महिलाओं के विरुद्ध हिंसात्मक रूप पर निबन्ध | Essay on Violence Against Women in Hindi!

प्रस्तावना:

महिलायें न केवल भारत में ही अपितु विदेशों में भी विविध प्रकार की हिंसाओं का शिकार हो रही हैं । ये अत्याचार वर्तमान परिस्थितियों की परिणति नहीं है अपितु वह सदियों से खई शोषण, अपमान, यातनाओं का शिकार होती आ रही हैं । महिलाओं की समस्याओं के पीछे सामाजिक एवं पारिवारिक कारक दोनों ही सक्रिय हैं । न केवल वह समाज द्वारा ही शोषित एवं पीड़ित होती हैं अपितु पारिवारिक सदस्यों द्वारा भी ।

चिन्तनात्मक विकास:

स्वाधीनता से पूर्व एवं पश्चात् सैकड़ों महिलाएं ऐसी हैं जो कई तरह की हिंसाओं का सामना कर रही है अथवा करती आई हैं । यद्यपि महिलाओं में शिक्षा के प्रसार एवं आर्थिक स्वतन्त्रता में वृद्धि हुई है, ऊपर से देखने में वह समाज में एक सम्मानजनक भूमिका निभा रही हैं किन्तु वास्तविकता में वह कही न कहीं, किसी न किसी तरह से मानवीय शोषण की शिकार हैं । महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को रोकने के लिए अनेक उपाय किये जाते हैं, आवश्यकता है इन्हें राष्ट्रव्यापी रूप में सक्रियता प्रदान करने की ।

Violenceउपसंहार:

यद्यपि महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को रोकने के लिए अनेक स्वयंसेवी संस्थायें स्थापित की गई हैं, उनके लिए अदालतें बनाई गई हैं किन्तु ये निश्चित रूप से कारगर नहीं हो पा रही हैं क्योंकि इन्हें भी अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है ।

हमारी सरकार को इस ओर विशेष ध्यान देना चाहिए । स्पयै महिलाओं को भी अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों, शोषण, हिंसाओं को रोकने के लिए हिम्मत जुटानी चाहिए । तभी वह समाज एवं राष्ट्र में अपनी पहचान बना सकेंगी ।

महिलाओं के प्रति हिंसा की समस्या कोई नवीन समस्या नहीं है । प्रारम्भ से ही भारतीय समाज में महिलायें यातना, शोषण, अवमानना इत्यादि का शिकार होती आई हैं । आज शनै-शनै ! महिलाओं को पुरुषों के जीवन में महत्वपूर्ण, प्रभावशाली और अर्थपूर्ण सहयोगी माना जाने लगा है किन्तु कुछ समय पूर्व समाज में उनकी स्थिति अत्यन्त दयनीय थी ।

समाज में प्रचलित प्रतिमानों विचारधाराओं एवं संस्थागत रिवाजों ने उनके उत्पीड़न में अत्यधिक योगदान दिया है । उसका यह उत्पीड़न सामाजिक एवं पारिवारिक दोनों ही स्तरों पर ध्या है । इनमें से कुछ व्यावहारिक रिवाज आज भी पनप रहे हैं ।

स्वतन्त्रता के पश्चात् हमारे समाज में महिलाओं के समर्थन में बनाए गए कानूनों महिलाओं में शिक्षा के प्रसार और महिलाओं की धीरे-धीरे बढ़ती हुई आर्थिक स्वतन्त्रता के बावजूद असंख्य महिलाएँ अब भी हिंसा की शिकार हैं । उनको मारा-पीटा जाता है, उनका अपहरण किया जाता है, उनके साथ बलात्कार किया जाता है, उनको जला दिया जाता है या उनकी हत्याएं कर दी जाती हैं ।

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वे कौन-सी महिलाएं हैं जिन्हें उत्पीड़ित करने वाले और हिंसा कें अपराधकर्ता कौन लोग हैं ? महिलाओं के साथ होने वाली हिंसाओं के पीछे मूल कारण क्या-क्या हैं ? इन्हीं सब समस्याओं की हम यहाँ चर्चा करेंगे । प्राय: महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा के अनेक रूप होते हैं जैसे, बलात्कार की समस्या भारत की ही नहीं अपितु सभी देशों की गम्भीर समस्या है ।

गरीब लड़कियाँ ही अकेली बलात्कार का शिकार नहीं होती अपितु मध्यम वर्ग की कर्मचारी महिलाओं के साथ भी मालिकों द्वारा अपमानित किया जाता है । जेल में केद महिलाओं के साथ अधीक्षकों द्वारा बलात्कार किया जाता है, अपराध सदिग्ध महिलाओं के साथ पुलिस अधिकारियों द्वारा, महिला मरीजों के साथ अस्पताल के कर्मचारियों द्वारा और रोजाना वेतनभोगी महिलाओ के साथ ठेकेदारों और बिचौलियों द्वारा ।

यही तक कि बहरी और लगी, पागल और अंधी तथा भिखारिनों को भी नहीं छोड़ा जाता । निम्न मध्यम श्रेणी से आई हुई महिलाएँ जोकि अपने परिवारो का प्रमुख रूप से भरण-पोषण करती हैं लैंगिक दुर्व्यवहार को खामोशी से और बिना विरोध किये सहन करती रहती है ।

यदि वह विरोध करती हैं तो उन्हे सामाजिक कलंक और अपमान का सामना करना पड़ता है इसके अतिरिक्त उन्हे पाप की पीड़ा और व्यक्तित्व के रोग भंयकर रूप से सताते हैं । हमारे देश में 1983 और 1988 के बीच हुये बलात्कार के मामलों की संख्या को ध्यान में रखते हुये यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक चार घटों में तीन बलात्कार होते थे ।

केन्द्रीय सरकार द्वारा 27 जनवरी, 1993 को महिलाओं के विरुद्ध अपराध पर प्रस्तुत की गयी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रत्येक 54 मिनट में एक महिला का बलात्कार होता है । इसका अर्थ हुआ कि एक महीने में 800 तथा एक वर्ष में 9,600 बलात्कार होते हैं ।

अमेरिका में बलात्कार के अपराधो की प्रति लाख प्रतिवर्ष दर लगभग 26 है, कनाडा में यह लगभग 8 है और इंग्लैण्ड में यह प्रति एक लाख जनसंख्या पर लगभग 55 है । इसकी तुलना में भारत में इसकी दर 0.5 प्रति एक लाख जनसंख्या है । भगा ले जाना और अपहरण करना एक अन्य सामाजिक बुराई है ।

एक नाबालिग (18 वर्ष से कम लड़की और 16 वर्ष से कम आयु का लड़का) को उसके कानूनी अभिभावक की सहमति के बिना ले जाने या फुसलाने को ‘अपहरण’ कहते हैं । ‘भगा ले जाने’ का अर्थ है एक महिला को इस उद्देश्य से जबरदस्ती, कपटपूर्वक या धोखेबाजी से ले जाना कि उसे बहका कर उसके साथ अवैध मैथुन किया जाये या उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे किसी व्यक्ति के साथ विवाह करने हेतु बाध्य किया जाए ।

अपहरण में उत्पीड़क की सहमति महत्वहीन होती है, किन्तु भगा ले जाने मे उत्पीडक की पनिक सहमति अपराध को माफ करवा देती है । छ: वर्ष (1985 से 1990) का औसत लेकर यह कहा जा सकता है कि हमारे देश में एक दिन में लगभग 42 लडकियो अथवा सियो का अपहरण किया जाता है या उन्हे भगाकर ले जाया जाता हे या लगभग 15,000 महिलाओ को एक वर्ष मे भगाया जाता है ।

भारत मे भगाकर ले जाने की मात्रा प्रत्येक एक लाख जनसख्या पर 2.0 है । मानव हत्या एक प्रकार से नर अपराध है । यद्यपि लिग के आधार पर हत्याओ और उनके शिकारो या पीडितों से संबधित अखिल भारतीय कडे उपलब्ध नहीं हैं किन्तु फिर भी यह सर्वविदित है कि मानव हत्या के मादा शिकार नरशिकारी की तुलना मे कम हैं ।

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भारत में लगभग 27,000 हत्याओ में से जो हर वर्ष होती हैं, महिलाओं की हत्याएँ कुल संख्या की लगभग 10 प्रतिशत है । हत्या करने के अपराध में कुल गिरफ्तार किये गए व्यक्तियों में से 96.7 प्रतिशत पुराष होते है और 3.3 प्रतिशत सिया होती हैं ।

दहेज से सबधित हत्याएं भी भारत की वर्तमान विकट समस्या है । यद्यपि दहेज निषेधाइघ कानून, 1961 ने दहेज प्रथा पर रोक लगा दी है, परन्तु वास्तव मे कानून केवल यही स्वीकार करता है कि समस्या विद्यमान है ।

वास्तविक रूप से यह कभी सुनने मे नहीं आता कि किसी पति अथवा उसके परिवार पर दहेज लेने के आग्रह को लेकर कोई मुकदमा चलाया गया हो । यदि कुछ हुआ भी है तो विगत वर्षो में दहेज की माग और उसके साथ-साथ दहेज को लेकर हत्याएँ बढी हैं ।

यदि एक सन्तुलित अनुमान लगाया जाए तो भारत में दहेज न देने अथवा पूरा न देने के कारण प्रतिवर्ष हत्याओं की संख्या लगभग 5,000 मानी जा सकती है । भारत सरकार की 1993 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में वर्तमान में हर 102 मिनट में एक दहेज से सम्बंधित हत्या होती है तथा एक दिन में 33 व एक वर्ष में लगभग 5000 । अधिकतर दहेज सम्बंधी हत्याये पति के घर के एकान्त मे और परिवार के सदस्यों की मिली भगत से होती है । इसलिए अदालतें प्रमाण के अभाव में दण्डित न कर पाने को स्वीकार करती हैं ।

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कभी-कभी पुलिस छानबीन करने में इतनी कठोर हो जाती है कि न्यायालय भी पुलिस अधिकारियों की कार्य-कुशलता और सत्यनिष्ठा पर सन्देह प्रकट करते हैं । महिलाओं के विरुद्ध हिंसा विवाह के संदर्भ में अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है जबकि पति, जिसके लिए यह समझा जाता है कि वह अपनी पत्नी से प्रेम करेगा और उसे सुरक्षा प्रदान करेगा, उसे पीटता है ।

एक सी को उसके पति द्वारा पीटा जाना जिस पर वह सर्वाधिक विश्वास करती है, एक छिन्न-भिन्न करने वाला अनुभव होता है । हिंसा, चांटे और लात मारने से लेकर हड्डी तोड़ना, यातना देना, मार डालने की कोशिश और हत्या तक हो सकती है । हिंसा कभी-कभी नशे के कारण भी हो सकती है परन्तु हमेशा नहीं ।

भारतीय संस्कृति में हम बिरले ही पत्नी द्वारा पति को पीटने के मामले की शिकायत पुलिस में करने की बात सुनते हैं । वह मौन रहकर अपमान सहती है और उसे अपना भाग्य मानती है । यदि वह विरोध करना भी चाहती है तो नहीं कर सकती क्योकि उसे डर होता है कि उसके अपने माता-पिता भी विवाह के बाद उसे अपने घर मे स्थाई रूप से रखने में मना कर देंगे ।

विधवाओं के विरुद्ध हिंसा भी आज भयावह रूप धारण करती जा रही है । प्राय: सभी विधवा एक ही प्रकार की समस्याओ का सामना नहीं करतीं । एक विधवा ऐसी हो सकती है जिसके कोई बच्चा न हो और जो अपने विवाह के एक या दो वर्षो में ही विधवा हो गई हो, या वह ऐसी हो सकती है जो 5 से 10 वर्ष के पश्चात् विधवा होती है और उसके एक या दो बच्चे पालने के लिए हौं, या ऐसी हो जो 50 वर्ष की आयु से अधिक हो ।

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यद्यपि इन तीनों श्रेशी की विधवा को सामाजिक, आर्थिक और भावात्मक समंजन की समस्याओं का सामना करना पड़ता हे, पहले और तीसरी श्रेणियों की विधवाओं की कोई जिम्मेदारी नहीं होती, जबकि दूसरी श्रेणी की विधवाओ को अपने बच्चों के लिए पिता की भूमिका भी अदा करनी पड़ती है । प्रथम दो श्रेणियों की विधवाओ को जैविक समंजन की समस्या का भी सामना करना पडता है । इनका अपने पति के परिवारों में इतना अदर-सत्कार नहीं होता जितना कि तृतीय श्रेणी की विधवाओं का ।

वास्तव में जहाँ एक ओर परिवार के सदस्य विधवाओं की पहली दो श्रेणियो से मुक्ति पाना चाहते हैं, वहाँ दूसरी और तीसरी श्रेणी की विधवा अपने पुत्र के परिवार में मूल व्यक्ति हो जाती है क्योंकि उसको अपने पुत्र के बच्चों की देख-रेख का और काम पर जाने वाली पुत्रवधु की अनुपस्थिति में खाना पकाने का दायित्व सौंप दिया जाता है ।

तीनों श्रेणियों की विधवाओं का स्वाभिमान व आत्मछवि भी भिन्न भिन्न होती है । एक विधवा की आर्थिक निर्भरता उसके स्वाभिमान और उसकी पहचान की भावना के लिए एक बड़ा खतरा पैदा कर देती है । परिवार के सभी सदस्यों द्वारा उसे निम्न दर्जा प्रदान किये जाने के कारण उसका स्वाभिमान भी कम होता है । विधवा होने का कलंक ही अपने आप मे एक सी को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है और उसका सम्मान अपनी ही दृष्टि में कम हो जाता है ।

इन विधवाओं के विरुद्ध हिंसा में, पीटना, भावात्मक उपेक्षा, यातना, गाली-गलौज करना, लैंगिक दुर्व्यवहार, सम्पत्ति में वैध हिस्से से वंचन और उनके बच्चों के साथ दुर्व्यवहार सम्मिलित है । वास्तव में विविध प्रकार की हिंसाओं का शिकार वे महिलाएँ होती हैं जो प्राय: असहाय एवं अवसादग्रस्त होती हैं, जिनकी आत्मछवि खराब होती है अथवा जो आत्म अवमूल्यन से ग्रसित होती हैं या वे जो अपराधकर्ताओं द्वारा दी गई हिंसा के फलस्वरूप भावात्मक रूप से समाप्त हो चुकी हैं, या वे जो परार्थवादी विवशता से ग्रस्त हैं, जिनके पति प्राय: मदिरापान करते हैं, जिनके पति या ससुराल वालों के विकृत व्यक्तित्व हैं, या वे जिनमें सामाजिक परिपक्वता या सामाजिक अन्तर-वैयक्तिक प्रवीणताओं की कमी है जिसके कारण उन्हें व्यवहार सम्बंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है ।

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वे महिलायें जो दबावपूर्ण पारिवारिक स्थितियों में रहती हैं या ऐसे परिवारों में रहती हैं जिन्हें समाज ‘सामान्य परिवार’ नहीं कहता । सामान्य परिवार में वे हैं जो संरचनात्मक रूप से पूर्ण होते हैं (दोनों माता-पिता जीवित हैं और साथ-साथ रह रहे हैं), आर्थिक रूप से निश्चिन्त हैं (सदस्यों की मूल और पूरक आवश्यकताओं की पूर्ति करतें हें), प्रकार्यात्मक रूप से उपयुक्त हैं (वे बिरले ही लड़ते हैं) और नैतिक रूप से नैष्ठिक हैं ।

दूसरी ओर हिंसा के अपराधकर्ता वे लोग होते हैं जो पारिवारिक जीवन में तनावपूर्ण स्थितियों का सामना करते हैं, जो बहुधा मदिरापान करते हैं, जो बचपन में हिंसा के शिकार हुये थे, जो अवसादग्रस्त होते हैं, जिनमें हीन भावना होती है और आत्मसम्मान कम होता है, जिन्हें व्यक्तित्व के दोष होते हैं और जो मनोरोगी होते हे, जिनके पास संसाधनों, प्रवीणताओं और प्रतिभाओं का अभाव होता है और जिनका व्यक्तित्व समाजवैज्ञानिक रूप से विकृत होता है अथवा जिनकी प्रकृति में मालिकापन, शक्कीपन और प्रबलता होती है ।

महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा के रूप भी विभिन्न प्रकार के होते हैं जैसे, हिंसा जो धन-अभिमुख होती है, जिसका उद्देश्य भोग-विलास है, जो अपराधकर्ता की विकृति के कारण होती है, हिंसा जो पीड़ित प्रेरित होती है, हिंसा जो तनावपूर्ण पारिवारिक परिस्थितियों के कारग होती है और हिंसा जो कमजोर पर सत्ता प्राप्त करना चाहती है ।

महिलाओं के साथ होने वाली हिसाओ के कई कारण होते हैं जैसे, पीडित द्वारा भड़काना, नशा, महिलाओं के प्रति विद्वेष एवं परिस्थितिवश प्रेरणा आदि । कभी-कभी हिंसा की शिकार महिला अपने व्यवहार से, जो कई बार अनजाने में होता है, अपने स्वयं के उत्पीड़न की स्थिति उत्पन्न कर देती है । पीड़ित महिला अपराधी के हिंसापूर्ण व्यवहार को उत्पन्न करती है या प्रेरित करती है ।

उस महिला के कार्य शिकारी को हमलावर अथवा आक्रामक में परिवर्तित कर देते हैं और वह अपने अपराधिक इरादों को उसको लक्ष्य बनाने के लिए बाध्य हो जाता है । इन हिंसाओं में बलात्कार, पत्नी को पीटना, भगा ले जाना, विधवाओं के साथ दुर्व्यवहार और हत्यायें इत्यादि आती हैं ।

इन हिंसाओं में ‘निष्क्रिय’ पीड़ित महिला उसी सीमा तक हिंसापूर्ण कार्य के होने में योगदान देती है जितनी कि सक्रिय पीड़ित महिला । हिंसा के कुछ प्रकरण उस समय होते हैं जबकि आक्रामक नशे में और अत्युत्तेजक एवं लड़ाई करने की मनोदशा में होते हैं और उनको यह समझ में नहीं आता कि उनके कार्यो के क्या परिणाम होंगे ।

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जैसे बलात्कार, पत्नी को बुरे तरीके से पीटना या हत्या आदि । किन्तु ऐसे कई व्यक्ति हैं जो शराब पीते हैं पर हिंसात्मक नहीं होते । इसलिए महिलाओं के विरुद्ध हिंसा में शराब को मुख्य कारण न मानकर सहायक कारक मानना चाहिए । कुछ पुरुषों में महिलाओं के प्रति घृणा और बेद्वेष की भावनाएं इतनी गहराई से गडी हुई होती हैं कि उनके हिंसापूर्ण कार्य का मूल उद्देश्य गेडित महिला को अपमानित करने के अतिरिक्त कुछ और नहीं कहा जा सकता ।

परिस्थितिवश प्रेरणा भी अपराध को जन्म देती है जैसे कि, पैसे के मामलों, पति-पत्नी के बीच झगड़ा या बलात्कार के मामलों जैसे, लड़की को भगाकर ले जाना, दफ्तर में सी कर्मचारी के साथ पुरुष मालिक द्वारा दुर्व्यवहार करना अथवा भोली-भाली लड़कियों के साथ प्यार का नाटक करके भावात्मक रूप से अपनी बात मनवाना इत्यादि ऐसी घटनाएँ हैं, जिनमें अपराधियों ने हिंसापूर्ण कार्यो की योजना नहीं बनाई थी परन्तु जब उन्हें परिस्थिति सहायक या उकसाने वाली लगी तो उन्होंने हिंसा का प्रयोग किया ।

हिंसा-प्रवृत्त व्यक्तित्व की पहचान करने वाली विशेषताएँ ये हैं, अत्यधिक शक्की, वासनामय, प्रभावी, विवेकहीन, व्यभिचारी, भावात्मक रूप से अशांत, ईर्ष्यालु, स्वत्वात्मक और बेइसाफ । जो विशेषताएँ प्रारम्भिक जीवन में विकसित हो जाती हैं, वे वयस्कता में एक व्यक्ति के आक्रमणशील व्यवहार को प्रभावित करती हैं ।

आक्रामक का बच्चे के रूप में दुर्व्यवहार या बचपन में हिंसा के प्रभाव में आने को उसके हिंसात्मक व्यवहार का अध्ययन करबसमय परीक्षण अवश्य करना चाहिए । समाज में महिलाओं के प्रति होने वाले दुर्व्यवहार को रोकने के लिए अनेक समाधान किये ना सकते हैं ।

यह सुझाव वैध और तर्कसंगत हो सकता है कि सियों की सामान्य प्रतिष्ठा यदि शेक्षा, प्रभावी वैधानिक उपायों और परीक्षण और रोजगार के अवसर देकर सुधारी जा सकती है यह महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को कम करेगी । जनसंचार माध्यमों में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा ; प्रकरणों को बहुत अधिक महत्व नहीं दिया जाना चाहिए ।

यद्यपि जनसंचार माध्यमों में महिलाओं ; विरुद्ध हिंसा को सेंसर करने के नैतिक और मानवतावादी कारण हैं, परन्तु हमारे पास ऐसा प्रमाण नही है कि ऐसी कार्यवाई से आवश्यक रूप से हिंसा में कमी आ जाएगी । अपराधकर्ता निवारक दण्ड देने और उसके सम्बंधियों द्वारा उसका सामाजिक बहिष्कार करने के बारे में सही है । यह उपाय उनके सामाजिक प्रभावों के लिए वांछनीय हो सकते हैं, किन्तु इस पर चिन्ह है कि ये उपाय कहीं तक महिलाओं का शोषण कम करेंगे ।

ऐसी महिलाएँ जो अपने र सास-ससुर एवं शराबी पति के अत्याचारों के कारण घर छोड देती हैं, उनके पास कोई आश्रय पलब्ध नहीं होता । स्वयंसेवी संगठनो को, जो सियों को ऐसे आवास मुहैया कराते हैं, अपनी रेयोजनाओ का प्रचार करना चाहिए । इनके पास प्राय: वित्तीय सहायता का अभाव होता है और क्षा नियमो का पालन नहीं हो पाता ।

महिला सगठन कई सियों के दुखों के अपशमन में योगदान घे यदि वे उन्हे अल्पकालिक आवास की सुविधाये उपलब्ध करवाती हैं, और अन्तत: स्थाई मकान नवाने में मदद करती हैं, विशेषकर उन विवाहित सियों को जो कष्ट में हैं या बलात्कार, भगाये ने, मार डालने की कोशिश जैसी हिंसा की शिकार हैं । विभिन्न प्रकार के अल्पकालिक आवास पीडित सियो और विधवाओ को दिये जा सकते हैं, उनका मूल्याकन और तुलना करना गवश्यक है ।

पीडित महिलाओं को रोजगार उपलब्ध कराने, बच्चे की देखभाल की सुविधाओं को उपलब्ध ने और अस्थाई रूप से वित्तीय सहायता दिलवाने में मदद की जाए । इस उद्देश्य की पूर्ति परामर्श केन्द्र किसी केन्द्रीय स्थान पर खोले जा सकते हैं, परन्तु वे नारी-गृहो से दूर होने ए जिससे कि उनका अच्छा प्रचार हो सके और गुहा मे रहने वालों की सुरक्षा को भी खतरा ।

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जो महिलायें शोषण की शिकार हैं, उनकी सहायतार्थ सस्ती और कम औपचारिक अदालतों स्थापना की जाये और उनके कार्यक्षेत्र मे विस्तार किया जाये और इन अदालतो में जज स्ट्रेट और वकील के पद पर महिलाओ की ही नियुक्ति की जाए क्योंकि वह पीडित महिलाओं समस्याओं को अच्छी तरह समझकर उनका समाधान कर सकेंगी ।

स्वयसेवी संगठनो को, जो महिलाओं की निजी समस्याओं के विषय में उनके ससुराल वालों से या पुलिस या अदालतों से या सम्बंधित व्यक्ति से बात कर सकें, सशक्त बनाना और उनकी संख्या में वृद्धि करना अत्यावश्यक है । ऐसे संगठनों का प्रचार होना चाहिये जो महिलाओं को निःशुल्क कानूनी देते हैं जिससे कि निर्धन महिलाएं उनके पास जाकर सहायता मांग सकें ।

सबसे सशक्त एवं प्रभावशाली उपाय हैं- माता-पिता के दृष्टिकोण में परिवर्तन आवश्यकता । माता-पिता अपनी पुत्रियों-विवाहित अथवा विधवा जिन्हें उनके पति पीटते हैं या जिनके साथ उसके ससुराल पक्ष वाले दुर्व्यवहार करते हैं, को अपनी इच्छा के विरुद्ध अपने पति घर में रहने के लिए क्यों बाध्य करते हैं ?

जब तक वे अपना प्रबंध कहीं और न कर लें उन्हें अपने साथ रखने की अनुमति क्यों नहीं देना चाहते ? इस सबको सामाजिक कलंक समझकर क्यों वह अपनी पुत्री को बलिदान होने के लिये निस्सहाय छोड़ देते हैं ? महिलाओं को भी अत्याचार के समक्ष झुकना क्यों चाहिए ? वे क्यों नहीं समझती कि उनमें अपनी और अपने बच्चों की देख रेख करने की क्षमता है ?

वे क्यों नहीं समझती कि उन्हें दी जा रही यातना से उनके बच्चों क भी भावात्मक आघात पहुँचता है महिलाओं को स्वयं जागरूक होना पड़ेगा, अपने अधिकारों प्रति दृढ होना पड़ेगा, अपने लिए स्वयं नई भूमिकाएं तैयार करनी पड़े गी । उन्हें जीवन के एक आशावादी दृष्टिकोण अपनाना पड़ेगा । स्वयं महिलायें ही यदि अपने अस्तित्व की रक्षा हे दृढ-संकल्प हो जाएंगी तो सबसे सशक्त एवं प्रभावशाली साधन सूद ही बन सकती हैं ।

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