असंतुलित विकास की त्रासदी पर निबंध | Essay on Tragedy of Unbalanced Development in Hindi!

भारत सरकार की जनगणना-2001 में शहरीकरण को लेकर जारी की गयी रिपोर्ट देखकर केंद्र और राज्य सरकारों के कान खडे हो जाने चाहिए । यह ठीक है कि वर्तमान में भारत अनेक देशों के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहा है और आर्थिक विकास की दृष्टि से वह विश्व में दूसरे स्थान पर है, लेकिन शहरीकरण के मामले में उसकी स्थिति दयनीय है ।

इसके अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों की हालत पहले से दुर्दशाग्रस्त है । यही कारण है कि नागरिक सुविधाओं की उपलब्धता और रहन-सहन के स्सर पर हमारा देश विकसित देशों के पैमाने से बहुत पीछे है । आज देश के राजनेता जनता को यह स्वप्न दिखाते नहीं थकते कि वर्ष 2020 तक भारत विकसित देशों की श्रेणी में खडा हो जायेगा ।

शहरी क्षेत्रों में अर्थव्यवस्था के मुकाबले ग्रामीण अर्थव्यवस्था अभी भी खराब हालत में है और इसी कारण गांव से बडी संख्या में शहरों की ओर पलायन हो रहा है । कृषि क्षेत्र की कमजोरी के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर न के बराबर हैं । कस्बों और छोटे शहरों में तो छिटपुट विकास हो रहा है, लेकिन गांवों के उत्थान को लेकर कोई भी आशावान नहीं हैं ।

भले ही चुनाव के अवसर पर राजनेताओं की घोषणाओं से किसानों को थोड़ी-बहुत राहत मिल जाती हो, लेकिन उनकी बुनियादी स्थिति जस-की-तस है । छोटे किसनों को सरकारी नीतियों और योजनाओं का लाभ मुश्किल से मिल पता है ।

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कृषि आधारित उद्योग लगातार रूग्ण होते चले जा रहे हैं और इसका ताजा सबूत है चीनी उद्योग की खस्ता हालत । गन्ने के मूल्यों में वृद्धि करने वाले राजनेताओं के पास इसका कोई जवाब नहीं है कि चीनी मिलें अपने बढ़ते नुकसान की भरपाई कैसे करे? सरकारें यह भी नहीं चाहतीं कि चीनी के दाम बढ़ें ।

इस सबके चलते सरकारी और सहकरी क्षेत्र की तमाम चीनी मिलें बंद होने के कगार पर पहुंच गयी हैं । इससे ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर और भी घटते जा रहे हैं । ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे को मजबूत करने के लिए बजट में धनराशि तो आवंटित होता है, लेकिन जैसा कि पूर्व में देश के अग्रणी नेता कह चुके हैं, एक रूपये में दस पैसे ही खर्च हो पाते हैं ।

यही वजह है कि अनेक ग्रामीण इलाकों में विकास का नामोनिशान तक दिखाई नहीं देता । आज अगर ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली, पानी, सड़क के साथ शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए सार्थक एवं नियोजित प्रयास किये जा सके तो गांवों से शहरों की तरफ पलायन रोका जा सकता है ।

ग्रामीण क्षेत्रों में लोग रोजी-रोटी की तलाश में या तो शहरों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर होते हैं या फिर स्थानीय स्तर पर ऐसे कार्य करने लगते हैं जिनसे उन्हें लाभ के बजाय हानि होने लगती है । यद्यपि देश की करीब 70 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है, लेकिन विकास के ज्यादातर कार्यक्रम शहरों तक सीमित हैं ।

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पिछले 10 वर्षों में देश में जो भी उल्लेखनीय विकास हुआ है वह शहरी क्षेत्रों में अधिक दिखाई देता है । संभवत: इसी शहरी चमक-दमक के आधार पर राजग सरकार ने 2004 के लोकसभा चुनाव में इंडिया शाइनिंग का नारा देकर पुन: सत्ता में आने की कोशिश की थी, लेकिन उसे मुँह की खानी पड़ी ।

राजग के बाद सत्ता में आयी संप्रग सरकार से जनता को उम्मीद बँधी थी कि यह सरकार आम आदमी की सरकार साबित होगी, लेकिन छ: वर्ष बीत जाने के बावजूद आम आदमी के हित के लिए कुछ खास किया नहीं जा सका हैं । संप्रग सरकार ने ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के विकास के लिए जो तमाम योजनाएं घोषित कीं या तो कागजों तक सीमित रहीं या फिर उनकी गति इतनी धीमी है कि वे प्रभावी सिद्ध नहीं हो पा रही है ।

केंद्र सरकार यह आड़ ले सकती है कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के विकास का दारोमदार मुख्यत: राज्य सरकारों पर है और वे अपना काम सही तरीके से नहीं कर रहीं, लेकिन सवाल यह है कि आखिर वह ऐसी हालत में भी चुपचाप क्यों बैठी है? क्या यह जरूरी नहीं कि वह राज्य सरकारों पर दबाव बनाये अथवा उन्हें प्रेरित करे? आज के हमारे राजनेताओं का अधिकांश समय अपनी कुर्सी बचाने अथवा सत्ता पाने के लिए गोटियां बैठाने में निकल जाता है ।

बिरले ही राजनेता ऐसे हैं जो गरीब जनता के गिरते हुये जीवन स्तर को ऊँचा उठाने के प्रति गंभीर है । इस मामले में जहाँ तक नौकरशाहों की बात है तो उनके बारे में कुछ कहना व्यर्थ है । ऐसा लगता है कि नौकरशाही अब इतनी खुदगर्ज हो चुकी है कि उसे आम जनता का दुख-दर्द दिखाई और सुनाई ही नहीं देता । नौकरशाहों का अधिकांश समय अच्छी पोस्टिंग पाने और फिर वहाँ जमे रहने में खप जाता है, जो थोड़ा-बहुत समय बचता है उसमें वे कामचलाऊ ढंग से विकास कार्यो की ओर ध्यान देते हैं ।

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ग्रामीण क्षेत्रों के उत्थान से संबंधित सभी शीर्ष अधिकारी आम तौर पर शहरों में ही निवास करते हैं । वे ग्रामीण क्षेत्रों की सुध मुश्किल से लेते हैं । यही कारण है कि ग्रामीण इलाके उपेक्षित नजर आ रहे हैं । यदि सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में वास्तव में विकास करना चाहती है तो फिर उसे शहरों के समानांतर नौकरशाही का एक मात्र उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों का उत्थान करना होना चाहिए ।

निस्संदेह शहरी क्षेत्रों में सब कुछ ठीक नहीं है । शहरी क्षेत्र जनसंख्या के बोझ से कराह रहे हैं । बेतरतीब विकास और अतिक्रमण के चलते शहरों में नागरिक सुविधाओं के ढांचे का सही तरीके से विकास नहीं हो पा रहा हैं इसके लिए राजनेताओं और नौकरशाहों की मिलीभगत जिम्मेदार है ।

पता नहीं देश में ऐसे कानूनों का निर्माण क्यों नहीं हो पा रहा जिनसे शहरों के नियोजित विकास में आने वाली बाधाएं आसानी से दूर की जा सकें? आज शहरों में जो विकास कार्य हो रहे हैं उनके दीर्घकालिक परिणाम कोई बहुत सुखद नहीं नजर आते । शहरी विकास के नाम पर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल बना देने मात्र से सब कुछ ठीक नहीं हो जायेगा । शहरों को व्यावसायिक क्षेत्रों के अलावा अच्छे स्कूल, अस्पताल और सडकें भी चाहिए । इसी तरह बिजली-पानी की पर्याप्त उपलब्धता भी आवश्यक है ।

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देश के शहरों की एक गंभीर समस्या रिहाइशी भूमि की किल्लत और आवासीय इलाकों में बढ़ती व्यावसायिक गतिविधियाँ हैं । ऐसी ही गतिविधियों के चलते पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर दिल्ली में बड़े पैमाने पर तोड़-फोड़ की गयी जिससे हजारों लोगों को अपने व्यावसायिक ठिकानों और आजीविका के साधन से हाथ धोना पड़ा । आखिर इसमें दोष किसका था-जनता का या फिर राजनेताओं और नौकरशाहों का? यह वह प्रश्न है जिस पर सारे देश में बहस होनी चाहिए, क्योंकि दिल्ली जैसे हालात अन्य शहरों में भी बन रहे हैं ।

यदि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के विकास की धीमी और असंतुलित रफ्तार की ओर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में रहन-सहन के स्तर पर समस्याएँ और अधिक जटिल रहेंगी । इससे शहरीकरण और अधिक विकृत रूप ले सकता है । निश्चित रूप से ऐसी स्थिति में लोगों की समस्याएं बढ़ने के साथ-साथ एक प्राचीन एवं सुसंस्कृत देश के रूप में भारत की अंतर्राष्ट्रीय छवि और अधिक धूमिल हो सकती है।

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