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महिला सशक्तिकरण का परिचय:

महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में यह जानना अति आवश्यक है कि महिला सशक्तिकरण के वास्तविक सूचक या संकेतक क्या होने चाहिए जिससे यह पता चल सके कि उस दिशा में किया गया कार्य किस सीमा तक प्रभावी हुआ है ।

सशक्तिकरण के सम्बन्ध में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कोई व्यक्ति किसी दूसरे को सशक्त नहीं करता । विकास के सन्दर्भ में इस शब्द के प्रयोग का अर्थ गरीब एवं अभिवंचित वर्ग द्वारा स्वतः प्रयासों से अपने को सशक्त करना है ।

अत: यह स्पष्ट होना चाहिए कि सशक्तिकरण कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो जनसाधारण को उठाकर दे दी जाए । सशक्तिकरण की प्रक्रिया व्यक्तिगत भी है एवं सामूहिक भी । व्यक्ति के समूह से जुड़ाव के कारण उसकी जानकारी एवं ज्ञान में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है तथा अपने को संगठित कर अपने जीवन स्तर में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाने की क्षमता भी जागृत होती है ।

इससे यह स्पष्ट होता है कि सशक्तिकरण की प्रक्रिया सहभागिता पर आधारित है । यह गरीबों में उनके जीवन को प्रभावित करने वाले विषयों पर स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने की शक्ति का संचार करती है । पिछले अनुभवों से यह स्पष्ट है कि महिलाओं की आर्थिक स्थिति में सुधार तथा सशक्तिकरण का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है । यह ज्ञातव्य है कि उनकी शक्तिहीनता का मुख्य कारण सामाजिक, सांस्कृतिक एवं संरचनात्मक है न कि उनकी कमजोर आर्थिक स्थिति ।

अत: केवल आर्थिक विकास एवं सशक्तिकरण को एक साथ जोड़कर देखना निरर्थक है । आर्थिक वृद्धि को विकास का मानक पुरुष नीति निर्धारकों द्वारा अपनाया गया है । उद्यमिता सम्बन्धित आत्मनिर्भरता के माध्यम से सशक्तिकरण हेतु प्रयास घरेलू स्तर पर तो सम्भव है परन्तु यह राजनैतिक, सामाजिक शक्तियाँ तथा ऐतिहासिक वर्गवाद को प्रभावित करने में सहायक नहीं होती ।

सशक्तिकरण की विभिन्न परिभाषाओं के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि सशक्तिकरण एक प्रक्रिया है जिनके मुख्य अवयव शक्ति संरचना पर नियंत्रण करना, सहभागिता तथा विकास की दिशा को प्रभावित करना है ।

अपने बारे में सकारात्मक दृष्टिकोण, आत्मविश्वास, विश्लेषणात्मक योग्यता, जागरूकता में बढ़ोत्तरी, गतिशीलता में बढ़ोतरी तथा समुदाय के बीच अपनी एक स्पष्ट पहचान बनाना भी सशक्तिकरण प्रक्रिया के अभिन्न अंग है ।

इस आधार पर सशक्तिकरण को एक प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो महिलाओं में गतिशीलता, आत्मविश्वास, अनुकूल स्वदृष्टिकोण तथा जागरूकता का संचार करती है जिससे निर्णयात्मक प्रक्रिया में उनकी प्रभावी भागीदारी सम्भव हो सके तथा विश्लेषणात्मक योग्यता द्वारा विकास की दिशा को न केवल नियंत्रित कर सके बल्कि उसकी दिशा को अपने हित में मोड़ने की क्षमता रख सकें ।

ADVERTISEMENTS:

महिलाओं में राजनैतिक सशक्तिकरण की दिशा में 73वां तथा 74वां संविधान संशोधन (1962) एक महत्वपूर्ण कदम है । राजनैतिक सशक्तिकरण का अर्थ औपचारिक राजनैतिक संस्थाओं में महिलाओं की भागीदारी    है । वर्तमान में देश के राजनैतिक ढाँचे में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है ।

इस बात को छोड़कर कि इस देश में महिलाएं प्रधानमंत्री तथा मुख्यमंत्री के पदों पर रही हैं तथा अन्य कुछ वरिष्ठ पदों पर भी महिलाएँ पहुँच सकी है । सामान्यतः महिलाओं की पहुँच सत्ता तथा राजनैतिक निर्णय लेने वाले तंत्रों से अब भी काफी दूर है ।

राजनैतिक पार्टियाँ महिलाओं को राजनैतिक क्षेत्र में बराबरी का दर्जा देने के लिए बहुतेरे वादे तो करती हैं परन्तु अभी भी राजनैतिक पार्टियों में तथा उन पार्टियों के माध्यम से चुने गए संसद, विधान मण्डल इत्यादि संस्थाओं के प्रतिनिधियों में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की संख्या बहुत ही कम है ।

73वें संशोधन के बाद त्रिस्तरीय पंचायती राज का उदय हुआ है जिसमें महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत पद आरक्षित किये गये हैं । उक्त संशोधन के बाद, पंचायत चुनाव में लगभग 10 लाख से अधिक सदस्य एवं पंचायत पदाधिकारी के रूप में महिलाएं चुनी गई हैं ।

इस प्रकार पंचायती राज में चयनित महिलाओं का एक बड़ा समूह निर्णय लेने की प्रक्रिया में नए तरीके से जुड़ गया है तथा यह अपेक्षा की जाती है कि इन संस्थाओं द्वारा नियोजन तथा अन्य कार्यों में महिलाओं के पक्ष की अनदेखी नहीं हो पायेगी । आवश्यकता इस बात की है कि इन महिलाओं की सफल सहभागिता हेतु उनकी क्षमता में समुचित विकास किया जाये ।

महिला सशक्तिकरण के लिए नीतियाँ एवं सूचक:

वीमैन एम्पावरमैन्ट इन साउथ एशिया- कन्सेप्ट एण्ड प्रैक्टिसेज के हिन्दी अनुवाद ‘शक्ति के पथ पर’ (1335 तथा 1338) में महिला सशक्तिकरण के लिए दूरगामी एवं ठोस नीतियों तथा सशक्त के लिए कुछ सूचक दिये हैं ।

जिनका उल्लेख निम्नवत है:

i. एक चुने हुए भौगोलिक-राजनीतिक क्षेत्र (चाहे शहरी हो या देहाती) की सबसे गरीब और दमित महिलाओं के साथ काम करना ।

ii. जेण्डर सचेत तथा राजनीतिक चेतना वाले ऐक्टिविस्ट/परिवर्तन एजेन्टों को महिलाओं को संगठित करने और उनकी चेतना का स्तर बढ़ाने के लिए प्रशिक्षित करना ।

ADVERTISEMENTS:

iii. इन महिलाओं के लिए ऐसा ‘समय और जगह’ तैयार करना, जहाँ वे एक स्त्री के रूप में आपस में जुड़ सके, न कि विकास या कल्याण कार्यक्रम पाने या फायदा उठाने वाली लाभान्वितों के रूप में । इस मंच पर वे विकसित होकर महिलाओं के सिर्फ एक झुण्ड से मजबूत समूह का रूप ले सके ।

iv. स्त्रियों के अपने अनुभवों ओर उनकी सच्चाइयों से आरम्भ करना ।

(क) स्वयं अपनी पहचान और बेहतर छवि को बढ़ावा देना ।

(ख) विश्लेषणात्मक सोच पैदा करने की कोशिश करना ।

ADVERTISEMENTS:

(ग) शक्ति संरचना (स्ट्रक्चर्स ऑफ पावर) तथा जेण्डर की गहराई समझ पाने की कोशिश करना ।

v. नई जानकारी, ज्ञान और कौशल उपलब्ध कराकर तथा यह सब चीजें स्वयं पाने का साहस उत्पन्न करने में महिलाओं की पहुँच का दायरा बढ़ाना ।

vi. स्त्रियों को उनकी बढ़ी हुई चेतना (नई जानकारी व ज्ञान) आलोचनात्मक विश्लेषण और जानकारी के आधार पर फैसला लेकर कार्यवाही के लिए मुद्दों के चुनाव और उनका क्रम तय करने के योग्य बनाना ।

vii. वैकल्पिक, सामाजिक, आर्थिक सम्बन्धों तथा विकास के वैकल्पिक नमूनों सहित एक वैकल्पिक समाज को कल्पना करने में महिलाओं की सहायता करना ।

ADVERTISEMENTS:

viii. महिलाओं को इतना सशक्त बनाना कि वे निम्न परिवर्तनों के लिए अपने आप संघर्ष कर सकें:

(क) उनके जीवन की भौतिक स्थिति,

(ख) उनका व्यक्तिगत जीवन और

(ग) सार्वजनिक क्षेत्र में उनके साथ होने वाला बर्ताव ।

ADVERTISEMENTS:

ix. स्त्रियों का दर्जा निर्धारित करने वाले ढाँचों में बदलाव लाने के लिए स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर महिला संगठनों के निर्माण में सहायता करना ।

1. महिला सशक्तिकरण हेतु समन्वित ग्रामीण विकास की आवश्यकता:

महिला सशक्तिकरण हेतु समन्वित ग्रामीण विकास का सुझाव दिया गया है ।

इसमें दिये गये सुझाव निम्न प्रकार हैं:

नीतियाँ:

a. आमतौर पर समूह/संगठन के जरिए जागरूकता पैदा करना/चेतना का स्तर बढ़ाना ।

b. स्त्रियों के लिए कार्यक्रम/सेवाएं मुहैया कराना जैसे स्वास्थ्य की देखभाल, बच्चों की देखभाल, कृषि विकास प्रसार, जल आपूर्ति, वैकल्पिक ईंधन/चूल्हे, पर्यावरण पुनर्जीवन योजनाएँ आदि ।

c. कर्ज सुविधा, व्यवसाय प्रशिक्षण, बाजार की जानकारी, सहयोग, कौशल सुधारने की शिक्षा आदि सहित आर्थिक विकास की योजनाएँ ।

d. कार्यात्मक शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, लड़कियों के लिए अनौपचारिक शिक्षा सहित सभी शिक्षा कार्यक्रम ।

e. गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा शुरू की गई विकास गतिविधियों को अपने हाथ में लेने के लिए गाँव के ही समूहों को जोड़कर संघ बनाना ।

सूचक:

i. बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं और स्वास्थ्य के बारे में ज्यादा जानकारी के कारण औरतों का स्वास्थ्य और उनका स्तर सुधरता है ।

ii. स्त्रियों का आर्थिक स्तर सुधरता है और उसके साथ परिवार में उनकी स्थिति और घर के फैसलों में उनकी राय का महत्व बढ़ता है । बच्चों व औरतों के खाने-पीने का स्तर और पोषण भी इसके द्वारा सुधरता है ।

iii. स्त्रियों में आत्मविश्वास पैदा होता है और वे कहीं भी आने-जाने से नहीं घबराती । जैसे कि प्रशिक्षण कार्यक्रमों और बैठकों में जाती हैं । धीरे-धीरे परिवार और समुदाय उनके आने-जाने को स्वीकार कर लेता  है । इस तरह से उनकी आजादी बढ़ती है ।

iv. शिक्षा के महत्व का पता चलने पर ज्यादा लड़कियों को स्कूल पढ़ने भेजा जाता है ओर शिक्षा पूरी कराई जाती है । इस तरह से स्त्रियों की साक्षरता दर ऊंची उठती है ।

v. स्त्रियों में सामान्य जागरूकता बढ़ती हैं, उन्हें काफी हद तक नई-नई जानकारी और विभिन्न प्रकार की सूचनाएं मिलती है । वे ज्यादा जानकार और समझदार बनती है ।

vi. घरेलू हिंसा और सामाजिक बुराइयों (बाल विवाह, दहेज, यौन उत्पीड़न) कम होती है । कई गैर सरकारी संस्थाओं का मानना है कि इसके पीछे महिलाओं की शक्ति होती है क्योंकि वे अब सफलतापूर्वक इन बुराइयों का विरोध कर पाती है ।

vii. कुछ उदाहरणों में स्त्रियों पर पानी, चारा, ईंधन इकट्ठा करने के काम के बोझ में भी कमी आई है । बच्चों की देखभाल की सुविधा मिलने से भी उनका बोझ हल्का होता है ।

2. आर्थिक हस्तक्षेप द्वारा महिला सशक्तिकरण नीतियाँ:

a. स्त्रियों को संगठित करके उनकी आर्थिक हालत, उनके शोषण के प्रकार और कारणों के बारे में जागरूकता पैदा करना ।

b. एक सीमा तक कम ब्याज या बगैर ब्याज के कर्ज दिलाने वाली योजनाएँ चालू करना ताकि स्त्रियों उनका लाभ उठा सकें ।

c. मौजूदा योग्यताओं को बेहतर बनाने के लिए या नए हुनर सीखने के लिए प्रशिक्षण तथा कौशल विकास कार्यक्रम चलाना (खासतौर पर गैर पारम्परिक) ।

d. उत्पादन केन्द्र या उत्पादक/कामगार सहकारी संघ स्थापित करना ।

e. व्यवसाय के अग्रवर्ती (फारवर्ड) तथा पश्चगामी (बैकवर्ड) संयोजन (लिन्केज) उपलब्ध कराने में औरतों की मदद करना । ताकि स्त्रियों कच्चे माल की पूर्ति से लेकर उसे बेचने, नए बाजार ढूढ़ने, कीमतें तय करने और नई तकनीकें हासिल करने का काम करने में समर्थ बन सकें ।

f. जब तक स्त्रियों की आर्थिक गतिविधि आत्मनिर्भर न हो जाये तथा उसकी वृद्धि और विस्तार न होने लगे तब तक लगातार उन्हें सहायता देते रहना ।

g. बच्चों की देखभाल, स्वास्थ्य सेवाएं, साक्षरता, कानूनी शिक्षा उपलब्ध कराने वाले सहायक ढाँचे बनाना ।

h. महिला कामगारों के संगठन तथा यूनियनें बनाना ।

सूचक:

I. स्त्रियों की आमदनी तथा घरेलू आमदनी में उनके योगदान में, साफ दिखाई देने वाली तथा मापी जा सकने वाली वृद्धि ।

II. स्त्रियों में अपने आर्थिक योगदान तथा उत्पादक व कामगार के रूप में अपनी ताकत के प्रति जागृति । बढ़ी हुई आमदनी के फलस्वरूप उनके स्वास्थ्य और खाने-पीने में सुधार ।

III. स्त्रियाँ न केवल कर्ज सुविधाएँ पा सकें बल्कि उनका नियंत्रण भी उनके हाथ में हो, विशेष तौर पर स्त्रियों की बैंकिग व्यवस्था चालू की जानी चाहिए ओर ऐसे उदाहरण उपलब्ध हैं ।

IV. कुछ उदाहरणों में स्त्रियाँ सामान बिक्री करने, सौदे करने और मोलभाव करने आदि के बारे में बेहतर समझ और योग्यता प्राप्त करें ।

V. महिलाओं में आत्मविश्वास ओर आत्म सम्मान बढ़े । जो कभी-कभी घर के भीतर और बाहर उत्पीडनशील रीति रिवाजों का सामना कर पाने में समर्थ बनें ।

VI. महिलाएं घर के भीतर और बाहर निर्णय लेने की प्रक्रिया में ज्यादा भाग लें ।

3. जागरूकता ओर संगठन द्वारा महिला सशक्तता:

नीतियाँ:

i. संगठन के स्तर पर परिवर्तनकर्त्ताओं का प्रशिक्षण ।

ii. समुदाय के स्तर पर परिवर्तनकर्त्ताओं का प्रशिक्षण ।

इसके सन्दर्भ में दो स्पष्ट नमूने सामने आते हैं:

(क) गाँव या समुदाय की एक या दो स्त्रियों का चुनाव परिवर्तनकर्त्ताओं के रूप में हो और उन्हें उनके काम के लिए कुछ भत्ता दिया जाए ।

(ख) प्रत्येक समूह से दो या अधिक स्त्रियों का नेता के रूप में चुनाव हो ।

iii. प्रत्येक गाँव, समुदाय या शहरी बस्ती में स्त्रियों का कलेक्टिव/समूह बनाया जाए ।

iv स्त्रियों द्वारा उठाए गये मुद्दों जैसे पानी की कमी, बेरोजगारी/अल्प रोजगार, कम मजदूरी, शराबखोरी, बच्चों की देखभाल, घर के अन्दर या बाहर स्त्रियों के साथ हिंसा और स्वास्थ्य समस्याओं आदि पर बातचीत, बहस और विश्लेषण के जरिए असमानता के ढाँचों को आलोचनात्मक समझ विकसित की जाए ।

v. स्त्रियों को नई सूचनाएँ/जानकारियाँ (सरकारी योजनाओं/संसाधनों, विभिन्न विभागों की कार्य प्रणालियों, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक ढाँचा, कानून, स्वास्थ्य, पर्यावरण सम्बन्धी सूचनाएँ) उपलब्ध कराई जायें । साथ ही उनकी मौजूदा समझ, कौशल और समाज में उनकी भूमिका का सम्मान किया जाए ।

vi. स्त्रियों द्वारा नए कौशल सीखे जाने में उनकी मदद की जाए (साक्षरता, बात को सही ढंग से कह पाना, विश्लेषण, योजना, हिसाब-किताब आदि) ।

vii. स्वयं अपने लिए सेवाएं गठित करने और चलाने में स्त्रियों की मदद करना । कर्ज तथा बचत, आय संवर्धन, सहकारी संघ, जमीन, गाँव का तालाब, चरागाह, भूमि, ईंधन के जंगल, पौधों / पेडों की नर्सरी आदि का साझा स्वामित्व, बच्चों की देखभाल, प्रौढ़ शिक्षा/लड़कियों के लिए अनौपचारिक शिक्षा आदि ।

viii. महिला समूहों को स्वायत्त महिला संगठनों के रूप में एकजुट होने में मदद करना । जब आवश्यक हो, इन संगठनों का अन्य संगठनों जैसे- खेतिहर/भूमिहीन मजदूर यूनियनों, झुग्गी झोपड़ी संघों, दलित संगठनों आदि के साथ सम्पर्क कराने में मदद करना ।

ix. परिवर्तन के लिए चलने वाले प्रयासों/संघर्षों में औरतों की मदद करना, साथ ही रणनीतियों तय करने में सहायक होना ।

सूचक:

I. स्त्रियाँ अपने आपको लाचार और अधीन समझने की प्रवृत्ति को छोड़कर आत्म सम्मान, आत्म विश्वास ओर समानता से भरपूर व्यक्ति के रूप में देखें ।

II. स्त्रियों की अपनी स्थितियों के बारे में समझ, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक ताकतों की जानकारी, स्वास्थ्य, पोषण प्रजनन अधिकार, कानून, साक्षरता तथा अपने चारों ओर की दुनिया के बारे में जागरूकता बहुत तेजी से बढ़े ।

III. गाँव-मोहल्ले के स्तर पर सुगठित, साफ समझ वाले औरतों के समूह, कलेक्टिव बनें तथा उन्हीं समूहों से मजबूत, बोल सकने वाली महिला नेता उभर कर सामने आएं । ये समूह तथा इनकी नेता स्थानीय स्तर पर साझे मुद्दों झोर समस्याओं पर कार्यवाही/संघर्ष करने में सक्षम हों ।

IV. औपचारिक या अनौपचारिक रूप से इन महिला समूहों के बड़े संघ/संगठन बने जो साझे मुद्दों/समस्याओं पर एक होकर संघर्ष कर सकें ।

V. महिला समूह अपनी जरूरतों के अनुसार संसाधनों, योजनाओं/सेवाओं को पाने की ताकत रखें । जैसे- स्वास्थ्य, पोषण, बच्चों की देखभाल पानी, ईंधन, चारा, कानूनी सहायता, शिक्षण सुविधा, आय संवर्धन, व्यवसायिक प्रशिक्षण आदि ।

VI. आवश्यकता हो तो स्त्रियाँ स्वयं अपने लिए सेवाएं चालू करके उनका प्रबन्ध कर सकें । जैसे- बालवाड़ी, बच्चों के लिए अनौपचारिक स्कूल, कर्ज और बचत योजना, उत्पादक/कामगार सहकारी संगठन आदि ।

VII. स्त्रियों स्वतंत्र रूप से जानकारी और शिक्षा पाने, उसका विश्लेषण करने योग्य बनें साथ ही उनकी प्रबन्ध करने ओर नीतियां बनाने की योग्यता बढ़े । इसके परिणामस्वरुप घर ओर समुदाय में स्त्रियों ज्यादा फैसले लेती हुई नजर आती हैं ।

VIII. स्त्रियाँ कई बार खुद मिलकर या अपने मर्दों के साथ सामूहिक रूप से शोषण के अनेक रूपा को चुनौती देती भी दिखाई पड़ती हैं । जैसे- न्यूनतम मजदूरी समान काम के लिए समान वेतन, जमीन या अन्य पारिवारिक सम्पत्ति का अपने नाम से स्वामित्व का अधिकार, तलाक या भगोड़ा होने को दशा में पति से गुजारा भत्ता पाने का हक आदि ।

IX. पत्नी के साथ मारपीट, बाल विवाह, बलात्कार/यौन अत्याचार से लेकर बेटे बेटियों को मिलने वाले अवसरों में भेदभाव तक के उत्पीड़नशील रिवाजों ओर हिंसा के विरूद्ध घर के अन्दर और बाहर औरतों खुलकर बोलने लगती हैं ।

X. कुछ मामलों में औरतों में बढ़ी हुई चेतना राजनैतिक रूप में सामने आती है । जैसे कि स्थानीय निकाय के चुनावों में खड़ी होना, निर्वाचित प्रतिनिधियों और सरकारी अधिकारियों से जवाबदेही मांगना आदि ।

उपसंहार के रूप में यह कहा जा सकता है कि क्षमता विकास एवं सशक्तिकरण हेतु प्रशिक्षण की सटीक रणनीति तैयार करना आवश्यक है । इसमें प्रशिक्षण आवश्यकताओं का आंकलन, इन आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्रशिक्षण की रूपरेखा तैयार करना तथा उनका प्रभावी संचालन करना सम्मिलित है । इसी सन्दर्भ में उपयुक्त प्रशिक्षण विधि का चयन भी महत्वपूर्ण है ।

किसी भी व्यक्ति, विशेषकर महिलाओं की क्षमता का विकास होने के साथ वे सशक्तिकरण की ओर बढ़ती हैं । महिला सशक्तिकरण की नीतियाँ तथा कुछ सूचक अथवा संकेतक विकसित करना भी आवश्यक है ताकि यह पता चल सके कि महिला सशक्तिकरण का क्या स्तर है ।

महिलाओं की क्षमता वृद्धि तथा सशक्तिकरण की पृष्ठभूमि तैयार हो जाने के पश्चात यह आवश्यक है कि महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों का गठन किया जाये ताकि वे उपलब्ध संसाधनों का सामूहिक रूप से उपयोग कर सकें ओर सशक्त कर सकें ।

गरीबी का महिलाओं की दशा पर प्रभाव:

भारतीय समाज का पांचवाँ हिस्सा समस्त संसाधनों के तीन चौथाई भाग पर नियंत्रण करता है वहीं 65 प्रतिशत लोगों को 25 प्रतिशत संसाधन ही हासिल है । जिसका कारण केवल भौतिकवाद, पूँजीवाद न होकर जातिगत गरीबी तथा लिंग आधारित गरीबी भी है ।

हमारा समाज जातिगत आधार पर विभाजित है एवं प्राचीन काल से संसाधनों पर नियंत्रण कुछ जाति विशेष को प्राप्त था । ग्रामीण महिलाओं की उत्पादक कार्यों जैसे कृषि व दुग्ध पालन में 85 प्रतिशत से अधिक भागीदारी होने के बावजूद उनके कार्य को मान्यता नहीं दी गई एवं इन कार्यों से सम्बन्धित निर्णयों में भी उनकी भागीदारी गौण रही ।

कृषि क्षेत्र में महिलाओं की मजदूरी पुरुषों की अपेक्षा 30 से 50 प्रतिशत तक कम है । पुरुष वर्ग का स्वामित्व पर वर्चस्व होने के कारण समस्त निर्णय उनके द्वारा लिए जाते रहे । महिलाएं महत्वपूर्ण भागीदारी के बावजूद मान्यता के अभाव में समाज में गौण स्थान पर पहुँच गई और गरीब परिवार के भीतर भी पिछड़ी और गरीब हो गई ।

शिक्षा, स्वास्थ्य व अन्य आधारभूत आवश्यकताओं तक उनकी पहुँच बाधित हो गई और लिंग आधारित भेदभाव के कारण लगातार पिछड़ती चली गई । वर्ष 1964-65 के संयुक्त राष्ट्र के अध्ययन के अनुसार दुनिया में 1860 लाख गरीब थे जिनमें 70 प्रतिशत महिलाएं थीं ।

भारतीय अर्थव्यवस्था में एक-तिहाई श्रमशक्ति महिलाएँ हैं परन्तु दुर्भाग्यवश उनके योगदान को उचित मान्यता प्राप्त नहीं है और उन्हें सीमान्त श्रमिक की परिभाषा में रखा गया है जबकि एक बड़ा वर्ग वर्ण व्यवस्था के चंगुल में फंसकर सदियों से सेवा एवं मजदूरी के कार्य करता रहा ।

धीरे-धीरे समाज में उनकी स्थिति बदतर होती गई है और उन्हें आधारभूत सुविधाएँ भी मुहैया नही है । जबकि दूसरा वर्ग जातिगत / जन्मगत आधार पर संसाधनों पर नियन्त्रण करता चला आ रहा है । फलस्वरूप विकास के बीच दायरा इतना बढ़ गया कि दूसरे पिछड़े वर्ग को संरक्षण प्रदान करने की जरूरत पड़ी ।

जातिगत गरीबी के साथ-साथ लैंगिक गरीबी के कारण भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई । प्रत्येक क्षेत्र में लगभग 80 प्रतिशत भागीदारी होने के बावजूद उन्हें वह उचित स्थान एवं मान्यता प्राप्त नहीं है और उनका स्थान गौण है ।

यह पाया जाता है जितना अधिक गरीब परिवार होगा महिलाओं की कार्य में भागीदारी भी उतनी ही अधिक होगी अर्थात गरीबी और महिलाओं की भागीदारी का सीधा सम्बन्ध है जो यह दर्शाता है कि निर्धनतम तथा परिवार के भीतर भी महिलाएँ अपने पुरुष वर्ग की अपेक्षा अधिक कठिनाइयों का सामना करती है तथा संसाधन व सुविधाओं के सम्बन्ध में अत्यधिक विपन्नता का शिकार होती है ।

भारतीय समाज में यह स्थिति अपेक्षाकृत अधिक भयावह है । पुरुषों के समान कार्य करने के बावजूद उन्हें अपेक्षाकृत विषम परिस्थितियों का सामना तथा कम मजदूरी का शिकार होना पड़ता है । पुरुष प्रधान समाज में वह शिक्षा तथा कौशल की दृष्टि से लगातार पिछड़ती चली गई है और मूल स्वास्थ्य सेवाएं भी उन्हें प्राप्त नहीं हो पाती है । परिणामस्वरूप उच्च मातृ व शिशु मृत्युदर तथा अत्यधिक खराब स्वास्थ्य दशाएँ विद्यमान है ।

सबसे बुरी स्थिति ग्रामीण ऋणग्रस्तता के मामले में देखी गई है । ऋणग्रस्तता का सबसे बुरा शिकार स्त्रियों को होना पड़ता है और अधिकतर मामलों में वे जिनसे ऋण लेती है वे साहूकार इनसे दुर्व्यवहार करते हैं और कहीं-कहीं स्त्रियाँ दुराचार का शिकार भी होती है ।

इससे पूर्व गरीबी के जिस दुष्चक्र अथवा चक्रव्यूह की बात हमने की है महिलाएँ उसकी सबसे अधिक भुक्तभोगी है । लिंगभेद के कारण स्त्रियाँ पुरुषों की अपेक्षा अधिक पीड़ित होती है चाहे वह स्वास्थ्य का या परिवार नियोजन का या शिक्षा का मामला हो ।

प्रायः कर्जा लेने के लिए स्त्रियों को ही पहल करनी होती हे चूँकि परिवार के भरण-पोषण के लिए उन्हें अधिक जिम्मेदारी वहन करनी पड़ती है । हमारे समाज में महिलाओं को पुरुषों के समान, अधिकार प्राप्त नहीं हुए हैं, जिसके कारण सम्पत्ति के स्वामित्व में उनकी भागीदारी लगभग नगण्य रही है । लैंगिक भेदभाव के कारण महिलाओं को समाज में उचित स्थान नहीं मिला है तथा भेदभाव पूर्ण परम्पराओं एवं प्रथाओं के चलते वह सम्पत्तियों एवं संसाधनों के स्वामित्व से लगातार दूर होती गई है ।

परिणामतः समाज में चाहे सम्पन्न वर्ग हो अथवा विपन्न वर्ग, दोनों वर्गों में उनकी स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई । जहाँ स्वामित्व के अभाव में उन्हें आर्थिक क्रियाकलापों मैं गौण भूमिका प्राप्त हुई वहीं उनके घरेलू क्रियाकलापों को उत्पादक क्रियाकलापों के रूप में मान्यता नहीं मिली और वह पिछड़ती चली गई ।

आर्थिक विपन्नता और सामाजिक पिछड़ेपन के कारण उन्हें अपने से सम्बन्धित सभी निर्णयों के लिए भी पुरुष वर्ग पर निर्भर होना पड़ता है । सामाजिक तथा सांस्कृतिक मान्यताएं महिला विरोधी हैं तथा पारिवारिक स्तर पर निर्णय की प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी न्यूनतम होती है ।

पारिवारिक स्तर तथा सामाजिक स्तर पर महिलाओं (कन्या भ्रूण से लेकर वृद्धा तक) के खिलाफ हिंसा बढ़ती जा रही है । हिंसा न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक, लैंगिक तथा आर्थिक रूप से दमन शोषण व वंचना बढ़ती ही जा रही है ।

हालाँकि हमारे देश में महिलाओं के हित में कई प्रगतिवादी कानून बनाए गये हैं पर सम्पूर्ण न्याय सुनिश्चित कराने के लिए लम्बी यात्रा बाकी है । हमारे संविधान के आमुख, मौलिक अधिकार, मौलिक कर्तव्यों में महिलाओं की समानता को सिद्धांत के रूप में माना गया है तथा सरकार विभिन्न योजना एवं कार्यक्रमों द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने हेतु प्रयत्नशील है ।

1963 में भी विश्व स्तर पर महिलाओं के खिलाफ सभी प्रकार के भेदभाव समाप्त करने हेतु (सी.ई.डी.ए.वी.वाय.) के प्रस्तावों को मंजूरी दे दी है तथा सरकार ‘मैक्सिको प्लान ऑफ एक्शन (1975), दि नेरोबी फारवर्ड लुकिंग स्ट्रेटीजी, दि बिजिंग डिकलेरेशन’ तथा प्लेटफार्म फॉर एक्शन एवं जेण्डर इक्वैलिटी एण्ड डेवलपमेन्ट एण्ड पीस फॉर द टवैन्टी फर्स्ट सेन्चुरी के प्रस्तावों को भी अमल में लाया गया है ।

सरकार ने अपनी राष्ट्रीय महिला नीति भी स्पष्ट कर दी है । यद्यपि विगत 25 वर्षों में पारिवारिक स्तर पर खाद्य सुरक्षा में वृद्धि, स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार तथा माताओं एवं बच्चों के स्वास्थ्य सुधार के सम्बन्ध में किए गये हस्तक्षेपों के कारण महिलाओं के स्वास्थ्य स्तर में सुधार आया है ।

महिलाओं की जीवन प्रत्याशा जो 151 में 32 वर्ष थी, 1961 में बढ़कर 30 वर्ष हो गई । बालक तथा बालिका मृत्युदर कम हुई है । मातृ मृत्यु दर में भी कमी आई है जो वर्तमान में 440 प्रति एक लाख जन्म पर है । बालिकाओं के शिक्षा स्तर में भी काफी सुधार हुआ है परन्तु जेण्डर विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि अभी भी महिला एवं पुरुषों के स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा एवं रोजगार में जेण्डर भेद है ।

महिलाओं की दशा सुधारने हेतु किए गये उपाय:

पंचवर्षीय योजनाओं पर विहंगम दृष्टि डालने से यह स्पष्ट होगा कि गरीबी के कारण महिलाओं की खराब दशा को सुधारने के लिए अनेक उपाय किए गये । साथ ही निर्धनतम परिवारों तथा महिलाओं को गरीबी की रेखा से ऊपर उठाने के कार्य को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई ।

इसी रणनीति के तहत महिला एवं बाल विकास के अनेक कार्यक्रम चलाए गये । प्रारम्भिक काल में महिलाओं के सम्बन्ध में कल्याणकारी दृष्टिकोण अपनाया गया और उनके लिए कार्य के अनुकूल वातावरण तैयार करने, सामाजिक सुरक्षा तथा पुरुषों के समान वेतन तथा मजदूरी दिलाने के लिए प्रयास किए गये ।

तीसरी पंचवर्षीय योजना उपरान्त उन्हें कल्याणकारी कार्यक्रमों जैसे मातृत्व लाभ, कौशल सुधार आदि कार्यक्रमों से जोड़ा गया जिससे वह सक्षम होकर लाभान्वित हो सके । 2 अक्टूबर 1975 को समन्वित बाल विकास कार्यक्रम की शुरुआत की गई जिसमें बाल विकास की सर्वांगीण रूपरेखा बनाकर महिलाओं एवं बच्चों को लाभान्वित करने का कार्यक्रम लागू किया गया ।

छठी पंचवर्षीय योजना में महिलाओं के प्रति विकास का दृष्टिकोण अपनाया गया और इसके फलस्वरूप केन्द्र में महिला एवं बाल विकास विभाग का सृजन किया गया एवं राज्यों में महिला एवं बाल विकास विभाग गठित किए गये ।

महिलाओं को सशक्त बनाने तथा उन्हें उद्यमिता के माध्यम से विकास की धारा से जोड़ने के लिए महिला विकास निगमों की स्थापना की गई । उन्हें बेहतर सुविधाएँ प्रदान करने के लिए संगठित प्रयास किए गये एवं कामकाजी महिलाओं के लिए आवासों बच्चों के लिए बालवाड़ियों का प्रावधान किया गया । सातवीं पंचवर्षीय योजना में राष्ट्रीय महिला कोष का गठन किया गया जिससे अधिकाधिक महिलाओं को वित्त उपलब्ध कराकर उन्हें आर्थिक कार्यक्रमों से जोड़ा जा सके ।

यद्यपि महिला सशक्तीकरण की अवधारणा सातवीं पंचवर्षीय योजना में रखी जा चुकी थी परन्तु आठवीं व नवीं पंचवर्षीय योजना में इसे अत्यन्त बल मिला एवं अनेक परियोजनाएं जैसे स्वशक्ति, किशोरी शक्ति, बालिका समृद्धि, इन्दिरा महिला योजना आदि प्रारम्भ हुई परन्तु महिला सशक्तीकरण की दिशा में महत्वपूर्ण कदम था संविधान में 73वां व 74वां संशोधन, जिसके माध्यम से उन्हें पंचायत तथा नगर पंचायतों में आरक्षण के माध्यम से प्रतिनिधित्व का अवसर मिला ।

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उसके उपरान्त विकास की प्रक्रिया में उनकी भागीदारी निश्चित ही सुदृढ़ हुई एवं महिला विकासोन्मुखी वातावरण तैयार करने में उनकी अहम भूमिका उभरी । पंचायती राज संस्थाओं की बढ़ती भागीदारी के साथ-साथ महिला नेतृत्व को भी अवसर प्राप्त हुआ है कि वह कल्याणकारी व विकास योजनाओं के सही क्रियान्वयन द्वारा अपना विकास सुनिश्चित कर सके तथा अभी तक निरन्तर प्रयासों के बावजूद विकास की मुख्य धारा से बनी दूरी को मिटा सके ।

गरीबी उन्मूलन तथा महिला विकास कार्यक्रमों के अन्तर्गत शामिल किए गये अनेकानेक हस्तक्षेपों का विश्लेषण करने से अनेक प्रश्न उपजते हैं ? जैसे इन कार्यक्रमों का पूरा लाभ लाक्षित वर्ग के लोग क्यों नहीं उठा पा रहे हैं ?

इनकी क्षमता विकास के लिए क्या उपाय किए जाये ताकि वे सृजित किए जा रहे अवसरों का सही दोहन कर सके ? गरीबी उन्मूलन के लिए किये गए वर्तमान प्रयासों के अतिरिक्त किन प्रयासों की आवश्यकता है ताकि गरीबी की समस्या का स्थायी हल निकाला जा सके ?

गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में लोगों की सक्रिय भागीदारी को कैसे बढ़ाया जाए और कैसे इन कार्यक्रमों से अधिकाधिक लोगों को लाभान्वित किया जा सके । हमारे नीति विशेषज्ञों को गरीबी उन्मूलन के लिए ऊपर से पूर्व निर्धारित प्रयासों पर अधिक विश्वास था ।

उनका मत था कि अर्थव्यवस्था के तेज विकास के फलस्वरूप सर्वांगीण विकास सम्भव होगा ओर उनका प्रभाव निचले स्तर पर भी होगा तथा गरीबी पर प्रभावी रोकथाम सम्भव हो सकेगी । लेकिन वास्तविक अनुभव बिल्कुल भिन्न है और पाया गया है कि आर्थिक विकास के लाभों से गरीब तबका पूर्णत: वंचित रहा है । यहाँ तक कि गरीबों पर इसके प्रतिकूल प्रभाव भी हुए हैं और वह अपेक्षाकृत ओर गरीब हो गए हैं ।

अर्थव्यवस्था के तेज विकास के लाभ पहले से ही सम्पन्न लोगों तक ही सीमित रहे और पहले से विपन्न वर्ग जो कि क्षमताहीन था इन लाभों से वंचित रहा । नतीजतन अमीर व गरीब अर्थात सम्पन्न व विपन्न वर्ग के मध्य की खाई तो बढ़ी ही, बल्कि हांसिये पर खड़ा वर्ग भी गरीब की श्रेणी में आ गया ।

अनुभव किया गया है कि पूर्व निर्धारित कार्यक्रमों के स्थान पर सूक्ष्म स्तर अर्थात गाँव स्तर पर निर्धन वर्ग के लोगों द्वारा स्वयं चुने गए कार्यक्रम चलाए जाएं जिससे गरीबों को विकास की प्रक्रिया का सक्रिय भागीदार बनाया जा सके और उन्हें लाभान्वित किया जा सके ।

उपरोक्त कार्यक्रमों की विवेचना करने पर यह भी पाया गया कि जब तक नीति निर्माण एवं क्रियान्वयन में ‘विपन्न को प्राथमिकता’ नहीं दी जाती और वह स्वयं उसका हिस्सेदार (स्टेकहोल्डर) नहीं बनता ये कार्यक्रम पूर्ण रूप से सफल नहीं हो सकते ।

पिछले अनुभव से यह भी स्पष्ट है कि- गरीब वर्ग विशेषकर महिलाएं अत्यन्त असंगठित है जिसके परिणामस्वरूप ये विकास कार्यक्रमों का यथोचित लाभ नहीं उठा सके । उसमें पर्याप्त क्षमता भी नहीं है कि वह अकेले तेजी से बदलती अर्थव्यवस्था में अपने को एक आर्थिक इकाई के रूप में स्थापित कर सकें ।

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इससे यह सिद्ध हो गया कि यदि गरीब अपने को समूहों में संगठित कर लें तो वे अपनी संगठित शक्ति तथा क्षमता के बलबूते पर आर्थिक क्रियाकलापों में आने वाली समस्याओं का सामूहिक रूप से निराकरण कर सकेंगे ।

इसी पृष्ठभूमि में बीसवीं सदी के अन्तिम दशक में गरीबी उन्मूलन के लिए किये जा रहे प्रयासों से ‘स्वयं सहायता’ की अवधारणा को बल मिला और अनुभव किया गया कि सर्वप्रथम गरीबों के दृष्टिकोण में परिवर्तन की आवश्यकता है ताकि उनमें आत्मविश्वास पैदा हो कि वे अपनी स्थिति में परिवर्तन ला सकते हैं ।

उन्हें गरीबी के चक्रव्यूह से निकालने के लिए आवश्यक है कि उनमें अवसरों का उचित लाभ उठा सकने की क्षमता का विकास किया जाए एवं आभास दिलाया जाए कि संगठित होकर स्वयं सहायता के माध्यम से वे अपना विकास स्वयं सुनिश्चित कर सकते हैं ।

इस दिशा में किए गये प्रयासों से साबित हुआ है कि सूक्ष्म स्तर पर नियोजन कर सर्वप्रथम उनमें अपनी प्राथमिकता के अनुरूप विकास कार्यक्रमों की रूपरेखा निर्धारित करने हेतु अभिप्रेरित किया जाए जिनका क्रियान्वयन समूह के माध्यम से वे स्वयं करें ।

इस प्रकार यह वर्ग भी विकास का एक अंग बनकर अर्थव्यवस्था में अपेक्षाकृत अधिक योगदान कर सकता है तथा उपलब्ध सीमित संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग सुनिश्चित किया जा सकता है ।

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