वनों की कटाई पर निबंध | Vanon Kee Kataee Par Nibandh | Essay on Deforestation in Hindi.
Essay on Deforestation
Essay Contents:
- वनोन्मूलन का अर्थ (Meaning of Deforestation)
- वनोन्मूलन के कारण (Causes of Deforestation)
- भारत में वनोन्मूलन की समस्या (Deforestation Problem in India)
- वनोन्मूलन के दुष्प्रभाव (Evil Effects of Deforestation)
- वनोन्मूलन का प्रबंधन (Management of Deforestation)
Essay # 1. वनोन्मूलन का अर्थ (Meaning of Deforestation):
वन किसी भी देश की अमूल्य संपदा एवं पर्यावरण का एक प्रमुख अंग हैं । वनों से न केवल उपयोगी वस्तुएँ जैसे इमारती लकड़ी, ईंधन की लकड़ी, रबड़, सैलुलोज, कत्था, लाख, गोंद, उपयोगी जड़ी-बूटियाँ आदि प्राप्त होती हैं, अपितु इनसे जलवायु संतुलित रहता है, वन्य जीव संरक्षित रहते हैं तथा मृदा का कटाव नहीं होता है ।
अनुकूल परिस्थितियाँ मिलने पर वन स्वत: पल्लवित होते रहते हैं और यदि उनकी सीमित कटाई भी की जाये तो वह हानिकारक नहीं होती । किंतु जनसंख्या में वृद्धि, लकड़ी का विविध उपयोगों में प्रयोग एवं व्यावसायिक और व्यापारिक उद्देश्य से जब वनों की कटाई प्रारंभ हुई तो वनों का क्षेत्र निरंतर कम होने लगा ।
वनों के क्षेत्र में कमी आना तथा अनियमित कटाई को ही दूसरे शब्दों में वन विनाश या वनोन्मूलन कहते हैं जो पर्यावरण को असंतुलन करने अथवा उसके स्तर को गिराने या अवकर्षित करने का प्रमुख कारण है । सभ्यता की दौड़ में अंधा हुआ मानव वनोन्मूलन कर न केवल स्वयं की हानि कर रहा है अपितु अपने भविष्य को भी अंधकारपूर्ण बना रहा है ।
एक समय था जब पृथ्वी पर अत्यधिक वनों का विस्तार था । यह आदिम अवस्था की कहानी है जब मानव स्वयं वनों में घुमक्कड़ जीवन व्यतीत करता था तथा वनों से ही भोजन, आवास एवं वस्त्र की आवश्यकता पूर्ण करता था । उसके पश्चात् पशुचारण प्रारंभ हुआ और फिर वह कृषि की ओर प्रेरित हुआ ।
कृषि के विकास के साथ ही वनोन्मूलन की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई थी, क्योंकि वनों को साफ करके ही कृषि भूमि प्राप्त की गई थी । प्रारंभ में यह सीमित था अर्थात् कृषि विस्तार सीमित था और वन पर्याप्त होने से संतुलन था ।
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किंतु जैसे-जैसे एक ओर कृषि का विस्तार होता गया, लकड़ी एवं वनों के पदार्थों के उपयोग में वृद्धि होने लगी, औद्योगिकीकरण, शहरीकरण का विकास एवं विस्तार हुआ और व्यापारिक स्तर पर वनों की कटाई प्रारंभ हुई तो बीसवीं शताब्दी के अंत तक यह इस भयावह स्थिति में पहुँच गई कि संपूर्ण विश्व आज वनोन्मूलन की समस्या एवं उसके पर्यावरण पर प्रभाव से त्रस्त है ।
एक समय था जब पृथ्वी के स्थलीय भाग के 70 प्रतिशत अर्थात् 12 अरब 80 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर वन थे जो आज लगभग 16 प्रतिशत अर्थात् 2 अरब हेक्टेयर पर रह गये हैं तथा इसमें भी निरंतर कमी आ रही है । किंतु वर्तमान में उष्ण कटिबंधीय वनों पर संकट आया हुआ है जिससे विश्व के पर्यावरणविद् चिंतित हैं । 1980 में उष्ण कटिबंधीय वनों के कटने का अनुमान 1.14 करोड़ हेक्टेयर का था जो वर्तमान में लगभग 2.04 करोड़ है प्रतिवर्ष का है ।
अनेक देश जैसे ब्राजील, केमरून, कोस्टारिका, भारत, इण्डोनेशिया, म्यानमार (बर्मा), फिलीपिंस, थाइलैण्ड, वियतनाम आदि में इसकी दर अत्यधिक है । विश्व के अब तक लगभग 32 से 35 प्रतिशत उष्ण कटिबंधीय वनों का विनाश हो चुका है ।
जबकि सवाना के पतझड़ वाले वनों का लगभग 24 प्रतिशत हुआ । इन वनों के विनाश का प्रमुख कारण विश्व में इमारती लकड़ी की बढ़ती हुई मांग तथा व्यापारीकरण है । इसी के साथ कृषि भूमि हेतु भी इनका विनाश हो रहा है ।
वनों के विनाश के अन्य कारणों में अनियंत्रित पशुचारण, सूखा, बाढ़ तथा वनों में लगने वाली आग है । 1997 में इण्डोनेशिया के वनों में लगी आग से हजारों हेक्टेयर भूमि के वन जल चुके हैं और उस आग को लगे 6 से 8 माह हो चुके हैं, इससे उसके विनाश और पर्यावरण प्रदूषण का अनुमान लगाया जा सकता है ।
1970 के दशक के बाद उष्ण-कटिबंधीय वनों के संरक्षण के उपाय के प्रति विश्व के देश सचेष्ट हुए हैं । 1985 में ट्रापिकल फारेस्ट एलान प्लान (TFAP), FAO, UNDP, विश्व बैंक तथा अनेक सरकारों और गैर-सरकारी संस्थाओं ने वनों के संरक्षण के प्रति चेतना प्रदर्शित की है ।
विश्व के 60 से भी अधिक देशों ने ‘राष्ट्रीय वन कार्य योजना’ तैयार की है तथा वन प्रबंधन हेतु उपाय प्रारंभ किये हैं । वनों के क्षेत्र में वृद्धि तथा वर्तमान वनों का संरक्षण ही इस समस्या का निराकरण कर सकते हैं । इसके लिये विश्व समुदाय को अपने स्वार्थ की राजनीति का परित्याग कर विश्वव्यापी दृष्टिकोण अपनाना होगा ।
Essay # 2. वनोन्मूलन के कारण (Causes of Deforestation):
वनोन्मूलन मानव की विकास यात्रा का परिणाम है, यद्यपि यदा-कदा प्राकृतिक कारण या वनाग्नि भी इन्हें नष्ट करती है किंतु यह उतनी हानिकारक नहीं जितना कि मानव द्वारा विनाश ।
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वन विनाश के प्रमुख कारण निम्नांकित हैं:
i. कृषि क्षेत्र:
निःसंदेह विश्व में आज हमें जो कृषि क्षेत्र दृष्टिगत होता है उसमें से अधिकांश वनों को साफ कर प्राप्त किया गया है । यह आवश्यक भी था क्योंकि भोजन मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकता है । किंतु जब जनसंख्या में वृद्धि हुई और वर्तमान में यह वृद्धि तीव्रतम होती जा रही है तो वनोन्मूलन का प्रारंभ हुआ जो आज तक समस्या बन गया है । कृषि अवश्य होनी चाहिये किंतु यदि इसके लिये वनों को समाप्त किया जायेगा तो कृषि पर भी विपरीत प्रभाव होगा ।
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यही नहीं, अपितु अफ्रीका, एशिया एवं दक्षिणी अमेरिका में आज भी स्थानांतरित कृषि की जाती है । इस कृषि में एक क्षेत्र के वनों को जलाया जाता है, तत्पश्चात् कृषि भूमि प्राप्त की जाती है तथा कुछ वर्षों तक वहाँ कृषि कर अन्य स्थानों पर पुन: यही क्रिया दोहरायी जाती है ।
एक अनुमान के अनुसार विश्व में लगभग चार करोड़ वर्ग कि.मी. क्षेत्र में बसने वाले 20 करोड़ आदिवासी इसी पद्धति से कृषि करते हैं । इस प्रकार होने वाली हानि का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि अकेले आइवरी कोस्ट में 1956 से 1966 के दस वर्षों में 40 प्रतिशत वन स्थाई रूप से नष्ट हो गये ।
भारत में इसी प्रकार की खेती नागालैण्ड, मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, असम में की जा रही है । एक अनुमान के अनुसार भारत में कृषि कार्य हेतु 1951-52 एवं 1987-88 के मध्य 29.7 लाख हेक्टेयर भूमि से वनोन्मूलन किया गया ।
ii. निर्माण कार्यों हेतु वनोन्मूलन:
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जनसंख्या वृद्धि, नगरों का फैलाव, आवासीय भूमि की आवश्यकता में वृद्धि, उद्योगों, रेल-लाइनों, सड़कों का विस्तार तथा नदियों पर बड़े बांधों का निर्माण भी वनोन्मूलन का प्रमुख कारण है, क्योंकि अधिक क्षेत्र की आवश्यकता वनों को साफ करके ही पूरी की जा सकती है ।
अकेले भारत में 1951-52 से 1985-86 के मध्य नदी घाटी योजनाओं के अंतर्गत 5.84 लाख हेक्टेयर, सड़क निर्माण में 73,000 हेक्टेयर, उद्योगों में 14.6 लाख हेक्टेयर और अन्य विविध कार्यों के लिये 98.3 लाख हेक्टेयर भूमि से वनों को काटा गया ।
बाद के वर्षों में इससे भी अधिक वनों का विनाश हुआ है । जितने भी बड़े बाँध बनाये जाते हैं उनमें हजारों वर्ग कि.मी. का क्षेत्र जलमग्न हो जाता है और उसी के साथ वन भी समास हो जाते हैं । ये बांध लाभदायक होते हुए भी पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव डालते हैं ।
iii. काष्ठ, ईंधन एवं अन्य उपयोग हेतु वनोन्मूलन:
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वनों से प्राप्त लकड़ी के विभिन्न उपयोग करना मानवीय प्रवृत्ति रही है और सभ्यता के विकास के साथ-साथ यह प्रवृत्ति कम होने के स्थान पर अधिक से अधिकतम होती जा रही है । ईंधन के लिये लकड़ी का प्रयोग मानव प्रारंभ से करता आ रहा है ।
विकसित देशों में अन्य ऊर्जा के स्रोतों का विकास हो जाने के कारण इनका प्रयोग समाप्त हो गया है, किंतु विकासशील देशों में ईंधन के रूप में लकड़ी का प्रयोग आज भी होता है और यह वनोन्मूलन का प्रमुख कारण है ।
इसी प्रकार लकड़ी का उपयोग भवन निर्माण, फर्नीचर, जहाज, रेल के डिब्बे, रेल लाइनों के स्लीपर, कागज, सेल्योलाज आदि के निर्माण के लिये किया जाता है । इनके लिये विशाल मात्रा में व्यापारिक वन कटाई होती है । कनाडा, स्केन्डिनेविया, रूस में तथा उष्ण कटिबंधीय वनों का व्यापारिक स्तर पर शोषण आज पर्यावरण संकट का कारण बन गया है ।
अनेक उद्योगों जैसे- कागज, दियासलाई, धागे, रबड़, पेंट, वार्निश, रेजिन, कत्था, प्लाईवुड, लाख आदि के लिये भी वनों को काटा जाता है । अनुमान है कि विश्व में लकड़ी उत्पादों से प्रति वर्ष 216 अरब रुपयों की आय होती है । निश्चित है कि यह वनोन्मूलन का प्रमुख कारण है ।
iv. खनिज खनन हेतु वनोन्मूलन:
खनिजों के लिये विस्तृत भूमि की खुदाई की जाती है, फलस्वरूप उन क्षेत्रों में वनों का समाप्त होना निश्चित है । विश्व के अधिकांश देशों में जहाँ व्यापारिक खनन होता है वनों के क्षेत्र में कमी आ जाती है । भारत में उड़ीसा, पं. बंगाल, बिहार, मध्य प्रदेश के खनिज प्रदेश इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । स्थानीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर भी इसका प्रभाव वन विनाश के रूप में पड़ता है किंतु खनिजों से होने वाले लाभ अधिक होने से यह विनाश अवश्यम्भावी हो जाता है ।
उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त पशु चारण द्वारा एवं औद्योगिक कच्चे माल हेतु भी वन विनाश होता है । भू-स्खलन, हिम-स्खलन, वनों में लगने वाली आग भी इनके विनाश का कारण होती है । संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि वनोन्मूलन के लिये मानव की लकड़ी उत्पादों की आवश्यकता में निरंतर वृद्धि मूल कारण है ।
Essay # 3. भारत में वनोन्मूलन की समस्या (Deforestation Problem in India):
भारत में वनों का महत्व प्राचीन काल से स्वीकार किया गया है । यहाँ के प्राचीन ग्रंथों में वनों की महत्ता का वर्णन मिलता है । यही नहीं, अपितु अनेक वृक्षों को पवित्र मान कर उनकी आज पूजा की जाती है । वन प्राचीन भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग हैं । यद्यपि विभिन्न उपयोग हेतु वनों को काटना सामान्य रहा है, किंतु इस कटाई का विशेष हानिकारक प्रभाव नहीं होता था क्योंकि कटाई का प्रतिशत न्यून था और स्वाभाविक वृद्धि द्वारा उसकी पूर्ति होती रहती थी ।
जैसे-जैसे जनसंख्या की वृद्धि हुई अधिवासों का विस्तार हुआ, लकड़ी का विविध कार्यों में उपयोग होने लगा वैसे-वैसे ही वनों की कटाई भी अधिक होने लगी । मध्य काल एवं मुगल काल में वनों की कटाई होती रही किंतु स्थिति भयावह नहीं हुई किंतु ब्रिटिश काल में इसका शोषण प्रारंभ हो गया ।
अंग्रेजों ने वनों का निर्दयता से शोषण प्रारंभ किया । इसमें विशेषकर इमारती लकड़ियों कार शोषण प्रमुख था जो काटकर यूरोप को भेजी जाती थी । दक्षिणी भारत के सागौन के वनों को 1855 में अंग्रेजों ने राज्य सम्पत्ति बना लिया ।
1939 में जब द्वितीय महायुद्ध प्रारंभ हुआ तो वनों की अत्यधिक कटाई अंग्रेज ठेकेदारों द्वारा की गई । हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में भी स्लीपरों को काट कर नदियों के मार्ग से मैदानी क्षेत्रों तक लाया जाता था । इसी से व्यापारिक वनोन्मूलन का प्रारंभ हुआ ।
स्वतंत्रता के पश्चात् अनेक विकास योजनाओं, विशेषकर वृहत् बाँध, रेल मार्ग, सड़क मार्ग, उद्योग, नगर आदि के लिये तथा कृषि क्षेत्र के विस्तार के लिये वनोन्मूलन प्रारंभ हुआ जो आज भी जारी है । विभिन्न विकास कार्यों में अब तक 45 लाख हेक्टेयर से अधिक भूमि वनरहित हो चुकी है और दिनों-दिन यह समस्या गंभीर होती जा रही है ।
भारत में वर्ष 2009 में 7,69,512 वर्ग कि.मी. भूमि पर वनों का विस्तार अंकित किया गया, जो कुल क्षेत्र का 23.11 प्रतिशत है । भारत में वनोन्मूलन तीव्र गति से हो रहा है । इसके कारण वे सभी हैं जिनका उल्लेख किया जा चुका है ।
भारत की तीव्र जनसंख्या वृद्धि और वनों का परंपरागत ईंधन के रूप में उपयोग तथा विकास कार्यों हेतु भूमि की आवश्यकता, शहरीकरण आदि प्रमुख वन विनाश के कारण हैं, जिसके फलस्वरूप पर्यावरण स्तर गिरता जा रहा है, प्रदूषण में वृद्धि हो रही है, मरुस्थलीकरण, मृदा, अपरदन, बाढ़ आदि की समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं ।
Essay # 4. वनोन्मूलन के दुष्प्रभाव (Evil Effects of Deforestation):
वन पारिस्थितिक-चक्र को नियंत्रित एवं नियमित करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं अत: वनों का विनाश इसे असंतुलित कर पर्यावरण अवकर्षण का प्रमुख कारण बनता है जिसके परिणाम तात्कालिक ही नहीं अपितु दूरगामी भी होते हैं जो अंत में मानव सभ्यता के लिये संकट का कारण बन जाते हैं ।
वनोन्मूलन के प्रमुख दुष्प्रभाव निम्नलिखित हैं:
i. जलवायु का असंतुलित होना:
वन जलवायु के नियंत्रक होते हैं अर्थात् वन आर्द्रता में वृद्धि करते हैं, वर्षा में सहायक होते हैं तथा तापमान को नियंत्रित रखते हैं । जैसे ही उनका विनाश होता है, वायुमण्डल में नमी की कमी आ जाती है, परिणामस्वरूप वर्षा की मात्रा निरंतर कम होती जाती है, तापमान में वृद्धि होने लगती है, शुष्कता का विस्तार होता है अर्थात् मरुस्थलीकरण प्रारंभ हो जाता है ।
थार के मरुस्थल का एक कारण वनोन्मूलन भी है । वन विनाश से कार्बन या नाइट्रोजन चक्रों का क्रम भंग हो जाता है । वायु मण्डल में ऑक्सीजन की मात्रा पौधों द्वारा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा स्थिर रहती है परंतु पिछले 100 वर्षों में लगभग 24 लाख टन ऑक्सीजन वायु मण्डल में समाप्त हो चुकी है तथा 36 लाख टन कार्बन-डाई-ऑक्साइड गैस की वृद्धि हो चुकी है ।
ii. मृदा-अपरदन में वृद्धि:
वन मृदा के संरक्षक होते हैं अर्थात् वृक्षों की जड़ें भूमि को जकड़े रहती हैं, जिससे वह संगठित रहती है और अपरदन नियंत्रित रहता है । दूसरी ओर वनों के कट जाने से मृदा-अपरदन अधिक हो जाता है । हिमालय के निचले ढालों पर वनों के निरंतर कट जाने से यह समस्या अत्यधिक हो गई है । इसी प्रकार वनस्पति के अभाव में मरुस्थलीकरण तीव्रता से विस्तृत होता जाता है ।
iii. बाढ़-प्रकोप में वृद्धि:
वन जल को नियंत्रित रखते हैं और पर्याप्त मात्रा में उपयोग भी करते हैं । वनोन्मूलन से जल ढालों पर तीव्र गति से प्रवाहित होकर मैदानी भागों में बाढ़ के प्रकोप का कारण बनता है । बिहार की नदियों में बाढ़ का अधिक प्रकोप इसका उदाहरण है ।
iv. प्राकृतिक जल स्रोतों का सूखना एवं भूमिगत जल स्तर का गिरना:
वनों के विनाश से अनेक प्राकृतिक जल स्रोत समास होते जा रहे हैं और इसके फलस्वरूप भूमिगत जल स्तर नीचे जा रहा है । वर्षा की कमी और तापमान में वृद्धि तथा वृक्षों द्वारा वाष्पीकरण रोकने की प्रक्रिया समास होने से इसका दुष्प्रभाव बढ़ रहा है ।
v. वन्य जीवों का विनाश:
वर्तमान विश्व में वनों के समाप्त होने से अनेक वन्य जीव विलुप्त हो गये हैं तथा अनेक प्रजातियों की संख्या में अत्यधिक कमी आ गई है । उपर्युक्त दुष्प्रभावों के अतिरिक्त पशुचारण क्षेत्रों की कमी, प्राकृतिक सुरम्यता में कमी, प्रदूषण की वृद्धि, मरुस्थलीकरण की वृद्धि, बंजर भूमि का विकास, आदिवासी जातियों के आवास की समस्या आदि प्रभाव भी वन-विनाश के हैं । वास्तव में वन पारिस्थितिक-तंत्र को परिचालित करते हैं तथा पर्यावरण को नियंत्रित रखते हैं इनका उन्मूलन उसे असंतुलित कर देता है जो पर्यावरण अवकर्षण का प्रमुख कारण है ।
Essay # 5. वनोन्मूलन का प्रबंधन (Management of Deforestation):
वनों की क्षति को रोकने तथा वनोन्मूलन के दुष्परिणामों से बचने के लिये उचित वन प्रबंधन पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये । वर्तमान में विश्व का प्रत्येक देश वन संरक्षण की ओर ध्यान दे रहा है । सभी देशों में वनों को संरक्षित करने की ओर प्रशासन ध्यान दे रहा है, नियम बनाये जा रहे हैं, नीतियाँ निर्धारित की जा रही हैं, यहाँ तक कि आंदोलन भी चलाये जा रहे हैं, किंतु वनों का विनाश आज भी तीव्र गति से हो रहा है । इसके लिये कतिपय उपाय वन प्रबंधन के अंतर्गत किये जा सकते हैं ।
जो निम्नांकित हैं:
i. वनों के संरक्षण संबंधी नियमों का कठोरता से पालन किया जाये ।
ii. वन काटने और वृक्षारोपण में अनुपात रखना ।
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iii. लगाये गये वृक्ष जब वृद्धि की अवस्था में हों तो उन्हें काटने पर रोक ।
iv. संपूर्ण वृक्ष के स्थान पर उनकी शाखाओं को काटना ।
v. राष्ट्रीय पार्क एवं वन्य जीवों के पार्क बना कर वनों को सुरक्षित रखना ।
vi. ईंधन के लिये वनों की कटाई पर रोक एवं अन्य ईंधन उपलब्ध कराना ।
vii. फर्नीचर एवं अन्य सजावट के सामानों में लकड़ी का प्रयोग सीमित कर अन्य वैकल्पिक साधनों का विकास करना ।
viii. वनों की आग से सुरक्षा ।
ix. सामाजिक वानिकी को प्रोत्साहन देना ।
x. तीव्र वृद्धि करने वाले एवं उपयोगी वृक्षों का रोपण ।
xi. सघन वृक्षारोपण कार्यक्रम का विस्तार ।
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xii. पारिस्थितिकी के अनुरूप वृक्षारोपण ।
xiii. संपूर्ण वन संपदा का सर्वेक्षण एवं उन्हें श्रेणीबद्ध करना ।
xiv. राष्ट्रीय वन नीति एवं वन विकास हेतु ‘मास्टर प्लान’ बनाना ।
xv. वनों के महत्व एवं उनके उन्मूलन से होने वाली हानियों को जनता तक पहुँचाना ।
वास्तव में वन संरक्षण को एक जन आंदोलन बनाना आवश्यक है । भारत के चिपको आंदोलन का उदाहरण स्पष्ट करता है कि सामान्य जनता एवं क्षेत्रीय निवासी ही वनोन्मूलन को रोक सकते हैं । साइलेण्ट वेली परियोजना, नर्मदा परियोजना, टेहरी-गढ़वाल परियोजना आदि अनेक योजनाओं द्वारा पर्यावरण पर प्रभाव विशेषकर वन विनाश की ओर ध्यान दिलाने का सराहनीय कार्य जनता ने किया है । वनोन्मूलन सरकार एवं जनता के सामूहिक प्रयासों से ही रोका जा सकता है ।