मदर टेरेसा का सुधारवादी दृष्टिकोण |Essay on Mother Teresa’s Reformist Approach in Hindi!

मदर टेरेसा का जन्म २६ अगस्त, १९१० को मैसीडोनिया के ‘स्कोप्य’ नगर यूगोस्लाविया में एक अल्बेनियन दंपती के यहाँ हुआ था और उस समय बच्ची का नाम ‘एग्नेस गोनक्शा बोजाक्शिहउ’ (बोजाक्सिया) रखा गया, जो उनका वास्तविक नाम है ।

उनके पिता एक व्यवसायी थे । वे निर्माण-कार्य से जुड़े थे । उनके परिवार की आर्थिक स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं थी । वे एक रोमन कैथोलिक संघटन की सक्रिय सदस्या थीं । इसी का प्रभाव था कि मात्र बारह वर्ष की अवस्था में उनके विराट् हृदय में करुणा का बीज अंकुरित हो उठा । उनकी उस बाल्यावस्था के ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि पीड़ित मानवता के लिए उनके हृदय में प्रारंभ से ही कितना स्नेह और वात्सल्य था ।

सन् १९२५ की बात है, यूगोस्लाविया के ईसाई मिशनरियों का एक दल सेवा- कार्य के लिए भारत पहुँचा और यहाँ की निरीह जनता की दुरवस्था, निर्धनता एवं कष्टों के विषय में एक पत्र अपने देश को भारत में सहायता के अनुरोध के साथ भेजा ।

उस पत्र को पढ़कर ही ममतामयी एग्नेस का हृदय अभिभूत हो उठा । वह २९ नवंबर, १९२८ को युगोस्लाविया से भारत के लिए निकलीं । गृह-त्याग के समय उन्हें स्टेशन पर उनकी माँ, बहन और भाई छोड़ने आए थे । ६ जनवरी, १९२९ को वे भारत की धरती पर उतरीं । इसके बाद से वे दो वर्षीय सेवा-कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए दार्जिलिंग गईं ।

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२३ मइ, १९२९ को उन्हें धार्मिक कार्यों के लिए स्वीकार किया गया । २४ मार्च, १९३१ को उन्का नामकरण ‘सेंट टेरेसा’ कर दिया गया । इसके पश्चात् वे सेवा-क्षेत्र में आईं । यद्यपि वे सेवा-कार्यों के लिए फ्रांस, जापान, ऑस्ट्रेलिया आदि कई देशों में गईं, तथापि भारत की धरती पर पहुँचते ही स्वेच्छा से भारत की धरती में रच-बस गईं ।

भारत पहुँचकर कोलकतता को उन्होने अपना कार्यक्षेत्र बनाया । सन १९३१ से १९४८ तक कोलकतता स्थित सेंट मेरी स्कूल, इंटाली में वे शिक्षिका के रूप में कार्य करने लगीं । सन १९४८ में उन्होने दार्जिलिंग की यात्रा की । १० दिसंबर, १९४८ को उन्होने एक निश्चय किया, जिसके अनुसार वे लोरेटो के सुखमय जीवन का परित्याग कर दीन- दुःखियों की सेवा करने में जुट गईं । उन्होंने नीले किनारे वाली मोटी सूती साड़ी को अपना स्थायी गणवेश (Uniform) बनाया । उसी समय उन्होंने अपना नामकरण ‘मदर टेरेसा’ रखा ।

उन्होंने सेवा-कार्य के लिए कलकत्ता स्थित मोती झील की बस्ती का चयन किया । उन्होंने अपने सेवा-भाव को कार्यरूप देने के लिए एक संस्था की स्थापना की, जिसका नाम ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ रखा गया । ७ अक्तूबर, १९५० को इसे वेटिकन से मान्यता प्राप्त हो गई ।

इस प्रकार २२ अगस्त, १९५२ को ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ का पहला केंद्र खुला, जिसका नाम ‘निर्मल हृदय’ रखा गया । वह सेवा-केंद्र कलकत्ता स्थित कालीघाट के पास है । उन्होंने १०५ देशों में इसके ५०४ केंद्र स्थापित किए । सन् १९४८ में मदर टेरेसा को भारत की नागरिकता प्राप्त हो गई ।

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मदर टेरेसा द्वारा स्थापित कलकत्ता के ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ के मुख्यालय का नाम उनके नाम पर ही ‘मदर हाउस’ रखा गया । इस संस्थान ने विश्व भर के दीन-दुःखियों और बेसहारों के लिए अनाथालयों, आश्रमों और औषधालयों की स्थापना की ।

भारत के साथ-साथ रोम और वेनेजुएला में भी इस संस्था के कई तरह के सेवा-कार्य चलाए हैं, जैसे-कुष्ठ रोगियों के लिए ‘कुष्ठ निवारण केंद्र’ अनाथ नवजात शिशुओं के लिए ‘निर्मल शिशु भवन’, फुटपाथों पर रहनेवालों के लिए ‘निर्मल हृदय’, गरीब वर्ग के लोगों- जो खाली नारियल के रेशों से रस्सियाँ और पावदान बनानेवाले दस्तकार हैं- के लिए ‘प्रेमदान’ तथा ग्राम्यांचलों में ‘सचल दवाखाना’ इत्यादि प्रमुख हैं ।

मदर टेरेसा के ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ में २,५०० से अधिक प्रशिक्षित महिलाएँ २५० से अधिक पुरुष और १०० से अधिक सहायक काम करते हैं । अकेले भारत में मदर के विभिन्न स्कूलों में लगभग १५ हजार शिशु-छात्र अध्ययन करते हैं । उनके २१३ चिकित्सा केंद्रों में १० लाख से अधिक रोगी स्वास्थ्य-लाभ कर रहे हैं । उनके ५४ कुष्ठ आश्रमों में ४७ हजार कुष्ठ रोगी हैं ।

मदर टेरेसा ने सन् १९९० में मिशनरीज ऑफ चैरिटी के प्रमुख पद से त्यागपत्र देने की घोषणा करते हुए संस्थान की सिस्टरों से उत्तराधिकारी का चुनाव करने का आग्रह किया; किंतु गुप्त मतदान के द्वारा वे पुन: चुनी गईं । १३ मार्च, १९९७ को उन्होंने मिशनरीज ऑफ चैरिटी के प्रमुख के पद से त्यागपत्र दे दिया ।

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मदर टेरेसा समय-समय पर विभिन्न देशों में होते अमानवीय कार्यों का खुलकर विरोध करती रहीं, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय अनुमोदन भी मिले । संयुक्त राज्य अमेरिका में आयोजित एक प्रार्थना-सभा में गर्भपात को मानवता के विरुद्ध एक जघन्य अपराध बताते हुए कहा था- ”यदि किसी माँ को अपने बच्चे की हत्या करने की अनुमति है तो कैसे किसी को हत्या के लिए रोका जा सकेगा । जिस देश में गर्भपात की अनुमति है, वे अपनी जनता को प्यार का सबक नहीं दे रहे हैं वरन् हिंसा की छूट दे रहे हैं ।”

मदर टेरेसा ने सन् १९९४ में अमेरिका द्वारा गर्भपात को प्रोत्साहन दिए जाने की भर्त्सना की । १९९६ में अमेरिकी संसद् की न्यायिक समिति द्वारा ११ दिसंबर, १९९६ को स्वीकृत एक विधेयक के प्रावधानों के अंतर्गत मदर टेरेसा को अमेरिका की ‘मानद नागरिकता’ प्रदान की गई । इससे स्पष्ट हो जाता है कि मदर टेरेसा कितनी जनप्रिय थीं । ऐसी महानारी की जीवन-यात्रा गत्यावरोध के कारण ५ दिसंबर, १९९७ को पूर्णत: समाप्त हो गई ।

मदर टेरेसा का शव उसी तोपगाड़ी पर ले जाया गया, जिस पर महात्मा गांधी और पं. जवाहरलाल नेहरू के शव ले जाए गए थे । उनका शव तिरंगे में लिपटा था । जहाँ मदर टेरेसा का ताबूत था, उसके पीछे एक पट्टिका पर अंकित था- ‘Works of love are works of peace’ (प्यार के कार्य ही शांति के कार्य हैं ।) अंत में, मदर टेरेसा की पार्थिव काया को ‘मदर हाउस’ में दफन कर दिया गया ।

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उल्लेखनीय है कि मदर टेरेसा किसी भी पद पर नहीं थीं, किंतु राजकीय सम्मान के साथ सात धर्मों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में उनकी अंत्येष्टि की गई थी । मदर टेरेसा के पास पहुँचकर सभी लोग ऊँच-नीच अथवा किसी भी प्रकार के भेदभाव को भूल जाते थे ।

बड़े दिन के अवसर पर वे कभी कलकत्ता से दूर नहीं रहना चाहती थीं । कलकत्ता में उन्होंने वेश्याओं के लिए एक प्रसूति-गृह बनवाया था । दलित-पतित, परित्यक्ता, अवैध और वेश्याओं के बच्चों के लिए उन्होंन हर तरह की सुविधाएँ उपलब्ध कराई थी । सच, कितनी महान थी मदर टेरेसा !

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