भंवरी हत्याकांड की तफ्शीस कर रहे आजतक के संवाददाता पर इस हत्याकांड में शामिल एक पूर्व मंत्री एवं वरिष्ठ कांग्रेस नेता के कुछ समर्थकों ने हमला किया ।

कुछ वर्ष पूर्व हिन्दू साम्राज्य सेना का सदस्य बताने वाले लोगों ने एनडीटीवी के अहमदाबाद कार्यालय पर हमला कर तोड़-फोड़ की थी । इन लोगों की नाराजगीकी वजह एनडीटीवी का वह एसएमएल पोल था, जिसमें पेंटर एम. एफ. हुसैन के संभावित भारत रत्न के रूप में चयन किए जाने के बारे में दर्शकों की राय माँगी गई थी ।

इसके पहले मुंबई में राज ठाकरे की नवनिर्माण सेना के कथित समर्थकों ने आईबीएन 7 की एक ब्रॉडकास्ट वैन को क्षतिग्रस्त कर दिया था । कारण? इस चैनल ने नव वर्ष के मौके पर दो अनिवासी भारतीय महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार करने के आरोपी युवकों को समर्थन करने के राज ठाकरे के कदम पर सवाल उठाए थे । कुछ महीने पहले पटना में पत्रकारों पर इसलिए हमला किया गया था क्योंकि उन्होंने हत्या के एक मामले में जनता दल-यू के एक विधायक के शामिल होने की आंशका की खबर दी थी।

एक हिन्दू-मुस्लिम विवाह के कवरेज से भड़के एक अनजाने संगठन ने मुंबई में स्टार न्यूज के कार्यालय में भारी तोड़-फोड़ की थी । इसी तरह 2006 में बसपा सुप्रीमो मायावती की गैर-आनुपातिक संपत्ति के बारे में खबर देने के अगले दिन उत्तर प्रदेश विधानसभा के सामने उत्पातियों की भीड़ ने सीएनएन-आईबीएन की कार जला डाली थी ।

ADVERTISEMENTS:

उपरोक्त सभी घटनाओं में एक प्रवृति समान है । वह यह है कि किसी अनजाने संगठन से जुड़ी कोई चेहराविहीन भीड़ कानून को अपने हाथ में लेकर महज 15 सेकेंड में मीडिया की सुर्खियों में हिस्सा बन जाती है । हिंसा तर्कपूर्ण बहस की जगह ले लेती है, जाना-पहचाना नहीं होना हमलावरों के लिए बच निकलने का जरिया बन जाता है।

खोखली अस्मिता या स्वाभिमान को औचित्य का नाम दे दिया जाता है और टेलीविजन आसान निशाना बन जाता है । टेलीविजन चैनलों के प्राइम टाइम में जगह पाने के लिए किसी टेलीविजन चैनल पर हमले से आसान कोई विकल्प है भी तो नहीं । कैमरे की आँख बड़ी दुनिया की वह खिड़की है जो आपको कुछ ही क्षणों में करोडों दर्शकों तक पहुँचा देती है ।

ऐसी घटनाओं में शामिल भीड़ लगभग समान होती है । उनमें ज्यादातर बेरोजगार युवा होते हैं जो लगातार स्पर्धात्मक होती जा रही दुनिया में अपनी पहचान और प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए किसी हद तक जा सकते हैं । हाशिये पर धकेले जाने की आशंका से भयाक्रांत इन लोगों में किसी सेना का सदस्य या किसी नेता का हथियारबंद गुर्गा बनने से ‘कुछ’ होने की भावना पैदा होती है । इसी से उनके जीवन को कुछ अर्थ मिलता है, वरना तो उसकी जिंदगी नीरस और अभावों से भरी होती है ।

कुछ साल पहले की तरह ऐसी घटनाएं अब केवल बड़े शहरों में सीमित नहीं रह गई है । उनका संजाल पूरे देश में फैल चुका है । तथाकथित सांस्कृतिक शुद्धता के स्वयंभू संरक्षक के नाते यह समूह नैतिक पुलिस की भूमिका भी निभाने लगे हैं ।

फिर चाहे श्रीनगर में सिर पर दुपट्टा न ओढ़ने-वाली लड़कियों को धमकाने वाले हों या मेरठ के किसी पार्क में घूमते युवा जोड़ों के धमकाने वाले या फिर चैन्नई के किसी कॉलेज में जींस पहनकर आने वाले छात्रों को धमकाने वाले हों, हिंसा और जोर-जबरदस्ती से नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले ऐसे समूह देश में हर कहीं मिल जाते हैं ।

ADVERTISEMENTS:

हालाँकि इस स्थिति के लिए असली दोषी चेहराविहीन भीड़ नहीं है । टेलीविजन के कैमरे की तरह वह आसानी से बलि का बकरा जरूर बना दी जाती है । असली दोषी तो कानून के वे पहिए हैं जिन पर कानून का शासन चलाने की जिम्मेदारी होती है ।

उदाहरण के लिए जो गुजरात सरकार बिजली का बिल नहीं भरने वाले किसानों पर कड़ाई बरत सकती है, वहीं सरकार बड़ोदरा में कला प्रदर्शनी में उत्पात मचाने वालों और अहमदाबाद के साबरमती आश्रम में घुसकर नर्मदा बचाओ आंदोलन की मेधा पाटकर के साथ बदसलूकी करने वालों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं कर सकती?

महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी की जो सरकार बार डांसरों के खिलाफ कड़ाई से काम ले सकती है, वह पुणे में एक लाइब्रेरी में पुरातत्व की सामग्री नष्ट करने वाली कथित संभाजी ब्रिगेड के खिलाफ कार्रवाई के मामले में आंख क्यों मूंद लेती है? हकीकत है कि चेहराविहीन भीड़ अक्सर सत्ता के तंत्र का विस्तार भर होती है ।

ADVERTISEMENTS:

पुलिस और राजनीतिक व्यवस्था का समर्थन और मदद उसे ताकत और वैधता देता है । ज्यादातर राज्यों में स्वतंत्र रूप से काम करने वाले पुलिसकर्मियों पर राजनीतिक आकाओं के नाराज होने का खतरा मंडराता रहता है । उन्हें फौरी तौर पर स्थानांतरित या मुअत्तल कर दिया जाता है ।

इस संदर्भ में मीडिया भी बेदाग नहीं है । ऐसे कितने मौके आते हैं जब हम तरह-तरह की राजनीतिक धमकियों के सामने एकजुट होकर खड़े होते हैं? मीडिया को लक्ष्य बनाए जाने पर आमतौर पर हम सामूहिक रूप से कुछ नहीं करते हैं ।

कुछ समाचार संगठन अपने हितों से जुड़े मामले तो जोर-शोर से उठाते हैं मगर पूर्वोत्तर में किसी न्यूज चैनल पर रोक लगाए जाने, किसी प्रतिस्पर्धा के साथ अनुचित व्यवहार होने या फिर, तत्कालीन सरकार द्वारा तहलका का अस्तित्व मिटाए जाने की कोशिश किए जाने पर सच्चाई के साथ खडे होने का माद्‌दा रखने वाले गिने-चुने ही है और मीडिया के उन लोगों के बारे में क्या कहा जाए जो कैमरे को नजर में रखकर की जाने वाली भीड़ की हिंसा के दृश्यों को प्रसारित करने को अपना कर्त्तव्य समझते हैं । क्या हम अपनी विश्वसनीयता को परखने के बारे में गंभीरता से सोच-विचार करने के लिए तैयार हैं?

संभवत: हम फौरी टेलीविजन दृश्यों के उस दौर के शिकार हैं जिसमें अभी की घटना अगले बुलेटिन में इतिहास बन जाती है । अहमदाबाद में एनडीटीवी के कार्यालय पर हुए हमले के पांच घंटों के भीतर देश के सभी टेलीविजन चैनल वहां के दृश्य दिखाकर ‘चक दे’ की भावना से बल्ले-बल्ले कर रहे थे ।

ADVERTISEMENTS:

संभव है कि राष्ट्रवाद के नाम पर की जाने वाली जोर-जबरदस्ती के दृश्य देश की सड़कों पर कभी भी भड़कने को तैयार बैठी हिंसा का अंश मात्र हो । संभव है कि तिरंगे से रंगे कुछ उन्मादी चेहरें पूर्व में मीडिया पर हमले करने वाली भीड़ में भी शामिल रहे हों । लगता है कि हम भले, बुरे और बदसूरत में भेद करने की क्षमता खो चुके हैं ।

Home››Essays››