पश्चिम एशिया की उलझती गुत्थी पर निबंध | Essay on Unsolved Problems of West Asia in Hindi!

समकालीन विश्व राजनीति में पश्चिम एशिया एक ऐसे क्षेत्र के तौर पर कुख्यात हो चुका है जहां केवल आंतक, अशांति और अराजकता का बोलबाला है । दूसरे विश्व युद्ध के बाद से ही मिडिल ईस्ट या पश्चिम एशिया कई छोटे बड़े युद्ध और अनगिनत हिंसक झगड़े झेल चुका है ।

हाल ही में फतह और हमास द्वारा फिलिस्तीन के अलग-अलग इलाकों पर कब्जा करने के बाद तो पश्चिम एशिया का सामरिक वातावरण और उलझ गया है । अगर आतंक के खिलाफ विश्वव्यापी जग की बात करें तो वर्तमान हालात यही इशारा कर रहे हैं कि अगर अमेरिका यह जंग हार नहीं रहा तो जीत भी उससे कोसों दूर है । पूरा पश्चिम एशिया समस्याग्रस्त है और अमेरिकी विदेश नीति के पास इन समस्याओं से जूझने के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं है ।

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दरअसल इराक, इजरायल की कई अरब देशों से अनबन है, अफगानिस्तान, ईरान, सीरिया और पाकिस्तान में होने वाली घटनाए एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं, क्योंकि सभी के तार एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं । फिलहाल सबसे विकट समस्या इराक को लेकर है । इराक पर हुए अमेरिकी हमलों को सात साल से ज्यादा का समय गुजर चुका है ।

लेकिन वहाँ अभी तक शांति कायम नहीं की जा सकी है । रोजमर्रा के शिया-सुन्नी झगड़ों और अमेरिकी आधिपत्य के खिलाफ जिहादी हिंसा ने इराक को जर्जर बना दिया है । दोनों प्रमुख सम्प्रदायों को समान रूप से स्वीकार्य एक राजनीतिक व्यवस्था अभी नहीं पनप पाई है ।

दरअसल इराक को शिया, सुन्नी और कुर्द इलाकों में बाँटने की केवल औपचारिक घोषणा होना ही शेष है । अमेरिका के लिए गले की फ्रांस बन चुका इराक दुनिया भर में जिहादियों के लिए प्रशिक्षण केंद्र में तब्दील हो चुका है । सितम्बर 2010 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ऑपरेशन ‘इराकी फ्रीडम’ खत्म होने की घोषणा की है । उाब वहाँ स्थिति और बिगड सकती है । आत्मघाती हमलों में बेगुनाह इराकियों का मरना जारी है । अलकायदा दिन-प्रतिदिन अपनी ताकत में इजाफा कर रहा है । कट्‌टरपंथियों की फौज खड़ी हो रही है ।

इराक से जुड़ी समस्या ईरान की है । इराक में शियाओं के बढ़ते प्रभाव का इस्तेमाल ईरान ने अपनी सामरिक क्षमता बढ़ाने के लिए किया है । अमेरिका लगातार यह आरोप लगा रहा है कि इराक के शिया आतंकवादियों को हिंसा के लिए भड़काने के पीछे ईरान का दिमाग है । शिया होने के कारण ईरान की सीरिया और लेबनान के कट्‌टरपंथी संगठन हिजबुल्ला से भी करीबी रिश्ते हैं ।

अमेरिकी समीक्षक इस मिडिल ईस्ट को ‘शिया धुरी’ कहकर पुकारते हैं । फिलिस्तीन के सगठन हमास से भी ईरान के मधुर सबध हैं । अमेरिका पश्चिमी एशिया में ईरान की गतिविधियों को खतरे की घंटी मानता है । इसके अलावा ईरान परमाणु कार्यक्रम को भी अमेरिका एक खतरे के रूप में देखता है । इजरायल और ईरान के बीच भी ठनी हुई है । इजरायल काफी समय से ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमला करने के लिए उतावला हो रहा है । लेकिन अमेरिका से हरी झडी नहीं मिलने के कारण फिलहाल चुप है ।

अमेरिकी प्रशासन जानता है कि अगर ‘नियोकॉन’ लॉबी के दबाव में ईरान में भी तख्तापलट की कोशिश की गयी तो भड़की हिंसा से इराक से लेकर पाकिस्तान तक मुस्लिम बाहुल्य इलाके को अराजकता का शिकार बनते देर नहीं लगेगी । ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद भी इजरायल और अमेरिका के खिलाफ बयानबाजी करने से नहीं चुकते । वहीं जून 2007 के आरंभ में अमेरिका ने पहली बार ईरान पर तालिबान से साठ-गांठ का आरोप जड़ दिया ।

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9/11 के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया था । तालिबान को एक बार तो उखाड़ दिया गया और अमेरिका ने अपने चहेते हामिद करजई को राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठा दिया, लेकिन अफगान सरकार और वहां की संस्थाएं स्थिरता बहाल करने में नकारा साबित हुई है । नशीले पदार्थों की खेती पर रोक नहीं लग पाई है ।

अमेरिकी फौजों को पुन: संगठित हो रहे तालिबान से जूझने में एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड रहा है ।

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यही नहीं अरब के कई आतंकवादियों ने वापस अफगानिस्तान का रूख कर लिया है । हालांकि भौगोलिक रूप से पाकिस्तान पश्चिम एशिया में शामिल नहीं है, लेकिन कट्‌टर मुस्लिम देश और कथित ‘इस्लामी बम’ धारक होने के कारण उसे ग्रेटर मिडिल ईस्ट (वृहतर पश्चिम एशिया) का हिस्सा माना जाता है ।

अगर यह कहा जाये कि इजरायल और फिलिस्तीन की रंजिश ही पिछले पांच दशक से पश्चिम एशिया की अस्थिरता के लिए जिम्मेदार है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । अमेरिका का पलड़ा हमेशा इजरायल के पक्ष में झुका रहता है, जिसके कारण फिलिस्तीन राष्ट्र के निर्माण का मार्ग प्रशस्त नहीं हो पाया है ।

इन दिनों फिलिस्तीन में चल रही आंतरिक कलह का अल्पकालिक फायदा अवश्य इजरायल को होगा, क्योंकि फिलिस्तीन की आजादी की मांग की आवाज ठंडी पड़ जायेगी । यह मानना भूल होगी कि फतह के नेता महमूद अब्दास की तरफदारी करने से हमास या फिलिस्तीनी राष्ट्र की माग को दबाया जा सकेगा ।

यही नहीं इजरायल ने लेबनान का संगठन हिजबुल्ला का सफाया करने के लिए एक सशस्त्र अभियान छेड़ा था, जिसमें उलटे इजरायल को ही मुंह की खानी पड़ी । ईरान और सीरिया पर यह आरोप लगाए गये थे कि उन्होंने हिजबुल्ला को चोरी छिपे मिसाइलें मुहैया कराई थी, जिसका इस्तेमाल उसने इजरायल के खिलाफ किया । जिहादी को अलगाववाद के एक प्रभावी हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है । इसके लिए बहुत हद तक अमेरिकी नीतियां जिम्मेदार हैं ।

लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ब्रिटेन को अरब देशों में खास पसद नहीं किया जाता । इराक युद्ध में ब्रिटेन ने बुश को जबरदस्त समर्थन दिया था, और वर्ष 2007 में लेबनान युद्ध में तुरन्त संघर्ष विराम के लिए उसने साफ इनकार कर दिया था । दरअसल एशिया की कलह का स्थायी समाधान करने की बजाय अमेरिका की रुचि केवल अपने अल्पकालिक सामरिक हितों की पूर्ति करने में है ।

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