पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं पर निबंध! Here is an essay on ‘There is No Pleasure in Being Dependent’ in Hindi language.

स्वाधीनता प्राणीमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है । इस विस्तृत जगत् में किसी भी जीव को बँधा हुआ जीवन पसन्द नहीं आता । स्वाधीनता अमूल्य निधि है, जिसके अभाव में यह जीवन शव के समान जड़ हो जाता है ।

गुलामी की जंजीर को तोड़कर स्वाधीनता की ओर अग्रसर मानवता ने स्वतन्त्रता का मूल्यांकन करते हुए इसे एक अभूतपूर्व उपलब्धि माना है-

“नहीं चाहते हम धन-वैभव, नहीं चाहते हम अधिकार,

बस स्वतन्त्र रहने दो हमको और स्वतन्त्र रहे संसार ।।”

प्राचीन एवं मध्यकाल में स्त्रियों का पूरा जीवन पराधीनता से इस प्रकार जकड़ा हुआ था कि वे अपने किसी भी कार्य या व्यवहार के लिए स्वतन्त्र नहीं थी । उनके मस्तिष्क में पराधीनता की भावना इस प्रकार घर कर गई थी कि वे सपने में भी अपनी स्वतन्त्रता के सुख का आनन्द नहीं उठा पाती थी । तुलसीदास ने इसी सन्दर्भ में स्त्रियों की दारुण स्थिति का चित्रण करते हुए लिखा है-

“पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं ।

कर विचार देखहुँ मन माहिं ।।”

वस्तुतः सृष्टि में विद्यमान सभी जीव-जन्तु अपनी स्वतन्त्रता से अत्यधिक प्रेम करते हैं । पिंजरे में कैद चिड़िया हो या सलाखों से घिरा शेर, एक नवजात शिशु हो या अत्यन्त कमजोर वृद्ध, यदि किसी भी जीव में थोड़ी-सी भी चेतना है, तो वह अपनी स्वतन्त्रता से अधिक प्रेम करता है ।

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वह प्रत्येक आयाम या सभी पक्षों में स्वतन्त्र होना चाहता है । वह विचारों की स्वतन्त्रता चाहता है उसे अभिव्यक्त करने की स्वतन्त्रता चाहता है । उसे कार्य करने की स्वतन्त्रता प्रिय है, तो उस कार्य की सफलता से उत्पन्न आनन्द के उपभोग की स्वतन्त्रता भी उसे वांछनीय है ।

इन तमाम स्वतन्त्रताओं में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मूलभूत है । अभिव्यक्ति की इच्छा किसी व्यक्ति की भावनाओं कल्पनाओं एवं चिन्तन से प्रेरित होती है और अपनी-अपनी क्षमता के अनुरूप होती है ।

वैयक्तिक स्तर पर विचारों की अभिव्यक्ति से तात्पर्य युक्तियुक्त अभिव्यक्ति से है । निरपेक्ष स्वतन्त्रता का कोई अर्थ नहीं होता । स्वतन्त्रता हमेशा प्रतिमानों में निहित होती है ।

विश्व के किसी भी देश का संविधान अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता कुछ ऐसी हिदायतों के साथ देता है, जिससे देश की एकता, अखण्डता एवं सम्प्रभुता नकारात्मक रूप से प्रभावित न हो । अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की निर्दोषता या सदोषता कभी स्पष्टतः निरपेक्ष नहीं हो सकती, पूर्ण नहीं हो सकती ।

जो मानदण्ड आज उचित एवं प्रासंगिक लगते हैं, वही अनिवार्य रूप से भविष्य के लिए भी उचित एवं प्रासंगिक नहीं हो सकते । विचारों एवं दृष्टिकोणों के साथ-साथ सामाजिक मानदण्ड भी बदलते हैं । अभिव्यक्ति या किसी भी प्रकार की स्वतन्त्रता का प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष सम्बन्ध स्वावलम्बन मे होता है ।

‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं’ उक्ति जहाँ एक ओर यह स्पष्ट करती है कि पराधीन व्यक्ति को सपने में भी सुख प्राप्त नहीं होता, वहीं दूसरी ओर इसमें यह अभिप्राय भी निहित है कि किसी भी प्रकार के सुख की प्राप्ति के लिए स्वाधीनता अर्थात् स्वावलम्बन अपरिहार्य है ।

‘हितोपदेश’ में भी कहा गया है- ”पराधीन को यदि जीवित कहते हैं, तो मृत कौन है ?” अंग्रेजी में भी लोकप्रिय एक उक्ति का अनुवाद है- ”स्वर्ग में दास बनकर रहने की अपेक्षा नरक में स्वाधीन शासन करना अधिक अच्छा है ।”

वास्तव में, पराधीनता केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि मानसिक बौद्धिक एवं आर्थिक भी होती है । जब कोई व्यक्ति दूसरों के विचारों से प्रभावित होने या दूसरों के विचारों का अनुसरण करने के लिए बाध्य हो जाए, तो यह भी पराधीनता का ही सूचक है ।

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स्वाधीनता से सच्चे आनन्द की प्राप्ति होती है, जबकि पराधीनता मनुष्य के स्वाभिमान को नष्ट कर देती है । पराधीनता से बचने का एकमात्र मार्ग आत्मनिर्भरता एवं आत्मविश्वास है जिसे संघर्ष द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है ।

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एक स्वाधीन व्यक्ति की ही सोच रचनात्मक हो सकती है । जो पराधीन है, जिसकी आत्मा दु:खी दबी हुई होती है, वह व्यक्ति अपनी पूर्ण सृजनात्मक क्षमता का उपयोग भला कैसे कर सकता है ।

एक पराधीन राष्ट्र के लोगों की सोच पिछड़ी एवं नकारात्मक होती है, क्योंकि उनकी मानसिकता पराधीन या दास प्रवृत्ति की हो जाती है, जबकि दूसरी ओर, स्वाधीन देश के सदस्यों में रचनात्मक ऊर्जा का अक्षय स्रोत होता है ।

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वे क्रियात्मक रूप से अधिक सक्रिय एवं जीवन्त होते हैं । अत्यधिक रचनात्मक सोच एवं दृष्टिकोण होने के कारण राष्ट्र-निर्माण में उनका योगदान अत्यन्त प्रभावी एवं उल्लेखनीय होता है । इसी कारण स्वाधीन राष्ट्र का विकास एवं प्रगति अत्यन्त तीव्र गीत से निरन्तर होती जाती है ।

स्वाधीनता की भावना व्यक्ति के अन्दर हमेशा उत्साह, उमंग, सृजनात्मकता, जीवन्तता का संचार करती है, जिसका प्रभाव उसकी सकारात्मक क्रियाओं के रूप में सामने आता है । देश की पराधीनता ने भारतीयों के मन-मस्तिष्क को अत्यधिक संकीर्ण बना दिया था ।

हम अपनी प्रगति के बारे में कुछ सोचने हेतु सक्षम ही नहीं रह गए थे, लेकिन स्वाधीनता संग्राम की प्रक्रिया तेज होने के साथ-साथ नेतृत्व वर्ग ने सामान्य भारतीय जनता को धीरे-धीरे जागरूक करना प्रारम्भ किया और उसे स्वाधीन चेतना से अवगत कराया ।

इसके परिणामस्वरूप हमने स्वयं को स्वाधीन करने के लिए कमर कस ली और अन्ततः हमने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर स्वतन्त्रता प्राप्त की । स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद स्वाधीनता के स्वाद से अवगत होने पर हमने स्वयं को अधिक-से-अधिक रचनात्मक रूप से सक्रिय बनाया ।

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लोगों ने अपनी सृजनशीलता का पूरा उपयोग करना प्रारम्भ किया, जिसके परिणामस्वरूप भारत आज विकास एवं प्रगति के पथ पर तेजी से अग्रसर है । एक नवजात शिशु भी अपने ऊपर किसी का नियन्त्रण को प्रसन्नता से स्वीकार नहीं करता ।

वह लम्बे समय तक माँ की गोद होकर बिस्तर पर आते ही खुशी से हाथ-पैर फेंकने लगता है । बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, वैसे-वैसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भरता कम करता जाता है और उसकी स्वतन्त्रता की इच्छा बढ़ती जाती है ।

पूरी तरह स्वतन्त्र होकर आत्मनिर्भर बनकर उसकी स्वाधीन चेतना पूरी तरह आकार ग्रहण कर लेती है और उसकी रचनात्मक या सुजनात्मक क्षमता का लाभ पूरे समाज को मिलने लगता है ।

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स्वाधीनता किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए जितनी आवश्यक है, उतनी ही समाज एवं राष्ट्र के लिए भी, क्योंकि स्वाधीन व्यक्ति ही अपनी सृजनात्मकता का पूर्ण उपयोग कर सकता है । पराधीनता व्यक्तित्व को पूरी तरह नष्ट कर देती है ।

पराधीन व्यक्ति न तो अपनी रचनात्मक सोच या दृष्टिकोण ही विकसित कर पाता है और न ही उसके क्रियाशील व्यवहार में रचनात्मकता आ पाती है । अच्छे व्यक्तियों की संगति किसी व्यक्ति को न सिर्फ कुमार्ग पर जाने से रोकती है, बल्कि उसे सुमार्ग पर जाने के लिए प्रेरित भी करती है ।

सुसंगति सचमुच हमारे जीवन को एक अर्थपूर्ण दिशा प्रदान करती है । सौ वर्ष की कुसंगति से अल्प समय की सुसंगति लाख गुना अच्छी है-

“एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।

तुलसी संगति साधु की, कटै कोटि अपराध ।।”

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