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मनुष्य अपना शत्रु आप है (निबन्ध) |Essay on Everyone is His Own Enemy in Hindi!

शेक्सपीयर के अनुसार न तो प्रकृति और न ही मनुष्य किसी का शत्रु होता है । ईश्वर को दोष देने की बजाय मनुष्य को स्वयं को दोष देना चाहिए । एलिजावेथ जेन के समान वह कह सकता है कि ”जीवन के दुखपूर्ण नाटक में खुशी के क्षण कभी-कभी ही आते हैं ।”

लेकिन इसे इस बात का स्मरण भी होना चाहिए कि मैकबेथ की अविवेकपूर्ण महत्वाकांक्षा उसके विनाश का कारण बनी । मूलत: प्रत्येक मनुष्य में अच्छा सोचने और करने की पर्याप्त क्षमता होती है । वंशानुगत विशिष्टताओं को अलग रखकर यदि किसी मनुष्य का पालन पोषण आदर्श और स्वस्थ वातावरण में किया जाए, तो वह उस हर गुण को आत्मसात कर लेगा, जो मानव सभ्यता उसे प्रदान कर सकती है ।

उसमें एक आदर्श व्यक्तित्व का विकास होगा और वह जीवन भर अपना और दूसरों का मित्र बना रहेगा । परन्तु दुर्भाग्य की बात तो यह है कि हममें से बहुत से व्यक्तियों का व्यक्तित्व अधूरा है, इसका मुख्य कारण है स्वयं व्यक्ति तथा हमारा अस्वस्थ वातावरण । प्रत्येक व्यक्ति के मन में विद्यमान दोष ही उसके शत्रु होते हैं ।

प्रत्येक मनुष्य के मन में अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के विचार होते है । मनुष्य के प्रत्येक कार्य के पीछे दोनों में से किसी एक का प्रभाव होता है । यदि वह अच्छे कर्म करता है तो उसमें सद्‌गुण उत्पन्न होते हैं । यदि वह बुरे कार्य करता है तो उसमें दुर्गुण उत्पन्न होते हैं । इस दूसरी स्थिति में मनुष्य स्वयं शत्रु बन जाता है ।

हिन्दू शास्त्रों में मनुष्य के पाँच शत्रुओं – ईर्ष्या, क्रोध, मद, लोभ और मोह की चर्चा हुई है । इनमें से कोई एक दुर्गुण भी मनुष्य का शत्रु हो सकता है । जन्म के समय बच्चा मासूम होता है, सब उसके हितैषी और चाहने वाले होते हैं । उसके आगमन का स्वागत माता-पिता के अलावा प्रकृति भी करती है । उसके जन्म के शुभावसर पर पूजा-पाठ, समारोह आदि होते हैं, उसका जन्मदिन पूर्ण उत्साह से मनाया जाता है । जब तक वह छोटा होता है, तब तक सभी उसके मित्र और हितैषी होते हैं ।

मनुष्य के विकास के साथ-साथ उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता रहता है । विभिन्न संदर्भो में लोग उसकी प्रकृति और व्यवहार का अवलोकन करना प्रारंभ कर देते है । उसके मन में रुचि, अरुचि के भाव और असंख्य जटिलताएँ आने लगती हैं । उसकी सफलता के कारण उसके कई मित्र बन जाते हैं, लेकिन साथ ही दुश्मन भी बन जाते है । यदि वह अत्यंत बुद्धिमान है, तो कई व्यक्तियों में ईर्ष्या और जलन का भाव उत्पन्न हो जाता है, जबकि कुछ व्यक्ति उसकी क्षमता की प्रशंसा करते हैं ।

समाज में विद्यमान तनाव, विवादों की जड़ यही है, जिससे बहुत कम लोग ही बच पाते हैं । आज के युग में वह आदर्श व्यक्ति नहीं मिल सकता जिसके केवल मित्र हो, शत्रु नहीं हों । यहाँ तक कि सज्जन पुरुष, जिनका जीवन त्याग और सेवा भावना को अर्पित होता है, उनके भी शत्रु बन जाते हैं । इसका सबसे बड़ा उदाहरण महात्मा गांधी है । देश ही नहीं विश्व के लोग इनको श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं, लेकिन उन्हीं की हत्या हमारे देशवासी के क्रूर हाथों द्वारा हुई ।

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उन्होंने समाज सुधार से संबंधित कई कार्य किए और उदात्त आदर्शो को स्थापित करने के कारण कई लोग उनके मित्र और प्रशंसक बन गए, लेकिन अपने इन्हीं आदर्शो के कारण उन्हें जान से हाथ धोना पड़ा । उदात्त चरित्र के कारण कई उनके शत्रु बन गए और इसी कारण उन्हें भगवान ईसा मसीह और अब्राहिम लिंकन के समान निर्मम मौत का शिकार होना पड़ा ।

आज हममे से अधिकांश लोग महात्मा गाँधी के समान आदर्श जीवन व्यतीत करने में असमर्थ हैं । हम सभी एक आम नागरिक की भांति जीवन निर्वाह के प्रयत्न में व्यस्त रहते है । अपनी-अपनी क्षमताओं के अनुरूप अपने दायित्वों को निभाते हुए फल को भगवान पर छोड़ देते है । पूर्ण निष्ठा और तन मन से अपने कर्तव्यों को पूरा करने में लीन रहते हैं । अत: जब तक हमारा मन साफ रहता है, तब तक वह हमारा मित्र होता है, जैसे ही हम अपने कर्तव्य पथ से डगमगाते हैं, अपने शत्रु बन जाते हैं ।

आज प्रत्येक व्यक्ति अपने निजी-स्वार्थो में डूबा हुआ हैं, उन्हें पूरा करने के लिए कई प्रकार के अनुचित कार्य करता है, मनुष्य जान बूझकर अथवा अनजाने में कई नैतिक गलतियाँ करता है, इससे स्वयं उसमें और समाज में बुराईयों का जन्म होता है । प्रत्येक कदम पर मनुष्य के पथभ्रष्ट होने की संभावनाएं होती है । जब हमारे मन में पाप होता है, तभी ईश्वर के साथ सम्पर्क करने में डर लगता है । हमारी दूषित आत्मा स्वयं हमारी दुश्मन होती हैं ।

सामान्यत: प्रत्येक मनुष्य बहुत-कुछ प्राप्त करना चाहता है, परन्तु इसके लिए वह अधिक प्रयास करने की इच्छा नहीं रखता । जहाँ प्रत्येक व्यक्ति बुद्धिमत्तापूर्वक सोचता है, वहाँ कोई भी आदर्शो और भावनाओं के अनुचित प्रयोग में सफल नहीं हो सकता है ।

मनुष्य की सबसे बड़ी कमी यही है कि उसे अपने में कोई दोष नजर नहीं आता है । समाज में व्याप्त बुराईयों का दोज दूसरों को देने में वह सिद्धहस्त होता है । लेकिन अपने जीवन को दुखपूर्ण और त्रासद बनाने का दायित्व स्वयं मनुष्य का ही है । उसके दोष स्वयं उसके शत्रु होते हैं ।

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