पराधीन सपनेहूँ सुख नाहीं अथवा पराधीनता पर निबंध | Essay on Dependence in Hindi!

मनुष्य के लिए पराधीनता अभिशाप के समान है । पराधीन व्यक्ति स्वप्न में भी सुख का अनुभव नहीं कर सकता है । समस्त भोग-विलास व भौतिक सुखों के रहते हुए भी यदि वह स्वतंत्र नहीं है तो उसके लिए यह सब व्यर्थ है ।

पराधीन मनुष्य की वही स्थिति होती है जो किसी पिंजड़े में बंद पक्षी की होती है जिसे खाने-पीने की समस्त सामग्री उपलब्ध है परंतु वह उड़ने के लिए स्वतंत्र नहीं है । हालाँकि मनुष्य की यह विडंबना है कि वह स्वयं अपने ही कृत्यों के कारण पराधीनता के दुश्चक्र में फँस जाता है ।

पराधीनता के दर्द को भारत और भारतवासियों से अधिक कौन समझ सकता है जिन्हें सैकड़ों वर्षों तक अंग्रेजी सरकार के अधीन रहना पड़ा । स्वतंत्रता के महत्व को वह व्यक्ति पूर्ण रूप से समझ सकता है जो कभी पराधीन रहा है । हमारी स्वतंत्रता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है । इस स्वतंत्रता के लिए कितने वर्षों तक लोगों ने संघर्ष किया, कितने ही अमर शहीदों ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए हँसते-हँसते अपने प्राणों का बलिदान दे दिया ।

पराधीनता के स्वरूप को यदि हम देखें तो हम पाएँगे कि पराधीन व्यक्ति के लिए स्वेच्छा अर्थहीन हो जाती है । उसके सभी कार्य दूसरों के द्‌वारा संचालित होते हैं । पराधीन मनुष्य एक समय अंतराल के बाद इन्हीं परिस्थितियों में जीने और रहने का आदी हो जाता है । उसकी अपनी भावनाएँ दब जाती हैं । वह संवेदनारहित हो जाता है ।

तत्पश्चात् वह यंत्रवत् होकर काम करता रहता है । ऐसे व्यक्ति को मरा हुआ ही समझा जा सकता है क्योंकि संवेदनारहित व्यक्ति जिसकी स्वयं की इच्छा या भावनाएँ न हों तो उसका जीवन ही निरर्थक हो जाता है । ऐसे में कोई महापुरुष ही सामान्य जनों को जागत कर सकते हैं । आम आदमी अपनी पारिवारिक चिंताओं से बाहर निकालने का साहस नहीं जुटा पाता है ।

प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक रूसो के अनुसार – ‘मानव स्वतंत्र जन्मा है किंतु वह प्रत्येक जगह बंधनों से बंधा रहे ।’ इस कथन पर यदि प्रकाश डालें तो हम पाते हैं कि मनुष्य प्रत्येक ओर से सांसरिक बंधनों में जकड़ा हुआ है परंतु कुछ बंधन उसने स्वीकर नहीं किए हैं । परिवार के प्रति के प्रति उत्तरदायित्वों का निर्वाह, देश अथवा राष्ट्र के उत्थान के लिए प्रयत्न तथा आत्मविकास के लिए स्वयं को नियंत्रित करके चलना आदि को पराधीनता नहीं कह सकते ।

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इन कृत्यों में उसकी संवेदनाएँ एवं उसकी स्वेच्छा सम्मिलित है । परंतु अपनी इच्छा के विरुद्‌ध विवशतापूर्वक किया गया कार्य पराधीनता का ही एक रूप है । बाल मजदूरी, बँधुआ मजदूरी, धनी एवं प्रभुत्व संपन्न व्यक्तियों की चाटुकारिता पराधीनता के ही विभिन्न रूप कहे जा सकते हैं ।

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पराधीनता से स्वयं का अस्तित्व ही नहीं रह जाता है । इसके दूरगामी परिणाम होते हैं । आज हमारा युवा वर्ग देश की संस्कृति को उपहास और उपेक्षा की दृष्टि से देखता है तथा पाश्चात्य संस्कृति में विलीन होना चाहता है । यह भी पराधीनता का ही एक रूप है ।

यह एक प्रकार की परतंत्रता की मानसिकता का ही उदाहरण है । अपनी निजता और अस्तित्व को भुलाकर दिखावे म्रैर बाह्‌य आडंबर को प्राथमिकता देना भी पराधीनता का ही एक रूप है । नि:संदेह पराधीनता व्यक्ति को ही नहीं अपितु पूरे समाज और राष्ट्र को पतन की ओर ले जाती है ।

हमारे देश के लिए इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण बात और क्या हो सकती है कि हम सैकड़ों वर्षों की परतंत्रता के बाद मिली आजादी के महत्व को भुला बैठे हैं । देश के सभी क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार, लूटमार, कालाबाजारी, व्यभिचार, दुराचार कमजोरों का उत्पीड़न आदि अनैतिकता को सहज रूप में अपनाकर हम स्वतंत्रता के महत्व को भुला रहे हैं।

यह उन शहीदों और अमर सेनानियों के बलिदान व कुर्बानियों का तिरस्कार ही होगा। अत:हम सभी देशवासियों का यह कर्तव्य है कि हम स्वतंत्रता के महत्व को समझें और प्रयास करें कि हमें पुन: पराधीनता का सामना न करना पड़े ।

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