पर्यावरण पर कीटनाशकों का प्रभाव | Paryaavaran Par Keetanaashakon Ka Prabhaav | Essay on Impact of Pesticides on Environment in Hindi.

विश्व में जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ कृषि उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई है । इस उत्पादन के विकास में जहाँ एक ओर उन्नत तकनीक, सिंचाई सुविधाओं के विस्तार आदि का हाथ है वहीं दूसरी ओर रासायनिक उर्वरकों एवं अनेक कीटनाशकों का योग है क्योंकि कृषि में अनेक प्रकार के रोगों से संपूर्ण फसल का नष्ट होना एक सामान्य बात होती है ।

इस समस्या का निराकरण कीटनाशकों के प्रयोग द्वारा एक सीमा तक कर लिया गया है । इनका प्रयोग विकसित देशों में ही नहीं अपितु विकासशील देशों में भी प्रचुरता से किया जा रहा है । इसी के फलस्वरूप भारत एवं अनेक देशों में ‘हरित क्रांति’ का सूत्रपात हुआ और खाद्य समस्या का निराकरण किया गया । कृषि विकास के क्षेत्र में यह एक विशेष उपलब्धि है किंतु कतिपय उर्वरकों एवं रसायनों का पर्यावरण एवं मानव तथा अन्य जीवों पर हानिकारक प्रभाव भी हो रहा है, जिसके प्रति सचेष्ट होना आवश्यक है ।

कृषि में हो रहे रसायनों, उर्वरकों एवं कीटनाशी, खरपतवार नाशी और रोग नाशी रसायनों से जीवों एवं वनस्पतियों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हानि पहुँच रही है अर्थात् ये पर्यावरण प्रदूषण का कारण बन रहे हैं । अब यह स्पष्ट हो गया है कि जीव नाशी रसायनों (कीट नाशी, रोग नाश) से पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है ।

उनके प्रयोग से सूक्ष्म जीव-समूह तथा वनस्पति समूह प्रभावित हो रहा है । मिट्टी में डाले गये डी.डी.टी., गेमेक्सीन, एल्ड्रिन, क्लोरोडेन आदि कीटनाशियों का अवशेषी प्रभाव क्रमश: 9, 10, 11 तथा 12 वर्षों तक पाया गया है । खरतपवार नाशी रसायनों का अवशेषी अंश 6 से 36 महीनों तक रहता है ।

मिट्टी से ये रसायन वर्षा जल के साथ बह कर तालाबों, झीलों, नदियों, कुंओं में पहुँच कर वनस्पतियों तथा जल-जीवों को प्रभावित करते हैं । वर्तमान समय में नित नये कार्बनिक रसायनों की खोज हो रही है और अब तक 70000 से भी अधिक रसायन तैयार किये जा चुके हैं ।

पेस्टीसाइड्‌स आधुनिक कृषि विज्ञान का एक आवश्यक अंग बन गये हैं और इनके वातावरणीय प्रदूषण तथा असंतुलन पर विश्व भर में अनेक परीक्षण हो चुके हैं । 1962 में महिला जीव-शास्त्री रॉकेल कार्सन द्वारा लिखित ‘साइलैण्ट स्प्रिंग’ के पश्चात् पेस्टीसाइड्‌स के घातक प्रभावों की ओर जनता का ध्यान आकर्षित हुआ ।

तत्पश्चात् इस दिशा में विश्वव्यापी जागृति आई और इनके प्रभावों को कम करने हेतु अनुसंधान प्रारंभ हुए । अकार्बनिक पेस्टीसाइड में आर्सेनिकीय पदार्थ आते हैं जो अनेक वर्षों तक भूमि, वनस्पति में विद्यमान रहते हैं ।

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इसी प्रकार कार्बनिक पेस्टीसाइड भी वातावरण को विषाक्त करते हैं । कार्बनिक फॉस्फेट यौगिक में पैराथियन, मैलाथियन, क्लोथियम, फोसड्रिन, क्लोरडोन, डाइल्ड्रिन, एंड्रिन एल्ड्रिन, हेप्टाक्लोर, टोक्साफीन, लिनडेन आदि आते हैं । इनका प्रभाव न केवल हानिकारक जीवों अपितु संपूर्ण पर्यावरण पर होता है ।

डी.डी.टी. का प्रयोग विगत समय में इतना व्यापक किया गया कि संपूर्ण विश्व में कृषि कीटों तथा मलेरिया नाश के लिये इसका प्रयोग होने लगा । इसके परिणाम भी लाभकारी रहे । किंतु शीघ्र ही इसके हानिकारक तत्वों का ज्ञान होने पर अमेरिका जैसे देशों में इसके प्रयोग पर कानूनी रोक लगा दी गई ।

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कीटनाशकों का प्रयोग आवश्यक है किंतु इनके विषैले प्रभाव पर नियंत्रण उससे भी अधिक आवश्यक है क्योंकि ये रसायन जल, वायु, मृदा, वनस्पति यहाँ तक कि मानव एवं अन्य जीवों के शरीर में प्रविष्ट होकर उन्हें अनेक प्रकार से हानि पहुँचाते हैं ।

इनके निरंतर प्रयोग से आनुवांशिक परिवर्तन भी उत्पन्न हो जाते हैं तथा अनेक कीट इस प्रकार का अनुकूलन कर लेते हैं कि बाद में उन पर वे पेस्टीसाइड बेअसर हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त इनके प्रयोग से ऐस जीव-जंतु भी समाप्त हो जाते हैं जो लाभकारी होते हैं ।

अत: कीटनाशकों का प्रयोग सावधानी से किया जाना चाहिये, उनकी उत्तमता सुनिश्चित होनी चाहिये और यदि उनका पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव होता है तो उनके प्रतिरोधक भी विकसित करना आवश्यक है अन्यथा कृषि का वर्तमान विकास पारिस्थितिकी-तंत्र को हानिकारक रहेगा ।

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