पर्यावरण पर औद्योगिकीकरण का प्रभाव Paryaavaran Par Audyogikeekaran Ka Prabhaav | Essay on the Impact of Industrialization on Environment in Hindi!

औद्योगिक क्रांति के पश्चात् औद्योगिक विकास की दौड़ का प्रारंभ हुआ । सर्वप्रथम इंग्लैंड में, उसके पश्चात् यूरोपीय देशों में, संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, जापान और तत्पश्चात संपूर्ण विश्व के देशों में उद्योगों की स्थापना की होड़ लगी हुई है, क्योंकि ये विकास का प्रतीक एवं राष्ट्रीय प्रगति के आधार बन गये हैं ।

प्रारंभ में उद्योगों की चिमनियों से निकलता धुआँ अच्छा लगता रहा होगा किंतु अब यह स्पष्ट हो चुका है कि ये चिमनियाँ जहर उगल रही हैं । यही नहीं, अपितु औद्योगिक अपशिष्टों से जल प्रदूषण एवं मृदा प्रदूषण फैल रहा है और उद्योगों में कार्यरत कर्मचारियों एवं मजदूरों को अनेक घातक बीमारियों ने अपनी चपेट में ले रखा है ।

औद्योगिक विकास चक्र में प्रकृति पिसती जा रही है और मानव शुद्ध वायु एवं जल के लिए तरस रहा है । औद्योगिक विकास के साथ-साथ पर्यावरण अवकर्षण की चपेट में विकसित और विकासशील दोनों ही देश हैं । वास्तव में पारिस्थतिकी-संकट का मुख्य कारण अनियंत्रित औद्योगीकरण है ।

विश्व में उद्योगों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रतिवर्ष लगभग 10 अरब टन विभिन्न अयस्क एवं ईंधन का उपयोग होता है, लगभग 5 करोड़ टन से अधिक संश्लिष्ट पदार्थ उत्पन्न किये जाते हैं, 50 करोड़ टन उर्वरकों का प्रयोग होता है तथा लगभग 40 लाख टन रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग होता है ।

इन सब की निर्माण प्रक्रिया द्वारा अथवा औद्योगिक संयंत्रों से प्रतिवर्ष लगभग 30 अरब घनमीटर प्रदूषित जल, 25 करोड़ टन धूल और 7 करोड़ टन जहरीली गैसें निकलती हैं । इन उद्योगों से पर्यावरण में निरंतर बाह्य पदार्थों का समावेश हो रहा है जो प्रकृति या पारिस्थितिकी-चक्र में व्यतिक्रम उपस्थित कर विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं एवं मानवीय विकारों का कारण बन रहा है ।

औद्योगिकीकरण का प्रभाव सामान्य रूप से निम्न प्रकार होता है:

(i) कार्बन मोनो ऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि,

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(ii) अम्लीय वर्षा,

(iii) वायु मण्डल में ओजोन परत को नष्ट करना,

(iv) जीव समूहों के संतुलन में बाधा उत्पन्न करना,

(v) जल स्रोतों को प्रदूषित करना,

(vi) भूमि प्रदूषण में वृद्धि करना,

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(vii) वनों के क्षेत्र में कमी आदि ।

उद्योगों में संदलन, पिसाई, शुष्कन, भंजन, वाष्पन एवं अन्य रासायनिक क्रियाओं के माध्यम से विभिन्न आकार के कण, गैस, धूम आदि निष्कासित होते हैं जो पर्यावरण को विभिन्न प्रकार से अवकर्षित करते हैं । उद्योगों की प्रकृति, उसमें प्रयुक्त कच्चा माल, ऊर्जा आदि से भिन्न-भिन्न प्रकार का प्रदूषण होता है ।

इसमें वायु प्रदूषण के कारक होते हैं- हाइड्रोजन सल्फाइड, सल्फर-डाई-ऑक्साइड, कार्बन-डाई-ऑक्साइड, कार्बन मोनो-ऑक्साइड, सीसा, एसबेस्टस, आर्सेनिक फ्लोराइड, बेरीलियम, धूल, हाइड्रो कार्बन पदार्थ आदि । कुछ अत्यधिक विषैले पदार्थ, जैसे- जिंक, केडमियम, पारा आदि भी औद्योगिक प्रक्रमों से विस्तीर्ण होते हैं ।

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उद्योगों से संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे विकसित देशों का पर्यावरण भी इतना अधिक दूषित है कि अनेक नगरों में इस प्रकार की चेतावनी लगी है- ”सावधान, अत्यधिक धुएँ की स्थिति में कसरत न करें तथा गहरी साँस न लें ।”

जापान के टोकियो जैसे नगरों में स्कूली बच्चों को वायु प्रदूषण से रक्षा हेतु मुखौटा तक पहनने की सलाह दी जाती है । अनेक औद्योगिक नगरों में वायु मण्डल में इतनी अधिक सल्फर-डाई-ऑक्साइड उपस्थित है कि वर्षा का जल सल्फ्यूरिड एसिड में बदल जाता है, फलस्वरूप वहाँ अम्लीय वर्षा सामान्य है ।

औद्योगिक बहिःस्राव अर्थात् उद्योगों से बहाया गया व्यर्थ पदार्थ-तरल अथवा ठोस जल प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है क्योंकि इसमें अनेक रासायनिक तत्व तथा अन्य विषैले पदार्थ सम्मिलित रहते हैं जो न केवल जलीय पारिस्थितिकी-तंत्र को प्रभावित करते हैं अपितु मानव एवं कृषि को भी प्रभावित करते हैं ।

अनेक उद्योगों के लिये अपशिष्ट निस्तारण का प्रमुख स्थान निकटवर्ती जल स्रोत होते हैं जहाँ वे संपूर्ण गंदगी जमा कर देते हैं या बहा देते हैं । इसमें मिश्रित अम्ल, क्षार, लवण, तेल, वसा, तथा अन्य विषैले रसायन होते हैं । अनेक उद्योग जैसे कागज एवं लुग्दी, चीनी, कपड़ा, चर्म, मद्य निर्माण, औषधि निर्माण, खाद निर्माण, रासायनिक एवं पेट्रो रसायन आदि उद्योगों से वृहत् मात्रा में हानिकाकर पदार्थ जल प्रदूषण का कारण होते हैं ।

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पारा ऐसी धातु है जो अधिक ताप पर वाष्पीकृत होने लगती है । एक अनुमान के अनुसार संपूर्ण विश्व में लगभग पाँच हजार टन पारा प्रति वर्ष पर्यावरण में विभिन्न माध्यमों से प्रविष्ट हो जाता है जो अत्यधिक हानिकारक है ।

यह मानना भ्रामक होगा कि उद्योगजनित प्रदूषण एवं अन्य प्रभावों से विकासशील देश मुक्त हैं । वास्तविकता यह है कि इन देशों में जो भी उद्योग विकसित हो रहे हैं उनमें प्रदूषण नियंत्रण की सुविधाओं के अभाव में वे अधिक हानिकारक हैं ।

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साथ ही विकसित देशों द्वारा इन देशों को पुरानी प्रौद्योगिकी निर्यात करने से भी अधिक प्रदूषण होता है । भारत में विगत चार दशकों से पर्याप्त उद्योग विकसित हो रहे हैं जो वायु, जल, भूमि प्रदूषण का कारण बन रहे हैं । उदाहरणार्थ अकेले बम्बई में 5000 से भी अधिक छोटी-बड़ी औद्योगिक इकाइयाँ हैं, इनमें से अधिकांश चेम्बूर-ट्राम्बे में हैं, फलस्वरूप चेम्बूर बम्बई वासियों के लिये ‘गैस चेम्बर’ बन गया है ।

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देहली के वनस्पति, चर्म उद्योग, रसायन एवं अन्य उद्योगों से वायु में निलंबित पदार्थ के कणों का प्रतिशत बम्बई से दुगना है । कलकत्ता के वायुमण्डल में सल्फर-डाई-ऑक्साइड एवं धूल के कणों की मात्रा अधिक रहती है ।

अहमदाबाद, कानपुर एवं अन्य औद्योगिक नगर सभी द्वारा वायुमण्डल प्रदूषित हो रहा है । यही नहीं, अपितु औद्योगिक अपशिष्टों से गंगा एवं यमुना जैसी विशाल नदियाँ भी प्रदूषित हो चुकी हैं । औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप भारत में वनों का विनाश भी हो रहा है, यहाँ तक कि उत्तराखण्ड हिमालय क्षेत्र भी इसकी चपेट में आ गया है ।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि औद्योगिक विकास ने जहाँ अनेकानेक साधन एवं सुविधायें प्रदान की हैं वहीं पारिस्थितिकी-तंत्र को झकझोर कर रख दिया है जिसके दूरगामी परिणाम ओजोन परत का नष्ट होना, कार्बन-डाई-ऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि, नाइट्रोजन ऑक्साइड का निर्माण आदि से संपूर्ण जीव-जगत् प्रभावित होता जा रहा है ।

इससे तापमान में वृद्धि के साथ-साथ मानसून प्रक्रिया में बाधा, जीव, समूहों, वनस्पति, जल जीवों, फसलों आदि पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है । अत: औद्योगिक विकास के साथ-साथ पारिस्थितिक-तंत्र की अनवरतता पर ध्यान देना आवश्यक है तथा इसके संरक्षण के समुचित प्रयत्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपेक्षित हैं ।

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