साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप पर निबंध! Here is an essay on ‘Truth is not Equal to Tenacity, Lie is Equal to Sin’ in Hindi language.

आज के समसामयिक सन्दर्भ में यह उक्ति जितनी अर्थपूर्ण एवं प्रासंगिक है, उतनी सम्भवत: पहले कभी नहीं रही । आधुनिक युग के यान्त्रिक समाज में मनुष्य न केवल यन्त्रवत् बन गया है, बल्कि विद्यमान उपभोक्तावादी संस्कृति ने उसे भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के लिए इतना अधीर बना दिया है कि उसने अपनी सारी नैतिकताओं को ताक पर रख दिया है ।

इन्हीं में से एक नैतिकता सत्य सम्बन्धी भी है । भौतिकता प्रधान संस्कृति का प्रचार-प्रसार होने के साथ ही मानवीय सम्बन्धों के परीक्षण की घड़ी सामने आ गई ।

मानवीय सम्बन्धों की अहमियत भौतिकता प्रधान संस्कृति के विकसित होने के साथ-साथ कम होती चली गई और आज उत्तर-आधुनिक समाज में सामाजिक सम्बन्ध तो अत्यधिक कमजोर हो ही गए हैं, मानवीय सम्बन्धों के आगे भी प्रश्नचिह्न लग गया है ।

मानवीय सम्बन्धों से तात्पर्य, मनुष्य मात्र के साथ स्थापित होने वाले सम्बन्धों से है । आज लोग भौतिकवादी मानसिकता से इतना अधिक प्रभावित हैं कि अब परिवार के सदस्यों के बीच के आत्मीय सम्बन्ध भी खो से गए हैं । ऐसे कृत्रिम परिवेश में व्यक्ति सिर्फ अपनी भौतिक सफलताओं तक सिमट कर रह गया है और इन्हें पाने के लिए वह अत्यन्त उन्मुक्त एवं नि:संकोच भाव से झूठ का सहारा लेने लगा है ।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, जो विवेक-बुद्धि सम्पन्न है । वह अपनी बुद्धि सम्पन्नता एवं प्रतिभा का उपयोग एक ऐसी व्यवस्था निर्मित करने में करता है, जिससे उसे अधिक-से-अधिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति हो सके ।

इसी के परिणामस्वरूप निरन्तर तीव्र गति से भौतिक उपलब्धियाँ हासिल की जा रही हैं, लेकिन इसका एक दूसरा पहलू यह है कि उसने अपने लिए समय-समय पर कई ऐसी सामाजिक व्यवस्थाएं भी निर्मित की हैं, जो निरपेक्ष दृष्टि से विवादित एवं नैतिकता विहीन हैं ।

आज मनुष्य नैतिकता एक अनैतिकता की सोच से काफी दूर हो गया है और अपने भौतिक विकास के लिए किसी भी मार्ग को अपनाने से नहीं चूकता । मनुष्य-स्वभाव को देखते हुए अनन्त काल से मानव की सच्चरित्रता पर प्रश्नचिह्न लगते रहे हैं ।

समाज ने सामाजिक व्यवस्था को सुव्यवस्थित ढंग से चलायमान बनाने के लिए कुछ नैतिक मानदण्डों का प्रावधान किया, जिसमें एक अत्यन्त महत्वपूर्ण नैतिकता सत्य बोलने सम्बन्धी है ।

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मानव-स्वभाव को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि अपनी सुविधाओं के अनुसार मनुष्य झूठ बोलने से बाज नहीं आता, जिससे उसे तो राहत मिल जाती है, लेकिन व्यापक स्तर पर अन्य सदस्यों को इसकी कीमत चुकानी पड़ती है, इसलिए लोगों के बीच यह सूक्ति प्रचलित एवं प्रचारित है कि ‘सच बोलने से बड़ा दूसरा कोई तप (तपस्या) नहीं और झूठ बोलने से बड़ा कोई पाप नहीं’ ।

तपस्या अपने आप में एक अत्यन्त कठिन मानवीय क्रियाकलाप है, जिसमें शारीरिक सुविधाओं का पूरी तरह त्याग करना पड़ता है । शारीरिक सुख-सुविधाओं को पूरी तरह तिलांजलि देना एक प्रकार से ‘तप’ है और ऐसी प्रवृत्ति के तप में सत्य बोलना शीर्ष पर स्थित है, क्योंकि सत्य बोलने का अर्थ है- अपनी सुविधाओं की चिन्ता किए बिना तथ्यों को उसी रूप में सामने रखना, जिस रूप में वे विद्यमान हैं ।

यह सामान्य रूप से मानव-स्वभाव से मेल नहीं खाता, क्योंकि मनुष्य न केवल सामाजिक व्यवस्था का स्वयं ही निर्माता है, बल्कि बह स्वभाव से थोड़ा लोभी, आलसी एवं संग्रही प्रवृत्ति का भी होता है । इसे ध्यान में रखकर कहा जा सकता है कि अपनी सुविधाओं के अनुसार वह यथार्थ के साथ हेर-फेर भी करता रहता है ।

आज के तीव्र गीत से परिवर्तित उत्तर-आधुनिक समाज में मनुष्य की सोच सिर्फ स्वयं तक ही सीमित हो गई है । नैतिकता उसके लिए सिर्फ दूसरी को उपदेश देने की वस्तु बनकर रह गई है । वह स्वयं को लाभ पहुँचाने के लिए सभी प्रकार के छल-प्रपंचों का सहारा लेता है ।

दैनिक जीवन में मानवीय व्यवहार के अन्तर्गत एक अत्यधिक महत्वपूर्ण विशेषता सत्य बोलने सम्बन्धी है, जिससे सामाजिक व्यवस्था एवं मानवीय सम्बन्ध निर्बाध रूप से निरन्तर प्रगतिशील रह सके, लेकिन एक समय अपनी सत्यवादिता को निभाने वाले राजा हरिश्चन्द्र के अतुलनीय त्याग की कल्पना करना अब दुर्लभ है, वैसा वास्तविक व्यवहार तो अब असम्भव है ।

हमारे समाज के निर्माताओं ने सामाजिक मूल्यों में सत्य बोलने को इतना अधिक महत्व इसलिए प्रदान किया, जिससे मनुष्य अन्त:क्रिया करने वाले दूसरे मनुष्यों के साथ छल-कपट न कर सके । समाज के अन्य सदस्य यथार्थ से वंचित एवं भ्रम के शिकार न रहें ।

यह सामाजिक व्यवस्था को न केवल सुचारु ढंग से परिचालित करने में सहायक है, बल्कि इस सामाजिक मूल्य के माध्यम से समाज अपने सदस्यों को त्याग करने एवं परहित को ध्यान में रखने की भी सीख देता है । यह सामाजिक मूल्यों को और उच्चस्तरीय बनाने एवं गरिमा प्रदान करने का भी कार्य करता है ।

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कहा जा सकता है कि सत्य बोलना बहुत हद तक सामाजिक मूल्यों की कुंजी है, जिससे सभी सामाजिक मूल्य सम्बन्धित हैं । इसके ठीक विपरीत झूठ बोलना सबसे बढ़ा व्यक्तिगत एवं सामाजिक दुर्गुण है ।

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झूठ बोलना एक प्रकार की चोरी है, जिसमें किसी की दृष्टि से तथ्यों को छिपाया जाता है । यह लोगों को न केवल वास्तविकता से दूर रखता है, बल्कि भावी परिणाम के प्रति भी सतर्क होने से वंचित करता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यापक स्तर पर समाज एवं दूसरे सदस्यों को क्षति होती है ।

यह व्यक्ति एवं सामाजिक दोनों स्तरों पर नुकसानदायक एवं कष्टदायी होता है । यह सामाजिक स्तर पर किया जाने वाला सर्वाधिक महत्वपूर्ण नकारात्मक व्यवहार है, क्योंकि इसका प्रभाव वर्तमान के साथ-साथ भविष्य पर भी अत्यन्त गम्भीर रूप से पड़ता है ।

झूठ बोलने के कारण प्रभावित व्यक्ति कभी भी वास्तविकता से परिचित नहीं हो पाता, परिणामस्वरूप वह न तो उसे परिवर्तित करने के लिए कोई प्रयास कर पाता है और न ही सम्भावित दुष्परिणामों के प्रति सतर्क हो पाता है, इसलिए कहा गया है कि झूठ बोलने से बड़ा कोई पाप नहीं है ।

‘पाप’ इस अर्थ में कि यह हमें दिग्भ्रमित करके वांछित कर्त्तव्यों से वंचित रखता है । झूठ या असत्य कथन ही सभी बुराइयों की जड़ है । यही से अपराध की शुरूआत होती है ।

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दुनिया में आने वाले किसी बच्चे के द्वारा सबसे पहला गलत कार्य झूठ बोलने का ही किया जाता है और यही से उसमें भावी अनैतिकताओं एवं अपराधों की नींव पड़ती है, इसलिए कहा जाता है कि झूठ बोलना सभी पापों का मूल है ।

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के दर्शन के दो ही मूल आधार हैं- सत्य एवं अहिंसा । गाँधीजी ने इस तथ्य को पहचाना कि यदि लोगों में सत्य के प्रति आस्था जगा दी जाए, तो समाज की नैतिकता का स्तर स्वतः ही अत्यधिक ऊँचा उठ जाएगा ।

सभी नैतिकताओं की जड़ यही है, इसलिए उन्होंने सत्य बोलने पर इतना अधिक जोर दिया । वस्तुतः सत्य के मार्ग पर चलने वाले साहसी एवं वीर, जबकि सत्य से दूर भागने वाले भीरु एवं कायर कहलाते हैं ।

सत्य आत्मसम्मान का प्रतीक है और यह मनुष्य को स्वाभिमानी बनाता है, जबकि असत्य आत्मग्लानि को विकसित करता है । ‘सत्य’ को ‘ईश्वर’ का पर्याय मानते हुए ‘कबीरदास’ ने कहा है-

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“साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।

जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप ।।”

आज के उत्तर-आधुनिक समाज में जहाँ उपभोक्तावादी संस्कृति की प्रधानता के कारण भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही एकमात्र अन्तिम लक्ष्य बन गया है, वहाँ भौतिक सफलताओं की प्राप्ति के लिए झूठ बोलना एक सामान्य प्रचलन है ।

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ऐसी स्थिति में समाज के सदस्यों की नैतिकता का पतन अपरिहार्य है । आज सामाजिक मूल्यों का ह्रास स्पष्टतः परिलक्षित है । सामाजिक मूल्यों को क्षयशील होने से बचाने के लिए ‘सत्यता’ का पालन करना अनिवार्य है, हालाँकि सत्य कथन का पालन करना सबसे कठिन ‘तप’ है ।

इसके बावजूद सामाजिक सम्बन्धों की गरिमा को बनाए रखने एवं सामाजिक व्यवस्था को सुव्यवस्थित ढंग से गतिमान बनाए रखने के लिए यह एक ऐसा अनिवार्य मानवीय व्यवहार है, जिसका सभी सचेत एवं कर्त्तव्यपरायण व्यक्तियों द्वारा पालन करना अभीष्ट है ।

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