छोटे राज्य एवं विकास की बागडोर पर निबंध | Essay on Development of Small States in Hindi!

जिस्म का कोई अंग बहुत सुंदर हो और कोई अंग लुंज-पुंज पड़ा हो, तो व्यक्ति-स्वस्थ नहीं कहा जा सकता । कमोबेश यही स्थिति किसी देश या समाज के साथ होती है । भारतीय गणराज्य को अगर सशक्त करना है, तो न केवल उसके भौगोलिक स्वरूप को एक रखना होगा, बल्कि उसके आतरिक स्वरूप को आर्थिक और सामाजिक तौर पर समान ढंग से विकसित भी करना होगा ।

पर पिछले 64 वर्षों की विकास यात्रा देखें, तो लगता है किए कुछ राज्य तो लगातार विकास के पथ पर सरपट भागते चले गये और कुछ इलाके गरीबी और भुखमरी के दलदल में फंसते गये । क्या कारण था इनके पिछड़ते जाने का? भारतीय गणराज्य का आतरिक स्वरूप बेडौल और विषमता पर आधारित क्यों है?

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पहली बात तो यह है कि देश के सर्वाधिक पिछड़े इलाके बडे राज्यों में हैं तो क्या बडे राज्य विकास के लिए उपयुक्त नहीं है? विचारणीय तथ्य यह है कि केंद्रीय योजना आयोग द्वारा राज्यों को धन आवंटित करने के जो मानक हैं, वे बड़े और गरीब राज्यों के अनुकूल कभी नहीं रहे । जो राज्य अधिक टैक्स देते हैं, उन्हें अधिक केंद्रीय सहायता मिल जाती है और प्रति व्यक्ति आमदनी जिस राज्य की अधिक होती है, उसे भी फायदा मिल जाता है ।

जबकि जो राज्य पिछडे हैं और गरीबी के कारण प्रति व्यक्ति आमदनी कम है, वे राज्य अपेक्षाकृत कम मदद पाते हैं । होना तो यह चाहिए कि जो राज्य या इलाके विकास की दृष्टि से पिछड़े हैं, उन्हें अधिक मदद दी जाये, पर ऐसा हुआ नहीं । परिणामस्वरूप देश में आर्थिक असंतुलन बढ़ता गया । उत्तर प्रदेश का विभाजन होता है, तो निश्चित ही पूर्वाचल और बुंदेलखंड को मिलने वाली केंद्रीय मदद में काफी इजाफा होगा, जिसका असर विकास योजनाओं पर पड़ेगा ।

दरअसल अलग पूर्वाचल, हरित प्रदेश या बुंदेलखंड की मांग करने वालों की बेताबी बेबुनियाद नहीं है । यह सच्चाई है कि पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों की खुशहाली के पीछे उनका छोटा होना भी है । विकास और प्रशासनिक दृष्टि से राज्य का छोटा होना बेहतर माना जाता है । वर्ष 2000 में अस्तित्व में आये उत्तराखंड की आठ साल में हुई तरक्की अलग राज्य की मांग करने वालों का हौसला बढ़ाती है ।

अभी स्थिति यह है कि अपने किसी मामले की सुनवाई के लिए बिजनौर जिले के किसी आदमी को इलाहाबाद हाई कोर्ट जाना पड़ता है, तो उसे कम से कम तीन दिन का समय चाहिए पर अलग हरित प्रदेश बनता है, तो निश्चित ही उच्च न्यायालय की बेंच पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसी शहर में बनेगी और तब एक दिन में ही उस आदमी का काम हो जायेगा ।

उत्तर प्रदेश के एक दर्जन से अधिक जिले संवेदनशील माने जाते हैं, जहां अकसर कानून व्यवस्था की स्थिति पैदा होती है । थोड़ा-सा भी माहौल बिगड़ने पर लखनऊ से सरकार व पुलिस का अमला भेजना पडता है । दस घंटे तो अमले को पहुंचने में लग जाते हैं । जब तक अधिकारी स्थितियों को समझता है, तब तक काफी चीजें हाथ से निकल जाती है । इन सारी मुश्किलों पर भारी धनराशि भी खर्च होती है । राज्य छोटा होगा, तो ऐसी स्थितियों से बचा जा सकेगा ।

बंटवारे के सिवा विकास का रास्ता क्या है?

आज बुंदेलखंड के किसान आत्महत्या कर रहे हैं । यह दूसरा विदर्भ बनता जा रहा है । खाद्य सुरक्षा के दावों को धता बताते हुए पूर्वाचल में भूख से मौतें हो रही हैं । कबीर की काशी में बनारसी साड़ी के हुनरमंद कारीगर खून बेचने पर मजबूर हैं । नवाबों के शहर लखनऊ का दायरा बढ रहा है और औद्योगिक नगर कानपुर के उद्यमियों की हालत खस्ता है । नोएडा में दिल्ली को मात देती अट्‌टालिकाएं खड़ी हैं तो चंदौली में नक्सलवाद पाव पसार रहा है और तो और, पूर्वांचल की राजधानी माना जाने वाला बनारस बुनियादी शहरी सुविधाओं के मामले में सी ग्रेड का शहर बन गया है ।

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इसके बावजूद हुक्मरान इसे उत्तर प्रदेश मानते रहे हैं । कवि धूमल की पंक्ति ‘भाषा में भदेस हूं, कायर इतना कि उत्तर प्रदेश हूं’ जूते की कील की तरह चुभती है । कृषि वैज्ञानिक गंगा-यमुना के दोआब की मिट्‌टी को सर्वाधिक उपजाऊ मानते हैं मगर इसका विकास आज तक नहीं हो पाया । एक फसल बाढ़ ले जाती है, और बाढ़ न आये, तो सूखे की मार पडती है । पूर्वाचल की चीनी और स्पिनिंग मिलें बंदी के कगार पर हैं । जो इलाका रदूबे में सर्वाधिक बिजली पैदा करता है, वहां अंधेरा पसरा रहता है ।

आर्थिक विकास के अभाव में बुंदेलखंड सामंतवाद की जकड़न में है । सिंचाई के साधन नहीं है । किसान हर साल कर्ज लेकर खेत में बीज डालते हैं और मेघों की ओर ताकते रहते हैं । साहूकारों के पंजों में फंसे किसान बारिश की बेरुखी के चलते आत्महत्या कर रहे हैं । गांव में जीप आने पर वे भागने लगते हैं, क्योंकि जीप से पुलिस या फिर साहूकार के वसूली एजेंट आते हैं । इन्हीं मुश्किलों ने विभाजन के मुद्दे को हवा दी थी ।

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बिहार, उड़ीसा और मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल इलाकों में ईसाई मिशनरियों और नक्सलियों की गतिविधियां तेज होने लगीं, तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने वनांचल के मुद्दे को हवा दी । हर किसी को यह मुद्दा भा गया । झारखंड, छत्तीसगढ और उड़ीसा के कुछ इलाकों को मिलाकर वनांचल बनाने की मांग उठी, पर ये राज्य सहमत नहीं हुए पर आदोलन इतना तीव्र और हिंसक हो गया कि उस आवाज को दबाना संभव नहीं था । इसी बीच उत्तर प्रदेश में भी पहाड़ के विकास के सवाल पर उत्तराखंड की मांग शुरू हो गयी थी ।

जिस समय उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झारखंड का मुद्दा गरमाया, उसी दौर में पूर्वांचल, हरित प्रदेश और बुंदेलखंड राज्य का मुद्दा भी जोर-शोर से उठा । समाजवादी सोच के नेता 1993 से ही अलग पूर्वांचल राज्य की मांग कर रहे थे । इसी तर्ज पर राजा बुंदेला ने अलग बुंदेलखंड की मांग की, तो अजीत सिंह ने हरित प्रदेश का मामला उठा लिया । अलग तेलंगाना का मुद्दा भी गरमाने लगा ।

उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झारखंड का आदोलन ज्यादा तीव्र और हिंसक हो गया, तो इन राज्यों का गठन करना सरकार की मजबूरी हो गयी लेकिन हरित प्रदेश, पूर्वाचल और बुंदेलखंड का आदोलन जनजागरण से आगे नहीं बढ़ पाया । चौधरी अजीत सिंह ने हरित प्रदेश का सवाल कभी नहीं छोड़ा, मगर उनकी राजनीतिक स्थितियां समय-समय पर बदलती रहती हैं । कुछ ऐसी ही स्थिति पूर्वाचल राज्य आदोलन के नेता शतरुद्र प्रकाश की भी है । इन इलाकों के राजनीतिक हालात ऐसे हैं कि यहां झारखंड और उत्तराखंड जैसे आदोलन नहीं भड़क सकते ।

पहाड़ी और वनवासी समाज की आकांक्षा और भावना उनको संग जोड़ती है जबकि बुंदेलखंड, पश्चिमांचल और पूर्वाचल का समाज जातिगत आधार पर बंटा हुआ है । यहां के नेताओं की आकांक्षाएं भी अलग-अलग हैं इसलिए यहां संगठित आदोलन खड़ा नहीं हो सकता । फिर भी समय-समय पर इस मुद्दे पर लोगों को सहलाकर वोट पाने की कोशिशें होती रही हैं ।

बीते दिनों राजद के सारनाथ सम्मेलन में रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने पूर्वाचल राज्य के लिए हुंकार भरी । झारखंड के गठन का विरोध करने वाले लालू यादव पूर्वाचल के पक्ष में यों ही नहीं खड़े हो गये । यहां पांव जमाने के लिए उन्हें ऐसा करना पड़ा । हालांकि पूर्वांचल के दिग्गज नेता और पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने छोटे राज्यों के गठन की माग को गलत बताया था । वह इस मांग को राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा की उपज मानते थे । उनका सवाल होता था कि जिन राज्यों को छोटा बनाया गया, उनका कितना विकास हुआ है ।

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