List of popular Hindi Stories for School Students!


Content:

  1. वानर का चातुर्य |
  2. आपसी कलह का परिणाम |
  3. आजमाए हुए को आजमाना क्या ?
  4. वेश-भूषा बदलने से कुल नहीं बदलते |
  5. गीदड़, गीदड़ ही रहता है |
  6. स्त्री का विश्वासधात |
  7. स्त्री-भक्त राजा |
  8. गधों की मूर्खता |
  9. घर का न घाट का |
  10. घमंडी का सिर नीचा |

Hindi Story # 1 (Kahaniya)

वानर का चातुर्य |

एक विशाल सरोवर के तट पर एक जामुन का वृक्ष था । उस वृक्ष पर रक्तमुख नाम का एक बंदर रहता था । एक दिन करालमुख नाम का एक मगर सरोवर से निकलकर उस वृक्ष के नीचे आया और तट के की कोमल रेत पर बैठ गया ।

बंदर वृक्ष पर बैठा जामुन खा रहा था । मगर को देखकर उसने कहा : ”श्रीमंत ! आप इस समय मेरे अतिथि हैं । हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि भोजन के समय जो व्यक्ति अपने घर पर आए उसे अतिथि देव मानकर उसका स्वागत-सत्कार करना चाहिए ।

इसलिए यह फल मैं आपकी सेवा में उपस्थित करता हूं ।”  यह कहते हुए बंदर ने अच्छे-अच्छे जामुन मगर को खाने को दिए । मगर को जामुन बहुत स्वादिष्ट लगे । उसने पेटभर जामुन खाए । फिर बंदर के साथ वार्तालाप करता रहा ।

शाम हुई तो वह अपने निवास पर लौट गया । तब से उन दोनों की मित्रता हो गई । मगर नित्य ही वहां आने लगा । बंदर जामुनों से उसका स्वागत सत्कार करता । दिनभर दोनों में मैत्रीपूर्ण वार्तालाप होता । शाम होते ही दोनों अपने-अपने ठिकानों पर चले जाते ।

एक दिन बंदर ने मगर की पत्नी के लिए भी मीठे-मीठे जामुन भेंट किए । मगर-पत्नी को भी जामुन बहुत स्वादिष्ट लगे । उसने मगर से पूछा : ”ये अमृत के समान मीठे जामुन आप कहां से लाए हैं ?” मगर ने कहा : ”सरोवर किनारे रक्तमुख नाम का बंदर मेरा मित्र है ।

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वही मुझको ऐसे मीठे-मीठे जामुन खाने को देता है ।” यह सुनकर उसकी पत्नी बोली : ”जो वानर नित्य-प्रति ऐसे मीठे फल खाता है उसका कलेजा भी फलों के समान ही मीठा होगा । यदि मुझे अपनी पत्नी समझते हो तो उसका कलेजा लाकर दो ।”

पत्नी की बात सुनकर मगर को बहुत दुख हुआ । उसने कहा : ”यह तुम कैसी बातें करती हो ? वह बंदर मेरा परम मित्र है । मैंने उसे भाई मान लिया है । अपने भाई से भी कहीं विश्वासघात किया जाता है ? तुम अपना यह हठ त्याग दो ।”

मगर की पत्नी ने झुंजलाते हुए पूछा : “एक बंदर तुम्हारा भाई कैसे हो गया ? वह  भूमि और वृक्षों पर विचरण करने वाला प्राणी है और तुम जल के जीव हो ।” पत्नी की बात सुनकर मगर ने उसे समझाते हुए कहा : ”भाई दो तरह के होते हैं ।

एक तो वह जो मां की कोख से जन्म लेता है, वह सगा भाई कहलाता है । दूसरा अपनी वाणी द्वारा बनाया जाता है । वह मुंहबोला भाई सगे भाई से भी श्रेष्ठ माना जाता है ।” दोनों में वाद-विवाद होने लगा । मगर की पत्नी उस पर कई तरह के आक्षेप लगाने लगी ।

उसकी एक ही रट थी या तो तुम मुझको उस बंदर का कलेजा लाकर दो नहीं तो मैं आमरण अनशन करके अपना जीवन समाप्त कर लूंगी । पत्नी की इस धमकी ने मगर को दुविधा में डाल दिया । दूसरे दिन वह दुखी मन से बंदर के पास पहुंचा ।

बंदर ने उसे उदास देखकर पूछा : ”मित्र, क्या बात है ? आज तुम्हारा चेहरा कुम्हलाया हुआ क्यों है ? कुशल तो हो न ?” मगर ने कहा : ”कुशलता नहीं है मित्र ! आज तुम्हारी भाभी के साथ मेरा जमकर झगड़ा हुआ है । वह कहने लगी कि तुम कैसे निर्मोही हो जो अपने मित्र को घर लाकर उसका स्वागत-सत्कार भी नहीं करते ।

इस कृतप्नता के पाप से तुम्हें परलोक में भी छुटकारा नहीं मिलेगा । उसका कहना है कि यदि आज मैं तुम्हें अपने घर नहीं ले गया तो वह भूखी रहकर अपने प्राण त्याग देगी ।” मगर की बात सुनकर बंदर ने कहा : ”मित्र ! यदि ऐसी ही बात है तो मैं तुम्हारे यहां चलने को तैयार हूं ।

किंतु मैं तो भूमि पर ही चल सकता हूं । जल में कैसे जाऊंगा ?” मगर बोला : ”उसका तो एक सहज उपाय है । तुम मेरी पीठ पर चढ़ जाओ मैं तुम्हें सकुशल अपने घर ले चलूंगा ।” वैसा ही किया गया । बंदर मगर की पीठ पर बैठ गया ।

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दोनों जब सरोवर के बीचों बीच गहरे जल में पहुंचे तो बंदर ने कहा : ”मित्र जरा धीरे-धीरे चलो । मैं पानी की लहरों से बिकुल भीग गया हूं । मुझे बहुत ठंड लग रही है ।” मगर ने सोचा, ‘अब यह बंदर बचने वाला तो है नहीं, क्यों न इससे अपने मन का भेद खोल दिया जाए ताकि यह मरने से पहले अपने ईष्ट देवता को याद कर ले ।

यही सोचकर उसने बंदर से कहा : ”मित्र ! अपनी पत्नी की बातों का विश्वास दिलाकर वास्तव में मैं तुम्हें यहां मारने के लिए लाया हूं । अत: तुम चाहो तो अपने ईष्ट देवता को याद कर लो ।” बंदर बोला : ”किंतु मित्र. मेरा अपराध क्या है जो तुम मुझे मारना चाहते हो ? मैंने तुम्हारा या तुम्हारी पत्नी का क्या बिगाड़ा है ?”

मगर बोला : ”बात यह है कि मेरी पत्नी तुम्हारे मीठे कलेजे को खाना चाहती है । उसी के आग्रह करने पर मैं तुम्हें बहाना बनाकर यहां लाया हूं ।”  उसकी बात सुनकर नीतिवाद बंदर तनिक भी विचलित नहीं हुआ । उसने बड़े धैर्य से मुस्कराते हुए कहा : ”बस मित्र ! यदि इतनी-सी ही बात थी तो तुमने मुझे वहीं क्यों न कह दिया ? मेरा कलेजा तो वहीं वृक्ष के एक कोटर में हमेशा रखा रहता है ।

तुम कहते तो मैं उसी समय निकालकर तुम्हें दे देता । मैं भाभी को नाराज नहीं करना चाहता । चलो मुझे वापस तट पर ले चलो । मैं तुम्हें वृक्ष के कोटर से अपना कलेजा निकाल कर दूंगा ।” मगर उसकी बातों में आ गया । वह खुशी-खुशी बंदर को वापस तट पर ले आया ।

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तट पर पहुंचते ही बंदर ने छलांग लगाई और वृक्ष के ऊपर चढ़ गया । उसे मानो नया जीवन मिल गया था । नीचे से मगर ने आवाज लगाई : ”मित्र लाओ अब मुझे अपना कलेजा दे दो । तुम्हारी भाभी प्रतीक्षा कर रही होगी ।” बंदर ने हंसते हुए उत्तर दिया : ”मूर्ख ! विश्वासघाती ! क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि किसी के शरीर में दो कलेजे नहीं होते ।

कुशलता चाहते हो तो यहां से चले जाओ और फिर कभी यहां मत आना ।” मगर बहुत लज्जित हुआ । वह सोचने लगा कि मैंने अपने मन का भेद बताकर अच्छा नहीं किया । वह फिर से बंदर का विश्वास पाने के लिए बोला : ”मित्र तुम तो नाराज हो गए । मैंने तो यह बात सिर्फ हंसी-हंसी में कही थी । वास्तव में तुम्हारी भाभी बड़ी आतुरता से तुम्हारे स्वागत की तैयारी में जुटी है ।”

बंदर बोला : ”दुष्ट ! अब मैं तेरे धोखे में नहीं आने वाला । मैं तेरे अभिप्राय को अच्छी तरह समझ चुका हूं । शास्त्रों में भी कहा गया है कि भूखे व्यक्ति का भरोसा नहीं करना चाहिए । ओछे लोगों के दिल में दया नहीं होती । एक बार विश्वासघात करने के बाद मैं तेरा विश्वास उसी तरह नहीं करूंगा जिस तरह गंगदत्त नाम के मेंढक ने प्रियदर्शन नाम के सर्प का विश्वास नहीं किया था ।”


Hindi Story # 2 (Kahaniya)

आपसी कलह का परिणाम |

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किसी कुएं में गंगदत्त नाम का मेंढक रहता था । वह मेंढक दल का सरदार था । अपने बंधु-बांधवों के व्यवहारों से खिन्न होकर वह एक दिन कुएं से बाहर आकर सोचने लगा कि किस तरह उनके बुरे व्यवहार का बदला ले ।

यह सोचते-सोचते वह एक सर्प के द्वार पर जा पहुंचा । उस बिल में एक काला नाग रहता था । उसे देखकर उसके मन में यह विचार उठा कि इस नाग द्वारा अपनी बिरादरी के मेंढकों का नाश करवा दे । शत्रु से शत्रु का वध करवाना ही नीति है । कांटे से ही कांटा निकाला जाता है ।

यह सोचकर वह नाग के बिल के पास गया । बिल में रहने वाले नाग का नाम था प्रियदर्शन । गंगदत्त उसे पुकारने लगा । प्रियदर्शन ने सोचा यह सांप की आवाज नहीं है तब कौन मुझे बुला रहा है ?  किसी के कुल-शील से परिचय पाए बिना उसके संग नहीं जाना चाहिए ।

कहीं कोई सपेरा ही उसे बुलाकर पकडूने के लिए न आया हो । अत: अपने बिल के अंदर से ही उसने आवाज दी : ”कौन है जो मुझे बुला रहा है ?” गंगदत्त ने कहा : ”मैं गंगदत्त मेंढक हूं । तेरे द्वार पर तुझसे मैत्री करने आया हूं ।”

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यह सुनकर नाग बोला : ”यह बात विश्वास योग्य नहीं हो सकती । आग और घास में मैत्री नहीं हो सकती । भोजन-भोग्य में प्रेम कैसा ? वधिक और वध्य में स्वप्न में भी मित्रता असंभव है ।” नाग की बात सुनकर गंगदत्त ने उत्तर दिया : ”तेरा कहना सच है ।

हम परस्पर स्वभाव से बैरी हैं किंतु मैं अपने स्वजनों से अपमानित होकर प्रतिकार की भावना से तेरे पास आया हूं ।” प्रियदर्शन बोला : ”तू कहां रहता है ?” गंगदत्त बोला : ”मैं कुएं में रहता हूं ।” प्रियदर्शन ने कहा : ”पत्थर से चुने कुएं में मेरा प्रवेश कैसे होगा ? प्रवेश होने के बाद मैं वहां बिल कैसे बनाऊंगा ?” गंगदत्त बोला : ”इसका प्रबंध मैं कर दूंगा । वहां पहले ही बिल बना हुआ है । वहां बैठकर तू बिना कष्ट मेंढकों का नाश कर सकता है ।”

प्रियदर्शन काफी बूढ़ा हो चला था । उसने सोचा बुढापे में बिना कष्ट भोजन मिलने का अवसर नहीं छोड़ना चाहिए । यह सोचकर वह गंगदत्त के पीछे-पीछे कुएं में उतर गया । वहां उसने धीरे-धीरे गंगदत्त के वे सारे शत्रु भाई-बंधु खा डाले, जिनसे गगंदत्त का बैर था ।

जब एक-एक करके सारे मेंढक समाप्त हो गए तो प्रियदर्शन ने कहा : ”मित्र, तेरे शत्रुओं का नाश तो मैंने कर दिया । अब कोई भी ऐसा मेंढक शेष नहीं रहा जो तेरा शत्रु हो । मेरा पेट अब कैसे भरेगा ? तू ही मुझे यहां लाया था अब तू ही मेरे भोजन की व्यवस्था कर ।”

गंगदत्त बोला : ”प्रियदर्शन ! अब मैं तुझे तेरे बिल तक पहुंचा देता हूं । जिस मार्ग से हम आए थे उसी मार्ग से बाहर निकल चलते हैं ।” यह सुनकर प्रियदर्शन बोला:  ”यह कैसे संभव हो सकता है उस बिल पर तो अब दूसरे सांप का अधिकार हो चुका होगा ।” गंगदत्त बोला : ”फिर क्या किया जाए ?”

प्रियदर्शन ने कहा : ”अभी तक तूने मुझे अपने शत्रु मेंढकों को भोजन के लिए दिया है, अब दूसरे मेंढकों में से एक-एक करके मुझे देता जा अन्यथा मैं सबको एक ही बार में खा जाऊंगा ।” गंगदत्त अब अपने किए पर पछताने लगा । जो अपने से अधिक बलशाली शत्रु को मित्र बनाता है उसकी भी यही दशा होती है ।

बहुत सोचने के बाद उसने निश्चय किया कि वह शेष रह गए मेंढकों में से एक-एक को सांप का भोजन बनाता रहेगा । सर्वनाश के अवसर पर आधे को बचा लेने में ही बुद्धिमानी है । सर्वस्व-हरण के समय अल्पदान करना ही दूरदर्शिता है । दूसरे दिन से सांप ने दूसरे मेंढकों को भी खाना शुरू कर दिया ।

वे भी शीघ्र ही समाप्त हो गए । अंत में एक दिन सांप ने गंगदत्त के पुत्र यमुना दत्त को भी खा लिया । गंगदत्त अपने पुत्र की हत्या पर रो उठा । उसे रोता देखकर उसकी पत्नी ने कहा : ”अब रोने से क्या होगा ? अपने जातीय भाईयों का नाश करने वाला स्वयं नष्ट हो जाता है । जब अपने ही नहीं रहेंगे तो कौन हमारी रक्षा करेगा ?”

अगले दिन प्रियदर्शन ने गंगदत्त को बुलाकर फिर कहा : ”मैं भूखा हूं मेंढक तो सभी समाप्त हो गए । अब तू मेरे भोजन का कोई और प्रबंध कर ।” गंगदत्त को एक उपाय सूझ गया । उसने कुछ देर विचार करने के बाद कहा:  ”प्रियदर्शन तू चिंता मत कर यहां के मेंढक समाप्त हो गए तो क्या हुआ ।

अब मैं दूसरे कुओं से मेंढकों को बुलाकर तेरे पास लाता हूं तू मेरी प्रतीक्षा करना ।” इतना कहकर वह कुएं से बाहर निकल आया । जब कई दिन बीत गए और गंगदत्त वापस न लौटा तो भूख से व्याकुल सर्प ने एक गोह की सहायता लेने का निश्चय किया । वह गोह उसके बिल के समीप ही रहती थी ।

उसने गोह से कहा : ”बहन ! तुम मेरी सहायता करो । बाहर जाकर गंगदत्त को खोजो और उसे यहां आने को कहो । उससे कहना कि मैंने धर्म को साक्षी मानकर उसे अपना मित्र बनाया है । मैं उसे कोई हानि नहीं पहुंचाऊंगा । यदि दूसरे मेंढक नहीं आते तो न सही वह स्वयं ही मेरे पास चला आए । उसके बिना यहां मेरा मन नहीं लगता ।”

गोह ने बाहर जाकर गंगदत्त को ढूंढ निकाला और भेंट होने पर उससे बोली:  ”गंगदत्त तुम्हारा मित्र प्रियदर्शन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है । चलो, उसके पास चल कर उसके मन को धीरज बंधाओ । तुम्हारे वियोग में वह बेचैन हो रहा है ।”

गोह की बात सुनकर गंगदत्त ने कहा: ”बहन ! अब मैं कभी उसके पास नहीं लौटूंगा । प्रियदर्शन से कहना कि गंगदत्त एक बार धोखा खा चुका है फिर से धोखा खाने का उसका कोई इरादा नहीं है ।  वह भूखा है और भूखे व्यक्ति पर तो भरोसा करना ही नहीं चाहिए । वह नीच भी है । नीच लोग स्वभावत: कठोर ही होते हैं ।”

इतना कहकर गंगदत्त वहां से चला गया । यह कथा सुनाकर रक्तमुख बंदर ने मगरमच्छ से कहा : ”मैं भी गादत्त की तरह तुम्हारे साथ वापस नहीं जाऊंगा ।” मगरमच्छ बोला : ”मित्र यह उचित नहीं है मैं तेरा सत्कार करके कृतप्नता का प्रायश्चित्त करना चाहता हूं ।

यदि तू मेरे साथ नहीं आएगा तो मैं यहीं अपने प्राण त्याग दूंगा ।” मगर की बात सुनकर रक्तमुख बोला : ”मूर्ख ! क्या मैं लम्बकर्ण जैसा मूर्ख हूं जो स्वयं मौत के मुख में जा पड़ेगा । वह गधा शेर को देखकर वापस चला गया था लेकिन फिर उसके पास आ गया । मैं ऐसा अंधा नहीं हूं ।”


Hindi Story # 3 (Kahaniya)

आजमाए हुए को आजमाना क्या ?

किसी जंगल में करालकेसर नाम का एक शेर रहता था । उसके साथ घूसरक नाम का एक गीदड़ भी सेवाकार्य के लिए रहा करता था । शेर को एक बार एक पागल हाथी से लड़ना पड़ा था जिससे उसकी एक टांग टूट गई थी ।

उसके लिए एक कदम चलना भी कठिन हो गया था । जंगल में पशुओं का शिकार करना उसकी शक्ति से बाहर था । शिकार के बिना पेट नहीं भरता था । शेर और गीदड दोनों भूख से व्याकुल थे । एक दिन शेर ने गीदड़ से कहा : ”तू किसी शिकार की खोज करके यहां ले आ, मैं पास में आए पशु को मार डालूंगा फिर हम दोनों भरपेट खाना खाएंगे ।”

गीदड़ शिकार की खोज में पास के गांव में गया । वहां उसने तालाब के किनारे लम्बकर्ण नाम के गधे को हरी-हरी घास खाते देखा । वह उसके पास जाकर बोला : ”मामा ! नमस्कार ! बड़े दिनों बाद दिखाई दिए हो । इतने दुबले कैसे हो गए ?”

गधे ने कहा : ”क्या कहूं । मेरा मालिक बड़ी निर्दयता से मेरी पीठ पर बोझा रख देता है और एक कदम भी ढीला पड़ने पर लाठियों से मेरी पिटाई करता है । घास मुट्‌ठी भर भी नहीं देता । स्वयं मुझे यहां आकर मिट्‌टी मिले घास के तिनके खाने पड़ते हैं । इसलिए दुबला होता जा रहा हूं ।”

गीदड़ बोला : ”मामा ! अगर यह बात है तो तुझे एक जगह ऐसी बतलाता हूं जहां मरकत मणि के समान स्वच्छ हरी घास के मैदान हैं निर्मल जल का जलाशय भी पास ही है । तुम मेरे साथ वहां चलो और हंसते-गाते जीवन व्यतीत करो ।”

लम्बकर्ण ने कहा : ”बात तो तुम्हारी ठीक है । लेकिन मैं देहाती पशु हूं वन में जंगली जानवर मुझे मारकर खा जाएंगे । इसीलिए मैं वन के हरे मैदानों का उपभोग नहीं कर सकता ।” गीदड़ बोला : ”मामा ! ऐसा न कहो । वहां मेरा शासन है । मेरे रहते कोई तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकता ।

तुम्हारी तरह कई गधों को मैंने धोबियों के अत्याचारों से मुक्ति दिलाई है । इस समय भी वहां तीन गर्दभ-कन्याएं हैं, जो अब जवान हो चुकी हैं । उन्होंने आते हुए मुझे कहा था कि तुम हमारे सच्चे पिता हो तो गांव में जाकर हमारे लिए किसी गर्दभपति को लाओ । इसीलिए मैं तुम्हारे पास यहां आया हूं ।”

गीदड़ की बात सुनकर लम्बकर्ण ने गीदड़ के साथ चलने का निश्चय कर लिया । वह गीदड़ के पीछे-पीछे चलता हुआ उस वन-प्रदेश में जा पहुंचा जहां कई दिनों का भूखा शेर भोजन की प्रतीक्षा में बैठा था ।  शेर के उठते ही लम्बकर्ण ने भागना शुरू कर दिया ।

उसके भागते-भागते भी शेर ने पंजा लगा दिया । लेकिन लम्बकर्ण शेर के पंजे में नहीं फंसा । तब गीदड़ ने शेर से कहा : ”तुम्हारा पंजा बिकुल बेकार हो गया है । गधा भी उसके फंदे से बच भागता । क्या इसी बल पर तुम हाथी से लड़ते हो ?”

शेर ने लज्जित होते हुए कहा : ”अभी मैंने अपना पंजा तैयार भी नहीं किया था कि वह अचानक ही भाग गया । अन्यथा हाथी भी इस पंजे की मार से घायल हुए बिना भाग नहीं सकता ।” गीदड़ बोला : ”अच्छा, तो अब एक बार और यत्न कर उसे तुम्हारे पास लाता हूं । ध्यान रहे यह प्रहार खाली न जाए ।”

शेर बोला : ”जो गधा मुझे अपनी आखों से देखकर भागा है वह अब कैसे आएगा ? किसी और पर घात लगाओ ।” गीदड़ बोला : ”इन बातों में तुम दखल मत दो । तुम तो केवल तैयार होकर बैठे रहो ।” गीदड़ ने देखा कि गधा उसी स्थान पर फिर घास चर रहा है ।

गीदड़ को देखकर गधे ने कहा : ”भांजे ! तुम भी मुझे अच्छी जगह लेकर गए । एक क्षण की और देरी हो जाती तो मैं तो मारा ही जाता । भला वह कौन-सा जानवर था जो मुझे देखकर उठा था और जिसका वज्र समान कठोर हाथ मेरी पीठ पर पड़ा था ?”

लम्बकर्ण की बात सुनकर गीदड़ ने हंसते हुए कहा : ”मामा, तुम भी अजीब हो । अरे वह तो एक गर्दभी थी । तुम्हें देखकर तुमसे मिलने को उठी थी और तुम हो कि उससे भयभीत होकर मिले बिना भाग खड़े हुए । उसने तो तुमसे अपना प्रेम करने के लिए अपना कोमल हाथ चलाया था और तुम उसे वज्र जैसा कठोर बता रहे हो ।”

गीदड़ की बात पर गधे को विश्वास नहीं हुआ । उसने आशंकित स्वर में पूछा:  ”भांजे! क्या यह बात सच है कि वह हाथ गर्दभी का ही था ? अगर ऐसा है तो वह गर्दभी सचमुच बहुत हृष्ट-पुष्ट होगी । यही बात है न ?”  यह सुनकर गीदड़ मन ही मन मुस्करा उठा ।

उसने सोचा अब यह मूर्ख उस काल्पनिक गर्दभी के लोभ में जरूर फंसेगा । यही सोचकर उसने कहा : ”तुमने सही सोचा है मामा । वह गर्दभी हृष्ट-पुष्ट तो है ही बहुत सुंदर भी है । उससे मिलोगे तो प्रसन्न हो जाओगे । वैसे भी वह तुम्हें एक नजर देखते ही तुम पर मोहित हो गई है ।

कहती है कि यदि लम्बकर्ण मेरा पति नहीं बना तो मैं भूखी रहकर अपने प्राण त्याग दूंगी । इसलिए मेरी मानो तो उसे तड़पाओ मत । मेरे साथ चलो । कहीं उसने सचमुच प्राण त्याग दिए तो तुम पर स्त्री हत्या का पाप लग जाएगा ।”

गीदड़ की बात सुनकर गधा उसके साथ वापस जंगल की ओर चल दिया । इस बार सिंह ने मौका नहीं गंवाया । जैसे ही गधा उसके निकट पहुंचा वह उस पर टूट पड़ा और दो-तीन थपेड़ों में ही उसे मार डाला । गधे को मारकर सिंह तालाब में स्नान करने चला गया ।

तब तक गीदड़ रखवाली करता रहा । सिंह को तालाब से आने में विलम्ब हो गया । भूख से व्याकुल गीदड़ ने मरे हुए गधे के कान और दिल के हिस्से काट कर खा लिए । सिंह ने वापस लौटकर शिकार के अंग भंग देखे तो वह गीदड़ पर बहुत क्रोधित हुआ ।

उसने गुस्से से भभकते हुए कहा : ”अरे पापी ! तूने मेरे आने से पहले ही इस शिकार को जूठा क्यों किया ?” इस पर गीदड़ बोला : ”स्वामी ऐसा न कहो । इसके कान और दिल थे ही नहीं तभी तो यह एक बार जाकर भी वापस आ गया था ।”

सिंह को गीदड़ की बात का विश्वास हो गया । फिर उसने गीदड़ के साथ मिल बांटकर गधे का भोजन किया । अपनी मूर्खता के कारण एक बार चेतावनी मिलने पर भी वह गधा मारा ही गया । यह कथा सुनाकर बंदर ने मगरमच्छ को धिक्कारते हुए कहा : ”मूर्ख तूने मेरे साथ बहुत छल किया ।

लेकिन दंभ के कारण तेरे मुख से सच्ची बात निकल गई । दंभ से प्रेरित होकर जो सच बोलता है वह उसी तरह पदक्षत हो जाता है जिस तरह युधिष्ठिर नाम के कुम्हार को राजा ने पदक्षत कर दिया था ।


Hindi Story # 4 (Kahaniya)

वेश-भूषा बदलने से कुल नहीं बदलते |

नाम का एक कुम्हार एक बार टूटे हुए घड़े के नुकीले ठीकरे से टकराकर गिर गया। गिरते ही वह ठीकरा उसके माथे में घुस गया। खून बहने लगा । घाव गहरा था, दवा-दारू से ठीक न हुआ । घाव बढ़ता ही गया । कई महीने ठीक होने में लग गए । ठीक होने पर उसका निशान माथे पर रह गया ।

कुछ दिन बाद अपने देश में दुर्भिक्ष पड़ने पर वह एक दूसरे देश में चला गया और वहां राजा की सेना में भर्ती हो गया । राजा ने एक दिन उसके माथे पर घाव का निशान देखा तो समझा कि यह अवश्य कोई वीर पुरुष होगा जो लड़ाई में शत्रु का सामने से मुकाबला करते हुए घायल हो गया होगा ।

यह समझ उसने उसे अपनी सेना में उच्च पद दे दिया । कुछ दिन बाद राजा युद्धभूमि में जाने की तैयारी कर रहा था तो उसने प्रसंगवश युधिष्ठिर कुंभकार से पूछा : ”वीर ! तेरे माथे पर यह गहरा घाव किस युद्ध में कौन-से शत्रु का सामना करते हुए लगा था ?”

कुंभकार ने सोचा कि अब राजा और उसमें इतनी निकटता हो चुकी है कि राजा सच्चाई जानने के बाद भी उसे मानता रहेगा । यह सोचकर उसने सच बता दिया । बोला  ”महाराज यह घाव हथियार का घाव नहीं है । मैं तो एक कुंभकार हूं ।

एक दिन शराब पीकर लड़खड़ाता हुआ जब मैं घर से निकला तो घर में बिखरे पड़े ठीकरों से टकराकर गिर पड़ा । एक नुकीला ठीकरा माथे पर लग गया । यह निशान उसी का है ।” यह सुनकर राजा बहुत लज्जित हुआ और क्रोध से कांपते हुए बोला : ”तूने मुझे ठग कर इतना ऊंचा पद पा लिया है । अभी मेरे राज्य से निकल जा ।”

कुंभकार ने बहुत अनुनय-विनय की । बोला : ”महाराज युद्ध के मैदान में मैं प्राण दे दूंगा मेरा युद्ध-कौशल तो देख लो ।” किंतु राजा ने उसकी एक न सुनी । उसने कहा : ”भले ही तुम सर्वगुण सम्पन्न हो श्ह हो पराक्रमी हो किंतु हो तो कुंभकार ही । जिस कुल में तेरा जन्म हुआ है वह श्श्वीरों का नहीं है । तेरी अवस्था उस गीदड़ की तरह है जो शेरों के बच्चों में पलकर भी हाथी से लड़ने को तैयार न हुआ था ।”


Hindi Story # 5 (Kahaniya)

गीदड़, गीदड़ ही रहता है |

किसी जंगल में शेर-शेरनी रहती थी । उनके दो बच्चे थे । शेर प्रतिदिन हिरणों को मार कर शेरनी के लिए लाता था । दोनों मिलकर पेट भरते थे । एक दिन जंगल में बहुत घूमने के बाद भी शेर को कोई शिकार नहीं मिला ।

वह खाली हाथ वापस घर आ रहा था तो तभी उसे रास्ते में एक गीदड़ का बच्चा मिल गया । उसे देखकर उसके मन में दया आ गई । वह उसे अपने घर ले आया और शेरनी के सामने रखते हुए बोला : ”प्रिये ! आज भोजन तो कुछ मिला नहीं ।

रास्ते में गीदड़ का यह बच्चा पड़ा था । मैं इसे जीवित ही ले आया हूं । अगर तुझे भूख लगी है तो इसे खाकर अपना पेट भर ले । कल दूसरा शिकार लाऊंगा ।”  शेरनी बोली : ”स्वामी ! जिसे तुमने बच्चा जानकर नहीं मारा उसे मारकर मैं कैसे पेट भर सकती हूं । मैं भी इसे अपना बच्चा समझकर पाल लूंगी । मैं समझूंगी कि यह मेरा तीसरा बच्चा है ।”

गीदड़ का बच्चा शेरनी का दूध पीकर खूब हृष्ट-पुष्ट हो गया । एक दिन वह शेर के बच्चों के साथ खेल रहा था कि तभी एक मस्त हाथी वहां आ गया । उसे देखकर शेर के दोनों बच्चे हाथी पर गुर्राते हुए उसकी ओर लपके ।

गीदड़ के बच्चे ने दोनों को ऐसा करने से मना करते हुए कहा : ”यह हमारा कुल शत्रु है । इसके सामने नहीं जाना चाहिए । शत्रु से दूर रहना ही ठीक है ।” यह कहकर वह घर की ओर भागा । शेर के बच्चे भी निरुत्साहित होकर पीछे हट गए ।

घर पहुंच कर शेर के दोनों बच्चों ने मां-बाप से गीदड़ के बच्चे के भागने की शिकायत करते हुए उसकी कायरता का उपहास किया । गीदड़ का बच्चा इस उपहास से बहुत क्रोधित हो गया । लाल-लाल औखें करके और होंठों को फड़फड़ाते हुए दोनों को जली-कटी सुनाने लगा ।

तब शेरनी ने उसे एकांत में बुलाकर कहा : ”इतना प्रलाप करना ठीक नहीं है, वे तो तेरे छोटे भाई हैं उनकी बात को टाल देना ही अच्छा है ।” गीदड़ का बच्चा शेरनी के समझाने-बुझाने पर और भी भड़क उठा और बोला : ”मैं बहादुरी में विद्या में या कौशल में उनसे किस बात में कम हूं जो वे मेरी हंसी उड़ाते हैं मैं उन्हें इसका मजा चखाऊंगा उन्हें मार डालूंगा ।”

यह सुनकर शेरनी ने हंसते हुए कहा : ”तू बहादुर भी है, विद्वान भी है सुंदर भी है लेकिन जिस कुल में तेरा जन्म हुआ है उसमें हाथी नहीं मारे जाते । समय आ गया है कि अब तुझसे सच बात कह ही देनी चाहिए । तू वास्तव में गीदड़ का बच्चा है ।

मैंने तुझे अपना दूध पिलाकर पाला है । अब इससे पहले कि तेरे भाई इस सच्चाई को जानें तू यहां से भागकर अपने स्वजातियों से मिलजा अन्यथा वे तुझे जिन्दा नहीं छोड़ेंगे ।” यह सुनकर गीदड़ का बच्चा डर के मारे कांपता हुआ अपने गीदड़ दल में जा मिला ।

इसी तरह राजा ने कुंभकार से कहा कि इससे पहले कि अन्य राजपुत्र तेरा कुम्हार होने का भेद जानें और तुझे मार डालें तू यहां से भागकर कुम्हारों में मिल जा । यह कथा सुनाकर बंदर ने मगर को धिक्कारते हुए कहा : ”मूर्ख तूने अपनी पत्नी के कहने पर मेरे साथ विश्वासघात किया । मनुष्य को स्त्री पर विश्वास तो करना ही नहीं चाहिए । वह कभी भी विश्वासघात कर सकती है ।”


Hindi Story # 6 (Kahaniya)

स्त्री का विश्वासधात |

किसी गांव में एक ब्राह्मण रहता था । वह अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता था । किंतु उसकी पत्नी बहुत झगड़ालू थी । वह ब्राह्मण के कुटुम्बियों के साथ बहुत कलह करती थी ।

प्रतिदिन की कलह से मुक्ति पाने के लिए ब्राह्मण ने मां-बाप, भाई-बहन का साथ छोड़ा और पत्नी को साथ लेकर किसी दूसरे देश की ओर चल पड़ा । यात्रा लंबी थी । जंगल में पहुंचने पर ब्राह्मणी को जोर की प्यास लग आई । उसके आग्रह पर ब्राह्मण पानी लेने के लिए चला गया ।

पानी दूर था लाने में देर लग गई । वापस ब्राह्मणी के पास पहुंचा तो उसे मरी हुई पाया । ब्राह्मण व्याकुल होकर भगवान् से प्रार्थना करने लगा । उसी समय आकाशवाणी हुई : ”हे ब्राह्मण ! यदि तू अपनी आयु का आधा हिस्सा इसे दे दे तो यह पुन: जीवित हो जाएगी ।”

ब्राह्मण ने यह स्वीकार कर लिया । उसकी पत्नी फिर से जीवित हो गई । दोनों पुन: अपनी यात्रा पर चल पड़े । चलते-चलते दोनों एक नगर के निकट पहुंच गए । समीप ही एक मनोरम उद्यान था । ब्राह्मण ने अपनी पत्नी को वहीं विश्राम करने को कहा और नगर से भोजन के लिए सामान खरीदने चला गया ।

उस उद्यान में एक लंगड़ा आदमी रहट खींचते हुए मधुर स्वर में एक गीत गा रहा था । ब्राह्मणी ने उसका मधुर गायन सुना तो वह उस पर मोहित हो गई । उसने लंगड़े से प्रणय निवेदन किया । लंगड़ा उसके निवेदन को अस्वीकार न कर सका ।

कुछ समय पश्चात् ब्राह्मणी ने लंगड़े से अपने साथ चलने का अनुरोध किया । लंगड़ा इसके लिए तैयार हो गया । ब्राह्मण जब वापस लौटा और वे दोनों भोजन करने बैठे तो उसकी पत्नी ने आग्रह करके लंगड़े को भी भोजन दिलवा दिया । फिर उसने ब्राह्मण से कहा: ”स्वामी जब आप कार्यवश इधर-उधर चले जाते हैं तो मैं अकेली रह जाती हूं ।

मुझे डर लगने लगता है । इसलिए क्यों न इस लंगड़े को अपने साथ ही रख लें । मेरा भी मन बहला रहेगा और यह लंगड़ा हमारे कामों में कुछ मदद भी कर दिया करेगा ।” पत्नी की बात सुनकर ब्राह्मण बोला : ”हमें तो अपना चलना ही कठिन हो रहा है । इस लंगड़े को अपनी पीठ पर कहां-कहां ढोते फिरेंगे ।” ब्राह्मणी बोली : ”तुम चिंता मत करो । मैं इसे एक टोकरी में बैठा कर उस टोकरी को अपने सिर पर रख लिया करूंगी ।”

ब्राह्मण सहमत हो गया । इस प्रकार वह लंगड़ा भी उनके साथ हो लिया । रास्ते में वे एक कुएं के निकट ठहरे । ब्राह्मण कुएं की जगत पर लेटा विश्राम कर रहा था कि उसे गहरी नींद ने आ घेरा । उचित अवसर जानकर ब्राह्मणी ने उसे कुएं में धकेल दिया और उस लंगड़े को साथ लेकर एक नगर में पहुंच गई ।

लेकिन नगर में राजसेवकों को उस पर संदेह हो गया । वे उस ब्राह्मणी को लेकर वहां के राजा के सम्मुख पहुंच गए । जब राजा के सम्मुख उसकी टोकरी खोली गई तो उसमें लंगड़ा बैठा हुआ मिला । राजा ने जब उस लंगड़े के बारे में जानना चाहा तो ब्राह्मणी ने रोते हुए बताया : ”महाराज यह मेरा पतिदेव है ।

परिजनों ने इन्हें निष्क्रिय समझकर घर से निकाल दिया है । इसलिए अब मैं इन्हें इधर आ गई हूं ताकि मेहनत मजदूरी करके अपना और अपने अपंग पति का पेट पाल सकूं ।” राजा को उस पर दया आ गई । उसने ब्राह्मणी को अपनी धर्म बहन बना लिया और उसके गुजारे के लिए उसे दो गांव दान में दे दिए ।

इस तरह वह कुल्टा अपने प्रेमी के साथ आनंद पूर्वक रहने लगी । संयोग की बात है उसका पति भी किसी पथिक की सहायता से उस कुएं से बाहर निकल आया और घूमता-घामता उसी नगर में पहुंच गया । उस कुल्टा ने अपने पति को देखा तो घबरा गई ।

वह राजा के पास पहुंची और बोली: ”भैया यह ब्राह्मण मेरे पति का शत्रु है । मेरे पति की हत्या करने के लिए ही यह यहां तक पहुंच गया है ।” अपनी धर्म बहन की बात पर राजा को विश्वास हो गया । उसने ब्राह्मण को बंदी बना लिया और उसे मार डालने का आदेश दे दिया ।

ब्राह्मण को जब यह मालूम हुआ तो उसने राजा से कहा : ”महाराज इस स्त्री के पास मेरी एक चीज है । यदि आप न्यायप्रिय हैं तो पहले मेरी चीज इस स्त्री से दिला दीजिए । फिर आप जो भी करना चाहें मैं खुशी-खुशी उसे स्वीकार कर लूंगा ।”

तब राजा ने ब्राह्मणी से पूछा : ”क्या तुमने इसकी कोई चीज ली है ?”  ब्राह्मणी प्रतिवाद करती हुई बोली : ”नहीं महाराज मैंने इस आदमी की कोई चीज नहीं ली ।” ब्राह्मण बोला: ”यदि ऐसी बात है तो अपने मुख से कहो मैंने तुम्हारी आयु का जो आधा भाग तुमसे लिया है उसे मैं तुम्हें वापस करती हूं ।”

यह सुनकर ब्राह्मणी घबरा उठी । किंतु राजा के डर से उसके मुंह से निकल ही गया : ”मैंने तुम्हारी आयु का जो आधा हिस्सा लिया है उसे मैं तुम्हें वापस करती हूं ।”  ऐसा कहते ही वह ब्राह्मणी वहीं पर निर्जीव होकर गिर गई । यह देख राजा को बहुत आश्चर्य हुआ ।

उसने ब्राह्मण से इसका कारण पूछा तो ब्राह्मण ने उसे विस्तारपूर्वक सारी कहानी सुनाई । यह कथा सुनाकर बंदर बोला : ”इसीलिए मैं कहता हूं कि स्त्रियों पर कभी भरोसा नहीं करना चाहिए । तू भी स्त्री का उसी तरह दास बन गया जिस तरह वररुचि था ।


Hindi Story # 7 (Kahaniya)

स्त्री-भक्त राजा |

किसी राज्य में नंद नामक राजा राज्य करता था । वह बहुत पराक्रमी था । उसकी वीरता चारों दिशाओं में प्रसिद्ध थी । आसपास के सब राजा उसकी वंदना करते थे । उसका राज्य समुद्रतट तक फैला हुआ था । उसका मंत्री वररुचि भी बड़ा विद्वान और सब शास्त्रों में पारंगत था ।

उसकी पत्नी का स्वभाव बड़ा तीखा था । एक दिन वह प्रणय-कलह में ही ऐसी रूठ गई कि अनेक प्रकार से मनाने पर भी न मानी । तब वररुचि ने उससे कहा : ”प्रिये तेरी प्रसन्नता के लिए मैं सबकुछ करने को तैयार हूं । जो तू आदेश करेगी वही करूंगा ।”

पत्नी ने कहा : ”अच्छी बात है ! मेरा आदेश है कि तुम अपना सिर मुंडवाकर मेरे पैरों में गिर कर मुझे मनाओ तब मैं मानूंगी ।” ने वैसा ही किया । तब वह प्रसन्न हो गई । उसी दिन राजा नंद की पत्नी भी रूठ गई । राजा ने कहा : ”प्रिये तेरी अप्रसन्नता मेरी मृत्यु है ।

तेरी प्रसन्नता के लिए मैं सब कुछ करने के लिए तैयार हूं । तू आदेश कर मैं उसका पालन करूंगा ।” राजा की पत्नी बोली : ”मैं चाहती हूं कि तुम्हारे मुख में लगाम डालकर तुम पर सवार हो जाऊं और तुम घोड़े की तरह हिनहिनाते हुए दौड़ी । अपनी इस इच्छा के पूरा होने पर ही मैं प्रसन्न होऊंगी ।”

राजा ने उसकी इच्छा पूरी कर दी । दूसरे दिन सुबह राजदरबार में जट। वररुचि आया तो राजा ने पूछा : ”मंत्री जी किस पुण्यकाल में तुमने अपना सिर मुंडवाया है ?” वररुचि ने उत्तर दिया : ”राजन् ! मैंने उस पुण्यकाल में सिर मुंडाया है जिस काल में पुरुष मुख में लगाम लगाकर हिनहिनाते हुए दौड़ते हैं ।”

यह सुनकर राजा लज्जित हुआ । बंदर ने यह कथा सुनाकर मगर से कहा : ”तुम भी स्त्री के दास बनकर वररुचि के समान अंधे बन गए हो । उसके कहने पर मुझे मारने चले थे लेकिन वाचाल होने से तुमने अपने मन की बात कह दी ।

वाचाल होने से सारस मारे जाते हैं । बगुला वाचाल नहीं है मौन रहता है इसीलिए बच जाता है । मौन से सभी काम सिद्ध होते हैं । वाणी का असंयम जीवन यात्रा के लिए घातक है । इसी कारण शेर की खाल पहनने के बाद भी गधा अपनी जान न बचा सका और मारा गया ।”


Hindi Story # 8 (Kahaniya)

गधों की मूर्खता |

किसी गांव में विलास नाम का एक धोबी रहता था । वह बहुत लोभी था । बोझा ढोल के लिए उसने एक गधा रखा हुआ था । दिनभर वह गधे से खूब काम लेता किंतु उसे भरपेट खाने को न देता । इस प्रकार दिन रात मेहनत करने और भरपेट भोजन न मिलने के कारण गधा बहुत कमजोर हो गया था । धोबी ने तब भी उससे काम लेना जारी रखा ।

एक दिन धोबी ने सोचा कि यदि गधा मर गया तो मुझे बहुत हानि उठानी पड़ेगी । कुछ ऐसा उपाय करूं कि यह गधा मेरा काम भी करता रहे और इसके चारे आदि का खर्च भी मुझको न उठाना पड़े । यही सोचकर धोबी कहीं से एक मरे हुए बाघ की खाल ले आया ।

उसने वह खाल गधे को पहना दी और उसे खेतों में खुला छोड़ दिया । खेत के रखवाले उसे दूर से देखते और बाघ समझ कर उसके पास जाने से डरते । गधा मजे से खेतों में चरता रहता । कुछ ही दिनों में मनमाना भोजन मिलने के कारण वह खूब हृष्ट-पुष्ट हो गया ।

एक दिन एक किसान ने सोचा : ‘यह बाघ कहां से आने लगा । पहले तो यह कभी आता नहीं था ।’ तब उसने उस बाघ को मारने की एक तरकीब सोची । उसने काला कंबल ओढ़ लिया और धनुष-बाण लेकर खेत के एक सुरक्षित स्थान पर बैठ गया ।

खेत में चरने वाले गधे की दृष्टि जब उस पर पड़ी तो उसने उसे (खेत के स्वामी) भी कोई गधा ही समझा और जातिगत स्वभाव के कारण उसकी ओर देखकर रेंकना आरंभ कर दिया । बस फिर क्या था ? खेत का स्वामी तत्काल समझ गया कि वह बाघ की खाल ओढ़े कोई गधा है ।

इसे मारने में क्या कठिनाई हो सकती है । बस वह पिल पड़ा गधे पर और उसे इतना मारा कि उसका दम ही निकल गया । गधे की वाचालता ही उसे ले डूबी । बंदर मगर को यह कहानी सुना ही रहा था कि मगर के एक पड़ोसी ने वहां आकर मगर को यह खबर दी कि उसकी पत्नी भूखी-प्यासी बैठी उसके आने की राह देखती देखती मर गई ।

यह सुनकर मगर व्याकुल हो गया और बंदर से बोला : “मित्र, क्षमा करना, मैं तो अब स्त्री-वियोग से भी दुखी हूं । मैं उसके बिना जीवित नहीं रह सकता । इसीलिए मैं अग्नि में प्रविष्ट होकर अपना प्राणांत कर लूंगा ।”

यह सुनकर बंदर ने हंसते हुए कहा : ”यह तो मैं पहले से ही जानता था कि तू स्त्री का दास है । अब उसका प्रमाण भी मिल गया । मूखे ऐसी दुष्ट स्त्री की मृत्यु पर तो उत्सव मनाना चाहिए दु ख नहीं । ऐसी स्त्रियां पुरुष के लिए विष-समान होती हैं । बाहर से वे जितनी अमृत-समान मीठी लगती हैं अंदर से उतनी ही विष समान कड़वी होती हैं ।

मगर बोला : ”मित्र कहते तो तुम ठीक हो किंतु अब मैं क्या करूं ? मैं तो दोनों ओर से जाता रहा । इधर पत्नी का वियोग हुआ घर उजड़ गया उधर तेरे जैसा मित्र छूट गया । यह भी देव-संयोग की बात है । मेरी अवस्था उस किसान पत्नी की तरह हो गई है जो पति से भी छूटी और धन से भी वंचित कर दी गई ।”


Hindi Story # 9 (Kahaniya)

घर का न घाट का |

किसी गांव में एक किसान दम्पति रहते थे । किसान बूढ़ा था और उसकी पत्नी जवान । आयुभेद के कारण उसकी पत्नी उससे संतुष्ट नहीं रहती थी । एक दिन एक ठग ने उसे ताड़ लिया और उससे आकर बोला : ”सुंदरी मेरी पत्नी मर चुकी है ।

तुम भी अपने पति से असंतुष्ट हो । मैं तुम पर अनुरक्त हो चुका हूं । तुम मेरे साथ चलो ।” किसान की पत्नी ने उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और ठग से बोली : ”यदि ऐसी बात है तो मैं अपने पति के यहां से धन ले आती हूं । उसके पास बहुत धन है ।

वह तो उस धन का कोई उपभोग नहीं कर सकता । हम दोनों उस धन का सदुपयोग करके अपना भविष्य सुखमय बना लेंगे ।” बात निश्चित हो गई । रात को किसान की पत्नी ने सारा धन समेट लिया और अपने प्रेमी के साथ वहां से दक्षिण दिशा की ओर निकल गई ।

जब वे गांव से कई कोस दूर निकल आए तो ठग के मन में पाप आ गया । वह सोचने लगा ”इस अधेड़ स्त्री के साथ रहकर क्या करूंगा । क्यों न किसी बहाने इसका धन समेट लूं और इसे छोड़कर चल पडूं । धन पास में होगा तो अनेक युवतियां मिल जाएंगी ।

उन्हीं में से किसी के साथ विवाह करके अपना जीवन सार्थक बना लूंगा ।” सौभाग्य से ऐसा सुअवसर उसे मिल भी गया । रास्ते में एक गहरी नदी मिली । वह ठग किसान पत्नी से बोला : ”नदी बहुत गहरी है । धन की इस गठरी को लेकर उस पार पहुंचना बहुत मुश्किल है ।

तुम इस गठरी को मुझे दे दो । पहले मैं इस गठरी को दूसरे किनारे पर रख आऊंगा । फिर तुम्हें अपनी पीठ पर बिठाकर उस पार ले चलूंगा ।” किसान की पत्नी मान गई । उस मूर्ख ने न सिर्फ अपने धन की गठरी दे दी बल्कि शरीर पर पहने हुए सारे आभूषण यहां तक कि अपने पहने हुए वस्त्र भी उतारकर ठग को दे दिए ।

ठग सारी चीजें लेकर नदी पार चला गया । किसान पत्नी निपट नग्नावस्था में बैठी उसकी प्रतीक्षा करने लगी । ठग के जाने के काफी देर बाद एक गीदड़ी अपने मुंह में मांस का टुकड़ा दबाए उस किसान पत्नी के निकट से गुजरी ।

उस गीदड़ी ने नदी किनारे एक मछली को देखा तो वह मांस टुकड़ा छोड़कर उस मछली पर झपटी । तभी आकाश से एक चील ने झपट्‌टा मारा और गीदड़ी के छोड़े मांसपिंड को लेकर उड़ गई । उधर मछली ने गीदड़ी को आते देखा तो वह उछलकर नदी के जल में समा गई । गीदड़ी दोनों चीजों से वंचित हो गई ।

यह दृश्य देखकर किसान पत्नी हंस पड़ी और गीदड़ी से बोली : ”अरी मूर्ख ! तूने दोनों ही चीजें गंवा दी । सब कुछ खोकर अब किसकी आस लगाए हो ?” गीदड़ी ने भी उपहासजनक स्वर में उत्तर दिया : ”तुम तो मुझसे भी ज्यादा मूर्ख हो ।

पति को तुम छोड़ आई । तुम्हारा प्रेमी भी तुम्हें छोड्‌कर भाग गया । जो धन पास था उसे भी वह ले उड़ा । निपट नंगी यहां बैठी तुम किसकी राह देख रही हो ?” मगर द्वारा सुनाई इस कथा को सुनकर रक्तमुख बंदर ने कहा : ”मैं तुमको कोई और परामर्श नहीं दे सकता ।

बस इतना ही कहूंगा कि आज से हमारी तुम्हारी मित्रता खत्म हुई ।” अभी बंदर मगर को समझा ही रहा था कि एक दूसरे मगर ने आकर सूचना दी :  ”मित्र! तेरे घर पर दूसरे मगरमच्छ ने अधिकार कर लिया है ?” यह सुनकर मगर और भी चिंतित हो गया । उसके चारों ओर विपत्तियों के बादल उमड़ रहे थे ।

उन्हें दूर करने का उपाय पूछने के लिए वह बंदर से बोला : ”मित्र मुझे बता कि साम-दाम-भेद आदि में से किस उपाय से अपने घर पर फिर अधिकार करूं ।” बंदर बोला : ”कृत्घ्न ! मैं तुझे कोई उपाय नहीं बताऊंगा । अब मुझे मित्र भी मत कह । तेरा विनाश-काल आ गया है । सज्जनों के वचन पर जो नहीं चलता उसका विनाश अवश्य होता है । जैसे घंटोष्ट्र का हुआ था ।”


Hindi Story # 10 (Kahaniya)

घमंडी का सिर नीचा |

एक गांव में उज्ज्वल नाम का एक बढ़ई रहता था । वह बहुत गरीब था । गरीबी से तंग आकर वह अपना गांव छोड़कर दूसरे गांव के लिए चल पड़ा । रास्ते में घना जंगल था । वहां उसने देखा कि एक ऊंटनी प्रसव पीड़ा से तड़प रही है ।

ऊंटनी ने जब बच्चा दिया तो वह ऊंटनी और उसके बच्चे को लेकर अपने घर आ गया । घर के बाहर ऊंटनी को बांधकर वह उसके खाने के लिए पत्तों-भूरी शाखाएं काटने वन में गया । ऊंटनी ने हरी-हरी कोमल कोंपलें खाई । बहुत दिन इसी तरह हरे-हरे पत्ते खाकर ऊंटनी स्वस्थ और पुष्ट हो गई ।

उसका बच्चा भी बढ्‌कर जवान हो गया । बढई ने उसके गले में एक घंटा बांध दिया जिससे वह कहीं खो न जाए । दूर से ही उसकी आवाज सुनकर बढ़ई उसे घर लिवा लाता था । ऊंटनी के दूध से बढ़ई के बाल-बच्चे भी पलते थे । ऊंट भार ढोने के भी काम आने लगा ।

उस ऊंट-ऊंटनी से ही उसका व्यापार चलता था । यह देख उसने एक धनिक से कुछ रुपया उधार लिया और गुर्जर देश में जाकर वहां से एक और ऊंटनी ले आया । कुछ दिनों में उसके पास अनेक ऊंट-ऊंटनियां हो गई । उनके लिए रखवाला भी रख लिया गया ।

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बढ़ई का व्यापार चमक उठा । घर में दूध की नदियां बहने लगीं । शेष सब तो ठीक था : ”किंतु जिस ऊंट के गले में घंटा बंधा था वह बहुत गर्वित हो गया था । वह अपने को दूसरों से विशेष समझता था । सब ऊंट वन में पत्ते खाने को जाते तो वह सबको छोड़कर अकेला ही जंगल में घूमा करता था ।

उसके घंटे की आवाज से शेर को यह पता लग जाता था कि ऊंट किधर है । सबने उसे कहा कि वह गले से घंटा उतार दे लेकिन वह नहीं माना । एक दिन जब सब ऊंट वन में पत्ते खाकर तालाब से पानी पीने के बाद गांव की ओर वापस आ रहे थे तब वह सबको छोड्‌कर जंगल की सैर करने अकेला चल दिया ।

शेर ने भी घंटे की आवाज सुनकर उसका पीछा किया और जब वह पास आया तो उस पर झपट कर उसे मार डाला । यह कथा सुनाकर बंदर ने कहा : ”तभी तो मैंने कहा था कि सज्जनों की बात अनसुनी करके जो अपनी ही करता है, वह विनाश को निमंत्रण देता है ।”

मगर बोला : ”तभी तो मैं तुमसे पूछता हूं । तू सज्जन है, साधु है, किंतु सच्चा साधु तो वही है जो अपकार करने वालों के साथ भी साधुता करे, कृतप्नों को भी सच्ची राह दिखलाए । उपकारियों के साथ तो सभी साधु होते हैं ।

यह सुनकर बंदर ने कहा : ”तब मैं तुझे यही उपदेश देता हूं कि तू जाकर उस मगर से जिसने तेरे घर पर अनुचित अधिकार कर लिया है, युद्ध कर । नीति कहती है कि शत्रु बली है तो भेदनीति से नीच है तो दाम से और सशक्त है तो पराक्रम से उस पर विजय पाए ।


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