हिंद महासागर में महाशक्तियों की होड़ पर निबन्ध | Essay on Competition among Super Powers in Indian Ocean in Hindi!

हिंद महासागर का क्षेत्रफल ७,३४,३०,००० वर्ग किलोमीटर है । पृथ्वी के संपूर्ण जल क्षेत्र का यह २०.३ प्रतिशत भाग है । एशिया, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया इसके तट पर बसे हुए हैं । लगभग ४० देशों की सीमाओं को यह स्पर्श करता है ।

पूर्व में मलक्का जलडमरू मध्य इसे प्रशांत महासागर से जोड़ता है और पश्चिम में स्वेज नहर इसे ब्लैक सागर से जोड़ती है । दक्षिण भाग में यह अटलांटिक महासागर को स्पर्श करता है । उत्तर में यह क्रमश: संकीर्ण होता जाता है और अपने प्रक्षेपण बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर के रूप में दो भागों में करता है ।

अरब सागर पुन: उत्तर की ओर दो भागों में विस्तार पाता है, प्रथम-उत्तर-पूर्व अफ्रीका, अरब-मध्य अदन की खाड़ी और लालसागर के रूप में, द्वितीय-ईरान-अरब के मध्य ओमान तथा फारस की खाड़ी के रूप में । इस प्रकार हिंद महासागर भौगोलिक स्थिति के कारण विश्व राजनीति से अपना गहरा संबंध स्थापित कर लेता है ।

उल्लेखनीय है कि अमेरिका की जल सीमा भी प्रशांत महासागर और अटलांटिक महासागरों से जुड़ी हुई है तथा सामरिक व राजनीतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण अनेक छोटे-छोटे द्वीप हिंद महासागर की गोद में समाए हुए हैं, जिनमें से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं-मॉरीशस, मेडागास्कर, डियागो-गार्शिया, लक्षद्वीप, मालद्वीप और अंडमान निकोबार ।

हिंद महासागर का २८ मिलियन वर्ग मील क्षेत्र पूर्व से पश्चिम की ओर ऑस्ट्रेलिया से अफ्रीका तक और कन्याकुमारी से अंटार्कटिक महाद्वीप तक विस्तृत है । विश्व की जनसंख्या का १/३ भाग इस क्षेत्र में रहता है । इसके तटीय राष्ट्र हैं- दक्षिण अफ्रीका, सोमालीलैंड, भारत, मलेशिया, इंडोनेशिया और ऑस्ट्रेलिया । महत्त्वपूर्ण संपर्क राष्ट्र इथोपिया, सूडान, इराक, ईरान, पाकिस्तान, बँगलादेश और म्याँमार हैं ।

हिंद महासागर की गहराई ७,५४२ मीटर है और इसका गहरा भाग ‘जावा ट्रेंच’ (गर्त)  है । ‘मोजांबिक-मलागासी’ स्थित हिंद महासागर जलधारा को ‘मोजांबिक चैनल’ जोड़ती है । यह विश्व की प्रमुख जलसंधियों में से एक है ।

हिंद महासागर की धाराएँ:

नाम प्रकृति

दक्षिणी विषुवत रेखीय जलधारा गरम और स्थायी

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मोजांबिक धारा गरम और स्थायी

अगुलहास धारा गरम और स्थायी

पश्चिम ऑस्ट्रेलिया की धारा ठंडी और स्थायी

ग्रीष्मकालीन मानसून प्रवाह गरम और परिवर्तनशील

शीतकालीन मानसून प्रवाह ठंडी और परिवर्तनशील

सामान्यतया सागरीय जल में मिलनेवाले प्रमुख खनिजों की मात्रा और उसके संगठन में उन खनिजों का प्रतिशत नीचे दी हुई तालिका से स्पष्ट किया जाता है:

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वस्तुत: हिंद महासागर की स्थिति कुल मिलाकर पूरे विश्व की स्थिति को अभिव्यक्त करती है । इस क्षेत्र में जहाँ १ अरब लोग रहते हैं, वहीं दो नीतियों- ‘शांति नीति’ और ‘युद्ध नीति’ – में टकराव चल रहा है । इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि अमेरिका ने इस क्षेत्र को अपने महत्त्वपूर्ण हितों और स्वार्थों का सर्वाधिक उपयोगी क्षेत्र घोषित कर रखा है । इसी ध्येय से हिंद महासागर में पूरा ढाँचा खड़ा किया गया है ।

ADVERTISEMENTS:

इसमें ३५ अमेरिकी सैन्य अड्‌डे और ठिकाने हैं तथा जिनका केंद्र डियागो-गार्शिया है । यहाँ लगभग १,४०,००० अमेरिकी सैनिक तैनात हैं । अमेरिकी केंद्रीय कमान का मुख्य कार्यक्षेत्र यही है । इसके बाद फारस की खाड़ी के देशों में दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम एशिया तथा पूर्वी अफ्रीका के देश आते हैं ।

यहाँ अपनी सैन्य उपस्थिति को बढ़ाने के लिए तथाकथित साम्राज्यवादी शक्तियाँ सदैव किसी बहाने की तलाश में रहती हैं । अमेरिका के एक सैनिक विशेषज्ञ डी. मिडिलटन ने कहा है हिंद महासागर क्षेत्र अमेरिका की सैन्य-योजनाओं की दृष्टि से पश्चिम यूरोप की भाति एक केंद्रीय महत्त्व का स्थान बन गया है ।

सैन्यीकरण पर जोर:

‘पेंटागन’ के निर्देशों में, जो अब सर्वज्ञात हो चुके हैं, सैन्य नियोजन और सैन्य तैनाती की दृष्टि से दक्षिण-पूर्व एशिया और हिंद महासागर पर ही बल दिया गया है । हिंद महासागर के सैन्यीकरण के लिए ३ हजार करोड़ डॉलर की राशि पंचवर्षीय कार्यक्रमों के लिए निर्धारित है ।

सातवें अथवा छठे अमेरिकी नौ सैनिक बेड़े के एक अथवा दो विमानवाही जहाज अपने सहयोगी जहाजों के साथ अरब सागर में सतत गश्त लगाते रहते हैं । अब अमेरिका ने हिंद महासागर में एक विशेष नौसैनिक बेड़ा तैनात करने की आधारभूत आवश्यकता का उल्लेख करना शुरू कर दिया है ।

ADVERTISEMENTS:

अरब सागर और फारस की खाड़ी में वर्तमान में तैनात अमेरिकी विमान और सैकड़ों गश्ती विमान छोटे परमाणु अस्त्रों से लैस हैं । केन्या, सोमालिया, सऊदी अरब, ओमान, पाकिस्तान और मिस्र के पूरे तटवर्ती क्षेत्र में अमेरिका ने अपने नौसैनिक और वायुसैनिक अड्‌डों का जाल फैला रखा है तथा डियागो-गार्शिया स्थित विशाल सैन्य-अड्‌डा इसमें केंद्रीय भूमिका अदा कर रहा है, जिसके अधिक सुदृढ़ीकरण और आधुनिकीकरण के लिए आधे अरब डॉलर की राशि निर्धारित कर दी गई है ।

हिंद महासागर में सैन्य-शक्ति : एक दृष्टि में

नाविकों और सैनिकों की संख्या १,५०,०००

वायुयानों की संख्या २३०

क्रूजर और विध्वंसक पोतों की संख्या १६

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मालवाहक जहाजों की संख्या ४

विमानवाहक : निमित्व, क्टिहॉक और मिडले ३

बी-५२ बमवर्षक, एफ.बी. – १११, लड़ाकू विमान सैकड़ों सैकड़ों सामरिक परमाणु बम अज्ञात

हिंद महासागर एक शांत क्षेत्र:

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हिंद महासागर उत्तरोत्तर महाशक्तियों की गतिविधियों का केंद्र बनता जा रहा है । इस प्रकार संपूर्ण विश्व का विभाजन कुछ दलों में होना निश्चित है । हिंद महासागर को सात महासागरों का प्रवेश-द्वार कहा जाता है । निश्चित ही इक्कीसवीं शताब्दी में इसी महासागर का जल विश्व प्रारब्ध का नियंता होगा ।

गल भाषा के अक्षर ‘M’ (एम) के आकार का यह महासागर अपनी दो शाखाओं-अरब सागर और बंगाल की खाड़ी सहित उत्तर-पश्चिम में पूर्व-तट से दक्षिण-पूर्व में ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड तक विस्तृत है । इस क्षेत्र में स्थित ३५ देशों के लिए रूस और अमेरिका की नौसेना की उपस्थिति चिंता का विषय बनी हुई है ।

डियागो-गार्शिया, जो कि अमेरिका का वायु और नौसैनिक अड्‌डा है, इस क्षेत्र के सभी देशों के लिए चिंता का कारण है । डियागो-गार्शिया का वायु और नौसैनिक अड्‌डे के रूप में प्रकट होना, शक्ति का त्वरित विस्तारंभ, इजराइल और पाकिस्तान की अमेरिका के साथ सामरिक सहमति, अमेरिका विरोधी देशों द्वारा नए अड्‌डों के पाने का प्रयास आदि गतिविधियों के कारण हिंद महासागर से लगे देश स्वयं को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं ।

दरअसल, हिंद महासागर को शांत क्षेत्र घोषित करने का विचार सर्वप्रथम श्रीलंका ने सन् १९५० के अंतिम चरण में प्रतिपादित किया था । दिसंबर १९७० में श्रीलंका में हुए ‘तृतीय गुट-निरपेक्ष सम्मेलन’ में इस विचार की पुष्टि की गई ।

१९७१ के अंतिम दिनों में इस प्रकरण को ‘संयुक्त राष्ट्र जनरल एसेंबली’ में भी उठाया गया, जहाँ सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित कर हिंद महासागर को एक शांत क्षेत्र घोषित किया गया । इस प्रस्ताव हारा हिंद महासागर में स्थित रूसी अड्‌डों, सैनिक उपयोग के स्थलों तथा महाशक्तियों द्वारा शक्ति-स्पर्धाकी बात परबल दिया गया ।

इस प्रस्ताव को दो भागों में बाँटा जा सकता है:

१. प्रस्तावना भाग,

२. कार्यान्वयन भाग ।

प्रस्तावना भाग मुख्यतः उन मूलभूत कारणों और परिस्थितियों से संबंधित है, जो गतिविधियों को तीव्रतर करते हैं यद्यपि प्रस्तावना भाग कार्यान्वयन भाग से कम महत्त्वपूर्ण है तथापि यह प्रस्ताव के कार्यान्त्रयन भाग को सैद्धांतिक्र, मौक्कि और दार्शनिक पृष्ठभूमि प्रदान करता है । इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है, जहाँ प्रस्तावना-परिच्छेद की सहायता प्रस्ताव की व्याख्या करने के लिए ली गई है ।

प्रस्तावना के कार्यान्वयन भाग में मूल रूप से निन्नलिखित चार तथ्यों का समावेश है:

१. इसमें यह घोषणा की गई है कि भविष्य में हिंद महासागर अऐम हिंद महासागर पर फैला आकाश-हिंद महासागर के शांत क्षेत्र होंगे ।

२. इसमें महाशक्तियों से, जिनमें से एक तो हिंद महासागर का तटीय देश (रूस) ही है, निवेदन किया गया है कि वे ‘इस क्षेत्र में अपनी प्रतिद्वंद्विता ।’ समाप्त करने तथा सैनिक अथवा सामान्य विवादों को निबटाने के लिए क्षेत्र के तृतीय देशों से विचार-विमर्श करें, यह प्रस्ताव उनसे सैन्य प्रसार को रोकने का अनुरोध करता है और यह स्पष्ट माँग करता है कि महाशक्तियाँ इस क्षेत्र से अपने सैनिक अड्‌डे और अधिष्ठानों को समेट लें तथा परमाणु अस्त्रों को हटा दें ।

३. प्रस्ताव की घोषणानुसार, युद्धपोतों और सैन्य हवाई जहाजों को इस क्षेत्र में किसी देश की ‘संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और स्वतंत्रता’-अर्थात् संयुक्त राष्ट्र संघ चार्टर के विरुद्ध इस्तेमाल पर प्रतिबंध है ।

४. प्रस्ताव में यह बात स्पष्ट कर दी गई है कि इस क्षेत्र के शांतिपूर्ण और स्वतंत्र प्रयोग के लिए जलपोतों के आवागमन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा । यह बात प्रस्ताव के अन्य प्रावधानों में स्पष्ट की गई है और अंतरराष्ट्रीय विधि का भी संदर्भ दिया गया है ।

विडंबना यह है कि हिंद महासागर को शांत- क्षेत्र बनाने में बाह्य शक्तियों के अलावा दक्षिण एशिया, अर्थात् इस महाद्वीप के स्वयं के देशों के बीच सहयोग की कमी, अकारण वैमनस्य और प्रतिस्पर्धा रही है ।

संक्षेप में, हिंद महासागर को शांत क्षेत्र बनाने के मार्ग में तीन तत्त्व बाधक हैं :

१. पाकिस्तान की दोहरी परमाणु नीति-एक तरफ तो वह इस क्षेत्र को परमाणु रहित क्षेत्र बनाने की बात करता है और दूसरी तरफ अपने को परमाणु बम से लैस करने के लिए प्रयास करता रहा है । यह बात स्पष्ट है कि पाकिस्तान का इरादा समस्त क्षेत्र को शांतिपूर्ण न बनाकर, भारत को परमाणु-रहित करना रहा है ।

यदि इस क्षेत्र को शांत क्षेत्र बनाना है तो सबसे पहले महाशक्तियों को परमाणुरहित करना होगा, क्योंकि वास्तविक खतरा उन्हीं से है । शांति कभी विभक्त रूप में प्राप्त नहीं की जा सकती, अर्थात्‌केवल इस क्षेत्र के देशों (जिसका अर्थ हुआ भारत) को परमाणुरहित करने का तब तक कोई अर्थ नहीं होता जब तक संपूर्ण विश्व परमाणुरहित न हो जाए ।

२. इस क्षेत्र में पाकिस्तान, चीन और अमेरिका का भारत के विरुद्ध विद्वेषपूर्ण गठबंधन भी इस दिशा में एक अवरोध है । अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को ३ अरब डॉलर का सैन्य-सामान देने और इस क्षेत्र में पाकिस्तान द्वारा अमेरिका का ‘प्रहरी’ की तरह भूमिका निभाने से शांत- क्षेत्र की कल्पना धराशायी हो जाती है ।

३. बँगलादेश, श्रीलंका और नेपाल का दृष्टिकोण भी भारत के प्रति ईमानदार नहीं है । श्रीलंका द्वारा पश्चिमी देशों का समर्थन, मूर द्वीप का राजनीतीकरण तथा नेपाल द्वारा अपने को शांत- क्षेत्र के रूप में मनवाने की जिद इस क्षेत्र में हिंद महासागर के शांत- क्षेत्र विचारधारा के विरुद्ध रही है ।

महाशक्तियों की होड़:

हिंद महासागर के सामरिक रूप से महत्त्वपूर्ण हो जाने और महाशक्तियों द्वारा इस क्षेत्र पर अधिकार-स्पर्धा में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तीन प्रमुख कारक रहे हैं:

१.द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् जब ब्रिटिश साम्राज्य एक-एक करके एशियाई और अफ्रीकी देशों से सिमटता गया तो उसका स्थान लेने के लिए विश्व- नेतृत्व करने का दावा करनेवाला अमेरिका ‘शून्य-सिद्धांत’ के बहाने अन्य सागरों के साथ इस सागर के विभिन्न खाड़ियों और किनारों पर अपना सैन्य वर्चस्व स्थापित करने में जुट गया ।

२.सन् १९६० के दशक में रूस द्वारा परमाणु अस्त्रों और लंबी आणविक प्रक्षेपास्त्रों की क्षमता प्राप्त कर लेने से अमेरिका और रूस में इस महासागर पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए होड़ लग गई । अमेरिका ने रूस का निशाना लेकर डियागो-गार्शिया में सैन्य- अड्‌डों का निर्माण कार्य आरंभ कर दिया । चूकि इसमें ग्रेट ब्रिटेन का पूरा सहयोग प्राप्त था, अत: इसे ‘आग्ल- अमेरिका’ योजना के नाम से भी जाना जाता है ।

३.अमेरिका, यूरोपीय देशों तथा रूस द्वारा हिंद महासागर के तटीय क्षेत्रों का आर्थिक दोहन किया गया । हिंद महासागर पश्चिम और सुदूर पूर्व में व्यापार और संचार का प्रमुख स्रोत सिद्ध हो रहा था, क्योंकि इस हिंद महासागरीय क्षेत्र में विश्व का १० प्रतिशत रबर, टिन, जूट तथा चाय उत्पादित होता है ।

इनके अतिरिक्त इस क्षेत्र में कोबाल्ट, टंगस्टन, ताँबा, मैंगनीज, चाँदी, नमक, सल्फर और कोयला प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं । चावल का अत्यधिक भंडार होने के साथ-साथ यहाँ विश्व का ६० प्रतिशत तेल, ९८ प्रतिशत हीरा, ६० प्रतिशत यूरेनियम तथा ४० प्रतिशत सोना सुरक्षित है ।

अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि हिंद महासागर में शांति और सुरक्षा की समस्या अत्यंत गंभीर और महत्त्वपूर्ण हो गई है । तथाकथित शक्तियों की होड़ के फलस्वरूप यह क्षेत्र विश्व का सर्वाधिक तनावग्रस्त क्षेत्र बनता जा रहा है ।

विगत २५ वर्षों में यहाँ छोटे- बड़े अनेक विस्फोट हो चुके हैं । स्थिति आज भी विस्फोटक बनी हुई है । पश्चिम एशिया के अधिकांश भाग इसी क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं । अफगानिस्तान और कंपूचिया भी प्रकारांतर से हिंद महासागर से संबद्ध हैं ।

हिंद महासागरीय संकट का लंबा इतिहास होते हुए भी उसका वर्तमान विग्रह इसी शताब्दी के आठवें दशक में उभरा है । सन् १९७१ में ‘बँगलादेश मुक्ति-संग्राम’ के दौरान भारत को सबक सिखाने और पाकिस्तान के साहस को बढ़ाने के लिए अमेरिका ने विमानवाहक ‘इंटरप्राइज’ के नेतृत्व में प्रशांत स्थित अपने सातवें बेड़े ‘सेवेंथ फ्लीट’ को बंगाल की खाड़ी में भेजा था; यद्यपि वह कोई खास करिश्मा नहीं दिखा पाया, क्योंकि उसके पीछे-पीछे रूसी युद्धपोत भी इस क्षेत्र में भारत के समर्थन में जा पहुँचे ।

अकबर १९७३ में अरब-इजराइल युद्ध के दौरान हिंद महासागर में पुन: अमेरिका तथा रूसी युद्धपोतों का जमाव हुआ । इसके बाद अमेरिकी-ईरानी संकट तथा सन् १९८० में इराकी-ईरानी संघर्ष के दौरान दो विमानवाहकों के साथ २५-३० अमेरिकी युद्धपोत खाड़ी क्षेत्र में अपनी रक्षा के लिए पहुँच गए ।

उस समय इस क्षेत्र में रूसी युद्धपोतों की संख्या भी १५ तक हो गई । सन् १९७१ के भारत-पाक युद्ध तथा १९७३ के अरब-इजराइल संघर्ष के बाद से ही अमेरिकी प्रशासक इस क्षेत्र में स्थायी सैनिक उपस्थिति की आवश्यकता अनुभव करने लगे । उन्हें ‘डियागो-गार्शिया द्वीप’ सर्वाधिक उपयुक्त दिखाई दिया ।

अमेरिका चाहता क्या है:

निम्नलिखित बिंदुओं को समझने के बाद अमेरिका की मनशा जाहिर हो जाती है:

i. फारस- क्षेत्र में अमेरिका के हितों की रक्षा ।

ii. मध्य-पूर्व में अमेरिका के कूटनीतिक हितों को साधने के लिए शक्ति-प्रयोग को धमकी देना ।

iii. इस क्षेत्र में समुद्री और वायु मार्गों को अमेरिकी सैनिक, व्यापारिक नौकाओं और वायुयानों को किसी भी देश द्वारा हस्तक्षेपित होने से सुरक्षित रखना ।

iv. अन्य उद्‌देश्यों की प्राप्ति के लिए तटीय और उनके आस-पास के देशों में हस्तक्षेप करना ।

v. इस क्षेत्र में रूसी शक्ति को बराबर कमजोर बनाना ।

vi. अमेरिका का इस क्षेत्र में परमाणु-लक्ष्य भी है, अर्थात् आवश्यकतानुसार अथवा सुविधानुसार रूस के विरुद्ध बैलिस्टिक प्रक्षेपास्त्रों से युक्त पनडुब्बियों को इस क्षेत्र में तैनात करना । दरअसल, अमेरिका २,५०० मील की दूरी तक मार करनेवाले प्रक्षेपास्त्रों- ‘ट्राइडेंट-१’ और ‘पोलरि-३’ का स्थापन इस क्षेत्र में सामरिक पनडुब्बियों पर करना चाहता है । इल लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अमेरिका ने दो तरीके अपनाए हैं, जो निम्नलिखित

१. डियागो-गार्शिया में सामरिक सैन्य-अड्‌डे स्थापित करके अमेरिका ने वहाँ अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली है । डियागो-गार्शिया का, जिसे अमेरिका ने ग्रेट ब्रिटेन से सर १९६५ में एक समझौते के अंतर्गत प्राप्त किया था, सामरिक महत्त्व इसी से का जा सकता है कि इसपर १,२०० फीट लंबी हवाई- पट्‌टी है, जो हर प्रकार के सैन्य-जहाजों से लेकर यात्री-जहाजों को उतार सकती है ।

वहाँ पर आपूर्ति-सामानों को गिराने और ईंधन लेने की सुरक्षित व्यवस्था है । इस द्वीप पर ८२० सैनिकों के रहने के लिए पर्याप्त बैरक तथा एक विशाल भंडार उपलब्ध है । इसके साथ ही नौसैनिक जहाजों के लिए उपयुक्त किनारे काटे गए है ।

२. अमेरिका की दूसरी खतरनाक ताकत है ‘रैपिड डिप्लॉयर्मेट फोर्स’ । इसमें ५ सैनिक डिवीजन, २ नौसैनिक डिवीजन, ‘बी-५२’ नामक बमवर्षकों के दो भाग, ३ विमान-परिवाहक तथा पर्याप्त संख्या में सुरक्षा और आपूर्ति नौसैनिक जहाज भी है । यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका द्वारा निर्मित ये दोनों ही सैन्य-व्यवस्थाएँ भारत के लिए भयावह हैं ।

अमेरिका का कथित बेड़ा (सेवेंथ फ्लीट) उसी क्षेत्र के निकट पड़ाव डाले हुए है । डियागो-गार्शिया द्वीप भारत के दक्षिण तट से मात्र १,६०० मील की दूरी पर स्थित है और सभी भारतीय सैन्य आर्थिक केंद्र वहाँ स्थित दूरमारक बमवर्षकों तथा अन्य लड़ाकू मारक विमानों के निशाने पर हैं । इस कारण डियागो-गार्शिया के सैन्य-अड्‌डों की स्थापना पर भारत तथा इस क्षेत्र के अन्य तटवर्ती देशों का विरोध स्वाभाविक है ।

‘रैपिड डिप्लॉयमेटं कोर्स’ से भारत को खतरा:

‘रैपिड डिप्लॉयमेंट फोर्स’ से भारत को निम्नलिखित खतरे हैं:

१. अमेरिकी सुरक्षा नीति की कड़ी के रूप में पाकिस्तान भारत पर हमला भी कर सकता है, जैसा कि ऐतिहासिक अनुभव बताते हैं ।

२. ग्रेट ब्रिटेन अमेरिका को डियागो-गार्शिया द्वीप सैन्य-अड्‌डे के रूप में इस्तेमाल करने के लिए दे चुका है, जिसे अमेरिका ने परमाणु अस्त्रों से लैस कर दिया है । यह द्वीप वास्तव में मॉरीशस का है, जिसे उसने ग्रेट ब्रिटेन को पट्‌टे पर दिया था । इतना ही नहीं, उससे भारत के लक्षद्वीप और अंडमान निकोबार द्वीप समूह, जहाँ अभी कई द्वीप निर्जन हैं, के लिए विशेष खतरा उत्पन्न हो गया है ।

३. फारस की खाड़ी, जहाँ से बड़े-बड़े टैंकरों के द्वारा पश्चिमी देशों को तेल आता है, की सुरक्षा के लिए अमेरिका ने घोषणा की थी कि वह इसके लिए सैन्य-काररवाई जैसे कदम भी उठा सकता है ।

इसका कारण यह है कि ईरान ने घोषणा की थी कि वह फारस की खाड़ी, जहाँ तेल के अथाह भंडार हैं, और जो पश्चिमी देशों को आयात किए जाते हैं, को उड़ा देगा । अत: इस खतरे को रोकने के लिए अमेरिका हर संभव काररवाई करने की घोषणा कर चुका है ।

अब उसने इस क्षेत्र में अपनी सैन्य-गतिविधियाँ तेज कर दी हैं । मुख्य बात तो यह है कि भारत की लगभग ५,७०० किलोमीटर लंबी समुद्री सीमा है । बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में छोटे-बड़े उसके बारह सौ द्वीप हैं, जिनमें अंडमान निकोबार जैसे महत्त्वपूर्ण द्वीप भी शामिल हैं ।

‘समुद्री क्षेत्र विधेयक १९७३’ के अनुसार, महासागर में दो सौ मील तक उसका आर्थिक क्षेत्र है, इसी में ‘बॉम्बे हाई’ है, जहाँ से उसे प्रचुर मात्रा में तेल प्राप्त होता है, इसी प्रकार हिंद महासागर में शांति और सुरक्षा का प्रश्न भारतीय सेना तथा आर्थिक सुरक्षा से गहन रूप से जुड़ा हुआ है ।

इतना ही नहीं, पश्चिम-एशिया का विपुल तेल भंडार भी इसी क्षेत्र में स्थित है । महाशक्तियों की सैन्य उपस्थिति भारत के लिए विशेष रूप से चिंता का विषय है । इसके साथ ही अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को अत्याधुनिक शस्त्रास्त्रों की आपूर्ति की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि भारत को पाकिस्तान से वास्तविक खतरा है ।

शांति के लिए किए जाए उपाय कितने कारगर:

हिंद महासागर को शांत क्षेत्र घोषित करने का प्रस्ताव सर्वप्रथम सन् १९६४ में आयोजित गुट-निरपेक्ष आदोलन के काहिरा सम्मेलन में रखा गया था । सम्मेलन में भाग लेनेवाले देशों ने हिंद महासागर को परमाणु शक्ति रहित क्षेत्र भी बनाने का समर्थन किया ।

ADVERTISEMENTS:

तत्पश्चात् सन् १९७० में गुट-निरपेक्ष आदोलन के लुसाका सम्मेलन में इस संबंध में एक प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें हिंद महासार में बाह्य शक्तियों के विस्तार पर रोक तथा इसे शांत क्षेत्र में बदलने की जोरदार माँग की गई ।

सन् १९७१ में श्रीलंका ने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंद महासागर को शांत-क्षेत्र के रूप में स्थापित करने की प्रबल माँग की । तत्पश्चात् इसके लिए एक समिति गठित की गई, किंतु अमेरिका और पश्चिमी देशों के असहयोग के चलते आगे कोई काररवाई न हो सकी, जबकि रूस ने इसका समर्थन किया था ।

संयुक्त राष्ट्र संघ के उनतालीसवें अधिवेशन में गुट-निरपेक्ष देशों ने उस प्रस्ताव को पारित कर लिया था, जिसमें कहा गया था कि हिंद महासागर को शांत- क्षेत्र बनाने की घोषणा पर अमल किया जाए । भारत, मेडागास्कर, जिबूती तथा कुछ अन्य गुट-निरपेक्ष देशों के प्रतिनिधियों ने सुझाव दिया था कि आगामी सम्मेलन के आयोजन से पूर्व हिंद महासागर में सैन्य-गतिविधियाँ सीमित करने के लिए ठोस कदम उठाने का उल्लेख किया जाए ।

अगस्त १९७२ में गुट-निरपेक्ष देशों के विदेश मंत्रियों के जॉर्ज टाउन में संपन्न सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र संघ की घोषणा का अनुमोदन किया गया । बाद में गुट-निरपेक्ष देशों के अल्जीयर्स सम्मेलन (सितंबर १९७३) हवाना सम्मेलन (मार्च ११९७-५ लीमा सम्मेलन (अगस्त १९७७) और कोलंबो सम्मेलन (मई १९७९) में इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया गया ।

दिल्ली में हुए गुट-निरपेक्ष सम्मेलन और राष्ट्रमंडल सम्मेलन में भी हिंद महासागर को शांत-क्षेत्र बनाने तथा महाशक्तियों द्वारा वहाँ से सैन्य-अड्‌डों को हटाने की जोरदार माँग की गई थी । सन् १९८० में रूस ने फारस खाड़ी तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में सुरक्षा सुनिश्चित करने का पाँच सूत्री कार्यक्रम प्रस्तुत किया । २७ नवंबर, १९८६ को भारतीय संसद् को संबोधित करते हुए रूस के तत्कालीन राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाच्चोव ने हिंद महासागर की स्थिति को सामान्य बनाने के लिए एक व्यापक कार्यक्रम से परिचय भी कराया था ।

अप्रैल १९८१ में हिंद महासागर में शांति स्थापना के प्रश्न पर एक अंतरराष्ट्रीय व्याख्यानमाला का आयोजन ‘सोची’ में किया गया, जिसका आयोजन रूस के संयुक्त राष्ट्र संघ तथा राजनीतिक और सुरक्षा परिषद् मामलों के विभाग की संस्था द्वारा किया गया, जिसमें अमेरिका, रूस, भारत, श्रीलंका तथा हिंद महासागर विषयक संयुक्त राष्ट्र समिति के लगभग सभी देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया ।

व्याख्यानमाला में जिन विषयों पर गंभीरता से विचार-विमर्श किया गया था, वे हैं:

1) विश्वास बढ़ाने के उपाय

2) शांत-क्षेत्र की स्थापना पर क्षेत्रीय तनाव का प्रभाव

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3) प्रमुख शक्तियों के लक्ष्म

4) हिंद महासागर में शांत-क्षेत्र का उद्‌देश्य और उसका कार्यान्वयन सन १९९० के दशक में इस दिशा में न तो कोई ठोस विचार किया गया और न ही पूर्व कार्य-योजनाओं का कार्यान्वयन किया गया । इसका कारण रहा-अमेरिका और उसके सहयोगियों का उग्र विरोध ।

अमेरिका नव-भूमंडलवाद की नीति को आगे बढ़ा रहा है और विश्व के इस भाग के विपुल भौतिक संसाधनों को अपने नियंत्रण में रखने का प्रयास कर रहा है । मुख्य बात तो वहाँ के आर्थिक दोहन की है । इन्हीं कारणों से अमेरिका उस क्षेत्र में अपनी सामरिक शक्ति बढ़ा रहा है ।

ऑस्ट्रेलिया के तट से अफ्रीका के पूर्वी तट तक सागर में करीब ३५ अमेरिकी सैन्य-अड्‌डे निर्मित किए गए हैं । वहाँ शक्तिशाली नौसैनिक सुप, जिसमें सैकड़ों युद्धपोत, विमानवाहक गाइडेड मिसाइल कूजर तथा नाभिकीय पनडुब्बियाँ तैनात हैं ।

उस क्षेत्र की वायु-सीमा में सामरिक बमवर्षक विमान हमेशा गश्त लगाते रहते हैं । इस तरह इन देशों पर राजनीतिक और आर्थिक दबाव के साथ-साथ सैनिक दबाव भी डाला जाता है ।

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