List of most popular Hindi stories for Kids!


Content:

  1. झील का पानी गंदा क्यों ?
  2. कर्मो का फल |
  3. परी का प्यार |
  4. सुनहरी परी के आंसू |
  5. परी की सौगात |
  6. एक बंदर परी लोक के अंदर |
  7. जैसे को मिला तैसा |

Hindi Story # 1 (Kahaniya)

झील का पानी गंदा क्यों ?

परी लोक में एक परी रहती थी । उसका ली लाल था । अत: उसकी सब सखियां उसे लाल परी कहती थी । लाल परी बहुत सुँदर थी । उसके बाल काफी लम्बे थे और औखें मोटी-मोटी । उसकी औखें देखकर लगता था जैसे किसी हिरणी की आखें हों ।

एक दिन वह अपने एक हाथ में दर्पण और दूसरे में कंघी लेकर अपने बाल सवार रही थी । साथ-साथ वह कोई गीत भी गुनगुना रही थी । अचानक दर्पण उसके हाथ से छूट गया । दर्पण धरती पर आकर एक झील में आ गिरा । झील के किनारे एक मछेरा जाल डाले बैठा था ।

उसने देखा कि झील में एकाएक सुंदर-सुंदर वस्तुएँ दिखाई देने लगी हैं । आलीशान महल, बाग-बगीचे, कोयल तथा बाग में फलों के दरखत । चारों तरफ फल-ही-फल । जिधर नजर दौड़ाओ, दिल को मोह लेने वाले दृश्य । मछेरा इन सुदर दृश्यों को देखकर बहुत चकित हुआ ।

वह हैरान था कि वह सब-कुछ कैसे हो गया । उसने अपना जाल वहीं छोड़ा और भागता हुआ अपने घर आया । उसने अपनी पत्नी को यह बात बताई तो उसकी पत्नी को उसकी बात पर यकीन न हुआ । वह बोली : “चुपचाप खाना खाओ और आराम करो ।

ऐसा लगता है तुम्हारा दिमाग चल निकला है ।” मछेरा अपनी बात फिर दोहराने लगा तो पत्नी ने फिर उसे डाँट पिला दी । बेचारा क्या करता ? खाना खाकर सो गया । दूसरी सुबह वह फिर झील की तरफ गया । उसे फिर वही सुंदर-सुंदर दृश्य दिखाई देने लगे ।

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उसने अपनी आखों को जोर-जोर से मला, जैसे उसका अपनी आखों पर से विश्वास उठ गया हो । वह वहीं बैठकर उन सुंदर दृश्यों को देखने लगा । वह वहां से उठा ही नहीं, यहां तक कि शाम हो गई । शाम के समय उसने देखा कि एक सुदर परी आसमान से उतरकर झील में आई ।

उसके पैरों से पुंघरुओं की आवाजें आ रही थी । वह सीधी झील में उतरती चली गई । अपना हाथ उसने जाल में डाला और शीशे को उठा लिया, लेकिन जब उसने अपना हाथ बाहर निकालना चाहा तो उसका हाथ जाल में फंस गया ।

घबराकर परी इधर-उधर देखने लगी । उसकी नजर मछेरे पर पड़ी तो वह मदद के लिए चिल्लाने लगी । मछेरा दौड़ा-दौड़ा वहां आया । उसने अपनी जेब से चाकू निकाला और जाल काट दिया । हाथ जाल से बाहर निकलता देख परी बहुत खुश हुई ।

मछेरे को धन्यवाद देकर वह अपना शीशा लेकर उड़ गई । तभी मछेरे ने देखा कि झील का पानी गदा हो गया । महल और बागों के सुंदर-सुंदर दृश्य दिखाई देने बद हो गए । वह परेशान होकर तुरत घर लौट चला । वह चिल्लाता जा रहा था : ‘झील का पानी गदा हो गया । झील का पानी गदा हो गया ।’

रात में सोते-सोते भी वह यही बात दोहराता रहा । सुबह उसकी पत्नी ने उसे बहुत बुरा भला कहा । बोली : ”तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है । कभी कहते हो कि झील में सुदर-सुदर दृश्य दिखाई पड़ते हैं, महल और बगीचे नजर आते हैं । घर आने को मन नहीं करता ।

अब कहते हो कि झील का पानी गदा हो गया । झील पर जाओ और मछली पकड़ो । घर पर रहकर गुजारा कैसे चलेगा ?” मछेरा बड़ी मुश्किल में पड़ गया । क्या करे और क्या न करे ? वह अपना सिर लटकाए फिर से झील की तरफ चल पड़ा ।

वहा पहुंचकर उसने देखा कि झील का पानी बहुत गदा है । सुंदर-सुंदर दृश्य भी दिखाई नहीं दे रहे । वह अपना सिर झुकाकर झील के किनारे बैठ गया । उसका मछली पकड़ने में भी मन नहीं लगा । वह उस सुदूर परी की कल्पना में ही खोया रहा । उसे वह सुकर परी बार-बार याद आ जाती ।

उसकी आखों से ऑसू बहते रहते । सुबह से शाम हो गई, किंतु वह घर वापस नहीं लौटा । मछेरा रात हो जाने तक भी घर नहीं पहुचा तो उसकी पत्नी को बहुत चिंता हुई । वह उसे खोजने के लिए झील पर पहुंची । वहां पहुचकर उसने देखा कि उसका पति झील के किनारे उदास बैठा है ।

यह देख, वह स्वर्य भी रोने लगी । पति का अगर यही हाल रहा तो घर का गुजारा कैसे चलेगा ? बच्चे भूखे मर जाएंगे । उनकी यह हालत परी लोक में परी ने भी देखी । परी को उनकी हालत पर दया आ गई । उसे लगा कि मछेरे की यह बुरी हालत उसी की वजह से हुई है । वह धीरे-धीरे आसमान से उतरी और झील के पास पहुंची । उसे देखकर मछेरा बहुत खुश हुआ ।

परी ने मछेरे से पूछा : ”बताओ, तुम्हें क्या चाहिए ?” मछेरा बोला : ”मैं तुम्हारे साथ परी लोक जाना चाहता हूं ।” यह सुनकर परी हंसने लगी । वह जानती थी कि ऐसा नहीं हो सकता । परी ने तब मछेरे की पत्नी से भी यही पूछा ।

मछेरे की पत्नी रोने लगी । बोली : ”मेरा पति हर समय तुम्हारे ख्यालों में खोया रहता है । इन्हें अपने साथ परी लोक में मत ले जाना । अगर ले गईं तो मेरे बच्चों का क्या होगा ? कौन उनके लिए भोजन-पानी की व्यवस्था करेगा ? मेरे बच्चे तो भूखों मर जाएंगे ।”

मछेरे की पत्नी की बात सुनकर परी मुस्कराई फिर बोली : ”तुम दोनों हमेशा सुखी रहोगे । तुम्हें कभी किसी चीज की कमी नहीं होगी ।” कहकर परी उड़ गई । परी के जाते ही अचानक मछेरा पुरानी सारी बातें भूल गया । उसे यह भी याद नहीं रहा कि उसने झील के अदर सुंदर-सुंदर महल, बाग-बगीचे देखे थे ।

वह परी को भी भूल गया । वह फिर से झील में मछलियां पकडूने लगा । कुछ ही महीनों में उसकी काया पलट हो गई । अब उसके जाल में दूसरों की अपेक्षा कहीं अधिक मछलियां फंसने लगी । मछेरा उन्हें बाजार ले जाकर बेचता रहा ।

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बाजार में भी उसे अन्य मछेरों की अपेक्षा अपनी मछलियों के दाम अधिक मिलते, क्योंकि उसके जाल में जो मछलियां फंसती थी, वे सामान्य मछलियों से कहीं अधिक अच्छी और बड़ी होती थी । धीरे-धीरे वह बस्ती का सबसे धनवान व्यक्ति बन गया । उसका शेष जीवन सुखपूर्वक बीता । परी का आशीर्वाद सच साबित हुआ था ।


Hindi Story # 2 (Kahaniya)

कर्मो का फल |

स्वर्ग का दरवाजा खुला और स्वर्ग की परी धर्मात्मा और सज्जन लोगों को स्वर्ग में दाखिल करने लगी । उसके साथ एक लेखाकार था, जिसके हाथ में सब लोगों के कर्म लेखों की पूरी फेहरिस्त थी । वह सबके कर्म लेख पड़ता जाता था ।

स्वर्ग की परी उनके कर्म के आधार पर उन्हें स्वर्ग में प्रवेश दिला रही थी । इतने में स्वर्ग की परी ने देखा कि एक बकृ लम्बा-तडंगा मोटा-ताजा आदमी बड़े रौब और रेट के साथ अकड़कर स्वर्ग में प्रवेश करने की कोशिश कर रहा है । परी ने लेखाकार की ओर देखा ।

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लेखाकार ने अपनी बही खोली और कहा : ‘इस आदमी को स्वर्ग में प्रवेश मत करने दो । यह पापी, मक्कार, धोखेबाज और चोर है । इसने धन के लोभ में अपने छोटे भाई का खून किया है । चाचा को जहर दिया है । यह सूदखोर है ।

इसने गरीबों को सताया है । इसने जीवन में कोई भलाई का काम नहीं किया । यह सदैव पाप कर्मों में लिप्त रहा है । इसके लिए स्वर्ग का दरवाजा बंद रहेगा ।” वह आदमी बोला : “मैं दुनिया का बहुत अमीर आदमी हूं । सभी मुझे जानते हैं । वहाँ मेरी बहुत इज्जत रही है ।

मैंने अपने धन को अच्छे-अच्छे कामों में लगाया है । कितने ही अनाथालय खुलवाए है । कितने ही मंदिर और धर्मशालाएं बनवाई हैं । विश्वास न हो तो अपने लेखाकार से पूछ लो । हिसाब की किताब देखकर वह बताएगा ।” परी ने लेखाकार से बही लेकर उसके कर्मों का हिसाब पढ़ा ।

फिर बोली : ”यह सच है कि तूने कुछ भले काम भी किए हैं मगर उस समय तुम्हारी नीयत यह नहीं थी कि भलाई के लिए यह काम किए जाएं । दुनिया की वाहवाही सूटने के लोभ में तुमने यह किया है । तुमने व्यभिचार किया है दुराचार किया है । रिश्वत देते रहे हो ।

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अपने पापों को छिपाने के लिए तुमने यह सब किया है ।” इतने में एक देवदूत वहां पहुंचा और परी से बोला-यह एक खौफनाक आदमी है । इसे धक्के देकर निकाल दो । इसके लिए नरक का दरवाजा खुला हुआ है ।” अमीर के शरीर से पसीना बहने लगा ।

उसने देवदूत के चरण छूकर हाथ जोड़े । नम्र शब्दों में बोला : ”ऐसा न करो ।  मेहरबानी करके ऐसा न करो । मैं मर जाएगा महाराज! आप मुझसे भेंट स्वरूप सौ अशर्फियां ले लीजिए, लेकिन स्वर्ग में मुझे जगह मिलनी ही चाहिए । हाय-हाय ! यह क्या हुआ ? मैं स्वर्ग जाना चाहता हूं स्वर्ग । इसीलिए मैंने लाखों रुपया परमार्थ में लगाया था ।”

देवदूत ने कहा : ‘मूर्ख ! चुप रह । यह मृलुलोक नहीं है । यहां पूस नहीं चलेगी । तुझे दंड भोगना ही पड़ेगा ।’ देवदूत ने संकेत दिया । एक भयानक यमदूत हाथ में कोड़ा लिए आगे बढ़ा । उसने उस अमीर आदमी की पीठ पर तड़ातड़ कोड़े बरसाने शुरू कर दिए । वह अमीर जोर-जोर से चीखने लगा हाय हाय ।

मैं मर गया, अरे कोई बचाओ । हाय ! मेरी पीठ की चमड़ी उधड़ गई । हाय ! मेरे पेट की खाल कोड़े की मार से लहूलुहान हो गई । बस कीजिए, बस कीजिए ।’ यमदूत ने कोड़ा मारना बंद न किया । उस अमीर की पूरी दुर्गति हो गई ।

एक-दूसरे यमदूत ने उसे उठाकर जबर्दस्ती नरक की ओर धकेल दिया । वहां दरवाजे पर से दुर्गंध आ रही थी । गरम हवा बह रही थी । चारों तरफ आग की लपटें निकल रही थी । नंगी, खून से सनी तलवारें लेकर यमदूत इधर-से-उधर घूम रहे थे ।

अब नरक का हाल सुनो । वहां एक बुढ़िया खड़ी थी । वह नरक पुरी के भीतर जाना चाहती थी । नरक की परी ने उससे भूला : “कौन है ? कहां जाना चाहती है ? ” बुढ़िया ने कहा : ”मैं एक गरीब और पापी स्त्री हूं ।” परी ने पूछा : ”तूने क्या मृत्युलोक में कभी किसी की कोई भलाई नहीं की है ?”

”भलाई मैं किसी की क्या कर सकती थी ? मेरे पास तो खाने के लिए भी कुछ नहीं था । कई-कई दिन तो भूखी ही रह जाती थी । अन्न का एक दाना भी गले के नीचे से नहीं उतर पाता था । मुझे वहीं जाने दो । पापियों के लिए तो यही जगह है ।”  यह कहकर बुढ़िया फूट-फूटकर रोने लगी ।

परी ने उसे चुप कराया । फिर बही में उसके कर्मों का हिसाब देखा । बोली : ”बही के हिसाब से तुम्हारे पास धन तो होना चाहिए था । क्या हुआ धन का ?” बुढ़िया बोली : ”क्या बताऊं ? एक अमीर आदमी ने लूट लिया । दुनिया में अमीर ही सब-कुछ माने जाते हैं, पर हैं वे शरीफ डाकू ।”

परी बोली-देखो, उस अमीर को जबरदस्ती यहां लाया जा रहा है । इसलिए दरवाजे से हटकर खड़ी हो जाओ, ताकि उसे नरक में धकेला जा सके ।” बुढिया दरवाजे से हट गई । लेखाकार ने बही उठाकर बुढिया का कर्म-लेखा पड़ा । पढ़कर वह हैरान हो गया । बोला : ”तेरी मौत कैसे हुई ? तुझे तो अभी नहीं मरना था ।

यहां तो लिखा है कि तुम भूख से मरने ही वाली थी कि तुझे भोजन मिल गया । फिर यह सब क्यों हुआ । तू मरी क्यों ? जरा मुझे ध्यान से किताब देखने दे । लेखाकार ने फिर से बही के पन्ने पलटे और बोला : ‘जिस समय तुझे कहीं से खाने को भोजन मिल गया ।

उसी समय एक भूख-प्यास से व्याकुल अनाथ बच्चे ने अपने हाथ फैलाए और तूने अपना सारा भोजन उसे दे दिया । वह पेट भरकर चला गया और तू तड़प-तड़पकर मर गई ।’ बुढिया ने हैरानी से देवदूत की ओर देखा और कहा : “हा-हा, यह सब सच है ।”

परी ने कहा-बुढ़िया ! तू नेक और ईमानदार रही । तुझसे जो अ हो सकता था, वह तूने सच्चे दिल से किया । लोभ, दगा और बेईमानी से दूर रही । तेरे मन में वाह-वाही की इच्छा कभी नहीं रही । तेरे मन में किसी के लिए मैल नहीं रहा । तुम्हारी जगह तो स्वर्ग में सुरक्षित है । तुम तो गलती से यहां पहुंच गई हो ।”

परी ने देवदूत से कहा : ”जाओ, इसे स्वर्ग में ले जाओ ।” देवदूत उसे स्वर्ग के दरवाजे पर ले गया । वहां स्वर्ग के देवता उसका स्वागत करने के लिए खड़े थे । देवताओंके राजा इंद्र ने कुइढ्‌या को माला पहनाई । स्वर्ग की अपसराओं ने उसकी आरती उतारी । इंद्राणी ने उसे नई पोशाक पहनने के लिए दी ।

समय बाद उस बुढ़िया को स्वर्ग में स्नान कराया गया । बुढ़िया को दिव्य शरीर प्राप्त हो गया । अब वह एक अत्यंत सुंदर देवी बन गई थी । इंद्र ने कहा : ”आपका स्वागत है । आपने अपने त्याग से ‘देवी’ का पद प्राप्त कर लिया है ।

देवता आपके सामने माथा नवाते हैं । स्वर्ग में आपका निवास अचल रहेगा । आपके पुण्य के प्रताप से हम सब निस्तेज हो गए । स्वर्ग की परियां आपकी सेवा में सदैव तत्पर रहेंगी ।” उसके बाद देवी बनी बुढ़िया को आसन पर बैठाया गया और दासियां उसकी सेवा में लग गईं । अब सुनो उस अमीर का हाल । नरक दूतों ने उसे जलती रेत में घसीटा ।

वह खोलते हुए तेल के कड़ाह में डाला गया, फिर उसे कांटों की सेज पर सुलाया  गया । चारों तरफ आग-ही-आग वहां दिखाई पड़ती थी । इतने में यमराज वहां से गुजरे । उन्होंने यमदूत से कहा : ‘यह बहुत बड़ा पापी है । इसे कठोर-से-कठोर दंड मिलना बचाहिए । इसके साथ तनिक भी रियायत करने की जरूरत नहीं है । गरम दहकती हुई लोहे से कटवाओ ।’

यमदूत यमराज की आज्ञा का पालन करने लगे । नरक की परी खड़ी-खड़ी यह सब देख रही थी । वह संतुष्ट थी कि उसके साथ न्याय किया जा रहा था । कुछ दिनों के बाद स्वर्ग और नरक की सफेद और नीले पंखों वाली परियां आपस में मिली । दोनों में गहरी मित्रता थी ।

स्वर्ग की परी बोली : “बहन ! वह कम्बखत अमीर का बच्चा न जाने कैसे स्वर्ग के दरवाजे तक आ गया था । मैंने उसके ‘कर्म लेखा’ की बही देखी तो पाया कि उसने अपने जीवन में सिर्फ एक बार ही बचपन में अच्छा काम किया था । उसने एक प्यासे कुत्ते को पानी पिलाया था । इसलिए वह स्वर्ग के दरवाजे के दर्शन कर सका ।”

नरक की परी कहने लगी : ”बहन! उस बुढ़िया ने बचपन में एक बार अपनी बहन के हिस्से की रोटी चुराकर खा ली थी । इसी के कारण उसे नरक का दरवाजा देखना पड़ा ।” स्वर्ग की परी बोली : ”जहां बुड़िया मरी थी, वह जगह अब तक जगमगा रही है ।

जहां रोटी के टुकड़े गिरे थे, वहां की उतनी जमीन सोने की हो गई । बुढ़िया की चिता से सुगध निकल रही थी ।”  नरक की परी कहने लगी : ‘यह अमीर जहाँ जलाया गया था, वहां की जमीन सदा के लिए काली पड़ गई । आस-पास के पौधे मुरझा गए ।

दूर-दूर तक की जमीन बंजर हो गई । आस-पास उड़ने वाले पक्षी तक झुलस गए । पेड़ों के पत्ते उड़ गए ।” स्वर्ग की परी बोली : ”अच्छी करनी का फल सदैव अच्छा ही मिलता है । इसलिए कवि-सुनि और मनीषी सदैव अच्छे कर्म करने पर जोर देते रहते हैं पर इंसान संसार में जाकर उन की हिदायतों पर बकृ कम अमल करता है ।

जो उनके आदेशों हिदायतोंपर अमल करते, उन्हेंस्वर्ग और जोपाप कर्म में लिप्त हो जाते है उन्हें नरक की प्राप्ति ही होती है । उसे देखो न उस बुइढ्‌या को । कितनी सुंदर देवी बनी स्वर्ग में विचर रही है । देवियां उसे घेरे हुए है और उस अमीर आदमी को देखो ।

यमदूतोंने अभी उसका पीछा नहीं छोड़ा है । वे उसे घोर नरक कुटुब में धकेलने के लिए ले जा रहे है ।” इतना कहने के बाद दोनों परियां अपने-अपने रास्ते पर चली गईं । नरक की ओर से चीखने-चिल्लाने की पुकारे उभरती रही । जबकि स्वर्ग की ओर शांत और सुखद वातावरण बना रहा ।


Hindi Story # 3 (Kahaniya)

परी का प्यार |

बात अब से सैकड़ों वर्ष पहले की है । तब फारस के एक नगर में चार बहनें रहती थीं । उनके थे गुलसेहरा और गुलजीनत गुलजीनत चारों बहनों में सबसे छोटी थी नाम : गुलनार, गुलनाज, गुलसेहरा उसे प्यार से जेनी कहकर बुलाती थी ।

अभी जेनी चार बरस की ही थी कि उसके पिता का देहांत हो गया । मा दुखी और अस्वस्थ रहने लगी । जेनी हर पल मां के साथ रहती, घर के काम-काज में उसका हाथ बंटाती । उसकी तीनों बड़ी बहने काम से जी चुराती थी । वे सारा समय गपे लड़ाने और बनाव-सिंगार में बिताती ।

मां उन्हें लाख समझाती-बुझाती, पर उनके कानों पर जू तक नहीं रेंगती थी । मां के मरने के बाद घर के काम-काज का सारा बोझ जेनी के कंधों पर आ पड़ा । बड़ी बहनें सारे दिन सैर-सपाटा करती और बेचारी जेनी घर के कामों में जुटी रहती ।

जैसे-जैसे दिन बीतते गए, जेनी के प्रति उनका व्यवहार और भी बुरा होता गया । वे बात-बात पर उसकी पिटाई कर देती । एक दिन जेनी को तीव्र ज्वर था । वह सारा दिन निढाल पड़ी रही । बड़ी बहने घूम-फिरकर लौटी तो भोजन तैयार न पाकर जेनी पर पिल पड़ी ।

गुलनार ने उसके बाल काट डाले, गुलनाज ने उसे लकड़ी से मारा, गुलसेहरा ने उसे एक अंधेरी कोठरी में बंद कर दिया । जेनी पीड़ा से झटपटाते हुए बेहोश हो गई । देर रात होश में आने पर वह दर्द से कराहने लगी । सिसकियों के बीच उसने बार-बार मां को पुकारा, पर वहां उसकी कौन सुनता ?

तभी मां की स्नेहभरी आवाज उसे सुनाई पड़ी : “बेटी जेनी ! रो मत । मैं आ गई ।” जेनी को लगा, जैसे कोठरी में रोशनी का सागर उमड़ पड़ा हो । उसने देखा, एक बहुत सुंदर परी झील जैसी गहरी नीली-नीली आखों में ममता की झलक लिए उसे निहार रही थी ।

परी बोली : ”मैं तुम्हारी मां की दासी हूं । तुम मुझे मां कह सकती हो ।” जेनी स्तब्ध-सी एकटक उसे देखती रही । ”मैं तुम्हारे लिए कुछ फल लाई हूं खा लो ।” मुस्कराते हुए परी ने कुछ फल जेनी की ओर बढ़ा दिए । फिर बोली: ”अच्छा, अब मैं चलती हूं ।

तुमसे मिलने फिर आऊंगी, इसी दिन, इसी समय ।” कहकर परी अंतर्धान हो गई । परी के ओझल हो जाने पर जेनी ने एक फल खाया । इतना बढ़िया मजेदार फल उसने पहले कभी नहीं खाया था । जेनी के शरीर में पुन: चुस्ती और ताजगी आ गई ।

उसने बड़ी बहन को आवाज लगाई-बड़ी आपा! दरवाजा खोलो । अब मैं ठीक हूं । जेनी बाहर से बद कोठरी का दरवाजा खटखटाने लगी । बड़ी बहनों की नींद टूट गई । वे क्रोध से लाल-पीली होती दरवाजे की ओर झपटी । इससे पहले कि जेनी, कह पाती, तीनों ने मिलकर उसकी जमकर पिटाई कर दी ।

”निकल जा मनहूस! अभी, इसी समय ।” बड़ी बहन चीखी । ”फिर कभी इधर का मुंह किया तो बोटियां नोच लूंगी ।” छोटी बहन ने धमकी दी । जेनी कपड़ों की पोटली और परी के दिए हुए फल लेकर रोती-बिलखती घर से निकल पड़ी । रात के अंधेरे में वह चलती रही, चलती रही ।

भोर के बुधलके में उसे एक कुटिया दिखाई पड़ी । वह कुटिया की ओर चल पड़ी । ”कौन?” कुटिया में से किसी बूढ़े की कांपती-लड़खड़ाती हुई आवाज उसे सुनाई पड़ी । ”बाबा! मैं एक अनाथ, बेसहारा लड़की हूं । सारी रात चलते-चलते थक गई हूं ।

क्या कुछ देर के लिए यहां ठहर सकती हूं ?” ”क्यों नहीं बेटी! पर मेरे पास तुम्हें खिलाने के लिए कुछ भी नहीं है ।” बूढ़े ने दरवाजे पर आकर कहा । ”बाबा! मेरे पास कुछ फल हैं । हम दोनों मिलकर इन फलों को खा लेते है ।” कहते हुए जेनी ने पोटली खोल दी ।

फल खाते ही बूढ़े के कमजोर, जर्जर शरीर में शक्ति आ गई । वे बोले : ”बेटी! ऐसे फल तो न कभी देखे, न कभी सुने । चमत्कार हो गया । फल खाते ही मेरी तो सारी कमजोरी दूर हो गई और यह देख बेटी ! मेरा लकवा मारा हाथ भी काम करने  लगा । कहां से मिले तुम्हें यह फल ?”

जवाब में जेनी ने उन्हें आपबीती सुना डाली । सुनकर बाबा का दिल भर आया । वे औसू भरी आखों से उगते सूरज की ओर देखते हुए भरी आखों से बोले : “ऐ परवरदिगार ! तेरी शान भी क्या अजीब है ?”  जेनी के पूछने पर बाबा ने बताया : ”मैं लकड़ी की सुंदर वस्तुएं बनाकर अपने परिवार का पेट पालता था ।

अचानक गांव में हैजा फूट पड़ा । सबसे पहले मेरी पत्नी और मेरी बेटी को यह रोग लगा ।  हमें गांव से बाहर निकाल दिया गया । बीमार पत्नी और बेटी को लेकर मैं यहा आ गया । वे दोनों तो चल बसी, मैं अभागा अभी तक जिंदा हूं ।

मुझे मौत नहीं आई बेटी ! जब तक हाथ-पांव चलते रहे, छोटी-मोटी चीजें बनाता  रहा । दो साल पहले लकवा मार गया था, पर बेटी ! तेरे दिए ये फल खाने से मेरे हाथों में अद्‌मुत शक्ति आ गई है । अब मैं तेरे लिए काम करूगा । अपनी बिटिया रानी के लिए ।

जाता हूं जगल से कुछ लकड़िया ले आऊं ।” कहकर बूढ़े बाबा ने जेनी के सिर पर हाथ फिराया और कुल्हाड़ी उठाकर जंगल की ओर चल पड़े । जेनी ने कुटिया में साफ-सफाई की । मां की निशानी चांदी की पायल बेचकर बाजार से आटा, दाल, सब्जी आदि खरीद लाई । खाना पकाकर बाबा का इंतजार करने लगी ।

दोपहर में बाबा ढेर सारी लकड़ियां लेकर वापस आए । भोजन की सुगंध और कुटिया की काया परिवर्तन देखकर बाबा गद्‌गद् हो उठे । खाने के बाद बाबा काम में जुट गए । सूरज ढलने से पहले उन्होंने कई खिलौने बना डाले । जेनी भी उनका हाथ बंटाती रही ।

अब बाबा नित्य बाजार को जाते । खिलौने बेचकर खाने का सामान लेते और वापस आ जाते । इस तरह छ: दिन और छ: रातें बीत गईं । परी माँ की याद आते ही जेनी व्याकुल हो उठी : ‘आज परी माँ मेरी कोठरी में आएगी, पर मैं क्या करूं ? उस घर में वापस भी तो नहीं जा सकती । फिर बाबा का क्या होगा ?’

धीही बीती होगी कि वही मधुर आवाज कुटिया में सुनाई पड़ी: “बेटी जेनी ! मैं आ रात आ गई ।” जेनी जाग गई : ”परी मां…परी मां!” कहकर जेनी उससे लिपट गई और रोने लगी : ”मेरी बहनों ने मुझे…।” ”मैं सब जानती हूँ बेटी! अल्लाह जो भी करता है, भले के लिए ही करता है ।

अरे, कितने सुंदर खिलौने, तुम दोनों ने बनाए हैं ?” परी ने खिलौनों की ओर देखते हुए कहा : “अपने बाबा से कहना कि कल इन्हें शाही महल की हाट में बेच आएं, अच्छे दाम मिलेंगे और हां, तुम्हारी मां ने यह कपड़े तुम्हारे लिए स्वयं तैयार किए हैं ।”

कहकर परी ने जेनी के सिर पर हाथ फिराया और फिर गायब हो गई । जेनी के कहने पर खिलौने लेकर बाबा शाही महल की हाट में गए । सबसे पहले राजदरबारी हाट देखने के लिए आए । खिलौने उन्हें इतने अच्छे लगे कि वे तुरंत बाबा को महल में ले गए ।

जब खिलौने बादशाह के सामने रखे गए तो वे मुग्ध होकर बोले : ”वाह! कितने सुंदर खिलौने हैं । हमें गर्व है कि तुम जैसे शिल्पकार हमारे राज्य में हैं । ऐसे सुदर एवं मनमोहक रंग तो मैं आज पहली बार देख रहा हूं कैसे रंग हैं ये ?”

”हुजूर! रंगाई तो मेरी बेटी करती है ।” बाबा ने अदब से जवाब दिया । ”बहुत सुंदर । हम तुम्हारी बेटी से मिलकर प्रसन्न होंगे । आज ही उसे ले आओ ।” बादशाह ने आदेश दिया । बाबा जेनी को लेकर सूर्यास्त से पहले शाही महल में आ गए । बादशाह की नजर परी सरीखी जेनी पर पड़ी तो वह उसे देखते ही रह गए ।

”इतनी सुंदर लड़की के बारे में केवल कहानियों में पढ़ा था । यह इतनी सुंदर है, जैसे परी लोक से आई हो । बेटी! क्या नाम है तुम्हारा ?” बादशाह ने पूछा । ”बादशाह सलामत! इस दासी को गुलजीनत कहते है । वैसे, सब मुझे जेनी कहकर पुकारते हैं ।” जेनी ने शालीनता से उत्तर दिया ।

”बहुत अच्छा नाम है तुम्हारा । काश! हमारे शहजादे स्वस्थ होते ।” कहते-कहते बादशाह के चेहरे पर उदासी छा गई : ”डरे-सहमे अपने कमरे में बंद रहते हैं । दिन-ब-दिन पुलते जा रहे हैं और अब तो उनका चलना-फिरना भी बंद हो गया है ।” बादशाह ने बताया ।

”बादशाह सलामत ! मुझे एक सप्ताह का समय दें तो मैं कुछ यत्न करूं ।” जेनी ने विनयपूर्वक कहा । ”क्यों नहीं बेटी?” बादशाह मुस्कराए-जमाल से तुम दोनों बाप-बेटी महल में रहोगे । खुदाबंद करीम तुम्हें कामयाब करे ।” जेनी बाबा के साथ राजमहल में रहने लगी ।

सातवीं रात जेनी ने परी को शहजादे की बीमारी के बारे में बताया । परी ने जेनी को एष्क फूल देते हुए कहा : ”बेटी! प्रात: सूर्योदय के समय शहजादे को सुधा देना, वह स्वस्थ हो जाएंगे ।” अगले दिन जेनी ने वह फूल राजकुमार की मां यानी महारानी को दे दिया और सब कुछ समझा दिया ।

अगले दिन प्रातःकाल महारानी ने वह राजकुमार को सुधा दिया । फूला फौते ही शहजादे के मुरझाए हुए चेहरे पर फूल-सी ताजगी और सूर्य का-सा तेज चमकने लगा । उसका सारा रोग जाता रहा । कुछ ही दिनों बाद शहजादे के साथ जेनी का विवाह बड़ी धूमधाम से कर दिया गया ।

राज्य में चारों ओर उत्सव मनाए गए । विवाह के तीसरे दिन राजमहल में प्रजा के लिए भोज का आयोजन था । शहजादे और गुलजीनत ने गरीबों को धन और वस्त्र बांटे । जेनी ने देखा कि उसकी तीनों बहने बहुत फटे हाल, हाथ फैलाए उसके सामने खड़ी थी ।

यह देखकर जेनी को बहुत दुख हुआ । ”हमें माफ कर दीजिए मलिका जीनत! ”  गुलनाज गिड़गिड़ाई-‘हमें जाने दीजिए । भूलकर भी हम इधर नहीं आएंगी ।” ”आप तीनों मेरी कैद में हैं ।” जेनी ने उन्हें छेड़ा: ”अब आप यही रहेंगी, मेरे पास ।” उसके बाद उसकी तीनों बहनें जेनी के साथ हंसी-खुशी से रहने लगी ।

उसी रात परी माँ जेनी से मिलने आई । परी मां ने कहा : ‘इस धरती पर यह मेरी अंतिम यात्रा है । बेटी ! जब भी मुझे देखना हो, आइने में अपनी सूरत देख लिया करना । मैंने तुम्हें अपना ही रूप दे दिया है ।’ जेनी एकटक उसे देखती ही रह गई ।

कुछ बोल भी नहीं पाई । परी ने उसका माथा चूमा और यह कहते हुए आकाश में चली गई : ”जेनी । मेरी आत्मा तेरे लिए तड़प रही थी । अल्लाह ने मुझ पर रहम किया । परी के वेश में वे मुझे तुझसे मिलने को भेजते रहे । बेटी जेनी ! मैं ही तेरी: मां हूं खुदा हाफिज ।”

शिक्षा:

आपसी भाई-चारे का सबसे बड़ा मूल मंत्र है प्रेम । यदि विश्व के सब लोग मिल-जुलकर रहें, आपस में प्रेम करें तो इस दुनिया से सभी किस्म के झगड़े दंगा-फसाद आदि मिट सकते हैं । अत: जेनी की भांति हमें भी सबके साथ प्रेममय व्यवहार करना चाहिए ।


Hindi Story # 4 (Kahaniya)

सुनहरी परी के आंसू |

एक राजा था । उसका एक बेटा था । नाम था उसका चंद्रवदन । चंद्रवदन को शिकार करने का बह्म शौक था । एक दिन वह जंगल में शिकार खेलने के लिए निकला, लेकिन लौटते समय रास्ता भटक गया । शाम हो गई थी ।

वह थककर नदी किनारे एक पेड़ के नीचे बैठ गया । अचानक उसके कानों में किसी स्त्री के गाने की आवाज आई । वह चौंका : ‘इस जंगल में इतना मधुर गीत कौन गा रही है ?’ वह गीत की दिशा में चल पड़ा । कुछ दूर जाने पर उसने देखा, नदी किनारे एक पत्थर पर बैठकर सुनहरे से की एक परी अपनी पुन में गीत गा रही है ।

राजकुमार चंद्रवदन मुग्ध होकर उस परी को देखता रह गया । अचानक सुनहरी परी की निगाह राजझार पर पड़ी । वह घबराकर पानी में कूद पड़ी । पानी में जाते ही वह सुनहरी मछली में बदल गई । एक सुर परी को एक सुर मछली में बदलते देखकर राजकुमार चकित रह गया ।

तभी उसने एक विशालकाय मरगमच्छ को अपना जबड़ा खोलकर उस सुनहरी मछली के पास आते देखा । अपने सामने खतरे को देखकर सुनहरी मछली घबरा गई । राजझार ने झट तरकश से तीर निकालकर उस मगरमच्छ को मार डाला । सुनहरी मछली बहुत खुश हुई ।

उसने तट पर आकर राजकुमार को धन्यवाद दिया । राजकुमार अपने राजमहल में लौट आया, पर उसका मन उस सुनहरी परी में ही अटका रहा । शाम होते ही वह फिर घोड़ा दौड़ाता हुआ नदी तट पर आ पहुंचा । घोड़े के टापों की आवाज सुनते ही सुनहरी सतह मछली पानी की पर आ गई ।

राजकुमर को देखकर वह बह्म खुश हो गई और लहराते हुए तैरने लगी । आगे एक मछेरे ने जल में अपना जाल फ्तौ रखा था । सुनहरी मछली उस जाल में फंस गई और तड़पने लगी । राजझार ने जब मछली को जाल में क्से देखा तो वह उसे बचाने के लिए दौड़ पड़ा ।

उसने तलवार से उस जाल को काटकर सुनहरी मछली को आजाद कर दिया । आजाद होते ही सुनहरी मछली फिर परी में बदल गई । राजकुमार की इच्छा थी कि वह उसके साथ उसके राजमहल में चले, पर सुनहरी मछली इसके लिए तैयार नहीं हुई । उसने राजकुमार को समझाया । इस बार वह एक हैसिनी बनकर आसमान में उड़ गई ।

रास्ते में जाते-जाते अचानक एक शिकारी की नजर उस पर पड़ गई । उसके सुनहरे पंखों को देखकर उसने अपना तीर चला दिया । सुनहरी हसिनी का भाग्य अच्छा था कि तीर उसे नहीं लगा । उड़ते-उड़ते उसकी नजर एक हरे-भरे छायादार वृक्ष पर पड़ी । वृक्ष क्यों से भरा हुआ था ।

उसे यह दृश्य बहुत अच्छा लगा । सुनहरी परी सोचने लगी : ‘क्यों न मैं भी एक फूल बन जाऊं ?’ आधी रात को कुछ डाकू उस वृक्ष के नीचे आराम करने लगे । अचानक एक डाकू की नजर उस वृक्ष पर लगे एक ऐसे रू पर पड़ी, जो सितारों की तरह चमक रहा था ।

डास्थुाएं के मन में उस सुनहरे रू को पाने का लोभ जाग उठा । तुरंत एक डाकू उस सुनहरे क्त को तोड़ने के लिए वृक्ष पर चढ़ गया । परी समझ गई कि डाकू की नीयत अच्छी नहीं है । उसने स्त तोड़ने के लिए डंडे से चोट की । परी दूर खिसक गई ।

डाकू बार-बार स्त तोड़ने के लिए आगे बढ़ता रहा । परी भी उसे खिझाने के लिए शाख पर अणे-पीछे ऊपर-नीचे बार-बार अपना स्थान बदलती रही । हैरान डाकू थककर द्व परी के अद्‌पुत करतब से घबरा गया और जमीन पर गिर पड़ा ।

उसे जमीन पर गिरता देखकर दूसरे डाकू उसका मजाक उड़ाने लगे । इस बार एक दूसरा डाकू अपनी मूंछें ऐलता हुआ सुनहरे द्व को तोड़ने के लिए वृक्ष पर चढ़ गया । आखिरकार वह भी पहले डाकू की तरह थककर जमीन पर गिर पड़ा ।

नीचे से दूसरे डाह्मों को ऊपर द्य परी का यह खेल नजर नहीं आ रहा था । वे समझ नहीं पा रहे थे कि बात क्या है ? इस बीच सुबह हो गई । संयोग से राजकुमार चंद्रवदन उधर से गुजर रहा था । डाकुओं ने राजकुमार को देखा तो उन्होंने सोचा : ‘शायद राजकुमार हमें पकड़ने के लिए आया है ।’ उन्होंने राजकुमार पर हमला बोल दिया ।

राजकुमार ने उन डाकुओं का डटकर मुकाबला किया । सारे डाकू घायल होकर वहां से भाग गए । उस मुकाबले में राजकुमार भी बुरी तरह घायल हो गया । परी को राजकुमार पर बहुत तरस आया । वह फिर से परी बन गई । उसने उसी पेड़ की क्कु पत्तियों के रस को निचोड़कर राजकुमार के षावों पर लगाकर हाथ फेरा ।

राजकुमार भला-चंगा हो गया । परी को देखकर राजकुमार बहुत खुश हुआ । राजकुमार ने फिर से परी को अपने महल में चलने को कहा । अपने पिता की मृलु के बाद अब वह राजा बन गया था । सुनहरी परी ने कहा : ”अगर आप हमेशा प्रजा की भलाई के लिए काम करते रहे तो मैं आपके साथ रानी बनकर रह सकती हूं ।” चंद्रवदन ने उसकी बात मान ली । उन दोनों की शादी धूमधाम से हुई ।

उस राज्य की प्रजा इतनी सुंदर रानी को देखकर खुशी से पागल हो उठी । मगर राजा चंद्रवदन के दरबार में कुछ ऐसे लोग भी थे, जो राजा के भाग्य से जलते थे । उन्होंने अपनी सुंदर रानी के खिलाफ तरह-तरह की अफवाहें उड़ानी शुरू कर दी । उनका कहना था : ‘इतनी सुंदर स्त्री कोई मानवी नहीं हो सकती ।’

रानी बनी सुनहरी परी के कानों में भी ये बातें पहुंची तो उसे बलुउत दुख हुआ । उसने राज्य को छोड्‌कर वापस चले जाने की राजा से आज्ञा मांगी । मगर राजा ने समझा-बुझाकर सुनहरी रानी के मन को धीरज बंधा दिया । उसने अफवाह उड़ाने वाले दरबारियों को पकड़कर कड़ा दंड दिया ।

उनमें से एष्क दरबारी किसी तरह भागकर पड़ोसी राज्य में चला गया । वहां का राजा बड़ा लालची था । उस राजा से उस दरबारी ने सुनहरी रानी के रूप की इतनी प्रशंसा की कि वह राजा उसे पाने के लिए चंद्रवदन के राज्य पर चढ़ाई के लिए तैयार हो गया ।

एक बड़ी फौज लेकर उसने एक दिन चंद्रवदन के राज्य पर हमला बोल दिया । घमासान युद्ध हुआ । तेरह रात और तेरह दिन तक बर्छे और तलवारें टकराती रही । आखिरकार पड़ोसी राजा को मुंह की खानी पड़ी । चंद्रवदन के भाले की चोट से उसकी एक आख चली गई ।

अच्छा भला राजा काना होकर, अपनी फौज गंवाकर किसी तरह जान बचाकर भाग गया । पर चंद्रवदन जीतकर भी हार गया । किसी विश्वासघाती ने पीछे से छिपकर उस पर ऐसा वार किया कि वह स्वर्ग सिधार गया । सुनहरी रानी दुख से मर गई । अपने अइयतम के न रहने पर उसके लिए कैसा राज और कैसा पाट ! जब कभी सुनहरी परी बहुत व्याकुल हो जाती है तो वह इंद्रधनुष बनकर धरती पर झांकने लगती है ।

उसे धरती की बातें याद आती हैं, तब उसकी आखों से आसुओं की झड़ी लग जाती  है । धरती के लोग सोचते हैं कि बरसात हो रही है, पर वह बरसात होती है, सुनहरी परी के आसुओं से । वह औसू जो उसके प्रियतम राजा चंद्रवदन की याद में उसकी आखों से निकलते हैं ।

शिक्षा:

चाटुकार, झूठी अफवाहें फैलाने वाले और ऐसे लोगों पर कभी भरोसा नहीं करना चाहिए, जो मुंह पर तो व्यक्ति की प्रशंसा करते हैं, किंतु पीठ फेरते ही उस व्यक्ति की बुराई करने लगते हैं ।


Hindi Story # 5 (Kahaniya)

परी की सौगात |

जंगल के किनारे एक आदिवासियों की बस्ती थी । उस बस्ती के लोग सुबह होते ही शिकार के लिए चल पड़ते थे । उनके कुत्ते भेड़ियों की तरह लम्बे बालों वाले होते थे । वे शेर का भी मुकाबला करते थे । हिरण और लकड़बग्घे को दबोचना उनके लिए बड़ा आसान था ।

आदिवासी अपने इन कुत्तों को जान से ज्यादा प्यार करते थे । धनवा नाम का एक किशोर इसी बस्ती में रहता था । मगर बस्ती वालों से वह दूर-दूर ही रहता था । उसके दोस्त या तो पशु होते या पक्षी । धनवा का एक हाथ और एक पाव टेढ़ा था ।

जब वह लंगड़ाता हुआ चलता तो लड़के उसका मजाक उड़ाते । इसी बात से धनवा दुखी रहता था । उसका मन करता था कि वह गांव छोड़कर चला जाए, लेकिन फिर मां-बाप का ख्याल करके रुक जाता । अक्सर वह बस्ती से दूर किसी पेड़ के नीचे बैठ जाता था और सारे दिन पशु-पक्षियों की आवाजें सुनता रहता ।

कभी सोचता कि भगवान ने मुझे ऐसा क्यों बनाया ? उसे कभी गांव के लडुकों पर गुस्सा आता तो कभी वह अपनी किस्मत पर आंसू बहाने लगता । एक दिन उसे घर लौटने में शाम हो गई । वह घने जंगल में दूर चला गया था । वहीं एक पेड़ के नीचे बैठकर वह किसी खरगोश के साथ खेलता रहा ।

वहा उसने कुछ नए पक्षी भी देखे । वह घर लौटने की सोच रहा था कि अचानक एक चमकीली चिड़िया उसके सिर पर मंडराने लगी । धनवा ने देखा, चिड़िया बार-बार रंग बदल रही थी और मीठी आवाज में चीं-ची करती चक्कर काट रही थी ।

धनवा से रहा नहीं गया । वह उस चिड़िया को पकड़ने के लिए उठ खड़ा हुआ । चिड़िया जिस तरफ उड़ती, वह भी उसी तरफ भागने लगता । अचानक चिड़िया की चोंच से स्त्री का स्वर सुनाई पड़ा । मैं चमकीली परी हूं । क्या तुम मेरे साथ खेलोगे ?”

धनवा बोला : ”क्यों नहीं, लेकिन तुम रहती कहां हो ?” चिड़िया बोली : ”परी लोक में रहती हूं ।” धनवा ने अपने माता-पिता से कई बार परी लोक की कहानियां सुनी थी । वह चिड़िया के पीछे-पीछे चल पड़ा । चिड़िया धीरे-धीरेउड़ रही थी । धनवा कभी झपटकर चलता तोकभी दौड़ लगाता ।

आखिर वह एक जगह थककर बैठ गया । चिड़िया ने उसे थका हुआ देखा तो उसे उस पर दया आ गई । बोली : ”बालक! इस तरह तो तुम थककर चूर हो जाओगे । मैं तुम्हारे लिए अपने पख फैलाती हूं ।  तुम उन पर बैठ जाना, फिर मैं तुम्हें उड़ाकर अपने साथ ले जाऊंगी । तुम्हें कष्ट नहीं होगा ।”

धनवा आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगा । चिड़िया का आकार बड़ा होने लगा था । अब वह बहुत बड़ी दिखाई दे रही थी । धनवा मजे से उस पर बैठ गया । चिड़िया आकाश में उड़नेलगी । ऊपर और ऊपर, जहां साधारण पक्षी नहीं पहुच पाते थे । वह उड़ती जा रही थी ।

चिड़िया अंतरिक्ष में पहुंची तो धनवा के हाथ-पांवों में भार नहीं रहा । वह चिड़िया के पंखों से गिर पड़ा और स्वयं ही आकाश में तैरने लगा । उसे लगा जैसे वह भी एक चिड़िया बन गया है । चिड़िया ने जब उसे अंतरिक्ष में तैरते हुए देखा तो चिंता में पड़ गई ।

सोचने लगी : ‘इस तरह तो यह पीछे रह जाएगा । परी लोक तो अभी बहुत दूर है ।’ यह सोचकर वह फिर पीछे की ओर मुड़ी और बोली: ”बालक! मुझे कसकर पकड़ लो । अगर इस तरह उड़ना ही चाहते हो तो मेरे साथ उडो ।”

धनवा कुछ देर तक चिड़िया को पकड़कर उड़ता रहा और फिर उसके पंखों पर बैठ गया । चिड़िया पुन: बोली : ”तुम मेरे साथ परी लोक की सैर करना, लेकिन एक शब्द भी मत बोलना । अगर बोले तो परियों की रानी तुम्हें कारागार में भेज देगी ।

फिर तुम सारी उम्र वहीं सड़ते रहोगे । यह भी याद रखना कि मैं वहां जाते ही एक परी की शक्त में बदल जाऊंगी । बस, मेरे पंख दूसरी परियों से भिन्न होंगे । उनसे रंग-बिरंगी किरणें निकल रही होंगी । इससे तुम मुझे पहचान सकोगे ।”

धनवा बोला : ‘तुम फिक्र न करो । मैंबिस्व नहीं बोलूंगा, लेकिन मुझे अपना पूरा महल अवश्य दिखाना ।’ चिड़िया उसे लेकर परी लोक में पहुंच गई । वहा जाते ही वह परी की शक्ल में आ  गई । धनवा ने देखा, वहां दूध की नदियां बह रही हैं । सेब के रस के झरने हैं । वृक्ष तरह-तरह की मीठे फलों से लदे हैं ।

कई पेड़ों पर मिठाइयां लटकी हुई हैं । चिड़िया परी ने धनवा को एक कुज में छोड़ दिया और कहा : ”तुम यहीं रहो, यहां तुम्हें भूख-प्यास नहीं सताएगी । बीच-बीच में मैं आया करूंगी । तुम्हें परी लोक की सैर भी करा दूंगी ।”

धनवा रोज पेट भरकर मिठाइयां खाता, फल खाता, जी-भरकर दूध पीता और सेब के रस का आनंद लेता । एक दिन उसने देखा कि उसके टेढ़े हाथ और पाव बिल्कुल ठीक हो गए हैं । यह देखकर वह बड़ा खुश हुआ ।

कुछ दिन बाद उसे अपने माता-पिता की याद आनेलगी । उसने परी से घर जाने की प्रार्थना की । परी चिड़िया बन गई और उसे अपने पंखों पर बैठाकर पृथ्वी पर ले आई । वह परी लोक से अपने साथ फल भी लाई थी ।

धनवा से विदा लेते समय उसने कहा : ”धनवा ! अब तुम अपग नहीं हो । अब कोई तुम्हारा मजाक नहीं उड़ाएगा । मैं तुम्हें परी लोक का एक फल भी दे रही हूं इसे किसी पेड़ के खोखल में रख देना । तुम जितने चाहोगे, उतने फल उस खोखल से निकल आया करेंगे, लेकिन शर्त यह है कि प्रतिदिन बच्चों को एक-एक फल अवश्य देना, अन्यथा यह फल अपने आप उड़कर परी लोक में पहुंच जाएगा ।”

इसके बाद धनवा ने परी के सामने ही वह फल एक पेड़ के खोखल में डाल दिया । इसके बाद परी धनवा से विदा लेकर अपने लोक चली गई । कहते हैं, आज भी उस पेड़ के खोखल से फल गिरते हैं, लेकिन उसे केवल आदिवासी बच्चे ही खा सकते हैं । दूसरों को तो वे दिखाई भी नहीं देते । धनवा आज नहीं है, लेकिन वहा एक पक्षी होता है जो ‘धनवा-धनवा’ की आवाजें करता हुआ उड़ा करता है ।


Hindi Story # 6 (Kahaniya)

एक बंदर परी लोक के अंदर |

एक परी थी । उसके पख गुलाबी थे, इसलिए सब उसे गुलाबी परी कहते थे । गुलाबी परी कोझील में नहाना बहुत पसंद था । परी लोक में कोई झील नहीं थी, इसलिए वह चांदनी रातों में धरती पर आती और एक झील में स्नान करके वापस अपने लोक को चली जाती ।

उस झील के किनारे एक पुराना वृक्ष था । उस पर एक नटखट बंदर रहता था । उसके बालों में बड़ी-बड़ी जुए थी । जब भी गुलाबी परी झील पर नहाने आती, वह अपने पंख उतारकर पेड़के पास रख देती थी । पंखों की महक से उस बंदर की जुओं में कुलबुलाहट पैदा हो जाती थी और वे बंदर को काटने लगती थीं ।

बंदर परेशान हो जाता था । एक दिन बंदर की नजर गुलाबी परी के पंखों पर पड़ी, उसकी समझ में आ गया कि इन पंखों की महक से ही जुए उसे काटती हैं । वह उन पंखों को कहीं दूर फेंक देने की सोचने लगा । एक दिन गुलाबी परी ने अपने पंख उतार कर पेड़ के पास रखे और झील में नहाने लगी ।

इसी बीच बंदर पेड्‌से उतरकर नीचेछिप गया औरमौका देखकर उसनेपरी के पंख उठा लिए । पंख लेकर वह पेड़ की सबसे ऊंची डाली पर जा बैठा और खौं-खीकर स्नान कर रही परी को चिढ़ाने लगा । बंदर की खौं-खौंकी आवाज सुनकर परी नेपेड़ की ओर देखा । पेड़ का दृश्य देखतेही परी घबरा गई ।

उसकी निगाह बंदर पर पड़ गई, जो उसके पंख दिखाकर उसे चिढ़ा रहा था । परी बंदर के आगे हाथ जोड़कर रुआसे स्वर में बोली : ”बंदर मामा! मेहरबानी करके मेरे पंख लौटा दो ।” बदले में बंदर ने उसे घुड़की दी । वह बोला : ”भाग जा, तेरे इन पंखों के कारण मैं आधा रह गया हूं । अब मैं इन्हें नहीं दूँगा ।”

बंदर ने एक-एक पख दोनों हाथों में पकडू लिए और उनसे वह अपना बदन खुजलाने लगा । कुछ ही देर में एक करिश्मा हुआ । पंखों का हिलना था कि पेड़ पर बैठे बंदर का सतुलन बिगड़ गया । उसके पैर उखड़ गए और वह आकाश में उड़ने लगा ।

परी के पंख थे न ! आकाश में उड़ते ही बंदर घबरा गया । वह नीचे उतरने के लिए तेजी से हाथ-पैर हिलाने लगा । बंदर उड़ते-उड़ते परी लोक में जा पहुँचा । परी लोक की बात ही दूसरी थी । बदर को लगा, जैसे वह जीते-जी स्वर्ग में आ गया हो ।

चारों ओर सोने-चांदी से झिलमिलाते बाग । हीरे-पन्नों से चमकते फूल और फल । तितलियां-सी उड़ती रंग-बिरंगी परियां । ‘वाह, वाह, वाह!’ कहता हुआ बंदर एक पेड़ पर बैठ गया । गुलाबी परी के दोनों पंख उसने अपने अगल-बगल दबा लिए और लगा उछलने-कूदने । एक फल तोड़ता ।

जरा-सा उसमें मुंह मारता और नीचे फेंक देता । एक फूल तोड़ता, नाक से लगाकर खुला, फिर उसे नीचे फेंक देता । सवेरे तक उसने सारा बाग उजाड़ दिया, फिर पेड़ की सबसे ऊंची डाली पर जाकर सो गया । गुलाबी परी के पंख उसके पास थे ही । उनकी सुगंध इतनी तेज थी कि बंदर की जुएं भी उससे बेहोश हो गईं ।

दिन निकला । बाग की रखवाली करने वाली परी वहां पहुंची । उसने जब बाग की हालत देखी तो चीखने-चिल्लाने लगी । तभी उसकी निगाह पेड़ की सबसे ऊंची डाली पर पैर पसारकर सोते हुए बंदर पर पड़ी । इससे पहले उसने कभी बंदर नहीं देखा था ।

वह बंदर को देखकर जोर-जोर से चीखने लगी । कुछ ही देर में वहां बहुत-सी परियां इकट्‌ठी हो गईं । एक परी जाकर परियों की रानी को बुला लाई । शोर सुनकर बंदर जाग उठा । आखें मलते उठा तो देखा, अजब तमाशा । बस लगा खौं-खौं करने । परी रानी ने चार परियों को आज्ञा दी : ‘इस बेवकूफ प्राणी को पकड़ लो ।’

आज्ञा पाते ही परियां बंदर की तरफ झपटी । बंदर ने पंख हिलाए और फड़फड़ाकर उड़ चला । बंदर को उड़ता देखकर वे चारों परियां डर गईं । आज तक उन्होंने किसी जानवर को उड़ते हुए नहीं देखा था । उड़ते-उड़ते अचानक बंदर ने देखा, नीचे एक बहुत बड़ा घर है । सारा घर फूलों से बना है ।

आगन में भट्‌टी जल रही है । भट्‌टी पर एक कड़ाह रखा है । पास में एक बूढ़ा बौना उसमें कड़छी चला रहा है । बंदर आकाश से उतरकर आगन में आया । दीवार में छेद था, बंदर उसमें जा बैठा । ”कौन हो तुम ?” उस बूढ़े बौने ने बंदर से पूछा ।

”मैं बंदर हूं ।” वह बोला: ”तुम कौन हो?” बूढ़े बौने ने बंदर को ध्यानपूर्वक देखा । फिर बोला : ”बंदर क्या होता है ? मैं तो परियों का वैद्य हूं ।” ”मैं महावैद्य हूं ।” बंदर ने रोब से कहा: ”देखते नहीं, मेरे पास गुलाबी पंख हैं ।” बूढ़े बौने ने बंदर के गुलाबी पंख देखे तो सिर हिलाता हुआ बाहर चला गया ।

उसके जाते ही बंदर ने घर की सारी दीवारें नोंच डाली, सारे फूल तोड़ डाले । परी रानी को पता चला तो उसने तुरंत परी सैनिक भेजे । सैनिकों ने बूढ़े बौने का घर घेर लिया । बंदर नहीं बच सका । परी सैनिकों ने उसको पकड़ लिया । पकड़कर बंदर को परी रानी के दरबार में लाया गया ।

”कौन हो तुम?” परी रानी ने पूछा । ”मैं बंदर हूं ।” बंदर बोला । ”बंदर क्या होता है?” रानी ने दोबारा पूछा । “आदमी का पुरखा ।” बंदर बोला । ”आदमियों को परी लोक में आने की आज्ञा नहीं, तुम कैसे आ गए?” परी रानी ने पूछा । बंदर ने दांत निकालकर कहा-”पंखों से उड़कर आया और कैसे आता ?”

तभी परी रानी को बंदर की बगल में दबे गुलाबी पंखों का ध्यान आया । उसने अपनी अंगरक्षक परियों से कहा : ”इसके दोनों पैख छीन लो ।” बंदर खौं-खौं करके शोर मचाने लगा । वह कहने लगा : ”ऐसा तो कभी भी नहीं सुना गया । परियां तो किसी की भी चीज को नहीं छीनती ।

तुम मेरे पंख क्यों छीनती हो ? यह कहां का न्याय है ?”  परी रानी उसकी बात सुनकर कुछ शर्मिंदा-सी हो गई । सचमुच ही परियां किसी की चीज को जबर्दस्ती नहीं छीनती । ”ठहरो ।” उसने कहा । फिर वह कुछ सोचने लगी । बहुत सोच-समझकर जब वह थक गई तो बोली: ”आदमी के इस पुरखे को कारागार में बद कर दो । कल इसके विषय में सोचेंगे ।”

बंदर परियों की हवालात में बंद कर दिया गया । रात-भर वह चुपचाप एक कोने में पड़ा रहा । जैसे ही अंधेरा हुआ, वह लगा जोर-जोर से खौं-खौं करने और शोर मचाने । एक सैनिक परी ने जंगले में सिर डालकर उससे पूछा : ”क्यों शोर मचा रहे हो ?”

बंदर ने उसके प्रश्न का उत्तर तो नहीं दिया, लेकिन एकदम झपटकर उसकी नाक नोंच ली । बेचारी सैनिक परी चीखती-चिल्लाती वहां से भाग गई । परी हवलदार आई तो बंदर छलांग लगाकर उसके कंधे पर जा चढ़ा । उस बेचारी का कान उसने इतनी जोर से काटा कि सारी हवालात में तहलका मच गया ।

सवेरे परी रानी ने बंदर की हरकत सुनी तो वह मारे क्रोध के तमतमा उठी । उसने तुरंत आज्ञा दी : ‘आदमी के इस पुरखे की पूछ काट दी जाए और इसे वापस धरती पर फेंक दिया जाए ।’  परी रानी के आदेश पर बंदर को परी जल्लाद के पास ले जाया गया ।

वह बहुत रोया-चिल्लाया, मगर उसकी एक न सुनी गई । जल्लाद ने एक तेज पुरी से उसकी तीन चौथाई पूंछ काट दी । फिर उसको परी लोक से नीचे फेंक दिया । बंदर गुलाबी पंखों को भी न खोल सका । जोर-जोर से चीखता-चिल्लाता वह सीधे अपने पुराने पेड़ पर आकर गिरा ।

सहायता के लिए उसने अपने दोनों हाथ उठाए तो उसकी बगल में दबे दोनों गुलाबी पंख नीचे जा गिरे । पंख शरीर से अलग हटे तो बेहोश हुई जुए जाग उठी । वे पागल-सी हो गईं और बंदर को काटने लगी । गुलाबी परी झील के किनारे बैठी रो रही थी ।

उसने पेड़ से अपने पंख नीचे गिरते देखे तो वह खुशी से नाच उठी । दौड़कर उसने अपने पंख उठाए और परी लोक को उड़ गई । उड़ते-उड़ते उसने नीचे की ओर देखा, बंदर अपनी कटी पूंछ को उठाए अपने शरीर को तेजी से खुजला रहा था । उसे शरारत करने की अच्छी सजा मिल गई थी ।

शिक्षा:

व्यर्थ ही किसी को नहीं सताना चाहिए और न ही कभी किसी की नकल करनी चाहिए, क्योंकि नकल करने का परिणाम क्षत भयानक निकलता है ।


Hindi Story # 7 (Kahaniya)

जैसे को मिला तैसा |

किसी गांव में एक विधवा रहती थी । उसका एक ही पुत्र था । उसका नाम विक्रम था । जीवन-यापन के लिए विधवा को बहुत कठिन परिश्रम करना पड़ता था । वह बेचारी दूसरे लोगों के घरों मेंजाकर उनके कपड़े धोती, उनके चौका बर्तन के काम करती, तब कहीं जाकर उसे और उसके बेटे को दो वक्त की रोटी खाने को मिलती थी ।

समय बीतता गया । बालक विक्रम जवान हो गया । एक दिन उसकी मां ने उससे कहा : “बेटा ! अब तू कमाने योग्य हो गया है । शहर में जाकर कोई नौकरी खोज ले । मैं अब बूढ़ी हो गई हूं । मुझसे अब काम-काज नहीं होता ।

तुझे नौकरी मिल जाएगी तो मैं घर में आराम से बैढूंगी । फिर एक दिन तेरी शादी किसी अच्छी लड़की से कराकर अपने दायित्व से मुक्ति पा लूंगी ।” मां का आदेश मानकर विक्रम शहर में किसी नौकरी की तलाश में चल पड़ा ।

शहर में उसने अनेक जगह पर नौकरी खोजने का प्रयास किया, परंतु कहीं भी काम नहीं बना । अंत में वह एक सेठ की दुकान पर पहुचा । सेठ हीरे-जवाहरात का व्यापारी था । उसने सेठ से कहा : ”सेठजी! क्या आपको किसी नौकर की जरूरत है ?”

”हां भई! जरूरत तो है ।” सेठ ने उसकी ओर देखते हुए कहा : ”करोगे मेरे पास नौकरी ?”  ”जरूर करूंगा सेठजी! इसीलिए तो आपके पास आया हूं ।” विक्रम ने कहा । विक्रम ने सेठ से तनखाह के लिए भी जिरह नहीं की, सेठ ने जितनी तनखाह देने के लिए कहा, उसने मंजूर कर ली ।

कई दिन गुजर गए । सेठ ने न तो उसकी तरफ ध्यान दिया और न उसे करने के लिए कोई काम ही बताया । विक्रम को यह बात अजीब-सी लगी । उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि जब सेठ को मुझसे कोई काम कराना ही नहीं था तो उसने मुझे नौकरी पर किसलिए रखा है ?

एक दिन उसने पूछ ही लिया : ”सेठजी! पूरा सप्ताह गुजर गया, आपने मुझसे कोई काम ही नहीं लिया । मेरी अंतरात्मा इस बात को गवारा नहीं करती कि मैं मुफ्त में ही आपसे अपनी तनख्वाह वक्ष । इसलिए यदि आप मुझसे कोई काम लेना चाहते है तब तो ठीक है, अन्यथा मुझे विदा कीजिए ।

मैं किसी और सेठ के पास जाकर काम ढूंढूं ।” ”नहीं भाई! तुम्हें कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है ।” सेठ बोला : ”कल मैं तुम्हें अपने साथ ले जाकर, तुमसे एक विशेष काम कराऊंगा ।” सेठ ने तब विक्रम को एक बड़ी चमड़े की खाल उतारने और इसके बाद चार बड़े-बड़े बोरे लाने और सफर के लिए दो घोड़े तैयार करने की आज्ञा दे दी ।

अगले दिन एक घोड़े पर बैल की खाल और बोरे लाद दिए गए । दूसरे पर सेठ खुद सवार हुआ और वे चल दिए अपने गंतव्य की ओर । जब वे बहुत दूर एक पहाड़ की तलहटी में पक्ष गए तो सेठ ने घोड़ा रोका और विक्रम को दूसरे घोड़े पर लदे बोरे और बैल की खाल उतारने के लिए कहा ।

विक्रम ने ऐसा ही किया । सेठ ने तब उसे आदेश दिया कि वह बैल की खाल को उलटकर उस पर लेट जाए । विक्रम की समझ में नहीं आया कि किस्सा क्या है ? मगर उससे मालिक का हुक्म टालने की हिम्मत न हुई । उसने वैसा ही किया ।

सेठ ने विक्रम को खाल में लपेटकर एक बंडल-सा बनाया, उसे अच्छी तरह कस दिया और एक चट्‌टान के पीछे जाकर छिपकर खड़ा हो गया । कुछ ही देर बाद दो बड़े-बड़े पक्षी वहा आए । उन्होंने उस खाल को अपनी चोंचों से पकड़ लिया, जिससे ताजे मांस की गध आ रही थी और उसे एक ऊंची पहाड़ी पर उड़ा ले गए ।

चोटी पर पहुंचकर दोनों पक्षी उस खाल को चोंचों और पंजों से फाड़ने और उसे इधर-उधर खींचने लगे । खाल फट गई और उसमें से विक्रम लुढ़ककर बाहर आ गया । पक्षियों ने उसे देखा तो वे डरकर उड़ गए । साथ में वे उस खाल को भी उड़ा ले गए । विक्रम उठकर खड़ा हो गया और अपने इर्द-गिर्द देखने लगा ।

सेठ ने उसे नीचे से देखा तो चिल्लाया : ”विक्रम ! वही चुपचाप क्यों खड़े हो ? तुम्हारे पैरों के पास जो रंगीन पत्थर पड़े हैं, उन्हें नीचे मेरे करीब फेंक दो ।”  विक्रम ने अपने नीचे की तरफ निगाह पुमाई तो देखा कि वहा सचमुच ही बहुत-से हीरे इधर-उधर बिखरे पड़े थे ।

उनमें लाल, नीलम, पन्ना और फीरोजी भी थे । हीरे बड़े-बड़े और खूबसूरत थे और धूप में खूब चमक रहे थे । विक्रम हीरे उठा-उठाकर नीचे खड़े सेठ के पास फेंकने लगा । सेठ उन्हें जल्दी-जल्दी उठाकर अपने बड़े-बड़े बोरों में भरता गया । विक्रम बहुत देर तक काम करता रहा । अचानक उसके दिमाग में एक ख्याल उभरा तो उसका खून सूख गया ।

”मालिक! मैं यहां से नीचे कैसे उतरूंगा ?” उसने चिल्लाकर सेठ से पूछा । ”कुछ और हीरे नीचे फेंक दो ।” सेठ ने जवाब दिया: ”फिर मैं तुम्हें नीचे उतरने की तरकीब बता दूंगा ।” जब बोरे ऊपर तक भर गए तो सेठ ने उन्हें घोड़ों पर लाद लिया ।

फिर उसने पुकार कर कहा : ”बेटा विक्रम! अब तो तुम समझ गए न कि मैं अपने नौकरों से क्या काम लेता हूं । देखो तो वहां पहाड़ पर तुम्हारे जैसे कितने और हैं ?” इतना कहकर सेठ अपने घोड़ों को हांक ले गया । विक्रम पहाड़ पर खड़ा रह गया । वह नीचे उतरने का रास्ता तलाश करने लगा ।

मगर वहां तो सिर्फ और खाइयां थी और हर जगह इंसानी हड्डियां बिखरी पड़ी थी । ये उन लोगों की हड्डियां थी, जो उसी की तरह सेठ के नौकर रहे थे । स्थिति की भयावहता को देख विक्रम कांप उठा । अचानक उसे अपने ऊपर पंखों की जोरदार फड़फड़ाहट सुनाई दी और इससे पहले कि वह किसी जगह छिप सके, एक बहुत बड़ा पहाड़ी उकाब उस पर झपट पड़ा ।

उसने विक्रम को अपने दोनों पंजों में कसकर पकडू लिया । वह अपनी चोंच से उसका शरीर फाड़ना ही चाहता था कि विक्रम ने एक हाथ से उसकी चोंच भींच ली । यह देखकर उकाब अचकचा गया । उसने विक्रम को अपने पंजों से आजाद कर पीछे की ओर हटाना चाहा, मगर विक्रम बहुत सतर्क था ।

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उसने उकाब की चोंच तो छोड़ दी, लेकिन दोनों हाथों से कसकर उसके पंजों को पकड़ लिया । उकाब ने एक जोर की सीटी-सी मारी और वह उड़ने का प्रयास करने लगा । उसने विक्रम को झटककर दूर कर देना चाहा, किंतु विक्रम ने उसके पैर नहीं छोड़े उकाब उसे लटकाए जमीन से थोड़ा ऊपर उठकर दाएं-बाएं चक्कर लगाने लगा ।

फिर वह उसे लेकर तलहटी की ओर उड़ चला । पहाड़ की चोटी से जब विक्रम भूमि के काफी निकट पहुंच गया तो उसने उकाब के पैर छोड़ दिए और थककर जमीन पर जा गिरा । उकाब को जब यह महसूस हुआ कि उसके पैरों में लिपटी बला नीचे गिर गई है तो वह तेजी से ऊपर उड़ता चला गया ।

इस प्रकार विक्रम मौत के भयानक मुंह से सही-सलामत निकल आया । विक्रम फिर से नगर में पहुंचा और किसी अन्य सेठ के यहां नौकरी तलाश करने लगा । अचानक उसने उसी सेठ को, यानी अपने पुराने मालिक को अपनी तरफ आते देखा ।

”सेठ! क्या आपको नौकर की जरूरत है ?” विक्रम ने उससे पूछा । सेठ के दिमाग में तो भूलकर भी यह बात नहीं आ सकती थी कि उसका कोई नौकर पहाड़ पर जाकरलौटकर वापस भी आ सक्ता है । ऐसा तोपहलेकभी हुआ ही नहीं था ।

इसलिए उसनेविक्रम को कोई दूसरा आदमी समझा और उसे अपने साथ घर ले गया । कुछ समय बाद सेठ ने विक्रम को पहले की ही तरह दो घोड़े और चार बोरीसहित एक बैल की खाल लाने को कहा और उन्हें लेकर विक्रम के साथ पहाड़ की ओर चल पड़ा ।

वहां पहुंचकर सेठ ने विक्रम को पहले की तरह ही खाल पर लेटने और उसे अपने गिर्द लपेटने को कहा । विक्रम बोला : ”सेठजी ! मैं थोड़ा-सा मंद बुद्धि हूं । आपकी बात मेरी समझ में ठीक से आई नहीं है । आप मुझे स्वयं करके दिखा दीजिए, फिर मैं उसे समझ जाऊंगा ।”

“इसमें समझने की क्या बात है ? देखो, इस तरह करना है ।” कहते हुए सेठ बैल की खाल पर लेट गया । बस, यही तोचाहिए था विक्रम को । वह तुरंत उस पर छा गया । उसनेसेठ परकाबूकरके आनन-फानन में उसके शरीर का बंडल-सा बना लिया, उसे कसकर बाधा और एक ओर छिपकर खड़ा हो गया ।

”अरे मेरे बेटे!” सेठ चिल्लाया: ”यह तुमने मेरे साथ क्या कर दिया है ? अरे मुझे खोलो…मुझे जल्दी से इस बंडल से बाहर निकाल लो ।” मगर उसी समय वही दो बड़े-बड़े पक्षी उड़ते हुए वहां पहुच गए और बैल की खाल को अपनी चोंचों में पकड़कर ले उड़े ।

वहां पहुंचकर वे खाल को चोंचों और पंजों से फाड़ने लगे । कुछ देर बाद जब खाल फट गई और उसके बीच डरा हुआ सेठ उन्हें दिखाई दिया तो वे डर गए और सेठ को वहीं छोडकर उड़ गए । सेठ लड़खड़ाता हुआ उठकर खड़ा हो गया ।

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”सेठ! वक्त बर्बाद मत करो । हीरे नीचे फेंको, जैसा कि मैंने किया था ।” नीचे से विक्रम ने चिल्लाकर कहा । अब सेठ उसे पहचान गया । डर और गुस्से से उसका समूचा शरीर थर-थर कांपने लगा । ”तुम पहाड़ से नीचे कैसे उतरे थे ? जल्दी से मुझे बता दो ।” सेठ ने विक्रम से पूछा ।

”कुछ हीरे नीचे फेंक दो । जब मेरे पास काफी हीरे हो जाएंगे तो मैं तुम्हें जवाब दे दूंगा ।” विक्रम ने कहा । सेठ के पास कोई चारा नहीं था । वह जल्दी-जल्दी हीरे उठाकर नीचे फेंकने लगा । विक्रम उन्हें को तुमने मौत के मुंह में धकेला था, उनकी हड्‌डियां सभी जगह बिखरी पड़ी हैं ।

तुम उनसे नीचे उतरने का रास्ता क्यों नहीं पूछते? जहां तक मेरा सवाल है, मैं तो चला अपने घर ।” इतना कहकर विक्रम ने घोड़ों का मुंह मोड़ा और अपने घर की ओर चल पड़ा अब उसके पास अपनी मां को देने के लिए ढेरों तोहफे थे ।

सेठ पहाड़ की चोटी पर इधर-उधर दौड़ता हुआ धमकियां देता और चीखता-चिल्लाता रहा, पर अब उसकी कौन सुनने वाला था, वहां अंत में उसका भी वही हाल हुआ, जैसा अनेक लोगों का उससेके भुलावे में आकर हुआ था ।

शिक्षा:

किसी ने सच ही कहा है । इंसान क्ते उसकी दुष्टता का फल किसी-न-किसी दिन अवश्य ही चखना पड़ता है ।


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