Read this Essay to Learn about Social Planning for Women’s Empowerment in Hindi!

महिला सशक्तिकरण न केवल महिलाओं के हित में है बल्कि परिवार एवं पूरे समाज के हित में भी है । इस विचार को समाज में विकसित करने हेतु यह आवश्यक है कि जेण्डर तथा इससे जुड़ी समस्याओं का गम्भीर विश्लेषण किया जाये ।

हमारे देश में महिलाओं के हित में कई प्रगतिवादी कानून बनाये गये हैं और यह महिलाओं को सम्पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है । फिर भी अभी यात्रा काफी बाकी है तथा वर्तमान कानूनों में जेण्डर समानता लाने हेतु कानूनों में उचित संशोधन आवश्यक है ।

सरकार द्वारा महिलाओं को केवल लाभ भोगी का कल्याण करने का रवैया रखने के बजाय जीवन के हर क्षेत्र में उनकी आत्मनिर्भरता, सहभागिता और सशक्तता सुनिश्चित करने का दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए । स्वयं सहायता समूह महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक ठोस कदम है ।

महिला विकास हेतु सामाजिक नियोजन:

गरीबी की समस्या, जिससे महिलाएं अपेक्षाकृत अधिक पीड़ित हैं, से निबटने के लिए महिलाओं द्वारा स्वयं सहायता पर आधारित छोटे-छोटे समूहों में संगठित होकर प्रयास करना होगा ।

स्वयं सहायता समूहों के गठन तथा उनकी प्रभावोत्पादकता बढ़ाने हेतु पूरे समुदाय अथवा समाज में सहभागिता का वातावरण तैयार करना अपरिहार्य है । इस कार्य के लिए उपयुक्त विधियों जैसे सहभागी ग्रामीण आंकलन तथा सूक्ष्म स्तरीय नियोजन का भी उल्लेख किया गया है ।

यह भी स्पष्ट किया गया है कि स्वयं सहायता समूहों तथा सहभागिता का विकास अपने में साधन मात्र नहीं बल्कि साध्य भी हैं । चूँकि सहभागिता का वातावरण सृजित होने के पश्चात समूह के सदस्यों में सशक्तता के अतिरिक्त बहुआयामी क्षमताएँ भी विकसित हो जाती हैं ।

इससे एक प्रकार की सामाजिक क्षमता का विकास हो जाता है जिसके माध्यम से समुदाय सामान्य हितलाभ हेतु किसी भी कार्य को सफलतापूर्वक अंजाम दे सकता है । यह भी अपेक्षा को जाती कि स्वयं सहायता समूह में थोड़ी स्थिरता आने के पश्चात समूह के सदस्य आय बढ़ाने वाली स्कीम्स संचालित करके अपना आर्थिक विकास कर सकेंगे ।

आर्थिक विकास द्वारा महिलाओं के जीवन की गुणवत्ता में सुधार नहीं आ सकता । यहाँ यह कहना अनावश्यक होगा कि महिलाओं के जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने के फलस्वरूप स्वाभाविक तौर पर बच्चों तथा परिवार के जीवन की गुणवत्ता में सुधार होगा अर्थात पूरे समुदाय के जीवन की गुणवत्ता में सुधार होगा ।

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जीवन की गुणवत्ता में सुधार हेतु सामान्य तौर पर आर्थिक विकास के साथ-साथ न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति को सम्मिलित किया जाता है । विशेष रूप से स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा, पेयजल सम्पूर्ति, पोषण, आवास आदि इनमें प्रमुख हैं । इन सेवाओं के विकास को सामान्यतः सामाजिक नियोजन या सामाजिक विकास की संज्ञा दी जाती है ।

ये तो सामाजिक नियोजन को व्यापक अर्थों में परिकल्पित किया जाता है किन्तु यहाँ उसे हम स्वयं सहायता समूहों तथा समुदाय द्वारा स्वयं अपने द्वारा नियोजन के सीमित परिप्रेक्ष्य में अपना रहे है । सामाजिक नियोजन की मुख्य तकनीक सूक्ष्म स्तरीय नियोजन (माइक्रोलेविल प्लानिंग) है, जिसका विवरण अगले प्रस्तरों में दिया गया है ।

सामाजिक नियोजन के अन्तर्गत सामाजिक विकास परियोजनाओं की तैयारी:

विकास का अर्थ:

एक साधारण व्यक्ति के लिए विकास का मतलब क्या है ? उसके लिए विकास का मतलब है उसकी आज की दशा में सुधार होना चाहिए और यह सुधार निरन्तर (बराबर) होते रहना चाहिए इसलिए विकास को एक प्रक्रिया के रूप में समझा जाता है ।

अब यह देखना होगा कि साधारण व्यक्ति की आज की दशा क्या है- क्या उसके पास रोजगार या आमदनी का कोई नियमित साधन है ? क्या वह अपनी आमदनी से अपना तथा अपने परिवार का पेट पाल सकता है ?

क्या उसके पास सर छिपाने की जगह है- कोई स्थान या आवास है जहाँ वह अपने परिवार के सदस्यों के साथ जाड़ा, गर्मी, बरसात के मौसम में सुरक्षित रह सकता है ? क्या उसे अन्य मूलभूत सुविधाएं जैसे- स्वच्छ पेयजल, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं, प्राथमिक शिक्षा, स्वच्छ पर्यावरण उपलब्ध है अर्थात उसके जीवन की गुणवत्ता कैसी है ?

यदि साधारण व्यक्ति के पास वर्तमान में उपरोक्त में से एक वस्तु भी नहीं है तो विकास की पहली प्राथमिकता उसे ये सुविधा उपलब्ध कराना होगी । उसे विकास की पहली सीढ़ी माना जाता है । इस पहली सीढ़ी अथवा प्रारम्भिक अवस्था के बाद यह आवश्यक है कि उसकी दशा में उत्तरोत्तर सुधार होता जाये अर्थात उसकी आमदनी में बढ़ोत्तरी हो, उसे और उसके परिवार के हर सदस्य को पूरा पोषण मिले और उसके रहन-सहन के स्तर में सुधार होता जाये और उसे बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य तथा चिकित्सा की सेवाएं मिलती रहें ।

उसे रहने के लिए प्रदूषण मुक्त तथा स्वच्छ पर्यावरण की उपलब्धता सुनिश्चित रहे । विकास की परियोजना को यहीं तक सीमित नहीं रखना चाहिए । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है वह किसी समुदाय का सदस्य है और उसका विकास पूरे समाज के साथ जुड़ा है चूँकि वह तथा समाज एक दूसरे पर निर्भर करते हैं ।

यदि व्यक्ति है तो समाज है और बिना समाज के व्यक्ति का अस्तित्व नहीं है । इसी प्रकार हम किसी एक स्थान पर रहते हैं वह एक पुरवा, टोला अथवा मजरा है इनसे मिलकर गाँव बना है और इसी प्रकार न्याय पंचायत, विकास खण्ड, तहसील, जिला आदि बने है ।

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छोटे कस्बे शहर तथा बड़े-बड़े महानगर भी इसी प्रकार बने हैं । ये प्रशासन की इकाइयाँ भी है और इनके भी आपसी सम्बन्ध है और एक दूसरे पर आश्रित है । ये हमारे जीवन के सभी कार्यों को व्यवस्थित रूप से चलाते हैं ।

सामाजिक विकास:

यदि विकास के विषय में आगे विचार किया जाये तो हम लोग इस नतीजे पर पहुँचेंगे कि विकास के दो मुख्य पहलू है । पहला आर्थिक विकास तथा दूसरा सामाजिक विकास । आर्थिक विकास में व्यक्ति अथवा उसके परिवार की आमदनी, उसकी आमदनी के साधन अथवा परिसम्पत्तियों की बात करते हैं, जैसे- जमीन, जायदाद, दुकान, व्यवसाय, कारखाने तथा उनसे सम्बन्धित आवश्यकताएं व खाने-पीने, रहन-सहन की सुख सुविधाओं के अलावा उत्पादन अथवा उनके उपभोग सम्बन्धी बातों पर विचार करते हैं ।

सामाजिक विकास में हम उस व्यक्ति के विकास अथवा उसके रहन-सहन के तौर तरीके, उसके जीवन की गुणवत्ता तथा सामाजिक / आर्थिक व राजनैतिक प्रक्रियाओं में उसकी भागीदारी अथवा योगदान की बात करते हैं । समुदाय तथा समाज के अन्य सदस्यों से उसके कैसे सम्बन्ध है अथवा समाज उसके साथ कैसा व्यवहार करता है । सामाजिक विकास में उसका सारा सामाजिक परिवेश आ जाता है ।

सामाजिक विकास के अन्तर्गत व्यक्ति के विकास के सभी पक्षों को तो शामिल किया ही जाता है उनके साथ-साथ यह भी देखा जाता है कि समाज में आमदनी अथवा उत्पादन के साधनों का बंटवारा कैसा है इसे सामाजिक न्याय की संज्ञा दी जाती है अर्थात समाज में बहुत ज्यादा असमानताएं न हो ।

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सामाजिक न्याय के अन्तर्गत यह भी देखना आवश्यक है कि समाज में कोई वर्ग अत्यधिक पिछड़ा न रहे और विकास से होने वाले लाभांशों (फायदों) का लाभ सभी को तो पहुँचे ही बल्कि समाज के कमजोर वर्गों को ये लाभांश सुनिश्चित तरीके से पहुँचे ।

सामाजिक विकास की परिकल्पना और भी व्यापक है । इसमें विभिन्न वर्गों तथा समुदाय के बीच बराबरी के अलावा पुरुष तथा स्त्री की समानता की बात भी आती है चूँकि जब तक स्त्रियों को समाज में बराबर का दर्जा नहीं मिलता और उनका समुचित विकास नहीं होता तो सामाजिक विकास की परिकल्पना अधूरी रहेगी ।

इसलिए सामाजिक विकास के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु महिलाओं का विकास एक आवश्यक ही नहीं अनिवार्य शर्त है । जब समाज में समानता की बात आती है तो समाज के सभी अभिवंचित वर्गों के विकास को ध्यान में रखना होगा ।

इनमें बच्चें, वृद्ध तथा समाज के अन्य दुर्बल व्यक्ति भी शामिल होते हैं । समाज का सम्यक विकास भी सामाजिक विकास का पर्याय है । उपरोक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्थिक तथा सामाजिक विकास एक ही सिक्के के दो पहलू है और एक के बिना दूसरा कभी पूर्ण नहीं हो सकता ।

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इसे एकीकृत विकास भी कहते हैं । विकास की उपरोक्त अभिव्यक्तियों के सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि इसकी विभिन्न परिभाषाएं की गई है । यह इस बात पर निर्भर करती है कि हम किसे अधिक महत्व देते हैं, विकास के प्रति हमारी सोच अथवा दृष्टिकोण क्या है । आजकल अधिकांश लोग सर्वांगीण विकास अथवा होलिस्टिक एप्रोच की बात करते हैं । इस एप्रोच में ऊपरलिखित सभी तत्वों को सम्यक रूप से सम्मिलित किया जाता है ।

विकास के उद्देश्य सभी देशों अथवा राष्ट्रों के लिए एक समान नहीं हो सकते चूँकि विभिन्न देशों के विकास का स्तर अलग-अलग है । इनमें कुछ देश विकास की दौड़ में बहुत आगे निकल चुके हैं जिन्हें विकसित देशों का नाम दिया जाता रहा है । जिसमें अमरीका, जापान, जर्मनी, इंगलैंड आदि देश आते हैं ।

शेष देशों को विकासशील देश कहा जाता है जो विकास क्षेत्र में अलग-अलग स्तरों पर हैं परन्तु विकसित देशों की अपेक्षा बहुत पीछे हैं । हमारा देश विकासशील देशों की श्रेणी में आता है । यहाँ एक बात कहना आवश्यक है कि प्रायः विकास का मतलब आर्थिक विकास अथवा आर्थिक प्रगति से लिया जाता रहा है । यह बात आज से नहीं बल्कि आधुनिक युग की शुरुआत से ही चली आ रही है ।

इसका सबसे बड़ा कारण है कि विभिन्न देशों के विकास का स्तर नापने के लिए किसी भी देश में प्रति व्यक्ति आय को सबसे महत्वपूर्ण मानक माना गया है । यद्यपि पिछले कई दशकों से विकास के मानकों में कई अन्य संकेतक भी सम्मिलित किए गये हैं, देश की आमदनी अथवा प्रति व्यक्ति आय अभी भी सर्वोपरि है ।

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इसलिए विकास के सम्बन्ध में विचारकों की सोच हमेशा से आर्थिक विकास से ही अत्यधिक प्रभावित रही है । पिछले कुछ समय से सामाजिक विकास अथवा मानव केन्द्रित विकास को ध्यान में रखते हुए अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं जैसे विश्व बैंक तथा संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू.एन.डी.पी.) द्वारा विकास के नए संकेतक विकसित किये जा रहे हैं और विश्व विकास रिपोर्ट या मानव विकास रिपोर्ट प्रतिवर्ष प्रकाशित की जाती है ।

इसी तरह मानव विकास को ध्यान में रखते हुए नये-नये संकेतक विकसित किये जा रहे हैं । इनमें विभिन्न देशों को आर्थिक तथा सामाजिक विकास के स्तर के अनुसार ऊपर से नीचे की ओर पंक्तिबद्ध किया जाता है ।

यह भी हो सकता है कि कोई देश आर्थिक दृष्टि से पीछे हो किन्तु सामाजिक विकास के मामले में आगे हो सकता है । अपने देश में केरल प्रदेश सामाजिक विकास के मामले में आगे है जबकि वह आर्थिक रूप से उतना विकसित नहीं है ।

इसी प्रकार पंजाब और हरियाणा आर्थिक दृष्टि से विकसित हे किन्तु सामाजिक विकास के मामले में पीछे है । यह निर्धारित करने हेतु साक्षरता, बाल मृत्यु दर तथा औसत आयु आदि संकेतकों को ध्यान में रखा जाता है ।

इसी तरह मानव विकास से सम्बन्धित अनेक संकेतक विकसित किये जा रहे हैं । विकास की दिशा अथवा उसके उद्देश्य निर्धारित करने हेतु नियोजन आवश्यक है । विकासशील देशों के लिए यह और भी आवश्यक अथवा अपरिहार्य है ।

इसका कारण यह है कि इन देशों के पास संसाधनों की कमी है और विकास की आवश्यकताएं (व देश की समस्याएं) इतनी अधिक हैं कि सभी को एक साथ पूरा करना सम्भव नहीं है इसलिए हमें उचित प्राथमिकताएं निर्धारित करनी होती है ताकि सबसे ज्यलंत समस्या के समाधान के लिए पहले प्रयास किया जा सके ।

विकास के उद्देश्य तय करना सरल नहीं है । राष्ट्रीय स्तर पर विकास के उद्देश्य पूरे देश की समूची विशिष्ट समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में तय किये जाते हैं । जिलों तथा ग्रामों के सन्दर्भ में स्थानीय विशिष्ट समस्याओं तथा आवश्यकताओं पर ध्यान देना होता है ।

विकास के सम्बन्ध में इस परिचर्चा को आगे बढ़ाने से पूर्व दो बातें और समझनी चाहिए । पहली बात है अर्थव्यवस्था की । विभिन्न देशों में अलग-अलग प्रकार की अर्थव्यवस्थाएं है जिसमें मुख्यतः पूँजीवादी अर्थव्यवस्था, समाजवादी अर्थ-व्यवस्था तथा मिश्रित अर्थव्यवस्था आती है ।

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था पूर्णतः बाजार पर आधारित है इसमें प्राइवेट (व्यक्तिगत) उद्यम का प्रमुख स्थान है और न्यूनतम सरकारी नियंत्रण रहता है । समाजवादी अर्थव्यवस्था में सारे उद्योग तथा आर्थिक गतिविधियों सरकार के नियंत्रण में रहती हैं ।

मिश्रित अर्थव्यवस्था में सरकार तथा व्यक्तिगत व्यवस्था दोनों ही साथ-साथ चलती हैं किन्तु सरकार अपना नियंत्रण बनाये रखती है और सरकार ही तय करती है कि किन-किन आर्थिक गतिविधियों को सरकार के अधीन रखा जायेगा और किनमें व्यक्तिगत उद्योगों तथा उद्यमियों को कार्य करने की अनुमति दी जायेगी और कौन सी दोनों की साझीदारी में चलाई जायेगी ।

सोवियत संघ के विघटन तथा वहाँ आर्थिक परिवर्तनों के साथ-साथ समाजवादी अर्थव्यवस्था अब लगभग समाप्त हो गई है । 1990 के पश्चात से सार्वभौमिकरण तथा उदारीकरण की नीतियों के चलते अब पूरे विश्व में बाजार आधारित अर्थव्यवस्था स्थान ले रही है ।

विश्व के सारे देश एक दूसरे के साथ व्यापारिक सम्बन्ध बनाने की दिशा में कार्य कर रहे हैं और सभी एक मंच पर आ गये हैं । भारतवर्ष में भी आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया काफी आगे बढ़ चुकी है । दूसरी आवश्यक बात यह जाननी चाहिए कि विकास के सन्दर्भ में विशेष रूप से सामाजिक न्याय के मामले में देश की शासन प्रणाली भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है । विभिन्न देशों में शासन की अलग-अलग राजनैतिक व्यवस्था है ।

आज के युग में लोकतांत्रिक प्रणाली सर्वाधिक लोकप्रिय है और अधिकांश देशों में विविध प्रकार की लोकतांत्रिक सरकारें कार्य कर रही है । लोकतन्त्र में जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि सरकार चलाते हैं । भारतवर्ष में स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही लोकतांत्रिक शासन प्रणाली चल रही है और अब इसकी जडें मजबूत हो चुकी हैं ।

लोकतांत्रिक प्रणाली की सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि इसमें सामान्य नागरिक की भागीदारी होती है । सरकार द्वारा ऐसी संस्थाएँ विकसित की जाती है जिनके माध्यम से वह अपनी आवश्यकताओं अथवा अपेक्षाओं के अनुरूप सरकारी व्यवस्था को ढाल सकता है ।

इसलिए प्रत्येक स्तर पर जनता द्वारा चुनी हुई स्वायत्तशासी संस्थाएं बनाई जाती है । राष्ट्रीय स्तर पर लोक सभा, राज्य स्तर पर विधान सभाएँ ही सारी नीतिगत निर्णय लेती हैं । इसी क्रम में जिला, विकास खण्ड तथा ग्राम स्तर पर स्वायत्तशासी संस्थाएं जैसे जिला पंचायत, क्षेत्र पंचायत तथा ग्राम पंचायत की स्थापना की गई है ।

विकास हेतु नियोजन आवश्यक है । नियोजन का तात्पर्य एक निश्चित समय में तथा सीमित संसाधनों में निर्धारित उद्देश्य अथवा ध्येय प्राप्त करना है । इसे बहुत ही सरल भाषा में इस प्रकार समझा जा सकता    है । मान लीजिए आपको अपने घर से किसी बाहरी स्थान पर पहुँचना है तो आप उसके लिए एक प्रकार का नियोजन करते हैं । उस स्थान पर कितने समय में पहुँचना है, आपके पास वहाँ जाने के लिए कितना पैसा है और यदि कहीं बाहर ठहरना है तो क्या व्यवस्था होगी ।

इन सभी बातों को ध्यान में रखकर आप अपने लिए यातायात का साधन चुनेंगे । यों तो नियोजन आपकी नित्य प्रति की दिनचर्या में अन्तर्निहित है किन्तु जब एक ग्राम, कस्बे अथवा जिले के नियोजन की बात आती है तो यह प्रक्रिया जटिल होती जाती है ।

पहले प्रत्येक इकाई की आवश्यकताओं अथवा समस्याओं का पता लगाना होता है और यदि आपके पास सीमित धनराशि है तो यह निश्चित करना होता है कि पहले कौन सी आवश्यकता को पूरा किया जाये, आदि-आदि । हमारे देश में नियोजन देश की आजादी के तुरन्त बाद शुरू कर दिया गया था ।

आपने पंचवर्षीय योजनाओं का नाम सुना होगा । आजकल ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना चल रही है । यह आप भलीभाँति जानते हैं कि यह योजना पूरे देश के लिए बनायी जाती है । नियोजन की दो प्रणाली प्रचलित हैं, पहली केन्द्रीकृत नियोजन तथा दूसरी विकेन्द्रीकृत नियोजन ।

केन्द्रीयकृत नियोजन में सर्वोच्च स्तर पर अर्थात राष्ट्रीय स्तर पर पूरे देश के लिए योजना तैयार की जाती है और फिर उसका कार्यान्वयन शासन की विभिन्न इकाइयों जैसे- राज्य सरकार, जिला प्रशासन तथा जिले से नीचे की इकाईयों द्वारा किया जाता है ।

इसे ‘टापडाउन’ अथवा ऊपर से नीचे की ओर नियोजन कहा जाता है । जाहिर है कि दिल्ली में बैठकर आप किसी ग्राम विशेष अथवा जिला विशेष की आवश्यकताओं अथवा समस्याओं को कैसे समझ सकते हैं । यदि लखनऊ में बैठकर दूरस्थ जिले बाँदा अथवा महाराजगंज जिले के लिए योजना बनाना चाहें तो वह कभी व्यवहारिक हो ही नहीं सकती ।

हमारे देश में भी प्रारम्भ में कुछ-कुछ ऐसी ही नियोजन प्रणाली अपनाई गयी थी । उसका कारण यह था कि नियोजन के तरीकों अथवा विधियों का बहुत सारे लोगों को ज्ञान नहीं था और राज्य तथा जिला स्तर पर इस विधा के जानकार लोगों की कमी थी ।

इन सभी स्तरों पर नियोजन हेतु आवश्यक आंकड़े और सूचनाएं उपलब्ध नहीं होती थी । दूसरी प्रणाली विकेन्द्रीकृत नियोजन प्रणाली हैं इसे ‘बाटमअप’ अथवा ‘नीचे से नियोजन’ की प्रणाली भी कहा जाता है । इसका आशय यह है कि प्रत्येक ग्राम के विकास की योजना तैयार की जाये फिर सभी ग्रामों की योजनाओं को मिलाकर विकास खण्ड की योजना तैयार की जाये और सभी विकास खण्डों की योजनाओं को सम्मिलित कर जिले की योजना बनाई जाये ।

इसी प्रकार जिलों की योजनाओं को एकीकृत करके प्रदेश अथवा राज्य की योजना तैयार की जाये और सभी राज्यों की योजनाओं को सुग्रथित करके पूरे देश की योजना तैयार की जाये । इस प्रकार की नियोजन प्रणाली में सभी की भागीदारी होती है और चूँकि इसमें ग्राम की वास्तविक समस्याओं के समाधान हेतु कार्यक्रम होते हैं ।

सभी ग्रामवासी इसके कार्यान्वयन में योगदान करते हैं और इसे अपनी योजना समझते हैं । इसी प्रणाली या विधि को सूक्ष्म स्तरीय नियोजन (माइक्रोलेविल प्लानिंग) के नाम से भी जाना जाता है । हमारे देश में आजकल विकेन्द्रीकृत नियोजन प्रणाली को साकार रूप देने का प्रयास किया जा रहा है ।

इसी सन्दर्भ में विकास योजनाएं बनाने का कार्य पंचायतों को सौंपा जा रहा है और उन्हें अधिक से अधिक अधिकार सौंपने की दिशा में कार्य किया जा रहा है । उत्तर प्रदेश सरकार ने कुछ विभागों के कार्यों की जिम्मेदारी ग्राम पंचायतों को सौंप दी हैं तथा अन्य विभागों के दायित्वों के विकेन्द्रीकरण पर विचार चल रहा है ।

सरकार का यह प्रयास है कि पंचायतों को अधिक से अधिक सशकत बनाया जाये और उन्हें अधिकाधिक मामलों में स्वायत्तता प्रदान की जाये । स्वायत्तता का तात्पर्य अपने विकास से सम्बन्धित मामलों में निर्णय लेने की स्वतंत्रता से होता है अर्थात हमें अपने गाँव में क्या-क्या विकास कार्य करने हैं ।

इसके बारे में हम स्वयं निर्णय ले सके और हेम अपने गाँव से सम्बन्धित विकास योजनाओं की मंजूरी के लिए किसी बाहरी व्यक्ति अथवा संस्था पर निर्भर न करना पड़े । स्वाभाविक है कि यह योजना सभी ग्रामवासियों की भागीदारी से बनाई जायेगी और ग्राम पंचायत इसकी स्वीकृति देगी और इसे लागू करेगी ।

पंचायती राज संस्थाओं को अधिक से अधिक अधिकार देने के पीछे आम आदमी के सशक्तीकरण की भावना है ताकि सामान्य जनता अपने सभी मामलों में स्वयं निर्णय ले सके और स्वशासन की प्रणाली को अधिक से अधिक कार्यों में लागू किया जा सके ।

स्वायत्तता अथवा निर्णय लेने की स्वतंत्रता तब तक बेमानी अथवा निरर्थक है जब तक आपके निस्तारण पर ऐसी कुछ धनराशि न हो जिसे आप अपनी इच्छानुसार खर्च कर सके । मान लीजिए आप अपने गाँव की विकास योजना तैयार भी कर लें और उसे लाग करने के लिए आपके पास पैसा नहीं है तो नियोजन की सारी स्वायत्तता बेकार हो जायेगी ।

इसी संदर्भ में केन्द्रीय सरकार ने यह निर्णय लिया है कि राज्य सरकार अपनी आमदनी का कुछ हिस्सा ग्राम तथा नगर पंचायतों व क्षेत्र तथा जिला पंचायतों को देगी ताकि ये संस्थाएं स्वतंत्र रूप से अपने क्षेत्रों के विकास कार्यों पर व्यय कर सकें ।

इस कार्य के लिए हर पाँच साल पर राज्य वित्त आयोग का गठन होता है जो पंचायतों को धनराशि आवंटित करने हेतु राज्य सरकार को अपनी सिफारिश देता है । इसी प्रकार केन्द्र सरकार द्वारा प्रत्येक पाँच साल के अन्तराल पर गठित वित्त आयोग भी ग्राम पंचायतों को अनुदान की धनराशि देता है ताकि वे अपनी विकास की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके ।

यह व्यवस्था सारे देश में समान रूप से लागू है और यह भारत के संविधान में 1992 में 73वें तथा 74वें संशोधन के फलस्वरूप लागू हुई है । इसके अन्तर्गत पंचायतों को सशक्त किए जाने हेतु ठोस कदम उठाये जाने हेतु राज्य सरकार को निर्देशित किया गया है ।

विकास तथा नियोजन के सन्दर्भ में एक बात और जानने योग्य है । विकास को विभिन्न सेक्टर्स अथवा मदों में बाँटा गया है । यह विभाजन मुख्यत: विकास के विभिन्न अवयवों को ध्यान में रखकर किया गया   है । इन्हीं के आधार पर विभागों का सृजन किया गया है जैसे- उत्पादक सेक्टर्स अथवा विभाग, अवस्थापना (अथवा आर्थिक विकास हेतु मूलभूत आवश्यकता आधारित संरचना) तथा सामाजिक सेवाएं ।

उत्पादक मदों अथवा विभागों में उद्योग, कृषि एवं संवर्गीय मद, जैसे- औद्यानिकी, पशुधन विकास विभाग आते हैं उसी प्रकार अवस्थापना में सड़क, बिजली, परिवहन, सिंचाई आदि विभाग आते हैं । सामाजिक सेवाओं में शिक्षा, स्वास्थ्य, समाज कल्याण, श्रम कल्याण आदि मद सम्मिलित हैं । यहाँ हम विशेष रूप से सामाजिक विकास परियोजनाओं की रचना की बात कर रहे हैं तो उन्हें योजना में सामाजिक सेवाओं के अन्तर्गत रखा जायेगा ।

सामाजिक विकास की परियोजनाओं की तैयारी आर्थिक विकास की योजना की तैयारी की तुलना में थोड़ा मुश्किल हैं । आर्थिक विकास हेतु माडल प्रोजैक्टस तैयार किये जा सकते हैं जो विभिन्न स्थानों अथवा व्यक्तियों के लिए कुछ मामूली परिवर्तन करके उपयुक्त हो सकते हैं ।

उदाहरण के तौर पर आय वृद्धि की कोई परियोजना तैयार करने के लिए क्षेत्र विशेष में उस कार्य के लिए तत्सम्बन्धित विकास की सम्भावनाएं देखी जाती है । यदि कृषि विकास की योजना चलानी है तो वही उपयुक्त भूमि, मृदा, सिंचाई की व्यवस्था होनी चाहिए ।

मसाला अथवा दाल प्रसंस्करण का काम करना है तो वहाँ कच्चा माल उपलब्ध होना चाहिए । किन्हीं कार्यों में विशेष प्रकार के कौशल की आवश्यकता हो सकती है । उसकी व्यवस्था के बारे में भी निर्णय लेना होगा ।

सामाजिक विकास की परियोजनाएं तैयार करना थोड़ा कठिन काम है । इन योजनाओं में प्रत्येक स्थल की विशिष्टता, वहाँ के रहने वालों के रीतिरिवाज, उनकी मान्यताएँ और समाज के विभिन्न वर्गों की अलग-अलग आवश्यकताएं ध्यान में रखनी पड़ती है ।

विकास के प्रति सोच में परिवर्तन:

पिछले एक दशक से भी अधिक से विकास के प्रति सोच अथवा दर्शन में क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है । इसे ‘पैराडाइम शिफ्ट’ कहा जाता है । इसके अन्तर्गत विकास तथा उसके लाभार्थियों की परिभाषाएं ही बदल गई हैं । अब विकास के कार्य की केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं मानी जाती ।

इसमें सभी व्यक्ति साझेदार अथवा सहभागी होते हैं । असल में पूर्व में विकास की नीति तथा प्रक्रिया का कुछ ऐसा प्रभाव हुआ कि जनसाधारण की यह मानसिकता बन गई कि विकास की जिम्मेदारी केवल सरकार की है और वह केवल उसका उपभोग करने का अधिकारी हैं ।

सरकारी नौकर भी यह सोचते थे कि ग्रामीण जनता को अपनी आवश्यकताओं का ज्ञान नहीं है और विकास की योजनाएँ तैयार करने की योग्यता एवं क्षमता केवल उन्हीं में है । वे सरकारी योजनाएं स्वयं बनाते थे और जनता से उनके क्रियान्वयन में सहयोग की अपेक्षा करते थे ।

इसके फलस्वरूप स्थानीय लोगों ने इन योजनाओं को अपना नहीं समझा और उन्हें केवल सरकारी योजना माना । इनके द्वारा जो परिसम्पत्तियां भी सृजित हुई वे भी सरकार की मानी गई और उनकी रखवाली भी जनता ने नहीं की । आपने देखा होगा कि प्राइमरी स्कूल, ए.एन.एम. सेन्टर अथवा अन्य ऐसी परिसम्पत्तियों की देखरेख अभी भी ठीक से नहीं होती ।

यहाँ तक कि कहीं-कहीं ग्रामवासी इनके भवनों को हानि पहुंचाते देखे गये हैं । कहीं कोई इसमें से खिड़की निकाल लेता है या स्कूल की कोई और वस्तु । कहीं-कहीं तो यह देखने में आया कि गाँव के लोगों ने ऐसी परिसम्पत्तियों को क्षति पहुंचाई ।

उन्हें इनसे कोई लगाव नहीं था जबकि ये परिसम्पत्तियाँ उन्हीं के द्वारा भुगतान किए गये विभिन्न प्रकार के टैक्सों अथवा सरकारी शुल्कों द्वारा बनाई गयी थी । इसीलिए अब सरकार इन परिसम्पत्तियों को पंचायतों को हस्तान्तरित कर रही है और इसके रखरखाव की जिम्मेदारी भी उन्हें ही सौंपी जा रही है । जन सामान्य की उदासीनता का मुख्य कारण था कि योजना तैयार करते समय उनकी भागीदारी प्राप्त नहीं की गई । ऊपर से थोपी गई योजना को अपनाने में ग्रामीण जनता आगे नहीं आई ।

जिसके कुछ उदाहरण निम्न प्रकार हैं:

i. ग्राम स्तर पर स्वच्छता कार्यक्रम के अन्तर्गत बने शौचालयों का अनुपयोगी साबित होना ।

ii. सरकारी योजना, इन्दिरा आवास योजना के अन्तर्गत बने मकानों का समुचित उपयोग न होना ।

iii. समुदाय में धूमरहित चूल्हों का लोकप्रिय न होना आदि ।

उपरोक्त के अलावा सरकार की एक दोषपूर्ण नीति यह भी रही कि अधिकतर सरकारी योजनाओं में अनुदान का अंश रखा गया ताकि जनता उन्हें कार्यान्वित करने हेतु प्रोत्साहित हो सके । इसका प्रभाव यह हुआ कि जनता सरकारी अनुदान को अपना हक समझने लगी और एक अनुदान की संस्कृति विकसित हो गई जिसे ‘निर्भरता लक्षण’ अथवा ‘डिपैनडेन्सी सिन्ड्रोम’ कहा जाता है ।

स्थिति इतनी खराब हुई कि विकासकर्मी जब भी गाँव में कोई नई योजना लेकर जाते तो लोग पहले यह पूछते कि इस योजना में सरकारी अनुदान का अंश क्या है । यदि किसी योजना में अनुदान का अंश नहीं है तो उसके प्रति जनता कोई उत्साह नहीं दिखाती ।

सहभागी सामाजिक नियोजन हेतु आजकल बहुत सी विधियाँ विकसित की गई है जिनमें सर्वाधिक लोकप्रिय विधि पार्टीसिपेटरी रूरल एप्रेजल की है । सामाजिक विकास परियोजना में प्रत्येक ग्राम की योजना इसी विधि को अपनाकर तैयार की जाती है ।

इस विधि के अन्तर्गत ग्राम के लोग ग्राम की विकास की योजना तैयार करने हेतु स्वयं ही आंकड़ें अथवा सूचनाएं एकत्र करते हैं और गाँव के विकास की प्राथमिकताएं निर्धारित करके गाँव की योजना तैयार करते हैं जो उन्हीं के द्वारा कार्यान्वित की जाती है । यही माइक्रोप्लानिंग का मूल मंत्र है । इस योजना के क्रियान्वयन हेतु वे अपने संसाधन भी जुटाते हैं ताकि केवल सरकारी संसाधनों पर ही आश्रित न रहे ।

उन्हें बराबर यह ध्यान रहता है कि परियोजना के अन्तर्गत प्रारम्भ किए गये विकास कार्यक्रम तथा उसके अन्तर्गत सृजित परिसम्पत्तियों का अनुरक्षण (परियोजना अवधि के बाद भी) उन्हें ही करना है । इस प्रकार नियोजन कार्यान्वयन, अनुश्रवण तथा मूल्यांकन आदि की सारी जिम्मेदारी जनता की ही होती है ।

परियोजना संरचना हेतु तार्किक रूपरेखा (लाग फ्रेम):

किसी भी सूक्ष्म स्तरीय नियोजन अथवा ग्राम स्तर पर परियोजना तैयार करने हेतु हमें विधिवत कार्य करना होता है और इसकी पूरी विधि में एक तार्किक कड़ी अन्तर्निहित है । यह आवश्यक है कि इस कड़ी में जो तारतम्य निर्धारित है उसी के अनुसार विभिन्न कार्य करने होते हैं ।

जिनकी व्याख्या नीचे की गई है:

i. ध्येय (गोल):

लोग विशिष्ट के विकास के उद्देश्यों, रणनीति, कार्य योजना आदि के सम्यक मूल्यांकन हेतु मूलभूत मापदण्ड अथवा मानक जैसे समुदाय के स्वास्थ्य के स्तर में सुधार लाना ।

ii. उद्देश्य (आब्जैक्टिव्स):

निर्धारित ध्येय (गोल) की प्राप्ति हेतु क्षेत्र अथवा स्थान विशिष्ट (एरिया स्पेसिफिक) समयबद्ध (टाइम बाउंड), परिमाण साध्य (क्वान्टिफायेबिल अथवा मैजरेबिल) उपलब्धियों अथवा परिणाम जैसे बाल मृत्यु दर में कमी लाना, जन्म दर घटाना, गांव में रूग्णावस्था की स्थिति में कमी लाना आदि-आदि ।

iii. स्थिति विश्लेषण (सिचुएशन एनेलिसिस):

वर्तमान स्थिति के विश्लेषण को दो भाग में बांटा जा सकता है:

(अ) भौगोलिक तथा सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिवेश का विश्लेषण जैसे भौगोलिक स्थिति तथा सामाजिक रीतिरिवाज जिनके कारण लोगों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । अन्य मान्यताएँ जिनमें बीमारी को दैवी अभिशाप मानना और झाड़-फूंक आदि में विश्वास । स्वास्थ्य के विषय में जागरूकता का स्तर व वर्तमान में प्रयोग लाई जाने वाली सुविधाएं ।

(ब) वर्तमान में चल रही स्वास्थ्य योजनाओं एवं कार्यक्रमों का समालोचनात्मक विश्लेषण ताकि उनमें परिमाणात्मक एवं गुणात्मक कमियों का पता लगाया जा सकें ।

iv. प्रोजेक्ट कम्पोनेन्ट्स:

परियोजना कार्यान्वयन के मूल अवयव / मद / कार्यक्रम ।

v. लक्षित क्षेत्र एवं जनसंख्या (कवरेज):

परियोजना का भौगोलिक क्षेत्र तथा उसके लक्षित लाभार्थी ।

vi. रणनीति:

परियोजना हेतु निर्धारित अन्तर्सम्बन्धित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु स्पष्ट कार्य प्रणाली ।

vii. परियोजना उत्पाद / लाभांश (प्रोजेक्ट आउटपुट्‌स):

परियोजना से अपेक्षित आउटपुट्‌स / लाभांश जिन्हें परियोजना उद्देश्यों के रूप में मापा जाता है । इसमें मूर्त (टेन्जिबिल) तथा नान-टेन्जिबिल लाभांश दोनों को सम्मिलित किया जाता है । इन्हें परियोजना के उद्देश्यों के प्रतिफल के रूप में मापा जाता है ।

viii. परियोजना निवेश (प्रोजेक्ट इनपुट्‌स):

योजनाएं (स्कीम्स), मानव संसाधन, सामग्री, धन, तकनीकी (टेक्नोलोजी) आदि जो परियोजना में लगाए जाते हैं ।

ix. परियोजना का समेकित प्रभाव (आउटकम):

लक्षित समुदाय के स्वास्थ्य में सकल सुधार तथा जीवन की गुणवत्ता अथवा उसके रहन-सहन के स्तर में सुधार ।

x. योजना क्रियान्वयन में सम्भावित व्यवधान:

परियोजना के कार्यान्वयन में किस प्रकार के व्यवधान आ सकते हैं और इन्हें किस प्रकार दूर किया जायेगा ।

xi. परियोजना क्रियान्वयन हेतु व्यवस्था (एक्शन प्लान):

अ. क्रियान्वयन,

ब. अनुश्रवण मूल्यांकन हेतु संस्थागत ढाँचा,

स. अन्य विभागों / संस्थाओं से समन्वय की व्यवस्था ।

उपरोक्त कथन को एक ठोस उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है । मान लीजिए हमें किसी क्षेत्र विशेष अथवा एक कल्पित गाँव कल्याणपुर में रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य के स्तर में सुधार लाने हेतु एक परियोजना तैयार करनी है ।

अत: सबसे पहले हमें इस ग्राम के निवासियों के स्वास्थ्य की वर्तमान स्थिति का विश्लेषण करना होगा । इस विश्लेषण से हमें इस गाँव के हर परिवार के विषय में आधारभूत आंकड़े एकत्र करने होंगे ताकि प्रत्येक परिवार के पुरुष, स्त्री, बालक, बालिकाओं के विषय में पूरा विवरण प्राप्त हो सके । इसके पश्चात इन आंकड़ों का संकलन करके उनका वर्गीकरण करना होगा । स्वास्थ्य वर्धन के मामले में क्या-क्या अवरोध है जैसे- रीति रिवाज, अन्य मान्यताएं, स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता न होना आदि ।

इसके लिए हमें निम्नलिखित तथ्यों पर प्रकाश डालना होगा:

I. कल्याणपुर ग्राम में विभिन्न आय वर्ग के स्त्री पुरुषों की संख्या ।

II. जन्म दर तथा मृत्यु दर पिछले वर्ष में गाँव के लोगों की मृत्यु के प्रमुख कारण ।

III. बाल मृत्यु दर ।

IV. रूग्णता किस प्रकार की है ।

V. विशिष्ट बीमारियाँ- महिलाओं, बच्चों, वृद्धों आदि की ।

VI. रीति रिवाज, परम्पराएं, मान्यताएं जो स्वास्थ्यवर्धक नहीं है ।

उपरोक्त विवरण एकत्र करने के पश्चात हमें इनके कारणों का पता लगाना होगा जैसे 0-1 वर्ष के बच्चों की मृत्यु के क्या कारण हैं । 3 वर्ष तक तथा उससे बड़े बच्चों की मृत्यु के कारण, कुपोषण आदि की स्थिति । अस्वच्छ जल के प्रयोग से उत्पन्न बीमारियों का विस्तार आदि-आदि ।

परियोजना संरचना में अगला कदम होगा कि यह पता लगाया जाये कि स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सेवाओं की क्या स्थित है:

i. बच्चों का टीकाकरण ठीक से हो रहा है अथवा उसमें कुछ कमियाँ है ।

ii. माताओं का टीकाकरण ठीक से हो रहा है अथवा उसमें कुछ कमियों है ।

iii. क्षेत्र में उपलब्ध स्वास्थ्य सम्बन्धी संस्थाओं/सेवाओं की स्थिति ।

उपरोक्त कार्य करने के उपरान्त हमें स्वास्थ्य के कुछ निश्चित मानक प्राप्त हो सकेंगे । जैसे- कितने प्रतिशत बच्चों और महिलाओं का टीकाकरण हुआ है । स्थिति विश्लेषण में हमें यह भी देखना होगा कि गरीबी, अज्ञानता (जानकारी का अभाव), कुपोषण, गन्दगी, अस्वच्छ पर्यावरण, स्वच्छ पेयजल का अभाव, ड्रेनेज, आवास की असंतोषजनक स्थिति, रोगों से प्रतिरक्षण के निम्न स्तर आदि के कारण क्या बीमारियाँ होती हैं ।

अधिकांश ग्रामीण इलाकों में टी.बी., गेस्ट्रोएन्टराइटिस, मलेरिया, फाइलेरिया, खसरा, काली खांसी, ब्रान्काइटिस, श्वास सम्बन्धी बीमारियाँ, निमोनिया, खुजली, पेट के कीड़े गया बुखार (विशेषकर बच्चों में) आदि बीमारियाँ आमतौर पर पाई जाती हैं ।

इन सभी के अलावा व्यक्तिगत स्वास्थ्य विज्ञान तथा स्वास्थ्य शिक्षा का अभाव भी स्वास्थ्य के निम्न स्तर के लिए जिम्मेदार हैं । इन बीमारियों का सम्बन्ध किसी ग्राम की भौगोलिक लोकेशन से भी होता है, जैसे- तराई का क्षेत्र, पहाड़ी क्षेत्र, पठारी क्षेत्र ।

इन सभी तथ्यों से सम्बन्धित सूचनाएं एकत्र करने के पश्चात् हमें स्वास्थ्य के स्तर को सुधारने के लिए निम्न प्रकार के उद्देश्य निर्धारित करने होंगे जिन्हें एक निश्चित अवधि में प्राप्त करने हेतु कार्यवाही करनी होगी और उन्हें मात्राकृत किया जायेगा:

I. वर्तमान जन्म दर ‘ए’ को ‘बी’ स्तर तक कम करना ।

II. मृत्युदर के वर्तमान स्तर ‘सी’ से ‘डी’ तक घटाना ।

ADVERTISEMENTS:

III. बाल मृत्यु दर को वर्तमान ‘ई’ स्तर से ‘एफ’ स्तर तक कम करना ।

IV. सामान्य रूग्णता के वर्तमान ‘जी’ स्तर से शून्य तक लाना ।

V. मातृक मृत्यु दर को ‘आई’ स्तर से ‘जे’ स्तर तक कम करना ।

VI. बच्चों में कुपोषण को ‘के’ प्रतिशत से ‘एल’ प्रतिशत तक कम करना ।

VII. गर्भवती स्त्रियों में कुपोषण को, ‘एम’ प्रतिशत से ‘एन’ प्रतिशत तक कम करना ।

VIII. टीकाकरण के अन्तर्गत सभी बच्चों को लाना ।

IX. सभी गर्भवती माताओं का टीकाकरण कराना ।

X. परिवार कल्याण के अन्तर्गत वर्तमान पात्र युगलों की संख्या ‘एन’ प्रतिशत से ‘पी’ प्रतिशत तक बढ़ाना ।

किसी क्षेत्र अथवा ग्राम के निवासियों के स्वास्थ्य के स्तर में सुधार लाने हेतु जिस प्रकार के उद्देश्यों का उदाहरण ऊपर दिया गया है । उनके सन्दर्भ में दो बातें उल्लेखनीय हैं । पहली किसी भी मद में उद्देश्य निर्धारित करते समय कुछ न कुछ निर्णय नियोजन दल को स्वेच्छा से लेने होंगे ।

ADVERTISEMENTS:

चूँकि इनका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है और इन्हें कभी भी मात्राकृत नहीं किया जा सकता । यह नियम वैसे इस प्रकार के सभी अनुमानों (जिनका सम्बन्ध सामाजिक व्यवहार से होता है) पर लागू होता है । उनके बारे में पूर्वानुमान लगाना बहुत ही कठिन होता है ।

दूसरी बात इनकी परिवर्तनशीलता तथा सापेक्षता है । किसी भी परियोजना के उद्देश्य सामाजिक प्रगति के साथ बदलते रहेंगे और इन्हें क्षेत्र विशेष के लिए निर्धारित करते समय राष्ट्रीय स्तर अथवा राज्य स्तर पर निर्धारित उद्देश्यों को ध्यान में रखना होगा ।

सामाजिक विकास अथवा किसी अन्य परियोजना के उद्देश्य निर्धारण के सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि कुछ उद्देश्यों के मद ऐसे होंगे जो बड़े क्षेत्रों जैसे- न्याय पंचायत, विकास खण्ड अथवा जिला के लिए एक जैसे हो सकते हैं किन्तु कुछ मद ऐसे भी होंगे जो उस छोटे क्षेत्र (जैसे ग्राम) के लिए विशिष्ट होंगे ।

चूँकि किसी क्षेत्र विशेष में स्वास्थ्य सम्बन्धी ऐसी समस्या हो सकती है जो अन्य क्षेत्रों में विद्यमान न हो । अत: प्रयास यह होना चाहिए कि हम स्वास्थ्य सम्बन्धी हर छोटी से छोटी समस्या को स्थिति विश्लेषण के समय ज्ञात कर लें और उसके निराकरण के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करने हेतु उसके लिए भी अलग से उद्देश्य निर्धारित करें । सामाजिक नियोजन में अगली कार्यवाही सरकार द्वारा वर्तमान में चलाई जा रही स्वास्थ्य, पोषण, परिवार कल्याण, पर्यावरण, स्वच्छता एवं संवर्गीय कार्यक्रमों का समालोचनात्मक विश्लेषण करना होता है ।

इसका सबसे सरल तरीका यह है कि- सभी सरकारी कार्यक्रमों तथा उन्हें कार्यान्वित करने वाली एजेन्सियों की एक सूची तैयार कर ली जाये और उनके सामने उनके द्वारा जो सेवाएं/सुविधाएँ प्रदान की जा रही है उन्हें अंकित किया जाये । जो मानदण्ड सरकार द्वारा निर्धारित किये गये हैं उन्हें नोट किया जाये और यह देखा जाये कि वे उन मानदण्डों को पूरा कर रहे हैं अथवा नहीं ।

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