सार्क शिखर सम्मेलन-2011 पर निबंध | Essay on SAARC Submit-2011 in Hindi!

मालदीव में पहली बार आयोजित सतरहवां सार्क सम्मेलन संभवत: पहला सार्क सम्मेलन है जो आशा की कुछ किरणें लेकर आया है । इससे पूर्व शायद ही किसी सम्मेलन में वातावरण में इतनी आशावादिता और सकारात्मकता दिखाई दी थी ।

अब तक हुए अधिकतर सार्क सम्मेलन भारत-पाक संबंधों की नकारात्मक छाया से इतने प्रभावित रहे कि सार्क के मूल उद्देश्यों पर समुचित ध्यान केन्द्रित नहीं हो सका । कभी-कभी भारत-बांग्लादेश और भारत-नेपाल संबंधों का विपरीत प्रभाव भी इन सम्मेलनों में दिखाई दिया ।

17वें सार्क सम्मेलन का मूल मंत्र और नारा बिल्डिंग ब्रिजेस रखा गया था । इसके लिए सबसे आवश्यक है सभी देशों में निर्बाध कनेक्टिविटी । इस दिशा में सार्क को अभी बहुत लंबा सफर तय करना है । 1965 से पूर्व ढाका और कराची एक दूसरे से रेल से जुड़े हुए थे ।

भारत से सड़क के रास्ते काबुल जाना भी संभव था । हमें सबसे पहले 1947 की कनेक्टिविटी को पुनर्स्थापित करना होगा । पाकिस्तान द्वारा भारत को ट्रासिट अधिकार देने होंगे, जिससे न केवल अफगानिस्तान बल्कि मध्य एशिया से व्यापार हो सके । इससे सबसे अधिक लाभ पाकिस्तान को ही होगा ।

उसे यह समझना होगा कि भारत-अफगानिस्तान स्ट्रेटीजिक भागीदारी से उसे लाभ हो सकता है यदि वह रट्रेटीजिक गहराई की नीति को छोड़कर भारत और अफगानिस्तान से सहयोग करे । बांग्लादेश से ट्रांसिट समझौता समूचे सार्क को सारे दक्षिण पूर्व एशिया से जोड़ सकता है । आवश्यकता है अच्छे नेतृत्व की, क्या सार्क के नेता यह नेतृत्व दे सकेंगे । इस पर बड़े प्रश्नचिन्ह लगे हुए है ।

सबसे बड़ा देश होने के नाते भारत को सामरिक दृष्टिकोण अपनाना होगा । भारत एकमात्र देश है जिसकी सबके साथ सीमाएं हैं या सबका निकटतम पड़ोसी है । हमें उदारवादी दृष्टिकोण से एकतरफा वाणिज्य सुविधाएं देनी होंगी, जिससे इन देशों की जनता और सरकार दोनों ही भारत से अच्छे संबंधों का महत्व समझें और भारतविरोधी तत्व कमजोर हों ।

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‘दक्षेस’ (SAARC) का 17वाँ शिखर सम्मेलन मालदीव में आडू सिटी में 10-11 नवम्बर, 2011 को सम्पन्न हुआ । ‘दक्षेस’ के सभी 8 सदस्य देशों के राष्ट्राध्यक्ष इसमें उपस्थित थे । आस्ट्रेलिया, चीन, ईरान, जापान, द. कोरिया, मॉरिशस, म्यांमार, अमरीका व यूरोपीय संघ के प्रतिनिधि पर्यवेक्षक के रूप में शिखर सम्मेलन में उपस्थित थे । दक्षेस का यह लगातार पांचवां शिखर सम्मेलन था, जिसमें भारतीय शिष्टमण्डल का नेतृत्व डी. मनमोहन सिंह ने किया ।

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इन पांच वर्षों में संगठन द्वारा की गई प्रभावकारी प्रगति का उल्लेख करते हुए भारतीय प्रधानमंत्री ने उद्‌घाटन समारोह में कहा कि इन वर्षों में दक्षेस देशों में सहयोग की गति और दायरे में वृद्धि हुई है । उन्होंने आश्वस्त किया कि दक्षिण एशिया में शान्ति, सम्पन्नता और सहयोग को बढ़ावा देने के लिए भारत अपनी क्षमताओं के अनुरूप जो कुछ भी सम्भव होगा, करेगा ।

दो दिन के शिखर सम्मेलन में जिन महत्वपूर्ण मुद्‌दों पर चर्चा विशेष तौर पर की गई उनमें दक्षेस राष्ट्रों के आपसी व्यापार, आपदा प्रबन्धन, समुद्री दस्युओं से निपटने की समस्या व वैश्विक आर्थिक संकट के मुद्‌दे शामिल थे ।

पारस्परिक व्यापार सम्बर्द्धन के लिए सीमा शुल्कों में कटौती की दिशा में आगे कदम उठाने के लिए दक्षेस मंत्रियों की परिषद् को जिम्मा सौंपा गया है । ‘साफ्टा’ के तहत् कम विकसित देशों की संवेदनशील सूची में उत्पादों की सूची को 480 से घटाकर 25 करने की घोषणा भारतीय प्रधानमंत्री ने की ।

सूची से हटाई गई इन सभी वस्तुओं के आयात पर कोई शुल्क नहीं लगाया जाएगा । दक्षेस राष्ट्रों के एक ‘साउथ एशियन पोस्टल यूनियन’ के गठन पर भी सहमति सम्मेलन में हुई । इसका सचिवालय भारत में होगा ।

दक्षेस के 12वें ‘ट्रेड फेयर’ का आयोजन 2012 में मालदीव में करने पर भी सहमति बनी । आतंकवाद व नशीली दवाइयों की अवैध तस्करी पर प्रभावी रोक के लिए समन्वित प्रयासों को और मजबूत बनाने का फैसला जहां किया गया, वहीं समुद्री दस्युओं से निपटने के लिए भी साझा रैपिड रिस्पोंस टु नेचुरल डिजास्टर्स तथा एग्रीमेंट ऑन इंप्लीमेंटेशन ऑफ रीजनल स्टैण्डर्ड्स इनमें शामिल थे ।

वैश्वीकरण की दौड़ में क्षेत्रीय संगठनों का महत्व बढ़ा है । आज विश्व की स्थिति यह है कि राष्ट्र अपने आपसी मतभेदों को भुलाकर व्यापार, आर्थिक क्षेत्रें में एक-दूसरे को सहयोग कर रहे हैं । राष्ट्रों की पारस्परिक निर्भरता पहले की अपेक्षा काफी बड़ी है ।

सार्क विश्व की 22 प्रतिशत आबादी को अपने दामन में रखने वाला विश्व का सबसे बड़ा क्षेत्रीय संगठन है । भारत विश्व की उभरती हुई आर्थिक शक्ति है । सार्क के सदस्य देश आपस में एक-दूसरे का आर्थिक सहयोग करें तो इस क्षेत्र से गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा को सदा के लिए समाप्त किया जा सकता है ।

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आज यूरोपियन संघ एवं आसियान जैसे क्षेत्रीय संगठनों ने जो आर्थिक सफलता पायी है । उससे सार्क के नेताओं को प्रेरणा लेनी चाहिए । इन क्षेत्रीय संगठनों ने आर्थिक एकजुटता के बल पर काफी उपलथियाँ हासिल की हैं । अब यह स्थिति स्पष्ट हो चुकी है कि आर्थिक विकास के क्षेत्रीय वैश्वीकरण की भूमिका अतिमहत्वपूर्ण है ।

जनवरी 2009 में इस्लामाबाद में हुए सम्मेलन में इस तरह की स्पष्ट अभिव्यक्ति सामने आई । इस सम्मेलन में सार्क देशों ने 2012 तक दक्षिण एशियाई स्वतंत्र व्यापार क्षेत्र (साफ्टा) बनाने की इच्छा व्यक्त की है, लेकिन इस दिशा में अभी तक कोई ठोस कार्य नहीं हुआ है ।

साफ्टा के बारे में छोटे-छोटे देशों को यह भ्रम पैदा हो गया कि इससे भारत को ही अधिक लाभ होगा, जबकि सच्चाई यह नहीं है । उदाहरणस्वरूप अभी हम भारत, श्रीलंका के मुक्त व्यापार को देखें । दोनों देशों के बीच मुफ्त व्यापार पिछले तीन वर्ष से चल रहा है । श्रीलंका का भारत का निर्यात 135 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ा है ।

इस तुलना में भारत का श्रीलंका का निर्यात 32 प्रतिशत की दर से बढ़ा है । अपितु मुफ्त व्यापार के होने से श्रीलंका भारत की अपेक्षा अधिक लाभ की स्थिति में है । यही बात नेपाल एवं भूटान के साथ हैं । पाकिस्तान एवं बांग्लादेश के साथ भारत का व्यापार उतना नहीं बढ़ा है जितना बढ़ना चाहिए । इन देशों के असहयोग के कारण भी साफ्टा को लागू करने में कठिनाई है ।

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आज जरूरत इस बात की है कि सार्क को एक प्रभावी आर्थिक मंच के रूप में विकसित किया जाए । सदस्य देशों के बीच आर्थिक संबंध एवं व्यापार को बढ़ावा दिया जाए । इस दिशा में अन्य सदस्य देशों को विश्वास में लेकर सार्थक पहल भारत और पाकिस्तान को ही करनी होगी । सार्क की सफलता और विफलता दोनों ही इन देशों के संबंधों एवं प्रयत्नों पर निर्भर है ।

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