए ।” कांप कर रह गये राजपुरोहित । वह समझ गए कि इस बार तेनालीराम ने ऐसी चाल चली है कि जान के लाले पड़ गए हैं ।

”प…पांच स्वर्ण मुद्राएं बहुत होंगी । ” तुरन्त राजपुरोहित को पांच स्वर्ण मुद्राएं दी गईं और नाई को बुलवाकर उनकी चोटी कटवा ली गई । अब तेनालीराम ने नगर के सबसे प्रसिद्ध व्यापारी को बुलवाया । उसकी भी बड़ी चोटी थी बल्कि वह तो प्रसिद्ध ही चोटीवाला के नाम से था ।

”क्या आज्ञा है महाराज!” तेनालीराम ने कहा: ”सुनो चोटीवाला! किसी आवश्यक कार्य के लिए महाराज को तुम्हारी चोटी चाहिए ।” ”अरे हुजूर तेनालीराम जी! सब कुछ तो महाराज का ही है- जब चाहें, ले लें, मगर महाराज ! सिर्फ इतना ध्यान रखें कि मैं बड़ा गरीब आदमी हूं ।”

”तुम्हें तुम्हारी चोटी की मुंहमांगी कीमत दी जाएगी ।” ”हे…हे…हे…वो तो सब महाराज की न्यायशीलता है, लेकिन…।” व्यापारी ने खींसे नेपारी । ”लेकिन क्या ?” ”बात यह है सरकार कि इस चोटी के दम पर ही मेरा गुजारा होता है । जब बेटी की शादी की तो इस चोटी की लाज रखने के लिए ही पांच हजार स्वर्ण मुद्राएं खर्च कीं ।

पिछले साल जब मेरे पिता का स्वर्गवास हुआ तो भी पांच हजार स्वर्ण मुद्राओं का खर्च हुआ और इसी चोटी के कारण बाजार से जब चाहूं दस-बीस हजार का उधार उठा लेता हूं ।” ”गर्ज यह कि तुम्हारी चोटी की कीमत पच्चीस हजार स्वर्ण मुद्राएं हैं ।”

”अब मैं क्या कहूं महाराज !” ”ठीक है, तुम्हें यह मूल्य चुकाया जाता है ।” तुरन्त चोटीवाला को पच्चीस हजार स्वर्ण मुद्राएं दे दी गईं । अब वह चोटी मुड़वाने बैठ गया । और फिर नाई ने जैसे ही उसकी चोटी पर हाथ रखा, वैसे ही चोटीवाला कड़ककर बोला- ”अरे धुरन नाई ! अदब से काम ले, जानता नहीं अब यह महाराज की चोटी है ।”

”क्या कहा ।” उसकी बात सुनते ही महाराज क्रोधित हो उठे- ”दुष्ट! हमारा अपमान करता है, इसे नुरन्त राजदरबार से धक्के देकर निकाल दिया जाए ।” व्यापारी ने अपनी पच्चीस हजार स्वर्ण मुद्राओं की थैली संभाली और वहां से भाग निकला ।

तेनालीराम ने एक जोरदार ठहाका लगाया- ”अब तो महाराज समझ गए होंगे कि कौन मूर्ख है और कौन सयाना ? राजपुरोहित ने सिर्फ पांच स्वर्ण मुद्राओं में अपनी चोटी मुंडवा ली और वह वणिक पुत्र पच्चीस हजार भी ले गया और चोटी भी नहीं देकर  गया ।” ”तुमने ठीक ही कहा था तेनालीराम- वणिक पुत्र सचमुच केज होते हैं ।”


Story of Tenali Raman # 20. शेर खां का शिकार |

एक बार न जाने ऐसा क्या हुआ कि विजय नगर राज्य में बेतहाशा चोरियां होने लगीं । पहले तो कोतवाल आदि अपने साधनों से चोरियां रोकने की चेष्टा करते रहे, मगर जब वारदातें घटने के बजाय बढ़ती ही चली गईं तो बात महाराज के कानों तक पहुंची । यहां तक कि चोरियों से त्रस्त प्रजा स्वयं महाराज के दरबार में हाजिर होकर सुरक्षा की गुहार लगाने लगीं ।

महाराज ने फौरन मंत्री और सेनापति से मंत्रणा की । महाराज ने आदेश दिया कि गुप्तचर विभाग को आदेश दिया जाए कि एक सप्ताह के भीतर खोजबीन करके महाराज के समक्ष अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करे । ऐसा ही किया गया । गली-गली में जासूस फैल गए और फिर गुप्तचर विभाग से जो रिपोर्ट मिली, वह बेहद चौंकाने वाली थी ।

ज्ञात हुआ कि शेर खां नाम का एक बटमार अपने गिरोह के साथ राज्य में घुस आया है और उसे शत्रु राज्य का समर्थन भी प्राप्त है । उद्देश्य है कि विजय नगर को कमजोर कर दिया जाए । रिपोर्ट पढ़कर महाराज चिंतित हो उठै ।

उन्होंने सेनापति को आदेश दिया: ”सेना की सशस्त्र टुकड़ियों को राज्य के मुख्य-मुख्य ठिकानों पर तैनात कर दो । रात में गश्त बढ़ा दी जाए । किसी भी अजनबी की पूरी छानबीन की जाए और सन्देहास्पद व्यक्ति को तुरन्त गिरफ्तार कर लिया जाए ।”

फिर महाराज ने मंत्री जी को आदेश दिया- ” पूरे प्राज्य की पुलिस को सतर्क कर दिया जाए । प्रत्येक अजनबी और उसकी गतिविधियों पर नजर रखी जाए ।” तुरन्त सेना और पुलिस हरकत में आ गई । लाख कोशिशें की गई, किन्तु चोरी-चकारी की वारदातें बढ़ती ही चली गईं ।

इतना ही नहीं अब तो सुनसान क्षेत्रों में- राहजनी की वारदातें भी होने लगीं । प्रजा त्राहि-त्राहि कर उठी । अपराधी इतने शातिर थे कि वारदात भी कर देते और किसी को कानों-कान खबर भी न होने देते । महाराज बहुत परेशान हो गए । एक दिन तो क्रोध में आकर उन्होंने भरे दरबार में सेनापति को इतना डांटा, इतना धिक्कारा कि वह सिर उठाने के भी काबिल न रहा ।

राजदरबार स्तब्ध था और महाराज की घनगर्ज सुनाई दे रही थी: ”अब तो इन चोरों को पकड़ने का एक ही उपाय रह गया है कि हम इन्हें सम्मान से आमंत्रित करें कि आओ भाई-अपनी शक्ल हमें दिखा दो और हमारा आधा राज्य ले लो-या अपनी गिरफ्तारी का जो मुनासिब इनाम चाहो, ले लो और अपने आपको हमारी सेना-पुलिस के हवाले कर दो ।”

सभी दरबारी लज्जित से सिर झुकाए बैठे रहे । ऐसे समय में एकाएक ही राजपुरोहित को सूझा कि क्यों न इस संकट में तेनालीराम को फंसा दिया जाए । वह झट से महाराज के निकट पहुंचकर फुसफुसाया :  ”अन्नदाता ! जहां हम सब हारते हैं, वहां तेनालीराम जीतता है ।”

महाराज तुरन्त राजपुरोहित का इशारा समझ गए । तेनालीराम का खयाल आते ही उनकी आखें चमकने लगीं । वे फौरन तेनालीराम की ओर पलटकर बोले- ”तुम कुछ क्यों नहीं करते तेनालीराम ।”  ”करूं तो तब न अन्नदाता…जब आप आदेश दें ।” अपने आसन से उठकर तेनालीराम हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक बोले- ”मां काली की कृपा से मैं शेर खां तो क्या…उसके पूरे खानदान को बंदी बनाकर आपके चरणों में डाल सकता हूं ।”

”यदि ऐसी बात है तेनालीराम तो हम तुम्हें विजय नगर का सर्वोच्च सम्मान प्रदान करेंगे ।” महाराज ने उत्साहपूर्वक कहा । तब तेनालीराम ने महाराज से एक माह का समय मांगा और दरबार से चले गए । और फिर पलक झपकते ही यह खबर सारे राज्य में फैल गई कि तेनालीराम मां काली को प्रसन्न करके शेर खां को परिवार सहित बंदी बनाने वाला है ।

लोगों ने चैन की सांस ली । अब कहीं जाकर उन्हें विश्वास हुआ था कि जल्दी ही उस खतरनाक और चालाक चोर गिरोह से मुक्ति मिल जाएगी । उधर, जब यह खबर शेर खां को मिली, तेनालीराम की नादानी पर खूब हंसा- ”मूर्ख है ये तेनालीराम, जिस शेर खां को दिल्ली की फौज न पकड़ सकी, उसे ये डेढ़ पसली क्या खाकर पकड़ेगा ? उससे पहले मैं उसकी खे उखाड़ लूंगा-जाओ, जाकर तेनालीराम की गतिविधियों पर नजर रखो और हमें बताओ कि वह क्या कर रहा है हमें पकड़ने के लिए ।”

उसके दो आदमी काफी समय तक तेनालीराम की टोह में लगे रहे, मगर कुछ खास पता न लगा सके । हां, इतनी खबर उन्हें अवश्य लग गई थी कि अपने घर में एक काली चादर ओढ़े तेनालीराम एक जाप-सा करता रहता है । शेर खां के आदमी यह खबर जाकर उसे दे देते ।

एक दिन शेर खां एक साधु का वेश धारण करके तेनालीराम के घर के दरवाजे पर आ धमका- ”अलख निरंजन ! बाबा को कुछ भिक्षा दे बच्चा- ईश्वर तेरा कल्याण करेगा ।” ”बाबा!” भीतर से आवाज आई- ”दरवाजा नहीं खुलेगा । भिक्षा चाहिए तो खिड़की पर आ जाओ-आजकल नगर में शेर खां नाम का बटमार आया हुआ है और मैंने उसे पकड़ने की प्रतिज्ञा की है ।

कहीं ऐसा न हो कि वही मुझे पकड़कर ले जाए । आओ, खिड़की पर आ जाओ ।” ‘चूहा ! ये मुझे क्या पकड़ेगा-न पिद्दी न पिद्दी का शोरबा ।’ शेर खां मन ही मन मुस्कराता हुआ खिड़की पर आ गया । खिड़की के दूसरी ओर तेनालीराम एक चादर ओढे हाथों में थाली लिए खड़ा था ।

इसी बीच उसकी मुछें इतनी लम्बी हा गई थीं कि चादर से बाहर खिड़की की सलाखों से लग रही थीं, फिर जैसे ही उसने दोनों हाथ सलाखों से बाहर निकालकर शेर खां की झोली में थाल का सामान उलटना चाहा, वैसे ही शेर खां ने उसकी छ पकड़ ली और गुर्राया- ”मुझे पहचान ले, मैं ही शेर खां हूं ।

आज सिर्फ तेरी छ उखाड़कर ले जा रहा हूं अगर मुझे पकड़ने की कोशिश की तो तेरा सिर ही उखाड़कर ले जाऊंगा ।” और फिर जैसे ही उसने झटका देकर तेनालीराम की छ उखाड्‌नी चाही, वैसे ही उसके सिर पर लाठी का एक प्रहार हुआ । प्रहार इतना जबरदस्त था कि शेर खां वहीं ढेर हो गया ।

लाठी मारने वाला तेनालीराम का ही आदमी था । उन दोनों ने शेर खां की मुश्कें कसीं और दरबार में ले जाकर महाराज के कदमों में डाल दिया । महाराज बहुत खुश हुए । उन्होंने फौरन शेर खां को बंदी गृह में डलवा दिया और तेनालीराम को सीने से लगाकर पूछा- ”तेनालीराम ! पहले हमें यह बताओ कि तुम्हें कैसे पता था कि शेर खां तुम्हारी मूंछें उखाड़ने आएगा ?”

”शेर खां की पिछली कारगुजारियों से महाराज…।” गर्व से सीना फुलाकर तेनालीराम बोला-  ”मैंने अपना एक आदमी दिल्ली भेजकर उसके स्वभाव का अध्ययन करवाया, जिससे पता चला कि वह अपने शत्रुओं की मूंछें ही उखाड़ता है, बस, इसीलिए मैंने उसे परिवार तक ललकारा और वह आ धमका, मेरी नकली खे उखाड़ने । मैं पहले ही जानता था कि वह बदला लेने जरूर आएगा ।” महाराज कृष्णदेव राय ने गर्वपूर्ण नजरों से दरबारियों की ओर देखा । सेनापति सहित सभी के सिर झुके हुए थे ।


Story of Tenali Raman # 21. दिमाग में खुजली |

महाराज कृष्णदेव का स्वभाव ही ऐसा था कि वे छोटे-बड़े हर त्योहार को बड़ी ही धूमधाम से मनाते थे । इस बार भी दशहरे के त्योहार पर उन्होंने एक भव्य आयोजन का ऐलान कर दिया ।

ऐसे अवसर पर विद्वानों व कलाकारों को न केवल सम्मानित किया जाता था, बल्कि उपहार भी दिए जाते थे । दशहरे के अवसर पर दरबार में शास्त्रार्थ का भी आयोजन होता था । इस बार महाराज और राजकुमारी मोहनांगी ने भारत के सुप्रसिद्ध विद्वान वल्लभाचार्य को अपने राज्य के विद्वानों से शास्त्रार्थ करने के लिए आमंत्रित किया ।

विजय नगर में तो राजगुरु से बढ़कर कोई विद्वान ही नहीं था और न ही राजगुरु अपने से बढ्‌कर किसी को समझते थे । मगर जब उन्हें पता चला कि इस बार शास्त्रार्थ करने वल्लभाचार्य जी विजय नगर में पधार रहे हैं, तो वे बड़े घबराए ।

कहने को वे कुछ भी क्यों न कहते हों, किन्तु एक बात वे अच्छी तरह जानते थे कि वल्लभाचार्य से वे किसी भी कीमत पर नहीं जीत सकते थे । राजगुरु ने अपना यह डर अपने परम मित्र रंगाचारी के सामने प्रकट कर दिया । बोला- ”रंगाचारी मित्र ! मुझे तो ऐसा आभास होता है कि यह राजकुमारी मोहनांगी की चाल है ।

वह इस प्रकार मुझे भरे दरबार में नीचा दिखलाना चाहती है !  लगता है वह तेनालीराम के बहकावे में आकर ऐसा कर रही है । जरा तुम स्वयं ही सोचो मित्र कि कहां वल्लभाचार्य जैसा विद्वान और कहां मैं- अब तो इस अपमान से बचने की एक ही सूरत है कि कोई बहाना बनाकर दरबार में उपस्थित ही न हुआ  जाए ।”

”ठीक है, तुम ऐसा ही करो ।” ”मगर…कोई बहाना…?” ”वह मैं बना दूंगा-तुम घर पर आराम करना, बाकी राजदरबार की स्थिति मैं संभाल लूंगा ।”  ”मगर उस शैतान तेनालीराम को कैसे संभालोगे ।” चिंतित होकर राजगुरु ने  कहा: ”वह तो सब गुड़-गोबर कर देगा ।”

”तुम चिन्ता मत करो- मैं उसे भी ऐसा सबक सिखाऊंगा कि जीवनभर याद रखेगा ।” फिर वह दिन आ गया, जिस दिन शास्त्रार्थ होना था । उस दिन राजगुरु दरबार में हाजिर न हुआ । किसी के पूछने से पहले ही रंगाचारी ने महाराज से मुखातिब होकर कहा- ”महाराज! दिमाग की खुजली के कारण आज राजगुरु दरबार में हाजिर न हो सकेंगे ।”

”दिमाग की खुजली ?” ”जी हां महाराज! यह रोग अधिक सोचने के कारण हो जाता है ।” ”क्या कह रहे हो रंगाचारी हम तो इस रोग का नाम ही आज पहली बार सुन रहे हैं । हमारा विचार है कि ऐसा कोई रोग होता ही नहीं है ।”

”हो सकता है महाराज ।” एकाएक ही तेनालीराम बोला- ”आजकल ऐसे रोग की हवा चल रही है, मुझे भी अधिक पढ़ने के कारण आखों का रोग हो गया है ।” ”पढ़ने के कारण ।” महाराज हैरान पर हैरान हुए जा रहे थे- ”तेनालीराम! क्या कह रहे हो तुम ? मैंने तो आज तक तुम्हें कुछ पढ़ते हुए नहीं देखा ।”

महाराज की बात सुनकर सब हंस पड़े । ”महाराज! क्या आपने कभी राजगुरु को सोचते हुए देखा है ?” इस बार और भी जोरदार ठहाका लगा । ”कैसी विचित्र बात है ।” महाराज ने कहा: ”राजगुरु को दिमाग की खुजली का रोग हो गया है जबकि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य और माधवाचार्य जैसे विद्वानों को यह रोग कभी नहीं हुआ, हालांकि उन्होंने इससे अधिक चिंतन और विचार किया होगा-तेनालीराम जैसे न पढ़ने वाले व्यक्ति को आखों की खुजली का रोग हो गया जबकि बहुत अधिक पढ़ने वाले दूसरे विद्वानों को यह रोग कभी नहीं हुआ । ”

”इसमें कोई विचित्र बात नहीं है महाराज ।” तेनालीराम बोले- ”यह रोग किसी विशेष सीमा तक सोचने या पढ़ने से नहीं होता । यह तो तब होता है, जब कोई मनुष्य अपनी योग्यता से अधिक सोचता या पड़ता है ।” एक बार फिर दरबार ठहाकों से गूंज उठा ।

यह सोधा राजगुरु की योग्यता पर कटाक्ष था, अत: रंगाचारी खामोश न बैठा रह सका, तिलमिलाकर वह बोला- ”राजगुरु का इस प्रकार मजाक न उड़ाओ-कुछ भी है, वे एक विद्वान व्यक्ति हैं ।” ”कुछ लोग अपनी ही दृष्टि में अधिक विद्वान होते हैं-चाहे दूसरे लोग उन्हें योग्य समझें या न समझें ।”

”वे दूसरों के दोष बहुत जल्दी पकड़ लेते हैं ।” खीझते हुए रंगाचारी बोला । ”वो सब ठीक है…।” तेनालीराम ने फिर नमक छिड़का- ”लेकिन बेचारे राजगुरु को अपने दोषों का बिकुल ज्ञान नहीं है ।” ”मैं उनका बहुत सम्मान करता हूं ।”

”करना ही चाहिए-जैसे को तैसा मिले कर-कर लम्बे हाथ ।” ”उनका हर जगह तुमसे पहले सम्मान होता है-इससे स्पष्ट होता है कि उनका दरजा तुमसे कहीं ऊपर है ।” रंगाचारी को उम्मीद थी कि इससे आगे तेनालीराम कुछ नहीं बोलेगा. मगर मेनल्येरम भला कहां चूकने वाला था ।

वह तपाक से बोला- ”यह भी आपने खूब कहा-हम अपना मुंह-हथ धोने से पहले हाथ-पांव धोते हैं, तो क्या इससे हाथ-पांवों का दर्जा मुंह से बड़ा हो गया ।” दरबार में एक बार फिर ठहाके गूंजे । रंगाचारी समझ गया कि तेनालीराम से जीतना मुश्किल है, अत: वह खामोश बैठा मन ही मन कुढ़ना रहा ।


Story of Tenali Raman # 22. सच्ची झांकी |

एक बार दशहरा पर्व आया तो महाराज कृष्णदेव राय ने सभी दरबारियों को आदेश दिया कि आप सभी अपनी-अपनी झांकी सजाएं । जिसकी झांकी सत्य का सबसे अच्छा प्रदर्शन करेगी…जो लोगों को उनके कर्त्तव्य का बोध कराएगी उसे सर्वश्रेष्ठ झांकी और उसके रचयिता को सर्वश्रेष्ठ चिंतक का सम्मान और उपहार दिया जाएगा ।

महाराज का आदेश हुआ-दशहरा पर्व आने में सप्ताह भर बाकी था । सभी दरबारी-क्या मंत्री, क्या सभापति, क्या पण्डित, क्या पुरोहित-सभी अपनी-अपनी झांकियां सजाने में लग गए । एक से बढ़कर एक झांकी तैयार होने लगी-किसी में राज्य की समृद्धि दर्शायी जा रही थी किसी में युद्धरत महाराज की वीरता प्रदर्शित की गई थी ।

सबकी झांकी उसकी अपनी समझ और चिंतन के अनुसार थी । खैर ! दशहरे का दिन आ गया । शाम को रावण दहन के बाद महाराज एक-एक झांकी देखने को चले । वहां महाराज को सभी की झांकियां नजर आईं, मगर तेनालीराम की झांकी कहीं नहीं थी ।

”कहां है तेनालीराम ?” व्याकुल होकर महाराज ने पूछा- ”उसकी झांकी कहां है ?” ”महाराज ! आप व्यर्थ ही व्याकुल हो रहे हैं, तेनालीराम को भला झांकी बनानी आती ही कहां है- उधर देखिए उस ऊंचे टीले पर-एक काले रंग से रंगी झोपड़ी और उसके आगे खड़ा आदमकद काले रंग का बुत-बस यही है तेनालीराम की झांकी ।” मंत्री ने व्यंग्य से कहा ।

राजा तेजी से उस ऊंचे टीले पर पहुंचे । उनके साथ मंत्री, पुरोहित और सेनापति आदि सभी थे । ”तेनालीराम! यह तुमने क्या बनाया है । क्या यही तुम्हारी झांकी है ?” महाराज के चेहरे पर निराशा के भाव उभर आए । किन्तु तेनालीराम के चेहरे पर किसी प्रकार की कोई निराशा नहीं थी ।

बड़े ही आत्मविश्वास से वह बोला: ”जी हां महाराज ! यही है मेरी झांकी-और यह मैंने क्या बनाया है, इसका जवाब यह स्वयं देगा-बोल रे बता महाराज को कि तू कौन है ?” तेनालीराम की यह बात सुनकर महाराज सहित सभी हैरत में डूबे दिखाई देने लगे । दरबारियों की तो यह हालत थी मानो उन्हें तेनालीराम की मानसिकता पर संदेह हो गया हो ।

मगर शीघ्र ही उन सबका संदेह मिट गया । ”मैं उसी पापी रावण की छाया हूं जिसके मरने की खुशी में आप यह त्योहार मना रहे हैं ।” एकाएक बुत बोलने लगा और सबकी आखें आश्चर्य से फैल गईं । बुत बोले जा रहा था: ”मैं मरा नहीं हूं-एक बार मरा, मगर फिर पैदा हो गया-आज आप अपने आस-पास गरीबी, भुखमरी, अन्याय और उत्पीड़न जो कुछ भी देख रहे हैं, ये सब मेरा ही किया-धरा है अब मुझे मारने वाला है ही कौन ? हा…हा…हा… ।”

कहकर बुत जोर-जोर से कहकहे लगाने लगा । उसकी बात सुनकर महाराज कृष्णदेव राय को क्रोध आ गया । उन्होंने तलवार खींच ली और गर्ज कर बोले- ”मैं अभी तेरे टुकड़े-टुकड़े कर देता हूं दुष्ट ।” ”मगर टुकड़े कर देने से क्या मैं मर जाऊंगा-क्या बुत के नष्ट होने से प्रजा के दुख दूर हो जाएंगे ?”

इतना कहकर बुत के भीतर से एक व्यक्ति निकला और महाराज के सामने नतमस्तक हो गया । ”क्षमा करें महाराज ।” हाथ जोड़कर वह बोला- ”यह सच्चाई नहीं, झांकी का नाटक था ।” ”नहीं ।” एकाएक ही महाराज कृष्णदेव राय अत्यधिक प्रभावित दिखाई देने लगे- ”यह नाटक नहीं, सत्य था-यही सच्ची झांकी है ।

मुझे मेरे कर्त्तव्य की याद दिलाने वाली यही झांकी सबसे अच्छी है । प्रथम पुरस्कार तेनालीराम को दिया जाता है ?” महाराज का निर्णय सुनकर सभी दरबारी आश्चर्य से एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे ।


Story of Tenali Raman # 23. राजगुरु का दांव |

महाराज के दरबारियों में यूं तो तेनालीराम से जलने वालों की कमी नहीं थी, मगर राजगुरु तेनालीराम से कुछ अधिक ही खफा थे । खासतौर पर उस दिन से जब से उसने अन्य एक सौ सात ब्राह्मणों के साथ उसे भी अपने नौकरों से दगवा दिया था ।

वह अकसर यही सोचते रहते कि तेनालीराम को राजमहल से किस प्रकार निकलवाया जाए या किस युक्ति से उसे महाराज की नजरों से गिराया जाए । आखिर एक दिन राजगुरु को एक युक्ति सूझ ही गई । उन दिनों महारानी का निकम्मा और मूर्ख भाई विजयनगर आया हुआ था ।

राजगुरु ने एक दिन उसे पकड़कर भड़काया कि तेनालीराम बेकार ही महाराज की नजरों में इतना चढ़ा हुआ है ।  न उसमें कोई खास योग्यता है और न ही गुण । जिस सम्मानित पद पर वो तेनालीराम है, उस पर तो आप जैसे सुयोग्य व्यक्ति को होना चाहिए ।

महारानी के मूर्ख भाई के दिमाग में यह बात गहरे तक पैठ गई कि मैं तेनालीराम से अधिक सुयोग्य हूं । अत: अपनी बात लेकर वह महारानी के पास जा पहुंचा । महारानी ने उसे बहुत समझाया कि तेनालीराम बहुत योग्य व्यक्ति है तथा वह एक ही दिन में उस पद पर नहीं पहुंचा, बल्कि इस सम्मान को पाने के लिए उसने बड़े-बड़े कार्य किए हैं ।

लेकिन उस छू बुद्धि ने न मानना था, न माना । वह अपनी ही हांके जा रहा था- ”चाहे कुछ भी हो, उस पर मुझे विराजित होना है । तेनालीराम को महल से निकालना ही होगा और यह काम केवल आप ही कर सकती हैं ।”

महारानी तेनालीराम की बड़ी इजत करती थीं, लेकिन भाई तो भाई था, उसका मान भी रखना था । शाम को जब राजा महल में आए तो रानी ने सीधे-सीधे उनसे मांग की कि तेनालीराम को महल से निकाल दें । सुनकर महाराज को हैरानी तो बहुत हुई, मगर उन्होंने उसकी बात पर कोई ध्यान न दिया ।

रानी समझ गई कि महाराज से अपनी यह बात मनवाना इतना आसान नहीं है । उन्होंने सोच लिया कि कल जब महाराज आएंगे तो कोई दूसरा ही रास्ता अपनाऊंगी । दूसरे दिन महाराज आए । रानी बिस्तर पर निश्चेष्ट पड़ी रही । न दुआ, न सलाम, न स्वागत, न सत्कार ।

महाराज को बड़ा अजीब लगा- ”आखिर बात क्या है ? तुम इतनी गुमसुम क्यों हो ? क्या किसी ने तुम्हारा दिल दुखाया है ?” रानी ने आखों में औसू भर लिए और बोली- ”क्या आप मेरे लिए कुछ नहीं कर  सकते ।” ”कहो रानी, आखिर तुम्हें कमी किस बात की है ?”

”मैंने आपसे कहा था कि आप तेनालीराम को निकालकर मेरे सुयोग्य भाई को उस पद पर नियुक्त कर दें ।” महाराज ने एकाएक ही कोई जवाब नहीं दिया । वह अपने साले की मूर्खता से भली- भांति परिचित थे । रानी भी इस बात को भली प्रकार जानती थी, किन्तु त्रिया हठ कर रही थी ।

अत: उसे समझाना आवश्यक था । अत: कुछ क्षण सोचते रहने के बाद उन्होंने कहा- ”देखो रानी ! इस प्रकार बिना किसी कारण के यदि तेनालीराम को दरबार से निकाला जाएगा तो प्रजा में असंतोष फैल जाएगा । उसे निकालने से पहले कोई कारण तलाशना होगा ।”

”कारण उपाय से उत्पन्न होगा ।” “उपाय ?” ”हां महाराज! जैसा मैं कहती हूं आप वैसा ही कर ।” रानी बताने लगी- ”आप मुझसे रुष्ट होने का नाटक करके यहां से चले जाइये । दरबार में जाकर तेनालीराम से कहिए कि रानी को हमारे सामने लेकर आओ ।

आप उसे चेतावनी दे दें कि यदि रानी को हाजिर न कर सके तो पद से हटा दिए जाओगे । वह मेरे पास आएगा तो मैं यहां से हिलूंगी भी नहीं । बस, आपको तेनालीराम को पदमुक्त करने का अवसर मिल जाएगा ।” राजा को हंसी तो बहुत आई कि रानी तेनालीराम को बच्चा समझ रही हैं, मगर वे बोले कुछ नहीं और चुपचाप रानी की बात मानने कई। हामी भर ली ।

दूसरे ही दिन राजा के रानी से रुष्ट होने का समाचार राज्य में चारों ओर फैल गया । तेनालीराम जब महाराज से मिलने गया तो उन्होंने वही बात उससे कही जो रानी ने सुझाई थी । उनकी बात सुनकर तेनालीराम का माथा ठनका । उसे लगा कि अवश्य ही दाल में कुछ काला है ।

उन्होंने बाहर आकर अपने एक आदमी को कुछ समझाया और महल में रानी के कक्ष की ओर चल दिए । अभी वह रानी के पास जाकर उनका कुशल-क्षेम पूछ ही रहे थे कि उनका सिखाया-पढ़ाया आदमी वहां पहुंच गया और जाते ही बिना किसी भूमिका के  बोला- ”आप बेकार ही इस झमेले में पड़ रहे हैं ।

महाराज तो अपनी बात पर ही अड़े हुए हैं । उन्होंने निश्चय कर लिया है कि वे दूसरी शादी करके ही रहेंगे । अब कुछ नहीं होने वाला तेनालीरामजी ।” ”ओह!” तेनालीराम के मुंह से अफसोसनाक स्वर निकला । उनके चेहरे पर ऐसी गम्भीरता उभर आई मानो सब कुछ बरबाद हो गया हो ।

रानी का दिल धड़का वह सोचने लगी कि कहीं महाराज सचमुच ही तो मुझसे रुष्ट नहीं हो गए ? वरना यह दूसरी शादी का क्या चक्कर है ? उन्होंने तेनालीराम से पूछा- ”बात ये है महारानी साहिबा कि महाराज आपसे बहुत खफा हैं । आखिर आपने उन्हें ऐसा क्या कह दिया जो बात यहां तक पहुंच गईं ।

उनका तो कहना है कि उन्हें राज-काज में किसी की भी दखलदांजी पसन्द नहीं है । शायद आपकी किसी मांग के कारण ही वह कोफ्त हैं और दूसरा विवाह करने का मन बना चुके हैं ।” ”नहीं-नहीं, महाराज ऐसा नहीं कर सकते । हम उन्हें समझाएंगे तेनालीरामजी और आश्वासन देंगे कि भविष्य में हम राज-काज के किसी भी मामले में दखल नहीं देंगे-आप हमें तुरन्त उनके पास लेकर चलिए ।”

तेनालीराम तो थे ही इस अवसर की ताक में । फौरन रानी को लेकर जा पहुंचे महाराज के सम्मुख । तेनालीराम ने रास्ते में ही उसे पट्टी पड़ा दी थी कि महाराज के सम्मुख जाकर क्या करना है ।  अत: रानी ने जाते ही महाराज से क्षमा मांगी और बोली- ”महाराज! अब मैं राज्य के किसी कार्य में दखल नहीं दूंगी-क्षमा कर दें ।”

महाराज हैरान ! ये क्या कहानी है ? कहां तो रानी वहां से न हिलने की प्रतिज्ञा कर बैठी थीं और कहां अब तेनालीराम के साथ न केवल दौड़ी चली आई हैं, बल्कि क्षमा मांग रही हैं । वे बोले- ”प्रिये लगता है तेनालीराम ने तुम्हें मूर्ख बना दिया है ।” ”ऐसा मत कहिए महाराज! तेनालीराम तो हमारा झगड़ा मिटाने की कोशिश कर रहे हैं । मैं बेचारे को व्यर्थ ही महल से निकलवाना चाहती थी । आप अब तो दूसरी शादी नहीं करेंगे न ?”

महाराज की हंसी छूट गई । फिर काफी देर तक वे दिल खोलकर हंसते रहे । फिर उन्होंने रानी को बताया कि तेनालीराम कैसा अनोखा व्यक्ति है । उसे दंडित करना आसान नहीं है । अब तो आप समझ गई होंगी कि तेनालीराम कि जगह कोई भी नहीं ले सकता ।


Story of Tenali Raman # 24. महाराज की शर्त |

महाराज कृष्णदेव राय कई बार अपने दरबारियों की विलक्षण परीक्षाएं लिया करते थे । ऐसे ही उन्होंने एक दिन भरे दरबार में सभी छोटे-बड़े दरबारियों को हजार-हजार अशर्फियों से भरी एक-एक थैली दी, फिर बोले:  ”आप सबको एक सप्ताह का समय दिया जाता है ।

सप्ताह भर के अन्दर-अन्दर आपने यह धन अपने ऊपर खर्च करना है । किन्तु शर्त ये है कि आप लोग खर्च करते समय हमारा मुंह अवश्य दैखें ।” सभी दरबारियों ने हंसी-खुशी वह थैलियां ले लीं और अवकाश बाजार की ओर चल दिए । मगर अशर्फियों को लेकर एकाएक ही वह परेशान हो उठे ।

खरीददारी तो वे करते, मगर राजा की शर्त याद आते ही परेशान हो उठते । कारण कि अशर्फियां खर्च करने से पहले राजा का मुंह कैसे देखें ? इसी परेशानी के आलम में एक सप्ताह गुजर गया । राजाज्ञा का उल्लंघन भी नहीं किया जा सकता था । यदि महाराज ने पूछ लिया कि खर्च करने से पहले मेरा मुंह किस प्रकार देखा तो ज्या जवाब देंगे ?

एक सप्ताह बाद दरबार लगा तो सबसे पहले दरबारियों से महाराज ने यही पूछा: ”बताइये, आप लोगों ने क्या-क्या खरीददारी की ?” ”हम कुछ भी कैसे खरीद सकते थे महाराज, आपकी शर्त ही ऐसी थी । बाजार में आपके दर्शन कैसे और कहां होते ? इस प्रकार न आपके दर्शन हुए और न अशर्फियां खर्च हुईं ।”

सभी की ओर से राजपुरोहित ने यह उत्तर दिया । ”और तेनालीराम तुम ? क्या तुम भी अशर्फियां खर्च न कर सके ?” ”महाराज! मैंने तो सारी अशर्फियां खर्च कर दीं । ये नई धोती, ये कुर्ता, ये नया दुपट्टा और यहां तक कि ये जूतियां भी मैंने उन अशर्फियों से ही खरीदी हैं ।”

”इसका मतलब आपने हमारी आज्ञा का उल्लंघन किया ।” महाराज ने आखें तरेरीं । ”हरगिज भी नहीं महाराज-बिकुल भी नहीं ।” बड़े ही सीधे और नरम लहजे में तेनालीराम ने कहा: ”एक-एक अशर्फी आपका श्रीमुख देखकर खर्च की ।” ”किन्तु कैसे ?”

”आप भूल रहे हैं महाराज कि एक-एक अशर्फी पर आपका चित्र अंकित है ।” ”ओह !” महाराज मुस्करा उठे । जबकि सभी दरबारी हक्के-बक्के किन्तु शर्मिन्दा से होकर तेनालीराम का चेहरा देखते रह गए ।


Story of Tenali Raman # 25. घोड़े की कीमत |

जिस कुत्ते की दुम तेनालीराम ने सीधी करके दिखाई थी, कमजोरी के कारण एक दिन वह कुत्ता मर गया और उसके बाद मौसम की चपेट में आकर तेनालीराम भी बीमार पड़ गए ।

बस, राजपुरोहित जी तो रहते ही थे अवसर की तलाश में । वे बोले: ”महाराज! तेनालीराम की बीमारी कोई साधारण बीमारी नहीं है, ये कुत्ते के साथ बीमार पड़े हैं । शास्त्रों के मुताबिक यदि इनके खर्चे से कुत्ते की आत्मा की शान्ति के लिए अनुष्ठान किया जाए तो इनकी बीमारी भी दूर हो जाएगी…अन्यथा महाराज को तेनालीराम के जीवन से हाथ धोना पड़ सकता है ।

आप तेनालीराम को आदेश दें कि वे अपने खर्चे से कुत्ते की आत्मा की शान्ति के लिए अनुष्ठान करें ।” ”ठीक है, हम आज्ञा देते हैं ।” महाराज चूंकि तेनालीराम को खोना नहीं चाहते थे,  अत: उन्होंने पुरोहित की चालाकी को समझे बगैर फौरन ही आदेश जारी कर दिया ।

इत्तफाक से उस दिन तेनालीराम भी दरबार में उपस्थित थे ।  राजपुरोहित की बात सुनकर समझ गए कि वह इस अवसर का लाभ उठाकर उसे ठगना चाहता है और इसमें उसे महाराज की ओर से अनुमति भी मिल चुकी है । उसने मन ही मन सोचा कि इसे इस बार तगड़ा ही झटका दूंगा ।

वह बोला: ”किन्तु राजगुरु! इस अनुष्टान में खर्च कितना आएगा ।” ”यही कोई पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं ।” ”पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं ?” तेनालीराम चौंके : ”किन्तु मेरे पास इतनी स्वर्ण मुद्राएं कहां हैं ।”  ”तेनालीराम जी! यदि अभी नहीं हैं तो ऐसा करें कि अनुष्ठान के बाद जब आप स्वस्थ हो जाएं तो अपना अरबी नस्ल वाला घोड़ा बेच दें और जितने में भी वह घोड़ा बिके, वह रकम मुझे दे दें ।

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अनुष्ठान मैं अपने खर्च से कर दूंगा ।” ‘अब फंसा ।’ मन ही मन तेनालीराम ने कहा, मगर प्रत्यक्ष में बोला- ”ठीक है राजगुरु! जैसा आप उचित समझें ।” सारी बात महाराज के सामने तय हुई है । राजगुरु ने सोचा, तेनालीराम का वह घोड़ा छ:-सात सौ स्वर्ण मुद्राओं में अवश्य बिक जाएगा ।

इतना धन पाने के लिए यदि इस नाटकबाजी में सौ-दो सौ स्वर्ण मुद्राएं खर्च हो भी गईं तो भी कोई फिक्र की बात नहीं है । राजगुरु ने दूसरे दिन ही उल्टा-सीधा अनुष्ठान कर दिया और तेनालीराम के स्वस्थ होने का इन्तजार करने लगा ।

खैर ! करीब पन्द्रह-बीस दिन बाद तेनालीराम स्वस्थ हो गए । राजपुरोहित ने उनसे कहा कि अब घोड़ा बेचकर उसका कर्ज चुकाएं । तेनालीराम राजी हो गए । उन्होंने गुलाब के बढ़िया फूलों से एक टोकरी सजाई और घोड़े की लगाम थामकर बाजार में जा पहुंचे । उनके साथ राजपुरोहित भी थे ।

बाजार में जाकर तेनालीराम ने हांक लगाई: ”फूलों की इस टोकरी की कीमत सिर्फ पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं और इस अरबी घोड़े की कीमत सिर्फ दो आने-दो आने-दो आने । ये घोड़ा दो आने में उसी सज्जन को दिया जाएगा जो ये टोकरी खरीदेगा ।”

एक अनुभवी सज्जन ने झट वह टोकरी खरीद ली और दो आने में अरबी घोड़ा भी । उसकी नजर में अरबी घोड़ा कम-से-कम हजार स्वर्ण मुद्राओं का था । ये देखकर राजपुरोहित बड़े तिलमिलाए । उसने अपना माथा पीट लिया । मगर तेनालीराम तो तेनालीराम थे । उन्होंने दो आने राजपुरोहित के हाथ पर रखे और चलते बने । महाराज को जब इस बात की खबर मिली तो वे खूब हंसे ।

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